बिहार में कभी 85 प्रतिशत फेल होते थे, अब
उतने ही प्रतिशत पास होते हंै।
है न शिक्षा-परीक्षा में अद्भुत चमत्कार !!
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सुरेंद्र किशोर
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सन 1996 में बिहार में इंटर विज्ञान के 85 प्रतिशत परीक्षार्थी
फेल कर गये थे।
2025 में लगभग उतने ही प्रतिशत परीक्षार्थी पास हो गये।
यह कैसा चमत्कार है भई ?!
जबकि, आज बिहार में शिक्षण-व्यवस्था का हर स्तर पर
क्या हाल है,
यह किसी से छिपा हुआ नहीं है।
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परीक्षा में कदाचार रोकने के ‘‘अपराध’’ में यू.पी.
की जनता ने कल्याण सिंह सरकार को अगले
चुनाव में हरा कर सत्ता से बाहर कर दिया था
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यू.पी. की उस घटना के बाद चुनाव लड़ने वाली कोई सरकार
वैसा दुःसाहस अब नहीं करती।
यानी जो होता है,वह होने दो !गद्दी रहेगी तो दूसरे
काम तो होंगे न,भले मानव संसाधान बेहतर न बने।
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इसीलिए बिहार में जिन स्कूलों में शिक्षक नहीं,लैब नहीं,
वहां के परीक्षार्थी भी इस साल बन गये टाॅपर
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सन 1992 में कल्याण सिंह सरकार ने नकल विरोधी कानून बनाया।
मुलायम सिंह की सरकार ने 1994 में उस कानून को रद कर दिया।
यानी फिर बैतलवा डाल पर !
दरअसल यू.पी.बोर्ड की परीक्षा में कदाचार पूरी तरह रोक देने के कारण कल्याण सिंह की सरकार 1993 के यू.पी.विधान सभा चुनाव में हार कर सत्ता से बाहर हो गई।
सन 1992 में बाबरी ढांचा गिराने के कारण भाजपा के पक्ष में उत्पन्न सकारात्मक भावना को भी भंजाने में कल्याण सिंह विफल रहे।
यानी, कदाचार करने-कराने वाली जनता ने यह तय किया कि किसी न किसी तरह परीक्षा में अभी पास करना अधिक जरूरी है,राम मंदिर तो बनता रहेगा।हमारी परीक्षा की कीमत पर तो वह न बने।
अभी हमारे त्राणदाता तो मुलायम सिंह यादव हैं।
याद रहे कल्याण सरकार के नकल विरोधी कानून का व्यापक
विरोध करके मुलायम सिंह यादव कदाचारी विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों के ‘हीरो’ बन गए थे।
यानी,मुझे यह लगने लगा है कि चुनाव लड़ने वाली कोई भी सरकार परीक्षाओं में नकल नहीं रोक सकती। नीतीश सरकार भी यही मानती है।
कदाचार रोकने के लिए शायद किसी तानाशाह शासक की जरूरत इस देश में पड़ेगी।चीन सरकार तो कहती है कि चुनाव लड़ने वाली कोई सरकार इस्लामिक आतंकवादियों से सफलतापूर्वक नहीं लड़ सकती।वह काम तो हमारे जैसे यानी चीन जैसे शासन में ही संभव है।
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आज भारत का उद्योग जगत कहता है कि सिर्फ 27 प्रतिशत इंजीनियर ही ऐसे हैं जिन्हें नौकरी पर रखा जा सकता है।
हमारे स्वास्थ्य की देखरेख करने वाले तो ठीकठाक पढ़ लिखकर निकलें,यह जनता की इच्छा होती हैं।पर बिहार के कुछ मेडिकल काॅलेजों से इस बात को लेकर भी हड़ताल की खबर मिलती है कि ‘‘चोरी नहीं तो परीक्षा नहीं।’’यानी जनता भगवान भरोसे !
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जब-जब शिक्षा -परीक्षा के ध्वस्त होने की बात होती है,तब -तब कई लोग अपनी -अपनी ‘सुविधा’ के अनुसार अपना ‘टारगेट’ तय करके आरोप का गोला दागने लगते हैं।
पर 1963 से इस संबंध में मैंने जो कुछ अपनी आंखों से देखा है,उसे संक्षेप में शेयर करता हूं।
राजनीति और प्रशासन में गिरावट के अनुपात में शिक्षा में भी गिरावट होनी ही थी।हुई भी।
पहले परीक्षाओं में ‘सामंतवाद’ था। 1967 से उसमें ‘समाजवाद’ आ गया।
सरकारी नौकरियां देने के लिए कत्र्तव्यनिष्ठ उच्चपदस्थ अफसरों व सेना की देखरेख में यदि उम्मीदवारों की कदाचारमुक्त प्रतियोगी परीक्षाएं हों, तो स्थिति में सुधार हो सकता है।
छोटी -छोटी टुकड़ियों में सालों भर बड़े हाॅल में ऐसी परीक्षाएं होती रहें।
तभी सिर्फ योग्य लोग ही सेवाओं में आ सकेंगे।
अब भी योग्य लोग सेवा में हैं,पर कम संख्या में।
उसके बाद आम परीक्षाओं में जारी कदाचार का कुप्रभाव कम हो जाएगा।
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सन 1963 में मैं मैट्रिक की परीक्षा दे रहा था।
जिला स्कूल में केंद्र था।
उस जिले के सबसे अधिक प्रभावशाली सत्ताधारी नेता के परिवार के एक सदस्य के लिए चोरी की छूट थी।
केंद्र में किसी अन्य के लिए वह ‘सुविधा’ उपलब्ध नहीं थी।
बाद में काॅलेज का अनुभव जानिए।
मैं बी.एससी.पार्ट वन की परीक्षा दे रहा था।
संयोग से उस काॅलेज के एक उच्च पदाधिकारी के पुत्र की सीट मेरे ही हाॅल में पड़ी थी।
नतीजतन पूरे हाॅल को चोरी की छूट थी।
उसी केंद्र में किसी अन्य हाॅल में कोई छूट नहीं थी।
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उन दिनों मेडिकल - इंजीनियरिंग काॅलेजों में माक्र्स के आधार पर दाखिला हो जाता था।
प्रैक्टिकल विषयों में कुल 20 में उन्नीस अंक मिल जाने पर कम तेज उम्मीदवार भी डाक्टर या इंजीनियर आसानी से बन जाते थे।
संयोग से मेरा रूम मेट ही इन 250 रुपयों को इधर से उधर करता था।
न जाने कितनों को उसने डाक्टर-इंजीनियर बनवा दिया।
एक दिन मुझसे उसने पूछा,
‘का हो सुरिंदर,तुमको भी नंबर चाहिए।
तुमको कुछ कम ही पैसे लगेंगे।’’
मैंने कहा कि मुझे कोई नौकरी नहीं करनी है।
मेरा वह रूम मेट खुद हाई स्कूल का शिक्षक बना।
एक दिन पटना शिक्षा बोर्ड आॅफिस के पास संयोग से मिल गया था।
वैसे भी 200-250 रुपए मेरे लिए जुटाना तब मुश्किल था।
ऐसे गोरखधंघे के कारण ही माक्र्स के आधार पर दाखिला बाद में बंद हो गया।
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1967 के चुनाव के बाद परीक्षाओं में धुंआधार चोरी शुरू हो गई।
कहा भी जाने लगा कि ‘चोरी में समाजवाद’ आ गया।
महामाया सरकार ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की।
छात्रगण महामाया बाबू के ‘जिगर के टुकड़े’ जो थे !
के.बी.सहाय की सरकार को चुनाव में हराने में छात्रों की बड़ी भूमिका थी।
वैसे छात्र आंदोलन के अन्य कारण भी थे।
1967 के आम चुनाव से पहले बड़ा छात्र और जन आंदोलन हुआ था।
छात्रों पर भी जमकर पुलिस दमन हुआ था।
मैं भी तब एक छात्र कार्यकत्र्ता था।
मैंने खुद परीक्षा छोड़ दी थी क्योंकि आंदोलन के कारण मेरी तैयारी नहीं हो पाई थी।
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1972 में केदार पांडेय की सरकार ने नागमणि और आभाष चटर्जी जैसे कत्र्तव्यनिष्ठ अफसरों की मदद से परीक्षा में चोरी को बिलकुल समाप्त करवा दिया।
पर सवाल है कि अगले ही साल से ही फिर चोरी किसने होने दी ?
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1996 में पटना हाईकोर्ट के सख्त आदेश और जिला जजों की निगरानी में मैट्रिक व इंटर परीक्षाआंे में कदाचार पूरी तरह बंद कर दिया गया।
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पर, अगले ही साल से कदाचार फिर क्यों शुरू करवा दिया गया ?
किसने शुरू करवाया ?
क्या कदाचार की इस महामारी के लिए आप किसी एक दल एक सरकार या एक नेता या फिर किसी एक समूह को जिम्मेवार मान कर खुश हो जाना चाहते हैं ?
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और अंत में
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मैंने 1963 में मैट्रिक साइंस से फस्र्ट डिविजन में पास किया था।
गांव में रहता था।जवार के कुछ लोग मुझे देखने आए थे कि देखें,कौन लड़का है कि इतना अच्छा रिजल्ट किया।
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इस साल कुल 11 लाख इंटर परीक्षाथियों में से सिर्फ 90 हजार थर्ड डिविजन से पास हुए।
अब उन्हें लोग देखने जाते होंगे कि देखें कैसे अभागा लड़का है जो इस बहती गंगा में भी हाथ नहीं धो सका !!
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हमारे जमाने में बिहार में इक्के दुक्के परीक्षार्थी ही प्रथम श्रेणी में पास करते थे।
इस साल सबसे ज्यादा यानी पांच लाख 8 हजार परीक्षार्थी फस्र्ट डिविजन से पास हुए।पांच लाख 7 हजार सेकेंड डिविजन और सबसे कम यानी करीब 92 हजार थर्ड डिविजन से पास हुए।ऐसा रिजल्ट ही यह साबित करता है कि यह परीक्षा नहीं, बल्कि सब गोलमाल है।
हर समाज, हर देश,हर तबके में ‘‘फस्र्ट डिविजनर’’ सबसे कम होते हैं,सिर्फ बिहार परीक्षा बोर्ड के परीक्षार्थियों को छोड़कर।
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