सामाजिक तथा अन्य तरह के समारोहों में शामिल न हो पाने
के लिए मेरे मित्र-शुभेच्छु-परिचित मुझे माफ कर देंगे,
ऐसी मैं आशा करता हूं।
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मेरे योग्य पुत्र और कर्मठ पत्नी पारिवारिक जिम्मेदारियां
सफलतापूर्वक निभा रहे हैं।
उस जिम्मेदारी से उन लोगों ने मुझे लगभग मुक्त कर
दिया है।
उनका मुझ पर दबाव है कि मैं सिर्फ पढ़ने-लिखने का ही काम करूं।
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मैं उसी काम में लगा हुआ भी हूं।
काम अधिक है,मेरे पास समय कम है।
अपने लेखों, अनुभवों, संस्मरणों को समेटना है।
धीरे-धीरे समेट भी रहा हूं ।
वह भी समाज का ही काम है।
मेरा पहला लेख सन 1967 में डा.लोहिया के निधन के बाद साप्ताहिक ‘सारण संदेश’(मीरगंज) में छपा था।
तब से मैं बिना थके, बिना रुके लिख ही रहा हूं।
अर्थोपार्जन के लिए भी लिखना जरूरी जो है।
1967 से ही बिहार और देश की राजनीति को भी दूर और पास से देख रहा हूं।
उसके बारे में भी मेरी अपनी राय है-स्वतंत्र और निष्पृह राय।
मेरा दिल ओ दिमाग किसी खूंटे से बंधा हुआ नहीं है।
देश,काल,पात्र की जरूरतों -समस्याओं को ध्यान में रखकर ही मैं किसी विषय पर अपनी राय बनाता हूं।
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समारोहों में शामिल न होने का अर्थ यह नहीं है कि किन्हीं के प्रति मेरे मन में अवज्ञा का भाव है।
मित्रों,परिचितों तथा अन्य लोगों से मेरे काम के प्रति मुझे जो सराहना मिली है,मिलती है,वह आशातीत है।
फिर अवज्ञा का भाव मेरे मन में भला कैसे आएगा ?
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सुरेंद्र किशोर
7 दिसंबर 23
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