कक्षा में द्वितीय स्थान पाने
पर बाबू जी से मिला था साइकिल उपहार
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बात 1961 की है।
तब मैं बिहार के सारण जिले के दिघवारा स्थित जयगोविंद उच्च विद्यालय में पढ़ता था।
10 वीं कक्षा में मैं सेकेंड आया था।
वैसे तो मुझे फस्र्ट आना चाहिए था।
किंतु फस्र्ट आने वाले मुहम्मद ईसा
को उर्दू और फारसी में करीब 90-90 अंक मिला करते थे।
इधर संस्कृत में मुझे 35 और हिन्दी में साठ के आसपास आए थे।
फिर मैं ईसा का मुकाबला कैसे करता ?
वैसे बोर्ड परीक्षा में मुझे संस्कृत में सौ में 84 अंक आए थे।
वैसे ईसा की लिखावट बहुत अच्छी थी।
सेकेंड होने के कारण मैं उसके बगल में ही बैठता था।
उसी की देखा -देखी मैंने अपनी लिखावट सुधारी थी।
मेरी अच्छी लिखावट बाद के जीवन में मुझे बहुत काम आई।
मेरे बाबू जी यानी शिवनंदन सिंह--सन् 1898--सन् 1986--भी यह बात जानते थे कि मुझे फस्र्ट आना चाहिए था।
इसलिए वे तो मुझे फस्र्ट ही मानते थे।
खुश होकर उन्होंने कहा कि
‘चल छपरा, तोहरा के एगो साइकिल खरीद देब।’
हमलोग ट्रेन से दिघवारा से छपरा गए।
याद है, एवन साइकिल 98 रुपए में आई।
उससे अधिक महंगी साइकिलें भी तब बिकती थीं।
पर, बाबू जी अधिक खर्च नहीं कर सकते थे।
बाबू जी तो उस दिन ट्रेन से वापस आ गए।
किंतु मैं छपरा से 34 किलोमीटर साइकिल चलाते हुए गांव पहुंचा।
उन दिनों सड़कों पर वाहन भी बहुत कम होते थेे।
वैसे भी साइकिल पर चढ़ना भी उन दिनों सपने की तरह था।
वैसा सुखद अनुभव तो बाद में हवाई जहाज पर चढ़ने पर भी नहीं हुआ।
मेरे गांव से स्कूल करीब साढ़े तीन किलोमीटर पर अवस्थित था।
तब कच्ची सड़क थी।
साइकिल एक सहारा बन गई।
हाल में मेरे पुत्र अमित ने भी संयोग से एवन साइकिल ही खरीदी है।
अब उसकी कीमत 4 हजार रुपए है।
उसने अपनी कमाई से खरीदी है।
उसकी साइकिल उसकी सेहत ठीक रखने में काम आएगी।
मेरी तरह उसके लिए साइकिल आवश्यक आवश्यकता नहीं है।
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--सुरेंद्र किशोर--21 जून 20
पर बाबू जी से मिला था साइकिल उपहार
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बात 1961 की है।
तब मैं बिहार के सारण जिले के दिघवारा स्थित जयगोविंद उच्च विद्यालय में पढ़ता था।
10 वीं कक्षा में मैं सेकेंड आया था।
वैसे तो मुझे फस्र्ट आना चाहिए था।
किंतु फस्र्ट आने वाले मुहम्मद ईसा
को उर्दू और फारसी में करीब 90-90 अंक मिला करते थे।
इधर संस्कृत में मुझे 35 और हिन्दी में साठ के आसपास आए थे।
फिर मैं ईसा का मुकाबला कैसे करता ?
वैसे बोर्ड परीक्षा में मुझे संस्कृत में सौ में 84 अंक आए थे।
वैसे ईसा की लिखावट बहुत अच्छी थी।
सेकेंड होने के कारण मैं उसके बगल में ही बैठता था।
उसी की देखा -देखी मैंने अपनी लिखावट सुधारी थी।
मेरी अच्छी लिखावट बाद के जीवन में मुझे बहुत काम आई।
मेरे बाबू जी यानी शिवनंदन सिंह--सन् 1898--सन् 1986--भी यह बात जानते थे कि मुझे फस्र्ट आना चाहिए था।
इसलिए वे तो मुझे फस्र्ट ही मानते थे।
खुश होकर उन्होंने कहा कि
‘चल छपरा, तोहरा के एगो साइकिल खरीद देब।’
हमलोग ट्रेन से दिघवारा से छपरा गए।
याद है, एवन साइकिल 98 रुपए में आई।
उससे अधिक महंगी साइकिलें भी तब बिकती थीं।
पर, बाबू जी अधिक खर्च नहीं कर सकते थे।
बाबू जी तो उस दिन ट्रेन से वापस आ गए।
किंतु मैं छपरा से 34 किलोमीटर साइकिल चलाते हुए गांव पहुंचा।
उन दिनों सड़कों पर वाहन भी बहुत कम होते थेे।
वैसे भी साइकिल पर चढ़ना भी उन दिनों सपने की तरह था।
वैसा सुखद अनुभव तो बाद में हवाई जहाज पर चढ़ने पर भी नहीं हुआ।
मेरे गांव से स्कूल करीब साढ़े तीन किलोमीटर पर अवस्थित था।
तब कच्ची सड़क थी।
साइकिल एक सहारा बन गई।
हाल में मेरे पुत्र अमित ने भी संयोग से एवन साइकिल ही खरीदी है।
अब उसकी कीमत 4 हजार रुपए है।
उसने अपनी कमाई से खरीदी है।
उसकी साइकिल उसकी सेहत ठीक रखने में काम आएगी।
मेरी तरह उसके लिए साइकिल आवश्यक आवश्यकता नहीं है।
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--सुरेंद्र किशोर--21 जून 20
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