शुक्रवार, 26 जून 2020

चीन के पैसों से आपातकाल में हिंसक आंदोलन चलाने का
जार्ज फर्नांडिस पर आरोप मढ़ना चाहती थी सी.बी.आई.
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        --सुरेंद्र किशोर-- 
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‘‘यदि सुरेंद्र अकेला पकड़ा जाता तो उससे हमें जार्ज 
का चीन से संबंधों का पता चल सकता था।’’
  बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र मुकदमे की जांच में लगे एक अफसर ने मेरे एक मित्र को यह बात बताई थी।
उस अफसर की ‘जानकारी’ के अनुसार अकेला यानी मैं हर महीने नेपाल स्थित चीनी दूतावास से पैसे लाता था।
    उसकी तथाकथित ‘जानकारी’ दरअसल उच्चत्तम स्तर पर की गई साजिश की उपज मात्र थी।
उसमें कोई सच्चाई नहीं थी।
हां,मैं जार्ज से बिहार में जुड़े भूमिगत कार्यकत्र्ताओं के खर्चे के लिए हर महीने कानपुर से जरूर थोड़े पैसे लाया करता था।
जहां तक नेपाल का सवाल है,
न तो कभी सुरेंद्र सिंह नेपाल गया, न ही सुरेंद्र अकेला और न ही सरेंद्र किशोर।
याद रहे कि तीनों एक ही व्यक्ति का नाम रहा है।
  फिर भी यदि मैं पकड़ा जाता तो मेरे नाम पर आपातकाल में अखबारों के जरिए देश को यह बताया जाता था कि किस तरह जार्ज चीन का एजेंट है।
  जहां तक मेरी जानकारी है,बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे में सी.बी.आई.द्वारा तैयार केस में झूठ और सच का मिश्रण ही था।
एक झूठ की चर्चा यहां कर दूं।
वह यह कि 
‘‘जुलाई, 1975 में पटना मेें चार लोगों ने मिलकर 
यह षड्यंत्र किया कि इंदिरा गांधी सरकार को उखाड़ फेंकना है।
वे चार लोग थे-जार्ज फर्नांडिस,रेवतीकांत सिन्हा,महेंद्र नारायण वाजपेयी और सुरेंद्र अकेला।’’
 सच यह है कि इस तरह के किसी षड्यंत्र की खबर मुझे नहीं थी।
हालांकि आपातकाल में जितने समय तक जार्ज पटना में रहे ,मैं उनसे लगातार मिलता रहा।
  याद रहे कि डरा-धमका कर सी.बी.आई.ने रेवती बाबू जैसे
ईमानदार व समर्पित व्यक्ति को मुखबिर जरूर बना दिया था।
रेवती बाबू को सी.बी.आई. ने धमकाया था कि यदि मुखबिर नहीं बनिएगा तो आपका पूरा परिवार जेल में होगा।
कोई  मजबूत व्यक्ति भी परिवार को बचाने के लिए कई बार टूट जाता है।
मैं भी टूट सकता था यदि पकड़ा जाता।मैं तो रेवती बाबू जितना मजबूत भी नहीं था।
1966-67 में के.बी.सहाय की सरकार के खिलाफ सरकारी कर्मचारियों का जो ऐतिहासिक आंदोलन  हुआ,उसके सबसे बड़े अराजपत्रित कर्मचारी नेता रेवती बाबू ही थे। 
  वे जिस साप्ताहिक ‘जनता’ के वे संपादक थे,मैं उसका सहायक संपादक था।
इसलिए उन्हें करीब से जानने का मौका मिला था।
रेवती बाबू जैसा ईमानदार,जानकार,बहादुर और समर्पित नेता मैंने समाजवादी आंदोलन में भी कम ही देखा था।
पर,आपातकाल में  आतंक इतना था कि मत पूछिए।
   आपातकाल में शासकों से जुड़े खास लोगों व समर्थकों को छोड़ दें तो बाकी लोगों में सरकार का इतना आतंक था जितना लोग आज कोरोना से भी नहीं है।
  कोई खुलकर बात नहीं करता था।
प्रतिपक्षी नेताओं -कार्यकत्र्ताओं से, जो गिरफ्तारी से बचे थे, भूमिगत थे, बात करने से पहले कोई भी आगे-पीछे देख लेता था कि कोई तीसरा  देख तो नहीं रहा है।
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‘न्यूजवीक’ पत्रिका की काॅपी मैंने एक समाजवादी नेता को उनके आवास पर जाकर पढ़ने के लिए दिया।
  उसमें जेपी व जार्ज की तस्वीरों के साथ आपातकाल विरोधी भूमिगत आंदोलन पर रपट छपी थी।
खुद मैंने उसे पढ़़ने के बाद यह पाया था कि ऐसी रपट शायद उन्हें पढ़ने को नहीं मिली होगी।
पर वे तो इतना डरे हुए थे कि पढ़े बिना ही उसे लाइटर से तुरंत जला दिया।
मैं रोकता रह गया।
जिस तरह आज बिना मास्क के बाहर निकलना मना है,उसी तरह तब सरकार विरोधी ‘लिटरेचर’ अपने पास रखना मना था।   
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मुझे इसलिए भी मेघालय भागना पड़ा क्योंकि सी.बी.आई.मुझे खोज रही थी।
मैं भागा-फिर रहा था।
न कोई पैसे देने का तैयार और न शरण।
इक्के -दुक्के लोग ही छिपकर 
आंदोलनकारियों की थोड़ी मदद कर देते थे।थोड़ी मदद से जीवन कैसे चलता ?
जो जेलों में थे,उनकी अपेक्षा भूमिगत लोग काफी अधिक कष्ट में थे।
मेघालय में कांग्रेस की सरकार नहीं थी।मेरे बहनोई वहां कपड़े का व्यापार करते थे।
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 26 जून 20


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