शनिवार, 30 दिसंबर 2023

 ‘‘मोदी सरकार के 10 वर्षों में प्रत्यक्ष कर 

संग्रह तीन गुना होने की उम्मीद’’

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आज के दैनिक ‘प्रभात खबर’ में इसी शीर्षक के अंतर्गत नई दिल्ली से एक खबर छपी है।

खबर एजेंसी की है,पर किसी अन्य अखबार में मैं नहीं देख पा रहा हूं।

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खबर के अनुसार प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के 10 वर्षों के कार्यकाल में व्यक्तिगत आयकर तथा काॅरपोरेट कर संग्रह में बड़ी वृद्धि हुई है।

चालू वित्तीय वर्ष के अंत मंे इसके 19 लाख करोड़ रुपए से अधिक होने की संभावना है।

वित्त वर्ष 2013-14 में 6.38 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 2022-23 में 16.61 लाख करोड़ रुपए हो गया था।

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जानकार लोग बताते हैं कि आय बढ़ेगी तो विकास,कल्याण और आंतरिक -बाह्य सुरक्षा के काम बेहतर हांेगे।

काम हांेगे तो जनता खुश होगी।

जनता खुश होगी तो सरकार चुनाव जीतती जाएगी।

यानी, मोदी धार्मिक भावना उभार कर वोट नहीें ले रहे हंै बल्कि ठोस आर्थिक काम करके वोट ले रहे ंहंै।

याद रहे कि टैक्स चोरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई से राजस्व बढ़ता है।

वह कार्रवाई भरसक तेजी से बेलाग लपेट हो रही है।

उस कार्रवाई से दुखी कौन-कौन लोग हो रहे हैं ?

कौन लोग ‘‘पिता-पुकार’’ कर रहे हैं ?

यह सब यहां बताने की जरूरत नहीं है।

सब लोग जान रहे हैं।

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कहते हैं कि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के 10 साल के कार्यकाल में करीब 20 लाख करोड़ रुपए के घोटाले हुए।

नीतीश कुमार जैसे इक्के -दुक्के नेताओं को छोड़कर गैर भाजपा दलों के अधिकतर शीर्ष नेतागण घोटालों के गंभीर आरोपों में कोर्ट व जांच एजेंसियों के चक्कर लगा रहे हैं।

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भ्रष्टाचार के आरोप में आने वाले हफ्तों में अनेक नेता लोग जेल जा सकते हैं।

भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने और सजा होने पर वोट नहीं बढ़ते।हाल का इतिहास इसका सबूत है।

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 उससे पहले सन 1985 में तब के प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि हम दिल्ली से 100 पैसे भेजते हैं, किंतु गांवों तक उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं।

(यह सब एक दिन में नहीं हुआ था।आजादी के तत्काल बाद से ही लूट शुरू हो गयी थी।समय के साथ लूट बढ़ती गयी।

100 पैसे के घिसकर 15 पैसे होने में समय तो लगता ही है।

ध्यान में लाइए कि उस बीच हमारे देश को कौन-कौन ‘महारथि’ चला रहे थे ! किस तरह से चला रहे थे ! 

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एक तरफ घोटालों पर काबू करके कोई सरकार अपनी आय तीन गुनी बढ़ा लेती है।

दूसरी तरफ कोई सरकार 100 पैसे में से 85 पैसे छोटे-बड़े घोटालों को जाने-अनजाने समर्पित कर देती है।

जनता इन में से किसे पसंद करेगी ?

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कल्पना कीजिए कि एक किसान अपने पूर्वज की सौ एकड़ जमीन में से 85 एकड़ बेच कर ऐय्याशी कर लेता है।

दूसरा किसान अपनी मेहनत व उद्यम से कमा कर और अधिक जमीन खरीदता है और अपनी पुश्तैनी जमीन की अपेक्षा उससे तीन गुनी जमीन का मालिक बन जाता है।

लोगबाग किसे सफल किसान कहेंगे ?

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30 दिसंबर 23

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पुनश्चः

कई दशक पहले मैं पटना सचिवालय में वाणिज्य कर विभाग के मंत्री के पास बैठा था।

मैंने पूछा कि आपकी सरकार को इस मद में सिर्फ करीब 2 हजार करोड़ रुपए ही मिलते हैं जबकि आंध्र प्रदेश सरकार को 6 हजार करोड़ रुपए मिलते हैं।इतना अंतर क्यों ?

उस मंत्री ने ,जो मेरे पुराने परिचित रहे हैं,कहा कि यदि हमारा यह सचिवालय ठीक हो जाए तो एक हजार करोड़ रुपए की आय अगले साल से ही बढ़ जाएगी।

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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

 बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी पूर्व प्राचार्य व लेखक 

डा.विनोद कुमार सिंह की याद में स्मरण ग्रंथ प्रकाशित

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सुरेंद्र किशोर

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इस मृत्यु लोक से एक दिन तो सबको जाना है !

पर,ऐसा भी होता है कि कुछ लोग चले तो जाते हैं किंतु उनकी यादें नहीं जातीं।

छपरा के डा.विनोद कुमार सिंह वैसे ही कुछ लोगों में रहे हैं।

कई कालेजों के प्राचार्य रहे विनोद बाबू बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी थे।

वे एकाधिक पुस्तकों के लेखक थे और एक जुझारू विश्वविद्यालय शिक्षक नेता भी।

वैचारिक दृढता और व्यक्तिगत ईमानदारी के साथ-साथ वे प्राचार्य के रूप में भी कठोर अनुशासन प्रिय थे।

मेरी नजर में वे ‘बहुत बड़े आदमी’ थे।

मैंने बौने लोगों को भी बड़े-बड़े पदों पर पहुंचते और भौतिक उपलब्धियां हासिल करते देखा है।

विनोद बाबू थोड़ा समझौता कर लेते तो देश के किसी भी

बड़े ‘मंच’ पर उन बौनों से बीस नजर आते।

विनोद बाबू का 28 दिसंबर 2020 को निधन हो गया।

ऐसे प्रेरणादायक व्यक्तित्व की स्मृति में डा.विनोद कुमार सिंह स्मरण ग्रंथ का प्रकाशन हुआ है।यह ग्रंथ नई पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक साबित होगा। 

ग्रंथ के संपादक द्वय हैं जाने माने लेखक प्रो.पृथ्वीराज सिंह और वरिष्ठ पत्रकार शिवानुग्रह नारायण सिंह।

करीब ढाई सौ पृष्ठों के इस संस्मरण ग्रंथ में विनोद बाबू पर मेरा भी एक संस्मरणात्मक लेख प्रकाशित हुआ है ।वह  मैंने उनके निधन के एक दिन बाद अपने फेसबुक वाॅल पर लिखा था।

वह लेख यहां प्रस्तुत है--

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याद रहेंगे शिक्षक नेता विनोद बाबू !

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बिहार विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष व महा 

सचिव रहे डा.विनोद कुमार सिंह का कल निधन हो गया।

वह 82 साल के थे।

शब्द के सही अर्थों में समाजवादी, दिवंगत विनोद बाबू 

को मैं दशकों से जानता था।

वैसे व्यक्ति इक्के -दुक्के ही मिलते हैं।

वे कई काॅलेजों के प्राचार्य रह चुके थे।

अच्छे शिक्षक और उतने ही अच्छे वक्ता भी थे।

   प्राचार्य के रूप में भी कठोर प्रशासक  थे।

  सीतामढ़ी के उस गोयनका काॅलेज के भी प्राचार्य रहे जहां दिवंगत केंद्रीय मंत्री डा.रघुवंश प्रसाद सिंह शिक्षक थे।

  विनोद बाबू जब भी पटना आते थे,मैं सब काम छोड़कर उनसे मिलने जाता था।

वे मुुजफ्फर पुर जिले के गायघाट के पूर्व विधायक (1977)विनोदानंद प्रसाद सिंह के कौटिल्य नगर स्थित आवास में ठहरते थे।

दोनों में अटूट दोस्ती थी। 

परस्पर सम्मान और स्नेह का भाव देखते बनता था।

 विनोदानंद जी के निधन के बाद वह मिलन स्थल नहीं रहा।

विनोद बाबू भी अस्वस्थ रहने लगे।

छपरा के अपने स्कूली सहपाठी सिद्धेश्वर तथा कुछ अन्य लोगों से विनोद बाबू का हालचाल मैं बीच -बीच में पूछता रहता था।

  पहले तो मैं उन्हें ही कभी -कभी फोन भी कर लिया करता था।

 पर जब पता चला कि उन्हें बोलने में दिक्कत होती है तो फोन करना छोड़ दिया।

उनके बारे में इतना ही कह सकता हूं कि यदि हम एक नगर में होते तो मैं सिर्फ उनकी बातें सुनने व कुछ सलाह मशविरा करने के लिए सप्ताह में दो-तीन  दिन तो उनके पास जरूर जाता।

वे अभिभावक की तरह थे।

  वे एक साथ बहुत कुछ थे।

समाजवादी,साहित्यकार,प्रभावशाली वक्ता ,शिक्षक नेता और दोस्तों के दोस्त। 

एक बार डा.नामवर सिंह ने भी उनकी सार्वजनिक रूप से  प्रशंसा की थी।

 स्वतंत्रता सेनानी दिवंगत त्रिगुणानंद सिंह के पुत्र विनोद बाबू सारण जिले के बनिया पुर प्रखंड के पिपरा रत्नाकर गांव के मूल निवासी थे।

बाद में छपरा के अपने आवास में रहते थे।

 कई पुस्तकों के लेखक विनोद बाबू का समाजवादी आंदोलन में बड़ा योगदान था।

जहां तक मेरी जानकारी है,यदि उन्होंने स्वाभिमान से थोड़ा समझौता किया होता तो वे राजनीति में भी किसी महत्वपूर्ण पद पर रहे होते।

  किंतु उन चीजों का उनके लिए कोई खास मतलब नहीं था।

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 विनोद बाबू ने एक बार किस तरह अपने मित्र के सम्मान की रक्षा के लिए पूरी किताब लिख डाली,उसका मैं गवाह हूं।

  काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान ने ऐतिहासिक शोध ग्रंथ माला के तहत दिल्ली विश्व विद्यालय के शिक्षक रहे विनोदानंद प्रसाद सिंह को शहीद सूरज नारायण सिंह पर किताब लिखने का भार सौंपा था।

कुछ अग्रिम भी मिला था।

विनोदानंद सिंह ने किताब पर कुछ सामग्री जुटा भी ली थी।

पर,इस बीच वे सख्त बीमार हो गए।

   अब उनके सामने धर्म संकट यह था कि किताब पूरी कैसे हो !

या फिर अग्रिम राशि लौटा दी जाए !

  विनोदानंद जी ने अपनी पीड़ा एक दिन विनोद बाबू को बताई।

 विनोद बाबू ने तुरंत उन्हें कह दिया कि मैं आपको इस धर्म -संकट से अभी मुक्त करता हूं।

 आपका यह अधूरा काम मैं पूरा कर दूंगा।

उन्होंने ‘मृत्यंुजय सूरज नारायण सिंह’  नाम से किताब लिख डाली।

सूरज बाबू पर संभवतः यह सबसे अच्छी किताब है।

--सुरेंद्र किशोर

29 दिसंबर 2020

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‘ज्ञानं भारः क्रिया विना’

डा.विनोद कुमार सिंह स्मृति ग्रंथ

सारव प्रकाशन,

बी.-12 प्रभुनाथ नगर

छपरा,

जिला-सारण

पिन-841302

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मो.-9102889054

 9102889260

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29 दिसंबर 23




 

  

      


गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

 भूली-बिसरी यादें

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बिहार की चुनावी राजनीति मंे 

‘‘जोड़न’’ का महत्व

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जोड़न से ही तो दही जमता है

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सुरेंद्र किशोर

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जो इतिहास से नहीं सीखता,वह 

इतिहास दुहराने को अभिशप्त होता है।

‘भारत उदय’ के फील गुड में प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने

2004 में लोजपा और द्रमुक को अपने पास से भगा दिया था।

नतीजतन, केंद्र की सत्ता एक ऐसी सरकार के हाथों मेें चली गयी जिसने 

दस साल तक घोटालों -महा घोटालों की झरी लगा दी।

जेहादी-आतंकियों का भी मनोबल सातवें आसमान पर था।

(सीमावर्ती राज्य होने के कारण बिहार के बारे में भी कोई राजनीतिक या चुनावी फैसला फिलहाल आज की विशेष स्थिति में सोच-समझकर लेने की जरूरत है।) 

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तमिलनाडु

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सन 1999 लोस चनाव

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भाजपा और द्रमुक मिलकर चुनाव लड़े

राजग को कुल 39 में से 26 सीटें मिलीं।

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2004 लोस चुनाव

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भाजपा और अद्रमुक मिलकर लड़े।

राजग को कोई सीट नहीं मिली।

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भाजपा ने द्रमुक को क्यों छोड़ा ?

इसलिए कि जे.जयलालिता के नेतृत्व वाली 

अद्रमुक की राज्य सरकार ने सन 2002 में धर्मांतरण विरोधी कानून पास करा दिया।

(हालांकि बाद में उसे वापस भी कर लेना पड़ा था)

अतः भाजपा उस पर मोहित हो गयी।उसे साथी बना लिया।

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बिहार

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सन 1999 लोस चुनाव

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रामविलास पासवान तब राजग में थे।

राजग को बिहार में कुल 54 में से 41 सीटें मिलंीं। 

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रामविलास पासवान अटल सरकार में रेल मंत्री बने।

बाद में वाजपेयी ने पासवान को नाराज कर दिया।

वे राजग से अलग हो गये।

नतीजतन 2004 के लोक सभा चुनाव में राजग को बिहार में 40 में से सिर्फ 11 सीटें ही मिलीं।

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कारण--अटल बिहारी वाजपेयी ने पासवान से पहले रेल मंत्रालय ले लिया और संचार दे दिया।

फिर उनसे संचार लेकर प्रमोद महाजन को दे दिया।

पासवान ने नाराज होकर वाजपेयी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।

हालांकि पासवान ने अनुकूल राजनीतिक अवसर देख कर ही अपने इस्तीफे की तारीख तय की थी।

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पासवान को बिहार की राजनीति का ‘जोड़न’ कहा जाता था।

जोड़न के बिना दही नहीं जमता।

यह बिहार की राजनीति की विशेषता है।

सामाजिक समीकरण का ध्यान रखने की मजबूरी है।

अभी ‘जोड़न’ की भूमिका में कौन है ?

एक से अधिक हैं।

उम्मीद है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार के बाहर के किसी

जानकार व्यक्ति ने, जिसे बिहार की राजनीति की गहरी जानकारी हो,मौजूदा ‘जोड़न’के बारे में बता दिया होगा।

बिहार के किसी नेता से पूछिएगा तो वह अपनी सुविधानुसार कुछ भी बता दे सकता है।

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निष्कर्ष--

सन 2004 में यदि द्रमुक और लोजपा को अटल जी अपने साथ बनाए रखते तो कैसा रिजल्ट आता ?

आंकड़े खुद ही देख लीजिए।

याद रहे कि 2004 में भाजपा को लोक सभा की कुल 138 और कांग्रेेस को कुल 145 सीटें मिली थीं।

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लोजपा को भला कैसे साथ रखते ?

तब यह चर्चा थी कि अटल जी, प्रमोद महाजन को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे।

उधर प्रमोद महाजन संचार मंत्रालय ही चाहते थे।

उधर धर्मांतरण विरोधी कानून का तमिलनाडु के जन मानस पर कितना असर पड़ेगा,इसका पूर्वानुमान अटल जी नहीं कर सके।

फील गुड हावी जो था !!

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28 दिसंबर 23

   

  


मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

 दिघवारा और नया गंाव के बीच ‘न्यू पटना’ 

बन तो रहा है, पर अव्यवस्थित ढंग से।

बिहार सरकार को चाहिए कि वह

व्यवस्थित विकास में निजी डेवलपर्स 

को अभी से मदद भी करे और नियंत्रित भी

अन्यथा,बाद में पछताना पड़ेगा  

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सुरेंद्र किशोर

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पत्नी ने कहा कि ‘‘ चलिए गांव,बीच रास्ते में आपको हाड़ी चाय और लिट्टी -चोखा खिलाऊंगी।

सड़क भी बहुत अच्छी बन गयी है।कोई दिक्कत नहीं होगी।’’

दरअसल आम तौर पर अब मैं कहीं जाता नहीं।

पर,पारिवारिक बंटवारे के बाद जमीन-जायदाद का हाल देखने और उसके बारे में कुछ योजना बनाने के लिए भी मेरा जाना जरूरी था।

मैं टाल रहा था।

खैर, वह दिन कल आ ही गया।

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कुछ दशक पहले गांव से पटना आने में लगभग पूरा दिन लग जाता था।स्टीमर से गंगा पार करना पड़ता था।

कल तो करीब सवा ग्यारह बजे दिन में हम पटना से निकले और करीब चार बजे शाम तक पटना लौट भी आये।दूरी 51 किलोमीटर।

निर्माणाधीन शेरपुर-दिघवारा 6 लेन गंगा ब्रिज के बन कर तैयार हो जाने के बाद तो मेरे गांव की दूरी काफी घट जाएगी।

इस यात्रा में मेरे पुत्र अमित भी साथ थे।

हमलोग जेपी सेतु पार कर आगे बढ़े और सोनपरु-छपरा रेल लाइन के उत्तर वाली सड़क यानी नेशनल हाईवे पकड़ ली।

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रेलवे लाइन के उत्तर स्थित एन.एच.के पास ही कहीं स्थानीय संासद राजीव प्रताप रूडी हवाई अड्डा चाहते हैं।

उसके लिए उन्होंने काफी प्रयास किया।

पर अभी तो नहीं हुआ,पर एक न एक दिन होगा।

वह इलाका उस लायक बन भी रहा है।

दूर-दूर फैले हरे -भरे खेतों के बीच से हम अच्छी सड़क पर गुजर रहे थे।सुखद अनुभव।बिहार का विकास हो रहा है भई,हुआ भी है।

जहां -तहां डेवलपर्स और बिल्डर्स उस इलाके को न्यू पटना का स्वरूप देने के काम में तेजी से लग गये हैं।जमीन की कीमत आसमान छू रही है।

हालांकि अभी ही सुव्यवस्थित विकास में राज्य सरकार का हस्तक्षेप नहीं होगा तो वह इलाका भी

बेतरतीब बसावट का नमूना बन जाएगा,साथ ही शासन के लिए सिरदर्द भी।

याद रहे कि मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि शेरपुर दिघवारा पुल बन जाने के बाद दिघवारा से नयागांव का इलाका न्यू पटना बन जाएगा।

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खैर, विकास के मामले में उस इलाके का कायापलट हो रहा है।

लालू प्रसाद के सौजन्य से उस इलाके में पहले से बेला 

(दरियापुर अंचल)में रेल पहिया कारखाना मौजूद है।

इन दिनों केंद्र और राज्य सरकार के कारण विकास को और गति मिल गयी है।

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अब आप आइए बेला के गोलू टी शाॅप पर जहां हाड़ी चाय बनती रहती है।

मिट्टी की हाड़ी की चाय हमने भी पी,साथ में लिट्टी और राबड़ी भी खाई।

लिट्टी ने तो मुझे प्रभावित नहीं किया,किंतु चाय और राबड़ी बेजोड़ थी।

मैंने अमित से कहा कि हाड़ी की तस्वीर ले लो।

मिट्टी की हाड़ी में पके भोज्य पदार्थ के फायदे जानने के लिए गुगुल गुरू से संपर्क किया--कई फायदे मिले।

गांव में बचपन में मेरे यहां मिट्टी की हाड़ी में ही दाल बनती थी।

वह स्वाद अब कहां ?

साथ में लोहे की कडाह़ी वाली सब्जी के लिए तरस जाता हूं।

अब भी छठ में खीर मिट्टी की हाड़ी में ही बनती है।

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अब हम पहुंचते हैं--अपने गांव यानी भरहापुर(मौजे-सखनौली,टोले भरहापुर, अंचल- दरियापुर, जिला-सारण।)

खान पुर -भरहापुर जुड़वा गांव दिघवारा -अमनौर स्टेट हाईवे पर अवस्थित है।

  शेरपुर -दिघवारा पुल गंगा से उत्तर जहां गिरेगा उससे करीब 3 किलोमीटर पर मेरा गांव है।

 गांव में मेरी जो भी जमीन है, वह सब पक्की सड़क पर है।अबाध बिजली की आपूत्र्ति सोने में सुहागा है। 2013 में पहली बार बिजली गयी।

  खानपुर-भरहापुर  बाजार दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रहा है।

काफी दुकानें हैं।कई तरह की सुविधाएं उपलब्ध हैं।

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बीच बाजार में हाईवे से सटे मेरे तीन भाइयों के परिवार की तीन बीघा पुश्तैनी जमीन अब भी खाली है।

बाएं-दाएं- सामने दुकानें हैं।सामने की दुकानों के ठीक पीछे इंटर काॅलेज है।

इस जमीन में से एक बीघा यानी पटना जिले का 25 कट्ठा मेरे हिस्से पड़ा है।

नीचे की तस्वीर उसी जमीन पर ली गई है।

खाली है।

फिलहाल खेती होती है।

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इलाके के मित्रों- परिचितों का दबाव रहा है कि उस जमीन पर कुछ भी निर्माण जल्दी कीजिए।

 इस यात्रा में भी यही सुनना पड़ा। 

मेरी राय है कि बड़ा स्कूल या अस्पताल या कोई अन्य चीज बने।

 जिससे सिर्फ मेरा ही लाभ न हो, बल्कि इलाके को भी रोजगार मिले ।  कम से कम स्वास्थ्य-शिक्षा के मामले में सबका कल्याण हो।

देखते हैं,कब तक क्या हो पाता है !

एडवांस लेकर दुकानें बना लेना तो आसान काम है।

पर उससे शिक्षा या स्वास्थ्य के क्षेत्र में वह सब नहीं हो पाएगा जो वहां की जरूरत और  चाह है।

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25 दिसयंबर 23


   

   


 


1972 के भारत-पाक समझौते के समय अटल बिहारी वाजपेयी 

को शिमला में जन सभा नहीं करने दिया था सरकार ने

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद 2 जुलाई 1972 को शिमला में दोनों देशों  के बीच समझौता हुआ।

इंदिरा सरकार को खबरदार करने के लिए जनसंघ अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी तब शिमला में मौजूद थे।

समझौते पर प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और पाक के राष्ट्रपति जुल्फीकार अली भुट्टो ने दस्तखत किए।

समझौते की शर्तों से जनसंघ अध्यक्ष अटल

बिहारी वाजपेयी संतुष्ट नहीं थे।

वे वहां जनसभा करना करना चाहते थे।

पर, उन्हें इजाजत नहीं मिली। 

वैसे शिमला समझौते के समय स्वतंत्र पार्टी के अध्यक्ष पीलू मोदी भी शिमला पहुंच गए थे।

  अटल जी चाहते थे कि इन्दिरा गांधी, जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ नरम  रुख नहीं अपनाएं।

 दूसरी ओर, वहां पीलू मोदी अपने दोस्त ‘जुल्फी’ के साथ के अपने पुराने दिन याद कर रहे थे।

साथ ही, यह घोषणा कर रहे थे कि मैं जुल्फी पर किताब लिखूंगा।

याद रहे कि दोनों छात्र जीवन में सहपाठी थे।

अगले साल पीलू मोदी की वह किताब आ भी गई।

उसका नाम है ‘जुल्फी माई फ्रंेड।’

 याद रहे कि अमरीका में पढ़ाई के दौरान जुल्फी और पीलू एक ही आवास में रहते थे।भारतीय सेना ने 1965 के युद्ध में जो उपलब्धि हासिल की,उसे भारत सरकार ने 1966 के ताशकंद समझौते में गंवा दिया था।

  उसके विरोध में तब के केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।

  पूर्व सैनिक त्यागी का आरोप था कि हमने जीती हुई ऐसी जमीन पाकिस्तान को लौटा दी जिस रास्ते पाकिस्तानी हमलावर अक्सर कश्मीर को निशाना बनाते हैं।

कहा गया कि वह इस्तीफा लालबहादुर शास्त्री के रेल मंत्री पद से इस्तीफे से भी बड़ा था।

 ताशकंद की गलती न दुहराई जाए ,इस कोशिश में अटल जी लगे हुए थे।पर अंततः वे विफल ही रहे।

  हालांकि उससे पहले  अटल बिहारी वाजपेयी ने तब शिमला के जैन हाॅल में बैठक की।

प्रेस सम्मेलन भी किया।

उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी से अपील की कि वे सैनिकों के बलिदान को न गवाएं।

पर ऐसा न हो सका। 

 2 जुलाई 1972 की रात में हुए समझौते के बाद अटल जी ने कहा कि हमारी सरकार ने पाकिस्तान  के सामने आत्म समर्पण कर दिया।क्योंकि दोनों देशों के बीच विद्यमान विवादों पर कोई समझौता न होने पर भी भारतीय सेना हटा लेने का निर्णय हो गया।कश्मीर समस्या तो सजीव बनी ही रहेगी।

युद्ध में हुई क्षति,विभाजन  के समय के कर्ज ,विस्थापितों की संपत्ति के मामले भी फिर टाल दिए गए।

इसके विपरीत राष्ट्रपति भुट्टो दो लक्ष्य लेकर वात्र्ता में शामिल हुए थे।

एक, युद्ध में खोए भूभाग की वापसी और दूसरा युद्धबंदियों की रिहाई।

दोनों में वे सफल रहे।

हालांकि विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह ने कहा कि पाकिस्तान 69 वर्ग मील भारतीय क्षेत्र खाली करेगा।

भारत 5139 वर्ग मील पाकिस्तानी इलाका खाली करेगा।

हमने उदारता का परिचय दिया है।

साथ ही यह तय हुआ कि अब दोनों देश अपने विवाद परस्पर बातचीत से हल करेंगे।

पर उधर चर्चा रही कि इंदिरा जी भुट्टो के सिर्फ मौखिक आश्वासनों पर ही मान गयीं।

  भुट्टो ने कहा था कि हम कश्मीर के बारे में बाद में ठोस कदम उठाएंगे।

पर पाकिस्तान लौट कर भुट्टो बदल गए।

याद रहे कि 1971 के बांग्ला देश युद्ध के बाद शिमला समझौता हुआ था।

पाकिस्तान के करीब 90 हजार युद्धबंदी भारत में थे।

उन्हें छुड़ाना भुट्टो का सबसे बड़ा उद्देश्य था।

इसको लेकर पाकिस्तान में वहां की सरकार की जनता फजीहत कर रही थी। 

 पर पीलू मोदी अपनी पुस्तक लायक सामग्री हासिल करने में सफल रहे।

उन्होंने टुकड़ों में अपने लंगोटिया यार ‘जुल्फी’ से कुल 11 घंटे तक बातचीत की।

दिल्ली लौटने के बाद पीलू मोदी ने भुट्टो के बारे में कई बातें बताईं।

पत्रकारों ने पीलू से भुट्टो के बारे में जो सवाल किए ,उनमें अधिकतर सवाल गैर राजनीतिक थे।

 पीलू के अनुसार शिमला शिखर वात्र्ता के बारे में उन दिनों किसी को यह पता नहीं चल रहा था कि भीतर क्या हो रहा है।

दोनों देशों के नेताओं ने शिमला से वापस जाने के बाद ही अपने मुंह खोले।

पीलू मोदी ने बताया कि भुट्टो बुद्धिमान, तीखा और जज्बाती इनसान है।तैश में आ जाने की उसकी पुरानी आदत है।

लेकिन वह दिल का बुरा नहीं है।

भुट्टो के सिर पर समाजवाद का भूत सवार है।

वह हमारी यानी स्वतंत्र पार्टी की नीतियों में विश्वास नहीं करता।

पर अमल हमारी नीतियों पर ही करता है।

मोदी ने कहा कि दोस्ती और राजनीति अलग -अलग पटरियां हैं। 11 घंटे की मुलाकात दो दोस्तों की बेमिसाल दास्तान है।

  उधर इंदिरा सरकार ने शिमला शिखर वात्र्ता के लिए आए पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल को देखने के लिए जो भारतीय कथा फिल्में भेजी थीं,उन पर भी तब इस देश में विवाद उठा था।

वे फिल्में थीं-‘चैदहवीं का चांद’,‘मिर्जा गालिब’,‘पाकिजा’,‘साहब बीवी और गुलाम’ तथा  ‘मुगल ए आजम’।

भारत के कुछ लोगों ने तब सवाल किया था कि इस चयन का आधार क्या था ?

भारत की ‘प्रतिनिधि कथा फिल्में’ क्यों नहीं भेजी गयीं ?

 उधर वात्र्ता के समय अपने पिता के साथ आई बेनजीर भुट्टो जब शिमला की सड़कों पर भ्रमण करती थीं तो उसे देखने के लिए बड़ी भीड़ लग जाती थी।

एक दिन तो इंदिरा गांधी की भी सड़क पर संयोगवश बेनजीर से मुलाकात हो गयी।दोनों साथ-साथ घूमीं।

पीलू मोदी ने विनोदपूर्ण ढंग से कहा था कि यदि बेनजीर यहां से चुनाव लड़ जाए  तो यहां के मुख्य मंत्री वाई.एस.परमार को भी हरा देगी।

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20 दिसंबर 23

 

     


 यदाकदा

सुरेंद्र किशोर

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देश की विधायिकाओं का एजेंडा प्रतिपक्ष भी तय करे

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क्यों न इस देश में भी विधायिकाओं के हर सत्र के कुछ खास दिनों के एजेंडा प्रतिपक्ष तय करे ?

ब्रिटेन और कनाडा में यह परंपरा जारी है।

यदि यहां भी वैसा हो जाए तो शायद सदन के संचालन में उससे फर्क पड़े।

शोरगुल कम हो !

पता नहीं, हमारे संविधान निर्माताओं ने इस पर सोच-विचार किया था या नहीं।

पर,अब तो इसकी जरूरत लग रही है।

इस देश में संसद सहित विधान सभाओं और विधान परिषदों  में शांति बहाल रखना दिन प्रति दिन मुश्किल होता जा रहा है।

ऐसे में इस फार्मूले को अपनाने में क्या हर्ज है !

शायद उससे प्रतिपक्षी दलों को कुछ संतुष्टि मिले।

याद रहे कि ब्रिटिश संसद के हर सत्र के 20 दिन वहां के प्रतिपक्षी दल सदन की कार्यवाही का एजेंडा तय करते थे।

कनाडा में 22 दिन ऐसा होता है।

यदि एक से अधिक दल प्रतिपक्ष में हैं तो उतना समय उन दलों के बीच उनकी सदस्य संख्या के अनुपात बांट दिया जाता है।

हां,यदि प्रतिपक्ष के किसी मुद्दे पर सदन में मतदान होता है तो उसके नतीजों को स्वीकार करने के लिए सरकार बाध्य नहीं हेाती।

हाल में भी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि असली मुद्दों पर सदन में चर्चा नहीं हो रही है।

यदि उन्हें कुछ दिन मिल जाएं तो वे ‘‘असली मुद्दों’’ को एजेंडा बना सकंेगे।

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भाजपा पहल करे

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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा सांसदों से कहा है कि वे संयम बरतें और लोकतांत्रिक मानदंड के अनुसार व्यवहार करें।

अभी तो उनका इशारा संसद में शालीनता और संयम बरतने को लेकर हैं।

किंतु ऐसे निदेशों को विधान सभाओं और परिषदों में मौजूद भाजपा सदस्यों तक भी पहुंचाया जाना चाहिए।

यदि ऐसे निदेश का पालन हो सका तो देश की विधायिकाओं में अच्छी परंपरा की शुरूआत होगी।

जिन राज्यों में गैर भाजपा दलों की सरकारें हैं,क्या उन राज्यों की विधायिकाओं में भाजपा सदस्यगण अपने आचरण से आदर्श उपस्थित करेंगे ?

यदि ऐसा हुआ तो संसद के प्रतिपक्षी दलों से भी आदर्श पेश करने के लिए कहने का नैतिक हक भाजपा को हासिल होगा।

चूंकि भाजपा एक अनुशासित दल है,इसलिए वह इसकी शुरूआत कर सकती है।

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कैसे सुधरेगी बिहार की शिक्षा ! 

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बिहार के अतिरिक्त मुख्य सचिव के.के.पाठक राज्य के शिक्षा क्षेत्र में सुधारात्मक कार्य कर रहे हैं।

 उसका सकारात्मक असर है।

 आम जनता के.के.पाठक की इस पहल की सराहना कर रही है।मुख्य मंत्री नीतीश कुमार का भी संरक्षण श्री पाठक

को हासिल है।  

पर,कुछ खास हलकों में के.के.पाठक की पहल का तीखा विरोध हो रहा है।

ऐसे में क्या पाठक जी अभियान अधिक दिनों तक जारी रख पाएंगे ?

अपवादों को छोड़कर बिहार में शिक्षा-परीक्षा की आज जो दुर्दशा है,उसमें सुधार का काम अगली पीढ़ियों के लिए नहीं टाला जा सकता है।

 इन पंक्तियों का लेखक दशकों से देख रहा है कि किस तरह यहां की अच्छी शिक्षा व्यवस्था को धीरे धीरे बर्बाद कर दिया गया।

 कई तत्व जिम्मेदार रहे हैं।एक उच्चस्तरीय न्यायिक आयोग   

बने।दुर्दशा के कारणों को चिन्हित करे।सुधार के उपाय सुझाये।सरकार उन उपायों को लागू करे।

अन्यथा, अधिकतर शिक्षण संस्थान सिर्फ सर्टिफिकेट

बांटने के काउंटर भर बनकर रह जाएंगे।     

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तब और अब की कहानी

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साठ के दशक की बात है।

बिहार के औरंगाबाद जिले के एक क्षेत्र से विधायक ब्रजमोहन सिंह राज्यस्तरीय नेता से बातचीत कर रहे थे।

ब्रजमोहन सिंह ने कहा कि मैं इन दिनों क्षेत्र के विकास के काम में लगा था,इसलिए आपसे बीच में मिल नहीं सका था।

दिवंगत ब्रजमोहन बाबू ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि मुझे उम्मीद थी कि नेता जी मेरी तारीफ करेंगे।

पर,उल्टे उन्होंने कहा कि ज्यादा विकास वगैरह के काम में लगोगे तो अगली बार चुनाव नहीं जीत पाओगे।

क्योंकि सरकार से कितने गांवों का विकास करवा पाओगे ?

साधन इतना कम है कि कुछ ही गांव का करा पाओगे।

नतीजतन जिन गावों का नहीं होगा, उन गांवों के लोग तुमको अगली बार वोट नहीं देंगे।

आज यानी सन 2023 में स्थिति बदल चुकी है।

हर तरफ विकास व कल्याण के थोड़ा-बहुत काम हो रहे हैं।केंद्र और राज्य सरकारों के बीच होड़ है।

अन्य गांवों का भी यही हाल है।पर व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मैं अपने गांव का हाल बताता हूं।

गांव के दक्षिण से उत्तर की ओर पक्की सड़क बन रही है।

पूरब से पश्चिम ओर सीमेंटी सड़क की योजना है।नदी में घाट बन रहा है।

कई साल पहले मेरे प्रयास से वहां कुछ विकासात्मक काम हुए थे।

पर,इन दिनों राज्य के सामान्य विकास के क्रम में मेरे पुश्तैनी गांव का भी विकास हो रहा है।

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और अंत में

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मध्य प्रदेश विधान सभा भवन से जवाहरलाल नेहरू का चि़त्र हटा दिया गया।

कुछ साल पहले जब कमलनाथ ने मुख्य मंत्री पद संभाला तो उन्होंने जेपी सेनानी पेंशन योजना बंद कर दी थी।यह सब चलता रहता है।

बिहार में ,जहां आंदोलन सर्वाधिक सघन था,जेपी सेनानी को अधिकत्तम हर माह 15 हजार रुपए मिलते हैं।मध्य प्रदेश में तब 25 हजार रुपए मिलते थे।

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21 दिसंबर 23


शनिवार, 23 दिसंबर 2023

 


चैधरी चरण सिंह के जन्म दिन पर

(23 दिसंबर 1902-29 मई 1987)

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आज के राजनीतिक माहौल में 

यह संस्मरण सर्वाधिक मौजूं

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सुरेंद्र किशोर

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संजय गांधी पर से केस उठा लेने से 

इनकार कर देने के कारण ही इंदिरा 

गांधी ने गिरा दी थी चरण सिंह की सरकार

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 कई दल मिल कर जब सरकार बनाते हैं तो क्या होता है ?

कभी -कभी वैसा ही होता है जैसा चैधरी चरण सिंह की सरकार के साथ 1979 में हुआ था।

ऐसा आगे भी हो ही सकता है।

आज तो (दिसंबर 2023 में) बहुत ही अधिक गंभीर मुकदमे, बहुत सारे इंडी नेताओं को, बहुत ही अधिक परेशान कर रहे हैं।

कुछ जेलों में हैं।

कुछ अन्य जेलों के रास्ते में हैं।

दलों की एकता की जल्दीबाजी के पीछे सबसे बड़ा तत्व यही है।

आजकल देश का राजनीतिक माहौल 1979 से अधिक गंम्भीर है। 

(कल्पना कीजिए कि केंद्र में इंडी गठबंधन की सरकार 2024 में बन जाए।

यदि चरण सिंह जैसा जिद्दी नेता प्रधान मंत्री

बन गया तो वह इंडी गठबंधन के नेताओं के खिलाफ चल रहे मुकदमों को उठाने से साफ इनकार कर दे सकता है।

नतीजतन उस सरकार को गिराना पड़ेगा।

इसीलिए इंडी गठबंधन का प्रधान मंत्री चुनाव के बाद ही चुना जाएगा,इसी की संभावना अधिक है।

तब एक और ‘‘एम.एम.एस.’’खोज लेना कोई मुश्किल काम नंहीं होगा।)

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 हालांकि मिली जुली सरकारों के आने -जाने से बार-बार गैर जरूरी चुनावों की नौबत आ जाती है।

 चुनावों में अरबों रुपए खर्च होते हैं।

कुछ सरकारी और अधिक गैर सरकारी।

यह सब धन आखिर जनता के टैक्स से ही तो अंततः आता है।

या फिर धनियों से वसूली के जरिए।

अंततः बोझ जनता पर।

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  अब प्रकरण चैधरी जी का।

कांग्रेस ने बाहर से बिना शत्र्त समर्थन दिया और 28 जुलाई 1979 को चैधरी साहब प्रधान मंत्री बन गए।

पर कुछ ही समय बाद ऐसी परिस्थिति बनी कि उन्होंने 20 अगस्त को प्रधान मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

 उस समय की  चर्चित साप्ताहिक पत्रिका ‘‘रविवार’’ के उदयन शर्मा को चरण सिंह ने बताया था कि उन्होंने इस्तीफा क्यों दिया।

  चैधरी चरण सिंह के शब्दों में 

‘‘मुझे इंदिरा गांधी के बारे में गलतफहमी कभी नहीं थी।

पर हमने सोचा कि एक महत्वपूर्ण सवाल पर जिससे राष्ट्रीय एकता जुड़ी थी,जब उन्होंने बिना शत्र्त समर्थन देने को कहा ,तो हमने उसे स्वीकार किया कि इससे देश में नया वातावरण बन सके और राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय अनुशासन की तरफ हम फिर बढ़ सकेंगे।’’

‘..........पर इंदिरा गांधी ने अपने नजदीकी लोगों से इस बात के संदेश भेजना शुरू किया कि जब तक संजय (गांधी )के मुकदमे उठा नहीं लिए जाते , वे 20 तारीख को विश्वास मत पर मेरी सरकार का साथ नहीं दे सकतीं।

और गैर असूली और दबाव की राजनीति के तहत उन्होंने (इंदिरा जी ने)बिहार और हरियाणा में जनता पार्टी की सरकारों का साथ दिया।

उस जनता पार्टी का जिसमें जनसंघ का वर्चस्व है।(इस प्रकरण से कांग्रेस के इस दावे का खंडन होता है कि उसने कभी जनसंघ की मदद नहीं की।)  

यदि कांग्रेस ने उन राज्यों में जनता पार्टी की सरकारों को सत्ता में बने रहने में मदद नहीं की होती तो वहां गैर संघी, धर्म निरपेक्ष व किसानोन्मुख सरकारें बन जातीं।’’

  चरण सिंह ने कहा कि ‘‘यह देश हमारे मंत्रिमंडल को कभी माफ नहीं करता,अगर हम कुर्सी पर चिपके रहने के लिए उन लोगों पर से मुकदमे उठा लेते जो इमरजेंसी के अत्याचारों के लिए जिम्मेदार थे।

मैं ब्लैकमेल की राजनीति स्वीकार कर एक दिन भी सत्ता में नहीं रह सकता।’’ 

‘‘खास कर 19 अगस्त की रात साढ़े नौ बजे मुझसे कहा गया कि 19 जुलाई को ‘किस्सा कुर्सी का’ केस में जो सरकारी अधिसूचना जारी की गयी थी,उसे आपकी सरकार वापस ले ले।

 इस पृष्ठभूमि में मैंने निर्णय किया कि अब नये चुनाव के लिए

जनता के पास जाना ही उचित होगा।’’

   (--रविवार-26 अगस्त, 1979)

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मेरे फेसबुक वाॅल से 


 दक्षिण भारत के राज्यों के इस विशेष पक्ष 

पर भी जरा नजर डाल लीजिए !!

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कर्नाटका (मई, 23)और तेलांगना(दिसंबर,23)में कांग्रेस की 

जीत असल में अभूतपूर्व ‘अल्पसंख्यक एकजुटता’ की विजय

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अगले किसी चुनाव के लिए भी संकेत स्पष्ट है 

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सुरेंद्र किशोर

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यदि आप निष्पक्ष समीक्षा करेंगे तो पाएंगे कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जो सरकार है,सिर्फ वही सरकार उसके अपने बल पर है।

कर्नाटका और तेलांगना की कांग्रेस सरकारें अल्पसंख्यक मतों की कांग्रेस के साथ ‘‘अभूतपूर्व एकजुटता’’ की देन है। 

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गत मई में कर्नाटका विधान सभा का चुनाव हुआ।

वहां अधिकतर अल्पसंख्यकों ने जे. डी. एस. को पूरी तरह छोड़कर अपने लगभग सारे मत कांग्रेस को दे दिए।

  यह ‘‘खास रणनीति’’ के तहत हुआ जिसे देश के लिए शुभ नहीं माना जा रहा है।

अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस के साथ ऐसी ही एकजुटता हाल के चुनाव में तेलांगना में भी दिखाई।

अल्पसख्यकों ने सत्ताधारी बी.आर.एस.को छोड़कर लगभग अपने सारे वोट कांग्रेस को दे दिए।हालांकि ओवैसी अपने ‘इलाके’पर काबिज रहे। 

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जे डी एस नेता व पूर्व प्रधान मंत्री एच.डी.देवगौड़ा अब सन 2024 के लोस चुनाव के लिए भाजपा से सीटों के तालमेल पर गंभीरतापूर्वक बात कर रहे हैं।

याद रहे कि मई, 23 के चुनाव में कांग्रेस को कर्नाटका में 42.88 प्रतिशत वोट मिले।

भाजपा को 35.80 प्रतिशत मत मिले।

जे डी एस को 13.30 प्रतिशत वोट मिले।

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देवगौड़ा तो अपने दल का अस्तित्व बचाने का ठोस उपाय कर रहे हैं।

पर,तेलांगना के पूर्व मुख्य मंत्री के.चंद्रशेखर राव लोस चुनाव के लिए क्या करेंगे,यह देखना दिलचस्प होगा।

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तेलांगना विधान सभा चुनाव का ताजा रिजल्ट

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कांग्रेस-सी.पी.आई.-40 प्रतिशत

भारत राष्ट्र समिति --37.35 प्रतिशत

भाजपा--13.90 प्रतिशत

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देश के लिए शुभ या अशुभ ??

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कर्नाटका की सिद्धारमैया सरकार ने अल्पसंख्यकों के उपकार का बदला चुकाना शुरू कर दिया है।

शिक्षण संस्थाओं में बुरका पहन कर जाने पर पहले प्रतिबंध था।

नई सरकार ने वह प्रतिबंध हटा लिया है।

आगे- आगे देखिए और क्या -क्या होने वाला है !!!

(कर्नाटका में इस तरह के और कौन कौन काम हो रहे हैं,इसकी जानकारी मशहूर पत्रकार एल.पी.सेठी से लेने की कोशिश करूंगा।)

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के.चंद्र शेखर राव की पिछली सरकार की पुलिस यानी अभियोजन पक्ष ने अकबरूद्दीन ओवैसी के अभूतपूर्व हेट व भड़काऊ स्पीच  को लेकर कोर्ट में सबूत तक पेश नहीं किया ताकि मुस्लिम वोट उसे मिल सके।

फिर भी तेलांगना के अधिकतर मुस्लिम वोट कांग्रेस को मिल गये।

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अब जानिए कि छोटे ओवैसी ने एक जन सभा में क्या कहा था-

हम सबने उसे टी.वी.चैनलों पर सुना था।

नमूना देखिए--

 ‘‘.......हम 25 करोड़ हैं, तुम 100 करोड़ है न,ठीक है तुम तो हमसे ज्यादा हो,15 मिनट के लिए पुलिस हटा लो,हम बता देंगे कि किसमें कितना दम है....’’

उस दिन इसके बाद भी अकबरूद्दीन ने अपने भाषण में जो कुछ कहा.वह इतना आपत्तिजनक है,जिसे हम यहां लिख नहीं सकते।जबकि वह पूरा भाषण गुगल पर अब भी उपलब्ध है।

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इसके बावजूद कोर्ट ने उसे बरी कर दिया।

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सन 2023 के तेलांगना विधान सभा चुनाव के लिए जारी घोषणा पत्र में कांग्रेस ने अल्संख्यकों के लिए जो वायदे किये है,वह भी अभूतपूर्व है।

किसी धर्म निरपेक्ष देश की किसी पार्टी ने ऐसा वादा अब तक नहीं किया था।

अब तेलांगना की कांग्रेस सरकार को उसे निभाना पड़ेगा।

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23 दिसंबर 23

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पुनश्चः

केरल की माकपा सरकार का पी.एफ.आई. से मधुर संबंध है।

पी.एफ.आई.की महिला शाखा के सम्मेलन में शामिल होने के लिए पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी

केरल गये थे।

पी.एफ.आई.ने यह लक्ष्य तय किया है कि वह हथियारों के बल पर 

2047 तक भारत को इस्लामिक देश बना देगा।

वह हथियार भी बांट रहा है।

पर,उसे अफसोस है कि भारत के 5 प्रतिशत मुसलमान भी उसे इस काम में सक्रिय सहयेाग करने को तैयार नहीं हैं।

याद रहे कि कुछ साल पहले केरल के डी.जी.पी.ने सी.पी.एम.के मुख्य मंत्री से सिफारिश की थी कि सरकार पी.एफ.आई.पर प्रतिबंध लगाए।

पर सरकार ने ऐसा करने से मना कर दिया।

पी.एफ.आई.की ंिहंसक गतिविधियों से वहां की पुलिस भी परेशान रही है।

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उधर तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी के ‘‘युवराज’’ उदयनिधि स्टालिन ने सनातन के उन्मूलन की जरूरत बताते हुए कहा है कि यह मच्छर से फैलने वाले डेंगू और मलेरिया की तरह है।

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इन दिनों दक्षिण भारत की राज्य सरकारें राज्यपालों के साथ वैसा ही व्यवहार कर रही हैं जिस तरह किसी वैर-भाव वाले एक देश के राजदूत के साथ कभी कभी दूसरे देश में व्यवहार होता है।

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मेरे फेसबुक वाॅल से

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बुधवार, 20 दिसंबर 2023

 सभी जातियों का अपने -अपने ढंग से योगदान है 

भारत को बनाने और चलाने में-

किसी का कम तो किसी का अधिक !

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सुरेंद्र किशोर

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कुछ दशक पहले स्टटिस्टिकल आउटलाइन आॅफ इंडिया (प्रकाशक-टाटा सर्विसेज लिमिटेड)के आंकड़े मैं देख रहा था।

तब के आंकड़ों के अनुसार चार उत्पादों के मामलों में भारत का विश्व में प्रथम स्थान था।

उन चार उत्पादों में से साढ़े तीन में पशुपालकों का योगदान था।

पशुपालक माने मुख्यतः यादव।

यानी, देखिए देश को आगे बढ़ाने में यादवों का कितना बड़ा हाथ रहा।

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भारत के एक प्रकाशन समूह के बारे में एक आंकड़ा सोशल मीडिया पर हाल में सामने आया।

कहा गया कि वहां सिर्फ ब्राह्मण बहाल किए गए।

संभव है,यह बात सही हो।

पर,ब्राह्मणों की प्रतिभा भी तो देखिए।

पारंपरिक कारणों से पढ़ने-लिखने के क्षेत्र में उनका योगदान बेहतर रहा है।

ब्राह्मणों के खिलाफ बोलने वाले बुद्धिजीवी व पत्रकार मिलकर ‘‘इंडिया टूडे’’ जैसी एक शालीन और तथ्यपरक पत्रिका निकाल कर तो दिखा दें।

(हालांकि यूं ही बता दूं कि मैं बंद साप्ताहिक पत्रिका दिनमान को इंडिया टूडे से बेहतर मानता हूं।)

पिछड़े वर्ग के कई नेताओं और पंूजीपतियों के पास भी अब अच्छी-खासी पूंजी उपलब्ध है।

अब तो ‘‘दलित चेम्बर आॅफ काॅमर्स’’ भी बन गया है।वे किसी ऐसे प्रकाशन के लिए पूंजी निवेश कर ही सकते हैं।

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यादव या ब्राह्मण ही नहीं बल्कि हर जाति का इस समाज में अपने- अपने ढंग से योगदान रहा है।

मेरे पिता कहा करते थे कि किसी बड़ी लकीर 

(यानी बड़ी प्रतिभा )को छोटा करने में अपना समय बर्बाद मत करो।

उसके पास अपनी एक बड़ी लकीर खींच दो।

वह लकीर खुद ब खुद छोटी हो जाएगी।

इसका मैंने पालन किया और उसका लाभ मिला।  

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राजनीति से निराश होकर जब मैं सत्तर के दशक में मुख्य धारा की पत्रकारिता में आया तो मुझे भी अपनी पृष्ठभूमि (गांव का राजपूत परिवार,किसानी और लघु जमींदारी पृष्ठभूमि--परिवार का मैं पहला मैट्रिकुलेट था)के कारण कुछ मुझे भी झेलना पड़ा।

पर,मैं जानता था कि मैं मेहनत और ईमानदारी से एक दिन ऐसी स्थिति पैदा कर दूंगा कि वे मुझे स्वीकारेंगे।

लड़ाई-झगड़े की कोई जरूरत नहीं।

इसलिए मैं मन ही मन मुस्कराता था-विरोध नहीं करता था।

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मैंने पूरे पत्रकारिता जीवन में यह पाया कि ब्राह्मणों में उदारता है।पर,आपको खुद को उनके सामने साबित करना होगा।

देश के जिन छह प्रधान संपादकों ने बारी -बारी से मुझे संपादक बनाना चाहा,उनमें चार ब्राह्मण और दो राजपूत थे।

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मैं इसलिए नहीं बना क्योंकि मैं उस पद के योग्य नहीं।

मैं नेता थोड़े ही हूं कि मुख्य मंत्री या प्रधान मंत्री पद की होड़ में अपनी बनी-बनाई साख को भी दांव पर लगा दूं !

मैं तथ्यों के साथ लेख लिख सकता हूं किंतु संपादकी नहीं कर सकता।

 क्योंकि संपादकी का मतलब सिर्फ अच्छा लेख लिखना नहीं होता ,बल्कि प्रबंधन के ‘‘सुख-दुख’’ में शामिल होना भी होता है।

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20 दिसंबर 23


बुधवार, 13 दिसंबर 2023

 भूली-बिसरी यादें

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इंदिरा गांधी की वसीयत 

में वरुण गांधी के भविष्य की चिंता

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क्या यह खबर सही है कि राहुल 

और वरुण हाल में आपस में मिले हैं ?

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सुरेंद्र किशोर

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यदि हां,तो लगता है कि सोनिया परिवार ने इंदिरा गांधी की वसीयत पढ़ ली है।या उस पर इधर ध्यान दिया है।

शायद यह भी उम्मीद जगाई जा रही है कि जो काम राहुल नहीं कर पा रहे हैं,वह काम वरुण सोनिया परिवार के साथ मिल कर शयद दें !!

वैसे तो वह काम अब असंभव ही लगता है।पर,कोशिश करने में हर्ज ही क्या है ?

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4 मई, 1981 को इंदिरा गांधी ने अपनी वसीयत में अन्य बातों के अलावा यह भी लिखा कि

 ‘‘मैं यह देखकर खुश हूं कि राजीव और सोनिया ,वरुण को उतना ही प्यार करते हैं जितना अपने बच्चों को।

  मुझे पक्का भरोसा है कि जहां तक संभव होगा,वो हर तरह से वरुण के हितों की रक्षा करेंगे।’’

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अब तो दोनों को आपस में मिलकर दोनों के हितों की रक्षा करनी है।

क्या वे कर पाएंगे ?

यदि प्रतिपक्ष मजबूत और ‘जिम्मेदार’ बने तो लोकतंत्र को फायदा होता है।

वैसे नरेंद्र मोदी का विकल्प बनना तो अभी किसी के लिए निकट भविष्य में मुश्किल ही है। 

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13 दिसंबर 23

    


 2023 के शिवराज सिंह चैहान की पीड़ा तो याद है,

पर 1985 के अर्जुन सिंह और चंद्रशेखर सिंह को भूल गये ?

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सुरेंद्र किशोर

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1985 के विधान सभा चुनावों के समय  

मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह मुख्य मंत्री थे।बिहार में चंद्र शेखर सिंह 

मुख्य मंत्री थे।

दोनों राज्यों में कांग्रेस को बड़ी जीत मिली।

जीत के बाद दोनों राज्यों के मुख्य मंत्रियों को हटा दिया गया।

बिहार में बिन्देश्वरी दुबे सी.एम.बने।

मध्य प्रदेश में मोतीलाल वोरा।

क्योंकि हाईकमान ने समझा कि जीत में कांग्रेस व राजीव गांधी का बड़ा योगदान था।

वह कोई भी परिवर्तन कर सकता था।वह सही भी था।

तब आम जनता को भी यह लगता था कि राजीव गांधी ने मां खो दिया है।उसे समर्थन मिलना चाहिए।

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उसी तरह आज नरेंद्र मोदी के कारण तीन राज्यों में भाजपा विजयी हुई।

लाड़ली योजना के कारण सिर्फ कुछ सीटें बढ़ीं।पर,जीत तो वैसे भी होती।

क्योंकि देश के आम लोगों को यह लग रहा है कि मोदी ही ऐसा नेता है जो ईमानदारी से भ्रष्टों और जेहादियों से लड़ेगा और इस देश को जेहादियों के हाथों में जाने से बचाएगा।

भ्रष्टाचार जेहादियों को मजबूत कर रहा है।

इतना ही नहीं,

भाजपा नेतृत्व पीढ़ी-परिवर्तन में विश्वास करता रहा है।इसीलिए भाजपा तालाब का सड़ता पानी नहीं है।

 कांग्रेस की संस्कृति दूसरी है जिसका कंधा मीडिया गुणगान करता है।

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पर,इन दिनों गोदी मीडिया के समकक्ष खड़ा कंधा मीडिया राग अलाप रहा है कि शिवराज सिंह चैहान को भाजपा ने हटाकर भारी अन्याय किया।

अल्पज्ञानी लोग कह रहे हैं कि ऐसा पहली बार हुआ।

अरे भई, 1985 में आप कहां थे ? 

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13 दिसंबर 23


मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

 डा. राममनोहर लोहिया न सिर्फ अनुच्छेद-370 के खिलाफ 

थे बल्कि वे समान सिविल संहिता के भी पक्ष में थे

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सुरेंद्र किशोर

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प्रमुख कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी ने कुछ साल पहले कहा था कि डा.राममनोहर लोहिया अनुच्छेद-370 के खिलाफ थे।

ए.एन.आई.से बातचीत में कांग्रेस के पूर्व महा सचिव द्विवेदी ने कहा कि ‘‘मेरे राजनीतिक गुरू डा.लोहिया हमेशा 370 के खिलाफ रहे।’’

  उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘मैं व्यक्तिगत हैसियत से यह बात कह रहा हूं।कांग्रेस पार्टी का सदस्य होने के नाते नहीं।’’

 याद रहे कि द्विवेदी पहले डा.लोहिया के नेतृत्व वाली पार्टी में ही थे।

संभवतः वे 1974 में कांग्रेस में शामिल हुए थे।सन 1967 में डा.लोहिया का निधन हो गया था।

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   खुद मुझे सामान्य नागरिक संहिता के बारे में तो डा.लोहिया की राय मालूम है,पर धारा-370 को लेकर उनकी क्या राय थी,यह मुझे याद नहीं रहा।

पर द्विवेदी ने याद दिला दी।

  चूंकि डा.लोहिया वोट बैंक को ध्यान में रख कर कोई बात नहीं करते थे,देश को ध्यान मेें रखकर बात करते थे,इसलिए अधिक उम्मीद इसी बात की है कि उन्होंने 370 की मुखालिफत की हो।

   1967 के आम चुनाव से ठीक पहले किसी संवाददाता ने डा.लोहिया से सवाल पूछ दिया था,

‘‘सामान्य नागरिक संहिता के बारे में आपकी क्या राय है ?’

उन्होंने कहा कि ‘‘मैं उसके पक्ष में हूं।

वह तो हमारे संविधान के नीति निदेशक तत्व में शामिल है।’’

  डा.लोहिया का यह बयान दूसरे दिन अखबारों में प्रमुखता से छपा।

उसके बाद डा.लोहिया के साथियों ने उनसे कहा ,‘‘डाक्टर साहब,आपने यह क्या कह दिया ?

अब तो आप चुनाव हार जाएंगे।’’

इस डा.लोहिया ने जवाब दिया कि ‘‘मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए नहीं,बल्कि  देश बनाने के लिए राजनीति में हूं।’’

  1967 में वे उत्तर प्रदेश के एक ऐसे लोक सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे जहां मुसलमानों की अच्छी -खासी आबादी थी।

कांग्रेस विरोधी हवा के बावजूद डा.लोहिया वहां से सिर्फ करीब चार सौ मतों से ही जीत पाए।

फिर भी उन्होंने अपनी राय नहीं बदली।

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12 दिसंबर 23

   


सोमवार, 11 दिसंबर 2023

 



वेबसाइट मनीकंट्रोल हिन्दी पर आज प्रकाशित

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आखिर कब राजमाता सिंधिया ने नाराज होकर गिरा 

दी थी डी.पी.मिश्र की कांगे्रसी सरकार 

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सुरेंद्र किशोर

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एक सभा में राज घराने के खिलाफ मुख्यमंत्री मिश्र की अमर्यादित 

टिप्पणी से  राजमाता सिंधिया सख्त नाराज हो गयी थीं

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मध्य प्रदेश के स्पष्टवादी मुख्य मंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र ने पूर्व राज घरानों के खिलाफ सार्वजनिक रूप से अमर्यादित टिप्पणी की  जिससे गुस्सा कर राजमाता सिंधिया ने 1967 में उनकी सरकार गिरवा दी।

ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया को प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राजनीति में लाया था।कांग्रेस के टिकट पर वह 1957 और 1962 में लोक सभा सदस्य बनीं।

सन 1967 में स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर लोक सभा सदस्य चुनी गयीं।

बाद में वह जनसंघ में शामिल हो गयीं।

द्वारिका प्रसाद मिश्र से उनकी नहीं बनती थी।

राजमाता का कांग्रेस में लाया जाना संभवतः मिश्र को अच्छा नहीं लगा था।

मिश्र ने भी एक बार कहा था कि ‘‘यदि कांग्रेस ने राजमाता को वापस कांग्रेस में लाने की कोशिश की कि तो मैं कांग्रेस में रह कर 

भी समूचे देश में ऐसा आंदोलन छेड़ूंगा कि राजाओं के समर्थकों की जड़ें हिल जाएंगी।’’ 

एक सभा में राज घरानों के खिलाफ मुख्य मंत्री मिश्र की अमर्यादित टिप्पणी से विजया राजे सिंधिया सख्त नाराज हो गयी थीं।

 उधर डी.पी.मिश्र के बाद मुख्य मंत्री बने गोविंद नारायण सिंह मिश्र मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किए जाने से नाराज थे।

गोविंद नारायण सिंह के पिता अवधेश प्रताप सिंह विंध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री रह चुके थे।

गोविंद नारायण सिंह सहित तीन दर्जन कांग्रेसी विधायकों ने 1967 में डी.पी.मिश्र सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया।

 1967 के आम चुनाव के बाद तो राजनीति के ‘चाणक्य’माने जाने वाले  मिश्र के नेतृत्व में मध्य प्रदेश में कांग्रेसी सरकार तो बन गयी थी,पर नये विवाद के कारण वह सिर्फ चार महीने ही चल सकी।यानी  8 मार्च, 1967 से 29 जुलाई 1967 तक ही।

एक ऐसे मुख्य मंत्री को राजमाता ने उलट दिया जिन्होंने एक ही साल पहले इंदिरा गांधी को प्रधान मंत्री बनाने में ‘चाणक्य’ की भूमिका निभाई थी।

हालांकि डी.पी.मिश्र उससे पहले के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के विरोधी हो गए  थे।

मिश्र जी की शिकायत थी कि तिब्बत को हड़प लेने पर नेहरू ने चीन का विरोध नहीं किया।

 एक बार तो मिश्र ने यह भी कह दिया था कि ‘‘मैं अगली बार  जवाहरलाल नेहरू को प्रधान मंत्री नहीं बनने दूंगा।’’

हालांकि वे उस ‘पहाड’़ को नहीं हिला सके थे।

1967 के चुनाव के बाद उपजे तरह-तरह के असंतोष के कारण मध्य प्रदेश विधान सभा के कुल 167 कांग्रेसी विधायकों मेें से 36 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी।हालांकि उस दल बदल के सिलसिले में भी कई नाटकीय घटनाएं भी र्हुइं थीं।

  कहा जाता है कि यदि राजमाता के पास गैर राजनीतिक  ताकत नहीं होती तो दलबदलू विधायकों का सत्ता पक्ष ने अपहरण कर लिया होता।

तब की एक पत्रिका के अनुसार, ‘‘ द्वारिका प्रसाद मिश्र के मुख्य मंत्री बनने पर साठ के दशक में भोपाल के समाचार पत्रोें के दफ्तरों में राज्य के विभिन्न कोनों से अनेक पत्र आये थे जिन में ‘‘लौह पुरूष’’ श्री मिश्र को अवतार और देवता मान कर उनके दर्शन की लालसा व्यक्त की गयी थी।

लेकिन वास्तविकता जैसे -जैसे सामने आती गयी ,जनता का मोह टूटता गया।

बाद के दिनों में लोगों के सामने सिर्फ मिश्र मंत्रिमंडल की तानाशाही और नौकरशाही रही।अंततः असंतोष का विस्फोट हुआ।’’

डी.पी.मिश्र के अपदस्थ होने के बाद प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में 30 जुलाई 1967 को 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल गठित हुआ।उस प्रथम गैर कांग्रेसी मंत्रिमंडल में उन 36 दलबदलू  कांग्रेसी विधायकों में से 19 दल बदलू शामिल किए गए।जनसंघ घटक से 7 मंत्री बने।

राजमाता की पार्टी जन क्रांति दल से पांच मंत्री बने।

जनसंघ घटक के वीरेंद्र कुमार सकलेचा उप मुख्य मंत्री बनाए गए। 

हालांकि गोविंद नारायण सिंह की सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी।

कहा गया कि राजमाता की ओर से शासन में  लगातार हस्तक्षेप को अंततः गोविंद नारायण सिंह सहन नहीं कर सके।

वे सन 1969 के मार्च में पद से हट गए।

फिर कांग्रेस में शामिल हो गए।

राजीव गांधी के शासन काल में उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया था।पर उनका बिहार के मुख्य मंत्री भागवत झा आजाद से लगातार टकराव चलता रहा।

उन दिनों  एक दलबदलू का तर्क था कि विंस्टन चर्चिल ने भी मतभेदों के कारण सन 1904 में दल बदल किया था।पहले वे कंजर्वेटिव पार्टी से चुने गए ।फिर लिबरल पार्टी में शामिल हो गए थे।

सन 1967 के आम चुनाव के समय देश में कांग्रेस विरोधी हवा थी।

सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी।

लोक सभा में भी उसका बहुमत पहले की अपेक्षा कम हो गया।

कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भी दल बदल के कारण कांग्रेस सरकारें गिर गयीं।

उत्तर प्रदेश में किसान नेता चरण सिंह ने अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़ कर चंद्रभानु गुप्त की कांग्रेसी सरकार गिराई।चरण सिंह खुद मुख्य मंत्री बने। 

 विजया राजे सिंधिया के पति जीवाजी राव सिंधिया मध्य भारत के राज प्रमुख थे।

पर, जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो मध्य भारत, मध्य प्रदेश का हिस्सा बन गया।

मध्य प्रदेश की राजनीति में सिंधिया राज घराना आज भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

मध्य प्रदेश में 1967 में मिश्र सरकार के अपदस्थ होने के बाद श्यामा प्रसाद शुक्ल और अर्जुन सिंह दिल्ली गए।

हाईकमान के सदस्यों से अलग -अलग  मिले।

दोनों मिश्र मंत्रिमंडल के सदस्य थे।अर्जुन सिंह ने हाईकमान से  कहा कि डी.पी.मिश्र अब भी मध्य प्रदेश के बेताज बादशाह हैं।

उन्हें ही आगे भी मौका मिलना चाहिए।पर श्यामा चरण शुक्ल नए नेतृत्व के पक्ष में थे।सन 1969 में श्यामा चरण शुक्ल मुख्य मंत्री बनाए गए।

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11 दिसंबर 23

   


रविवार, 10 दिसंबर 2023

 समाज के पिछड़े और कमजोर वर्ग के बाल-बच्चे तभी ठीक से पढ़-लिख पाएंगे जब बिहार के सरकारी शिक्षण संस्थानों में गुणवत्ता लायी जाए

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सुरेंद्र किशोर

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बिहार के शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के.के.पाठक बिहार की शिक्षा-परीक्षा को सुधारने के लिए रात-दिन एक किए हुए हैं।

उनका शायद यही ‘कसूर’ है,इसीलिए कुछ लोग उनके खिलाफ अभियान चलाए हुए हैं।

  संभव है कि अभियानी लोग सफल भी हो जाएं।क्योंकि चुनाव सामने है।

इस राज्य में अच्छे अफसरों के खिलाफ अभियान चलाने वाले लोग अक्सर सफल होते भी रहे हंै।

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इस पोस्ट के साथ शिक्षा की दुर्दशा से संबंधित हाल की खबरों की कटिंग दी गयी है।

खबरें छपती हैं।बीमारी का पता सबको है।

फिर भी प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता को लेकर कोई अभियान नहीं चलता।

उसका कारण जग जाहिर है।

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सन 1963 से मैं इस बात का प्रत्यक्षदर्शी हूं कि किस तरह इस राज्य की शिक्षा को धीरे- धीरे बर्बाद किया गया।कई संबंधित पक्षों

ने मिलकर बर्बाद किया।

अब शिक्षा -परीक्षा के नाम पर यहां क्या बचा है,वह सब बच्चा -बच्चा जानता है।

आरक्षण का दायरा जितना बढ़ाना हो,बढ़ा लीजिए।

उसकी जरूरत भी है।

क्योंकि इस राज्य में जब -जब कांग्रेस को विधान सभा में खुद का पूर्ण बहुमत मिला,कभी किसी पिछड़े को मुख्य मंत्री नहीं बनाया।

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केंद्र सरकार ने आजादी के बाद से सन 1990 तक पिछड़ों के साथ कैसा सलूक किया,वह नीचे के आंकड़ों से जाहिर हैं।ं

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1990 में केंद्र सरकार के विभागों में पिछड़े कर्मियों की संख्या

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विभाग    ---  कुल क्लास वन अफसर ---- पिछड़ी 

                                          जाति 

-----------------------------------राष्ट्रपति सचिवालय --- 48  -------  एक भी नहीं

प्रधान मंत्री कार्यालय--  35 ------      1

परमाणु ऊर्जा मंत्रालय--  34   ------    एक भी नहीं 

नागरिक आपूत्र्ति-----  61  -------  एक भी नहीं 

संचार    ------    52  ------    एक भी नहीं

स्वास्थ्य -------- 240   -------  एक भी नहीं 

श्रम मंत्रालय------   74  --------एक भी नहीं

संसदीय कार्य----    18   ---         एक भी नहीं

पेट्रोलियम -रसायन--  121    ----   एक भी नहीं 

मंत्रिमंडल सचिवालय--   20  ------      1

कृषि-सिंचाई-----   261   -------   13

रक्षा मंत्रालय ----- 1379   ------      9

शिक्षा-समाज कल्याण--  259 -----      4

ऊर्जा ----------  641 -------- 20

विदेश मंत्रालय  ----- 649 -------- 1

वित्त मंत्रालय----    1008 ---------1

गृह मंत्रालय----      409  --------13

उद्योग मंत्रालय--     169----------3

सूचना व प्रसारण--    2506  ------124

विधि कार्य--         143   --         5

विधायी कार्य ---    112    ------ 2

कंपनी कार्य --       247      ------6

योजना---           1262 -----    72

विज्ञान प्रौद्योगिकी ----101  ---     1

जहाज रानी-           103 --        1

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----1990 के दैनिक ‘आर्यावत्र्त’ से साभार 

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पर,आश्चर्य है कि के.क.े पाठक के खिलाफ अभियान चलाने में पिछड़े नेता भी सक्रिय हैं।

इसे ही कहते हैं अपने ही पैरों पर कल्हाड़ी मारना।

पैसे वाले व ‘समर्थ’ लोग तो अपने बाल-बच्चों को बिहार से बाहर भेज कर पढ़ा लेंगे।पढ़ा भी रहे हैं।

पर,अधिकतर पिछड़े परिवारों के बाल -बच्चों को अच्छी शिक्षा तभी मुअस्सर हो पाएगी जब बिहार के ही सरकारी शिक्षण संस्थानों में गुणवत्ता आए।

गणवत्ता तभी आएगी जब पाठक जैसे अफसर भ्रष्टों,काहिलों और अयोग्यों की दवाई कर पाएंगे।ऐसा नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में यहां योग्य,कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार लोग नहीं हैं।

पर,वे अल्पमत में हैं ।इसलिए वे निर्णायक नहीं हैं।


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10 दिसंबर 23

  

 


गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

 सामाजिक तथा अन्य तरह के समारोहों में शामिल न हो पाने 

के लिए मेरे मित्र-शुभेच्छु-परिचित मुझे माफ कर देंगे,

ऐसी मैं आशा करता हूं।

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मेरे योग्य पुत्र और कर्मठ पत्नी पारिवारिक जिम्मेदारियां

सफलतापूर्वक निभा रहे हैं।

उस जिम्मेदारी से उन लोगों ने मुझे लगभग मुक्त कर

दिया है।

उनका मुझ पर दबाव है कि मैं सिर्फ पढ़ने-लिखने का ही काम करूं।

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मैं उसी काम में लगा हुआ भी हूं।

काम अधिक है,मेरे पास समय कम है।

अपने लेखों, अनुभवों, संस्मरणों को समेटना है।

धीरे-धीरे समेट भी रहा हूं ।

वह भी समाज का ही काम है।

मेरा पहला लेख सन 1967 में डा.लोहिया के निधन के बाद साप्ताहिक ‘सारण संदेश’(मीरगंज) में छपा था।

तब से मैं बिना थके, बिना रुके लिख ही रहा हूं।

अर्थोपार्जन के लिए भी लिखना जरूरी जो है।

1967 से ही बिहार और देश की राजनीति को भी दूर और पास से देख रहा हूं।

उसके बारे में भी मेरी अपनी राय है-स्वतंत्र और निष्पृह राय।

मेरा दिल ओ दिमाग किसी खूंटे से बंधा हुआ नहीं है।

देश,काल,पात्र की जरूरतों -समस्याओं को ध्यान में रखकर ही मैं किसी विषय पर अपनी राय बनाता हूं। 

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समारोहों में शामिल न होने का अर्थ यह नहीं है कि किन्हीं के प्रति मेरे मन में अवज्ञा का भाव है।

 मित्रों,परिचितों तथा अन्य लोगों से मेरे काम के प्रति मुझे जो सराहना मिली है,मिलती है,वह आशातीत है।

फिर अवज्ञा का भाव मेरे मन में भला कैसे आएगा ?

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सुरेंद्र किशोर

7 दिसंबर 23 


 अपनी इच्छा को ही चुनावी भविष्यवाणी के रूप में 

अक्सर पेश कर देते हैं अनेक बुद्धिजीवी-मसीजीवी गण

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सुरेंद्र किशोर

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हाल के पांच राज्यों के चुनाव के दौरान भी यही हुआ

जो लोग किसी के पक्ष या विपक्ष में हवा बनाने के लिए गलत भविष्यवाणियां करते रहते हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि इससे उनकी साख हर बार कुछ और नीचे चली जाती है

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किसी भी चुनाव से पहले देश -प्रदेश के अनेक नामी-गिरामी पत्रकार ,बुद्धिजीवी तथा अन्य लोग प्रिंट,इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया पर भविष्यवाणियां करते रहते हैं।

पिछले कुछ चुनावों के बारे में की गई कई मतदानपूर्व  भविष्यवाणियां मेरे नोट बुक में दर्ज हैं। 

 कागज छांटते समय उनमें से एक नोटबुक पर आज मेरी नजर पड़ी।

  उन्हें पढ़ने पर मेरा अच्छा-खासा मनोरंजन हुआ।

अधिकतर भविष्यवाणियां रिजल्ट से काफी उलट थीं।

कुछ ही सही साबित हुईं।

 गलत भविष्यवाणी करने वालों में मेरे कुछ मित्र और परिचित भी हैं।

इसलिए उनके नाम जाहिर नहीं करूंगा।

 कुछ ने तो अपने फेसबुक वाॅल पर और  कुछ अन्य ने अखबारों में लिखकर ‘‘हवा का रुख’’ बताया था जो गलत साबित हुआ।

जो जिस विचारधारा का है,(उनकी विचारधारा को मैं जानता हूं) उसने अपनी पसंद की पार्टी की ही अपने अनुमान में बढ़त दिखा दी।

  वैसे कुछ ‘‘भविष्यवक्ता’’ लगभग हर चुनाव से पहले वैसी ही गलती करते हैं।

  हालांकि वे नामी-गिरामी लोग हैं।वे पाठकों,दर्शकों और श्रोताओं की कमजोर स्मरण शक्ति का फायदा उठाते रहते हैं।

 उन्हें अपनी साख की कोई चिंता नहीं।

क्या वे कभी अपनी ही पिछली भविष्यवाणियों को रिजल्ट से मिलाते हैं ?

अपनी गलतियों से कोई सबक लेते हैं ?

  मित्र, जब आपको ही अपनी साख की चिंता नहीं है तो मैं चिंता क्यों करूं ?

मुझे किसी दल को न जितवाना है और न हरवाना है।

यह काम मतदाताओं का है।

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अंत में यही कहूंगा कि आप अपना काम करते रहिए।

उससे रिजल्ट के बाद मेरा मनोरंजन होता रहेगा।

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7 दिसंबर, 23

  


  ं


 यह आत्मश्लाघा है 

या प्रेरक प्रसंग ?!

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सुरेंद्र किशोर

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कई दशक पहले की बात है।

उत्तर बिहार के एक छात्र ने तय किया कि वह ट्रेन में बिना टिकट यात्रा नहीं करेगा।

हालांकि तब छात्रों से आम तौर पर टिकट चेकर, टिकट या पास नहीं मांगते थे।

हां,मजिस्ट्रेट चेकिंग की बात और थी।

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 वह छात्र मंथली पास लेकर चलता था।

किसी कारणवश अगली अवधि के लिए पास नहीं बनवा पाने की स्थिति में वह टिकट खरीद कर ही यात्रा करता था।

अन्य ‘बहादुर छात्र’ लोग उसे ‘बेवकूफ’ कहते थे।

एकाधिक बार ऐसा हुआ कि उसे टिकट कटाने का समय नहीं मिला।

वह बिना टिकट गंतव्य स्टेशन तक पहुंच जाता था।

न जाने पर क्लास छूटने का डर रहता था।

वहां के स्टेशन की टिकट खिड़की पर जाकर उसने हर बार पिछले स्टेशन तक का टिकट खरीदा।

 उसे फाड़कर फंेक दिया।

उद्देश्य था कि रेलवे को पैसे मिल जाएं।

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इस प्रसंग के बारे में आप क्या कहंेगे ?

प्रेरक प्रसंग या उस छात्र की आत्म प्रशंसा यानी आत्मश्लाघा ?

वैसे उस छात्र के ,जो अब अधेड़ हो चुका है, जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए जो प्रेरक प्रसंग की श्रेणी में आएंगे।

हालांकि ईष्र्यालु लोग उसे तुरंत झूठ या आत्मश्लाघा का दर्जा दे देंगे।

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जार्ज बर्नार्ड शाॅ ने कहा था कि सारी आत्म कथाएं झूठी होती हैं।

शाॅ की इस टिप्पणी के बावजूद अपनी पसंद की हस्तियों की जीवनियां लोगबाग पढ़ते ही हैं।

उनमें प्रेरक बातें होती हैं तो उनसे प्रेरणा भी लेते हैं।

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7 दिसंबर 23


बुधवार, 6 दिसंबर 2023

 1962 के रक्षा मंत्री दोषी,

पर, 1971 के रक्षा मंत्री को श्रेय नहीं

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सुरेंद्र किशोर

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8 दिसंबर, 22 को कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे ने कहा था कि हिमाचल प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की जीत का श्रेय प्रियंका गांधी को जाता है ।साथ ही, राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को भी।

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पर,हाल में तीन राज्यों में जब कांग्रेस हार गयी तो कांग्रेस का शीर्ष  नेतृत्व,इसके पीछे कांग्रेस कार्यकर्ताओं की कमजोरी बता रहा है।

साथ ही, टिकट बंटवारे में राज्य स्तर के कांग्रेसी नेताओं की गलतियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।

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कांग्रेस में पुरानी परंपरा है।

जीत के लिए ‘परिवार’ को शाबासी दो।

हार के कारणों को नीचे कहीं कारण ढंढ़ लो।

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1962 में जब चीन के हाथों भारत की पराजय हुई और हमारी जमीन चीन ने छीन ली तो उसके लिए दोषी रक्षा मंत्री वी.के.कृष्ण मेनन थे।

प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं।

मेनन को पद से हटा भी दिया गया।

1967 में मेनन को कांग्रेस का टिकट भी नहीं मिला जबकि वे सिटिंग मेम्बर थे।

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1971 में जब बांग्ला देश विजय हुई तो उसका पूरा श्रेय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को मिला।

आंध्र के एक कांग्रेसी सासंद ने लोक सभा में इंदिरा को दुर्गा तक कह दिया।

पर,दुर्गा शब्द, तब के गोदी मीडिया ने अटल बिहारी वाजपेयी के मुंह में डाल दिया।

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वाजपेयी तब के स्पीकर से यह आग्रह करते रह गये कि आपका सचिवालय इसका खंडन करे।

पर स्पीकर ने खंडन नहीं करवाया।

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ऐसे ही रवैये के कारण कांग्रेस दुबली होती गयी।

मुख्य प्रतिपक्षी दल का कमजोर और गैर-जिम्मेदार होना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कोई अच्छी बात नहीं है।

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6 दिसंबर 23 


मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

 1977 का लोक सभा चुनाव रिजल्ट

 आज की पीढ़ी को चैंकाएगा !

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1977 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेेस को 154 सीटें मिली थीं।

भारतीय लोक दल यानी जनता पार्टी को 295 सीटें मिलीं।

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उस चुनाव में एक अपवाद को छोड़कर (संभवतः छिन्दवाड़ा)

कांग्रेस अमृतसर से कलकत्ता तक साफ थी।

कांग्रेस को मिली 154 में से 89 सीटें दक्षिण के सिर्फ चार राज्यों से मिलीं।

वे राज्य थे--

आंध्र प्रदेश,

कर्नाटका,

केरल 

और तमिलनाडु।

जनता पार्टी को दक्षिण के उन चार राज्यों से सिर्फ 3 सीटें मिलीं।

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मुझे याद नहीं कि तब किसी ने कहा था कि देश उत्तर-दक्षिण में डिवाइड हो गया।

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जयप्रकाश नारायण के दबाव से चार प्रतिपक्षी दलों ने मिलकर जल्दी-जल्दी जनता पार्टी तो बना ली।

पर, उसे इतनी जल्दी चुनाव आयोग से चुनाव चिन्ह आबंटित नहीं हो सका।

 इसलिए जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने चरण सिंह के नेतृत्व वाले भारतीय लोक दल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा।

चुनाव चिन्ह था--हलधर किसान।

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पुनश्चः-

हमलोगों ने अपने गांव में एक कहावत सुनी थी-

‘‘सावन में सियार जनमलन,

भादो में बाढ़ आइल,

त कहलन कि अइसन बाढ़

 त हम पहिले कबो ना देखलीं।’’

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4 दिसंबर 23

 



 तेलांगना में अल्पसंख्यक मतों का कमाल

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अब के.सी.आर.क्या करेंगे ?!!

क्या वही करंेगे जो देवगौडा कर रहे ?

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सुरेंद्र किशोर

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अल्पसंख्यक मतदाताओं ने जो काम हाल के कर्नाटका विधान सभा चुनाव में किया,वही काम तेलांगना विधान सभा चुनाव में भी कर दिया।

इसीलिए कांग्रेस तेलांगना में सत्ता में आ रही है।

अल्पसंख्यकों ने कर्नाटका में जे डी एस को छोड़ा और तेलांगना में सत्ताधारी बी.आर.एस. को।

गत जुलाई में उर्दू दैनिक इंकलाब ने  राहुल गांधी के एक भाषण को उधृत करते हुए लिखा कि --‘‘कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है।’’

बाद में कांग्रेस की प्रियंका चतुर्वेदी ने कहा कि समाचार गलत है।उम्मीद है कि इंकलाब इसका खंडन करेगा।

पता नहीं खंडन आया या नहीं।

वैसे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह भी कह चुके थे  कि सरकार के बजट पर पहला हक मुसलमानों का है।

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2014 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की हार के कारणों की जांच के बाद ए.क. एंटोनी ने कहा था कि ‘‘जनता को लगा कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों की ओर झुकी हुई है।हमारी हार का यह एक कारण था।’’ 

हाल में एक खबर आई कि देश के  अल्पसंख्यकों ने यह तय किया है कि अब हम मतदान करने में मामले में कांग्रेस को तरजीह देंगे।

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इससे पहले अल्पसंख्यक उस दल को वोट देते रहे जो जहां भाजपा के खिलाफ सबसे मजबूत पड़ता है।

पर,अब खबर है कि अल्पसंख्यकों की यह रणनीति बनी है कि अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस को मजबूत करने की जरूरत है।

याद रहे कि पिछले विधान सभा चुनाव में केरल में अल्पसंख्यकों ने सी.पी.एम.को तरजीह दिया।

सन 2022 के यू.पी.विधान सभा चुनाव में सपा को अल्पसंख्यकों ने एकमुश्त वोट दिया।

पश्चिम बंगाल में 2021 के विधान सभा चुनाव में अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस और सी.पी.एम.को छोड़ कर ममता बनर्जी को वोट दिया था।

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अलपसंख्यकों के ताजा रुख से यह साफ है कि जिन चुनाव क्षेत्रों में अल्पसंख्यक वोट निर्णायक होंगे,यानी कम से कम 10 -25 प्रतिशत तक होंगे,वहां कांग्रेस का चुनावी भविष्य उज्जवल रह सकता है।

 लोक सभा के बाकी चुनाव क्षेत्रों में ???

थोड़ा कहना, अधिक समझना !!

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शेष भारत के ‘‘देवगौड़ाओं’’ और ‘‘के.सी.आरों’’ के लिए अभी से सबक सीख लेने का समय है। 

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मुस्लिम वोट का प्रतिशत

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तेलांगना-13 प्रतिशत

कर्नाटका--13 प्रतिशत

केरल-27 प्रतिशत

पश्चिम बंगाल-27 प्रतिशत

यू.पी.- 19 प्रतिशत

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 अखिल भारतीय--14 प्रतिशत

बिहार--17 प्रतिशत

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3 दिसंबर 23