चुनावी खर्चे में कमी के लिए पार्टियां भरसक करें डिजिटल सभाएं--सुरेंद्र किशोर
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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह सात जून को बिहार में ‘डिजिटल रैली’ करेंगे।
यानी, वे डिजिटल माध्यमों के जरिए प्रदेश के भाजपा कार्यकत्र्ताओं और आम लोगों को संबोधित करंेगे।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ ऐसे ही माध्यमों के जरिए लोगों तक पहुंचाते रहे हैं।
इसी 3 जून को मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने पटना से वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए मुजफ्फरपुर में स्थापित जार्ज फर्नांडिस की मूत्र्ति का अनावरण किया।
कोरोना महामारी ने कुछ खास तरह की स्थिति पैदा कर दी है।
फिलहाल उसी में जीना है।
पर, इसे विपत्ति को वरदान बनाया जा सकता है।
बिहार में विधान सभा चुनाव की तैयारी शुरू हो चुकी है।
अक्तूबर-नवंबर में चुनाव होने हैं।
राजनीतिक समां बांधाने के लिए राजनीतिक दल हर बार
बड़ी -बड़ी चुनावी सभाएं करते हैं।
उन पर बहुत सारे पैसे खर्च होते हैं।
यदि चुनाव तक कोरोना की महामारी थम गई तो वही होगा जो पहले भी होता रहा है।
पर यदि नहीं थमी तो अनेक नेताओं व दलों को भरसक डिजिटल सभाओं से संतोष करना पड़ेगा।
जो कमी रहेगी,उसे राजनीतिक दलों के कार्यकत्र्तागण पूर्ण करेंगे।
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डिजिटल सभाओं का क्यों
न हो स्थायी प्रचलन !
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इस गरीब देश में आम सभाओं और चुनावी सभाओं का डिजिटल
संस्करण विकसित होने लगे तो राजनीति पर हो रहे धुआंधार खर्चों
में कमी आ सकती है।
वे पैसे गंभीर व ईमानदार राजनीतिक कार्यत्र्ताओं को जीवन निर्वाह भत्ता
देने के काम आ सकते हैं।
इससे संभवतः राजनीति में शुचिता लाई जा सकेगी।
आज तो अधिकतर राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं को अपने जीवन
निर्वाह के लिए
‘‘तरह-तरह’’ के काम करने पड़ते हैं।
या फिर किसी ‘‘उम्मीद’’ में उन्हें अपने घर का आटा गीला करना पड़ता है।
जो टिक नहीं पाते ,वे राजनीति को बीच में ही छोड़कर किसी अन्य
काम में लग जाते हैं।
अनेक कार्यकत्र्ताओं को राजनीति में बनाए रखने के लिए उन्हें
सांसद-विधायक
फंड की ठेकेदारी दिलवा दी जाती है।
ठेकेदार -सह - राजनीतिक कार्यकत्र्ता
राजनीति की बेहतर छवि पेश नहीं करते।
अनेक संासद-विधायकों का तर्क है कि सांसद-विधायक
फंड को बनाए रखने की मजबूरी है।
क्योंकि उसी से राजनीतिक
कार्यकत्र्ताओं के गुजारे के लिए कुछ पैसे निकलते हैं।
पर, बड़ी- बड़ी खर्चीली जन सभाओं और चुनावी सभाओं पर होने
वाले खर्चे के पैसे बचाकर कार्यकत्र्ताओं को दिए जाएं तो क्या हर्ज है ?
इसलिए जो सभाएं डिजिटल माध्यमों से संभव हों,उनसे शुरूआत तो हो जाए!
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वृक्ष प्रतिरोपण बेहतर विकल्प
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दिल्ली सरकार ने वृक्ष प्रतिरोपण नीति, 2020 तैयार की है।
नीति के अनुसार यदि पेड़ों को
काटना पड़ता है तो
उनमें से 80 प्रतिशत पेड़ों का प्रत्यारोपण किया जाएगा।
इस नीति को जल्द दिल्ली के राज्य मंत्रिमंडल से
मंजूरी मिलने वाली है।
अभी यह आम नियम है कि एक पेड़ काटना हो तो उसके बदले दस पेड़
लगाने होंगे।
विकास योजनाओं के लिए पेड़ तो काटने ही पड़ते हैं।
वैसे नई नीति को लेकर विशेषज्ञों की अलग -अलग राय है।
प्रतिरोपण महंगा पड़ता है।
साथ ही, प्रतिरोपण के बाद पेड़ों के जीवित रहने का प्रतिशत कम रहता है।
वैसे कुल मिलाकर यह एक अच्छा विचार है।
छोटे पेड़ों के प्रतिरोपण की स्थिति में उसके जीवित रहने की संभावना अधिक रहती है।
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भूली बिसरी याद
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बिहार आंदोलन के दौरान 5 जून, 1974 को पटना के गांधी मैदान से सर्वोदय नेता जय प्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान करते हुए कहा था कि
‘‘ यह संघर्ष केवल सीमित उद्देश्यों के लिए नहीं हो रहा है।
उद्देश्य दूरगामी हैं।
भारतीय लोकतंत्र को रीयल यानी वास्तविक तथा सुदृढ़ बनाना है।
जनता का सच्चा राज कायम करना है।
समाज से अन्याय,शोषण आदि का अंत करना ,एक नैतिक ,सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक क्रांति करना,नया बिहार बनाना और अंततोगत्वा नया भारत बनाना है।
यह संपूर्ण क्रांति है।’’
तब के शासकों की ओर इंगित करते हुए जेपी ने यह भी कहा कि
‘‘किसी को कोई अधिकार नहीं है कि जयप्रकाश नारायण को लोकतंत्र की शिक्षा दे।
यह पुलिसवालों का देश है ?
यह जनता का देश है।
मेरा किसी व्यक्ति से झगड़ा नहीं है।
हमें तो नीतियों से झगड़ा है।
सिद्धांतों से झगड़ा है।
कार्यों से झगड़ा है।
चाहे वह कोई भी करे मैं विरोध
करूंगा।
यह आंदोलन किसी के रोकने से ,जयप्रकाश नारायण के भी रोकने से,
नहीं रुकने वाला है।
कुर्सियों पर बैठते हो !
आग तो तुम्हारी कुर्सियों के नीचे सुलग रही है।
यूनिवर्सिटी -काॅलेज एक वर्ष तक बंद रहेंगे।
सात जून से एसेम्बली के चारों गेटों पर सत्याग्रह होंगे।
अब नारा यह नहीं रहेगा कि ‘विधान सभा भंग करो।’
नारा रहेगा ‘विधान सभा भंग करेंगे।’
इस निकम्मी सरकार को हम चलने न दें।
जिस सरकार को हम मानते नहीं ,
जिसको हम हटाना चाहते हैं,
उसको हम टैक्स क्यों दें ?
हमें कर बंदी आंदोलन करना होगा।’’
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और अंत में
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फिल्मों में अश्लीलता अखरती है,खासकर भोजपुरी फिल्मों की।
मेरी टिप्पणी सभी फिल्मों के बारे में नहीं है।पर अधिकतर के बारे में तो है।
उम्मीद थी कि अकेले भाजपा जब पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में सत्ता ग्रहण करेगी तो वह फिल्म सेंसर बोर्ड को ‘टाइट’ करेगी।
पर, निराशा हो रही है।
अरे भई, कम से कम दशकों पहले बने संेसर नियमों को तो लागू कराने का प्रबंध कीजिए।
बहुत पहले मैंने उन नियमों को पढ़ा था।
आज की अधिकतर फिल्में उन नियमों पर खरी नहीं उतरतीं।
क्या इस बीच उन नियमों को बदल दिया गया ?
भारतीयों के संस्कार तो आम तौर से नहीं बदले हैं !
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5 जून, 20 को प्रभात खबर,पटना में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक
काॅलम कानोंकान से।
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