सोमवार, 7 अगस्त 2023

    अपने ही नियमों का पालन 

   करे फिल्म सेंसर बोर्ड

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    सुरेंद्र किशोर

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भाजपा के पूर्व राज्य सभा सदस्य आर.के. सिन्हा ने फिल्म सेंसर बोर्ड के काम काज पर सवाल उठाया है।

आज के दैनिक ‘आज’ में छपे अपने लेख में सिन्हा ने जो मुद्दे उठाए गए हैं,उन पर केंद्र सरकार  को ध्यान देना चाहिए।

केंद्र सरकार आम तौर पर कुल मिलाकर अच्छा काम कर रही है।

किंतु मुझे भी इस बात पर आश्चर्य होता है कि सेंसर बोर्ड से उनके ही नियमों का पालन क्यों नहीं करवा पा रही है !

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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि 

‘‘सन 2014 से नरेंद्र मोदी के देश का प्रधान मंत्री बनने की अवधि को भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण काल के रूप में जाना जाएगा।’’

  गृह मंत्री की बात आंशिक रूप से ही सही है।

क्योंकि इस देश की फिल्मी दुनिया पर मोदी का कोई वैसा असर नहीं है।

 मैं फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड की चर्चा करूंगा।

  लगता है कि कि उस बोर्ड पर मोदी सरकार का तनिक भी सकारात्मक असर नहीं है।

इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।

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मैंने पहली बार सन 1961 में फिल्म देखी थी।

जवाहरलाल नेहरू-लाल बहादुर शास्त्री के शासन काल में ऐसी शालीन

और गरिमायुक्त फिल्म बनती थीं जिन्हें आप परिवार के साथ देख सकते थे।

  उसके बाद सत्तर के दशक में गिरावट शुरू हो गई।

सेक्स-हिंसा प्रधान फिल्में बनने लगीं।

भोजपुरी फिल्मों का तो आज और भी बुरा हाल है।

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नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के प्रारम्भिक वर्षों में सेंसर बोर्ड को सुधारने की कोशिश हुई थी।पर,सुधार नहीं हुआ।

लगता है कि मोदी सरकार ने हथियार डाल दिए।

क्या मुम्बई का फिल्मी जगत भारत में ही है न !!!

सेंसर बोर्ड का सिने मेटोग्राफी एक्ट, 1952 के तहत गठन हुआ था।

बोर्ड एक वैधानिक संस्था है।

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पचास और साठ के दशकों में बोर्ड के नियमों का पालन करते हुए ही फिल्में बनती थीं 

और उन्हें प्रमाण पत्र मिलते थे।

बहुत पहले मैंने प्रमाण पत्र देने के नियम पढ़े थे।

पूरा तो याद नहीं।

किंतु आज जो फिल्में बन रही हैं,उनमें से शायद ही कोई फिल्म नियम की कसौटियों पर वे खरी उतरती हों।

जहां तक मेरी जानकारी है,सेंसर के नियम बदले नहीं गए हैं।

(नियम गुगल पर उपलब्ध हैं।)हां कभी -कभी एक बात जरूर हो गई लगती है ।

वह यह कि मुम्बई के फिल्म जगत का अधिकांश इस देश की मूल स्थापनाओं को नष्ट-भष्ट करने वाली देसी-विदेशी  ताकतों के हाथों चला गया है।

अपवादस्वरूप ही अब अच्छी फिल्में बन रही हैं।

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इस बीच कुछ साल पहले एक फिल्ल्मी हस्ती आदिल हुसेन ने कहा था कि 

‘‘साठ के दशक में अच्छी फिल्में बना करती थीं।

फिल्मकारों की जिम्मेदारी है कि वे अब भी अच्छी फिल्में दें।’’

  आर्ट सिनेमा,बाॅलीवुड मेनस्ट्रीम सिनेमा और अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में अपनी पहचान बनाने वाले आदिल ने कहा  कि ‘‘फिल्मकार यह बहाना न बनाएं कि हम दर्शकों की पसंद की फिल्में बना रहे हैं।’’

आदिल का तो आरोप है कि दर्शकों का मूड हम फिल्म मेकर्स ने ही बदला है।

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  इधर मेरा मानना है कि फिल्मकार सेंसर के उन नियमों का पालन भर करें जो नियम नेहरू के कार्यकाल में बने थे।

मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार यह सुनिश्चित करे कि सेंसर बोर्ड में नियम पसंद,ईमानदार व निडर लोग ही रखें जाएं। 

‘‘नदिया के पार’’ और ‘‘बागवान’’ जैसी फिल्मों से कहां किसी को एतराज होता है !

 क्या यह उम्मीद की जाए कि कम से कम भाजपा की केंद्र सरकार 

अश्लीलता और अन्य तरह के भटकावों के इस प्रदूषण को रोकने की कोशिश करेगी ?

याद रहे कि यह प्रदूषण पीढ़ियों को बर्बाद कर रहा है।

यदि ऐसा ही जारी रहा कि अमित शाह की सदिच्छा मिट्टी में मिल जाएगी।

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6 अगस्त 23.



 


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