सुधार की क्षमता गंवाती कांग्रेस
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सुरेंद्र किशोर
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कांग्रेस देश के बदलते मानस और राजनीतिक परिदृश्य
पर हो रहे परिवर्तन को समझ नहीं पा रही।
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कांग्रेस की पुरानी परंपरा रही है कि जीत का श्रेय
जहां नेहरू-गांधी परिवार के खाते में जाता है तो हार का ठीकरा दूसरे नेताओं पर फोड़ा जाता है।
इसी अघोषित ,किंतु स्थापित परिपाटी के अनुसार कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने हाल में कहा कि राज्यों के चुनाव परिणामों के लिए पार्टी के प्रभारी जिम्मेदार होंगे।
कुछ दिन पहले ही गुजरात में राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के नेताओं की भाजपा से मिलीभगत का आरोप लगाते हुए उन्हें कड़ी नसीहत दी।
राहुल ने ऐसे संदिग्ध नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने से परहेज न करने की बात भी कहीं।
स्पष्ट है कि किसी भी संभावित हार की स्थिति में पार्टी ने अपना रुख पहले से ही तैयार कर लिया है,जिसमंे हार की आंच किसी भी तरह नेहरू-गांधी परिवार पर न पड़ने दी जाएगी।
याद कीजिए कि 1962 में चीन से युद्ध हारने का जिम्मेदार तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के कृष्ण मेनन और सैन्य नेतृत्व को
बताया गया और नेहरू को उसकी तपिश से बचाने का हर संभव प्रयास किया गया।
इसके उलट 1971 में बांग्ला देश मुक्ति संग्राम में विजय का पूरा श्रेय इंदिरा गांधी के खाते में गया।
जब 2014 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय हुई तो उपाध्यक्ष रहे राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की,जिसे एक स्वर से ठुकरा दिया गया।
असल में जिस संगठन में जब ‘बास इज अलवेज राइट’का चलन होगा तो उसकी चाल बिगड़ने से भला कौन रोक सकता है।
राजनीतिक इतिहास यही दर्शाता है कि कांग्रेस स्वयं में
सुधार की क्षमता पूरी तरह खो चुकी है।
इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि दोष सिर में है और पार्टी इलाज पैर का करना चाहती है।
अब जब वोटिंग मशीन पर लांछन लगाना काम नहीं आ रहा है तो कांग्रेस आलाकमान ने अगली किसी आशंकित हार के लिए अभी से बलि का बकरा खोजने की कवायत शुरू कर दी हैं
आजादी के तत्काल बाद से ही जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक के आधार पर कांग्रेस ने देश पर लंबे समय तक शासन किया।हालांकि उसे 1952 में भी सिर्फ 45 प्रतिशत वोट मिले।
वह कभी 50 प्रतिशत तक भी नहीं पहुंच पाई।
नेहरू-गांधी परिवार के शीर्ष नेताओं को पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं ने अपना ऐसा मसीहा मान लिया जिसकी आलोचना मानो ईशनिंदा जैसी हो।
यह कोई नई बात नहीं है।
आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1977 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की भारी पराजय के लिए पूरी तरह इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी जिम्मेदार थे,लेकिन पार्टी में उनकी कोई जवाबदेही तय नहीं की गई और न ही उन्हें पराजय की कोई सजा मिली।
ऐसा इसलिए क्योंकि नेहरू-गांधी परिवार किसी भी अनुशासन या सजा से हमेशा ऊपर रहा है।
1977 के लोक सभा चुनाव के ठीक बाद कांग्रेस कार्य समिति सदस्यों और अन्य पदाधिकारियों के सामूहिक इस्तीफे का प्रस्ताव रखा गया था।
इस निर्णय का आधार इससे पहले इंदिरा गांधी के आवास पर हुई एक बैठक थी।
हालांकि बाद में नेताओं को लगा कि वह निर्णय कांग्रेस के हित में व्यावहारिक और दूरदर्शितापूर्ण नहीं है।लेकिन उस निर्णय के पीछे मुख्य मंशा यही थी कि बड़ी से बड़ी हार के लिए भी नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व को जिम्मेदार नहीं ठहराना है।
इससे पहले 1971 के लोक सभा चुनाव में जब कांग्रेस को भारी बहुमत मिला तो कहा गया कि यह इंदिरा जी के चमत्कारिक व्यक्तित्व का असर था।
चुनाव से पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था।पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार समाप्त किए।
इससे कांग्रेस के प्रति आम लोगों खासकर गरीबों का आकर्षण बढ़ा।
1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के पास संगठन का कोई मजबूत ढांचा नहीं था।
निजलिंगप्पा वाली कांग्रेस का नाम ही संगठन कांग्रेस पड़ा था,क्योंकि संगठन का अधिकांश निजलिंगप्पा के पास ही रह गया था।
1971 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत के पीछे यह तर्क मजबूत था कि शीर्ष नेता में यदि क्षमता-कुशलता है तो तो पार्टी को चुनावी लाभ मिलेगा ही।
उस समय के नेतृत्व को लोक लुभावन नारे ,भले वे झूठ ही क्यों न हों,गढ़ना तो आता था।
आज पार्टी और उसके शीर्ष नेतृत्व में ऐसे नारे गढ़ने की ‘प्रतिभा’ का भी अभाव दिखता है।
इसलिए अपनी कमी का दोष अपने दल के कार्यकर्ताओं ,नेताआंे तथा अन्य लोगों पर मढ़ना उसकी मजबूरी हैं
राहुल गांधी जब सार्वजनिक रूप से अजीबोगरीब बातें कहते हैं और उस कारण उनकी और उनकी पार्टी की किरकिरी होती है तो उसका दोष राहुल के वैचारिक सलाहकारों पर मढ़ दिया जाता है।
अंतराष्ट्रीय पत्रिका ‘इ इकोनमिस्ट’ ने 2012 में लिखा था कि राहुल गांधी दुविधाग्रस्त और अगंभीर नेता हैं।इसके बावजूद हर कोई राहुल को आगे बढ़ाने में लगा हुआ है।
लगता है कि कांग्रेस ने अपनी स्थिति का आकलन करना भी बंद कर दिया है जो पार्टी के पतन का एक प्रमुख कारण बना हुआ है।
एक समय देश के बड़े हिस्से पर शासन करने वाली कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपों से अपनी साख खोती गई,लेकिन पार्टी ने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया।
स्वतंत्रता के बाद से ही मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की समीक्षा करने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया।
2014 के चुनाव में मानमर्दन के बाद हार के कारणों की समीक्षा के लिए एंटनी समिति ने अपनी पड़ताल में पाया था कि मुस्लिमों की ओर झुकाव का पार्टी को भारी खामियाजा भुगतना पड़ा।
इसके बावजूद यही लगता है कि कांग्रेस ने उससे कोई सबक नहीं लिया।
अब कांग्रेस की अपने दम पर मात्र तीन राज्यों में सरकार है और ऐसे ही एक राज्य कर्नाटका की सरकार ने एलान किया है कि सरकारी ठेकों में मुस्लिम ठेकेदारों को आरक्षण दिया जाएगा।
इस पर बहस भी शुरू हो गई है।
लेकिन कर्नाटका का मामला यही रेखांकित करता है कि कांग्रेस इस पहलू की कोई परवाह नहीं करती।
आंतरिक सुरक्षा से जुड़े कुछ मुद्दों पर भी उसका रवैया उसे संदिग्ध बनाता है।
पार्टी देश के बदलते मानस और राजनीतिक परिदृश्य पर होते परिवर्तन को समझ नहीं पा रही और अपना जनाधार एवं प्रासंगिकता खोती जा रही है।
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