हर चुनाव में दलों व उम्मीदवारों की ही नहीं,
बल्कि मीडिया की भी परीक्षा हो जाती है
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सुरेंद्र किशोर
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इस देश में हर चुनाव के समय मीडियाकमियों की भी अघोषित परीक्षा हो जाती है।
लोगबाग जान जाते हैं कि कौन कितना निष्पक्ष है और कौन नहीं है।
अगले कुछ महीनों तक देश में चुनाव का ही गर्मागर्म माहौल रहेगा।
इसमें मीडिया की जिम्मेदारी बढ़ी हुई रहेगी।
उम्मीद है कि मीडिया का अधिकांश इस परीक्षा में खरा उतरेगा।
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मीडिया के किसी अभियान का चुनाव नतीजे पर निर्णायक असर नहीं पड़ता,ऐसा मैंने पिछले कई दशकों से देखा-समझा है।
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कुछ कारणवश सन 1971 के लोक सभा चुनाव के समय अपवादों को छोड़कर मीडिया का अधिकांश
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ था।
इसके बावजूद इंदिरा गांधी की पार्टी जीत गयी।
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1977 के लोक सभा चुनाव से ठीक पहले तक मीडिया इंदिरा गांधी के पक्ष में था।
यूं कहिए कि इमरजेंसी के कारण उसका गला दबा दिया गया था।
चुनाव की घोषणा के बाद कुछ खुलापन आया।
पर,इमरजेंसी के आतंक का असर फिर भी मीडिया पर था।
इसके बावजूद इंदिरा गांधी का पार्टी बुरी तरह हार कर सत्ता से बाहर हो गयी।
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सन 1995 के बिहार विधान सभा के चुनाव के समय बिहार क्या देश का मीडिया मुख्य मंत्री लालू प्रसाद के सख्त खिलाफ था।
मंडल आरक्षण का भी असर था।
जहां तक मुझे याद है कि सिर्फ सुरेंद्र प्रताप ंिसंह ने द टेलिग्राफ में साफ-साफ लिखा कि लालू प्रसाद दुबारा सत्ता में आ रहे हैं।
आए भी।
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जब मीडिया का जब चुनाव नतीजे पर सीमित असर है तो काहे को अपनी साख को दंाव पर लगाया जाए !!!
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पैसे,जाति,विचार धारा तथा अन्य दृश्य-अदृश्य बंधनों के हाथों कुछ मजबूर लोगों को छोड़कर मीडिया के बाकी लोग यानी अधिकांश भरसक अगले चुनाव की वस्तुपरक रिपोर्टिंग करके अपनी साख बढ़ाएं या कायम रखें,मेरी तो यही सलाह रहेगी।
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सन 1984 के लोक सभा चुनाव के समय एक राष्ट्रीय अखबार के कर्ताधर्ता ने अपने संवादाताओं को यह संदेश भिजवा दिया कि कांगेस को
हरवा दो।
यानी,ऐसी रिपोर्टिंग करो कि लगे कि कांग्रेस जीतने वाली नहीं है।
पर,कांग्रेस की अभूतपूर्व जीत हो गयी।
दूसरी ओर, वह अखबार ही हार गया।
उसका प्रसार इतना घटने लगा कि
फिर वह उठ नहीं सका।
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20 अगस्त 23
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