सभी जातियों का अपने -अपने ढंग से योगदान है
भारत को बनाने और चलाने में-
किसी का कम तो किसी का अधिक !
--------------
सुरेंद्र किशोर
----------
कुछ दशक पहले स्टटिस्टिकल आउटलाइन आॅफ इंडिया (प्रकाशक-टाटा सर्विसेज लिमिटेड)के आंकड़े मैं देख रहा था।
तब के आंकड़ों के अनुसार चार उत्पादों के मामलों में भारत का विश्व में प्रथम स्थान था।
उन चार उत्पादों में से साढ़े तीन में पशुपालकों का योगदान था।
पशुपालक माने मुख्यतः यादव।
यानी, देखिए देश को आगे बढ़ाने में यादवों का कितना बड़ा हाथ रहा।
----------------
भारत के एक प्रकाशन समूह के बारे में एक आंकड़ा सोशल मीडिया पर हाल में सामने आया।
कहा गया कि वहां सिर्फ ब्राह्मण बहाल किए गए।
संभव है,यह बात सही हो।
पर,ब्राह्मणों की प्रतिभा भी तो देखिए।
पारंपरिक कारणों से पढ़ने-लिखने के क्षेत्र में उनका योगदान बेहतर रहा है।
ब्राह्मणों के खिलाफ बोलने वाले बुद्धिजीवी व पत्रकार मिलकर ‘‘इंडिया टूडे’’ जैसी एक शालीन और तथ्यपरक पत्रिका निकाल कर तो दिखा दें।
(हालांकि यूं ही बता दूं कि मैं बंद साप्ताहिक पत्रिका दिनमान को इंडिया टूडे से बेहतर मानता हूं।)
पिछड़े वर्ग के कई नेताओं और पंूजीपतियों के पास भी अब अच्छी-खासी पूंजी उपलब्ध है।
अब तो ‘‘दलित चेम्बर आॅफ काॅमर्स’’ भी बन गया है।वे किसी ऐसे प्रकाशन के लिए पूंजी निवेश कर ही सकते हैं।
-------------
यादव या ब्राह्मण ही नहीं बल्कि हर जाति का इस समाज में अपने- अपने ढंग से योगदान रहा है।
मेरे पिता कहा करते थे कि किसी बड़ी लकीर
(यानी बड़ी प्रतिभा )को छोटा करने में अपना समय बर्बाद मत करो।
उसके पास अपनी एक बड़ी लकीर खींच दो।
वह लकीर खुद ब खुद छोटी हो जाएगी।
इसका मैंने पालन किया और उसका लाभ मिला।
-------------
राजनीति से निराश होकर जब मैं सत्तर के दशक में मुख्य धारा की पत्रकारिता में आया तो मुझे भी अपनी पृष्ठभूमि (गांव का राजपूत परिवार,किसानी और लघु जमींदारी पृष्ठभूमि--परिवार का मैं पहला मैट्रिकुलेट था)के कारण कुछ मुझे भी झेलना पड़ा।
पर,मैं जानता था कि मैं मेहनत और ईमानदारी से एक दिन ऐसी स्थिति पैदा कर दूंगा कि वे मुझे स्वीकारेंगे।
लड़ाई-झगड़े की कोई जरूरत नहीं।
इसलिए मैं मन ही मन मुस्कराता था-विरोध नहीं करता था।
--------------
मैंने पूरे पत्रकारिता जीवन में यह पाया कि ब्राह्मणों में उदारता है।पर,आपको खुद को उनके सामने साबित करना होगा।
देश के जिन छह प्रधान संपादकों ने बारी -बारी से मुझे संपादक बनाना चाहा,उनमें चार ब्राह्मण और दो राजपूत थे।
---------
मैं इसलिए नहीं बना क्योंकि मैं उस पद के योग्य नहीं।
मैं नेता थोड़े ही हूं कि मुख्य मंत्री या प्रधान मंत्री पद की होड़ में अपनी बनी-बनाई साख को भी दांव पर लगा दूं !
मैं तथ्यों के साथ लेख लिख सकता हूं किंतु संपादकी नहीं कर सकता।
क्योंकि संपादकी का मतलब सिर्फ अच्छा लेख लिखना नहीं होता ,बल्कि प्रबंधन के ‘‘सुख-दुख’’ में शामिल होना भी होता है।
---------
20 दिसंबर 23
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें