ताजा संदर्भ-राजीव गांधी फाउंडेशन
को चीन से मिली भारी धनराशि का !
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--सुरेंद्र किशोर--
शीत युद्ध के जमाने में कम्युनिस्ट देश जहां भारत में साम्यवाद के फैलाव के लिए पैसे खर्च कर रहे थे तो वहीं पूंजीवादी देश साम्यवाद को रोकने के लिए ।
जिस देश के अनेक नेता और बुद्धिजीवी बिकने को तैयार रहे हों,वहां उन दोनों शक्तियों
के लिए काम बड़ा आसान था।
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भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों के अनेक नेताओं का यह विचार रहा है कि खतरनाक विदेशी जासूस सिर्फ वही
है जो हमारे राजनीतिक विरोधियों को धन दे।
जो हमें दे रहा है,उसमें कोई बुराई नहीं !!
इतिहास बताता है कि एक दल को छोड़कर इस देश के
सारे प्रमख राजनीतिक दलों ने 1967
के आम चुनाव के लिए विदेशियों से धन लिए थे।
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भाजपा ने कल आरोप लगाया है कि राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी दूतावास से 90 लाख रुपए मिले थे।
उस पर कांग्रेस कोई तार्किक जवाब नहीं .दे पा रही।
वैसे अभी जानिए कि आपात काल में इंदिरा गांधी की सोवियत जासूसी संगठन के.जी.बी.के बारे में क्या राय थी--
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बिशन टंडन की डायरी से
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25 जून, 1975 की रात में देश में आपातकाल लागू हुआ।
अगले दिन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने भारत सरकार के सचिवों
की बैठक की।
प्रधान मंत्री के तब के संयुक्त सचिव रहे बिशन टंडन के अनुसार,
उस बैठक में श्रीमती गांधी ने कहा कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए
यह कदम उठाया गया है।
मंत्रालय के सचिवों के समक्ष श्रीमती गांधी के तर्क थे कि
‘‘प्रतिपक्ष नाजीवाद फैला रहा है।
नाजीवाद केवल सेना व पुलिस के उपयोग से ही नहीं आता है।
कोई छोटा समूह जब गलत प्रचार करके जनता को गुमराह करे तो
वह भी नाजीवाद का लक्षण है।
भारत में दूसरे दलों की सरकारें भले बन जाएं ,पर मैं माक्र्सवादी
कम्युनिस्टों और जनसंघ की सरकार नहीं बनने दूंगी।
जय प्रकाश के आंदोलन के लिए रुपया बाहर से आ रहा है।
अमरीकी खुफिया संगठन सी.आई.ए. यहां बहुत सक्रिय है।
के.जी.बी.का कुछ पता नहीं।
लेकिन उनके यानी के. जी. बी. के कार्य का कोई प्रमाण सामने
नहीं आया है।
प्रतिपक्ष का सारा अभियान मेरे विरूद्ध है।
मेरे अतिरिक्त मुझे कोई ऐसा व्यक्ति नजर नहीं आता जो इस
समय देश के सामने आई चुनौतियों का सामना कर सके।’’
बिशन टंडन के अनुसार प्रधान मंत्री जब के.जी.बी.की चर्चा कर रही थीं तो वह प्रकारांतर से यह भी कह रही थीं कि सोवियत संघ का यह खुफिया संगठन भारत में कोई गलत काम नहीं कर रहा था।
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के.जी.बी.के मित्रोखिन की पुस्तक
से भारत में मचा था हंगामा
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इंदिरा जी जो कहें, पर 2005 में के.जी.बी.के भारत में कारनामों का खुलासा हो ही गया।
क्रिस्टोफर एंड्रूज के साथ मिलकर के.जी.बी.के पूर्व वरिष्ठ योजनाकार वासिली मित्रोखिन ने करीब 15 साल पहले दो किताबें लिखीं।
उसके जरिए उसने भारत में के.जी.बी.के एजेंटों का भंडाफोड़ कर दिया।
मित्रोखिन के अनुसार,के.जी.बी.ने कई भारतीय समाचार पत्रों ,बुद्धिजीवियों व नेताओं पर अरबो -खरबों रुपए खर्च किए।
मित्रोखिन के रहस्योद्घाटन का तब कांग्रेस व कम्युनिस्टों ने खंडन किया था।
ज्योति बसु ने तब कहा था कि
‘‘मुझे यह तो नहीं मालूम कि के.जी.बी.ने इंदिरा गांधी को धन दिया या नहीं ,परंतु एक बात मैं अच्छी तरह जानता हूं कि वामपंथियों की गतिविधियों को रोकने के लिए अमेरिका ने इंदिरा गांधी को व्यक्तिगत रूप से भी धन दिया और कांग्रेस को भी।’’
क्या लोग इतना भोले हैं कि बसु की इस बात पर विश्वास कर लें कि कम्युनिस्ट देशों ने भारत में अघोषित ढंग से कोई खर्च नहीं किया ?!!
भारत में अमेरिका के राजदूत रहे डेनियल मोयनिहान ने अपनी
पुस्तक ‘‘अ डेंजरस प्लेस’’ में लिखा कि किस तरह कम्युनिस्ट फैलाव को रोकने के लिए अमेरिका ने भारतीय नेताओं को पैसे दिए।
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1967 के उस विस्फोटक रहस्योद्घाटन
के बाद भी भारतीय राजनीति की
धलोलुपता
कम नहीं हुई
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1967 में लीपापोती की कोशिश में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने संसद में
कह दिया था कि जिन दलों और नेताओं को विदेशों से धन मिले हैं,उनके नाम जाहिर नहीं किए जा सकते ।
क्योंकि उससे उनके हितों को नुकसान पहुंचेगा।
फिर क्या था !
नाजायज धन के इस्तेमाल को लेकर नेताओं और दलों की झिझक समाप्त होती चली गयी।
1967 के आम चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी थी।
लोक सभा में उसका बहुमत पहले की अपेक्षा कम हो गया।
चुनाव के छह माह के भीतर ही उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ कांग्रेसी विधायकों ने दल बदल करके वहां गैर कांग्रेसी सरकारें बनवा दीं।
इन घटनाओं से इंदिरा गांधी चिंतित र्हुइं।
उन्हें लगा कि प्रतिपक्षी दलों ने नाजायज धन खर्च कर कांग्रेस को हरवा दिया।
चुनाव में धन के इस्तेमाल की केंद्रीय खुफिया एजेंसी से जांच करायी गयी।
जांच से यह पता चला कि सिर्फ एक मझोले राजनीतिक दल को छोड़कर कांग्रेस सहित सभी प्रमुख दलों को 1967 का चुनाव लड़ने के लिए विदेशों से पैसे मिले थे।सरकार ने उस रपट को दबा दिया।
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खुफिया जांच रपट छपी अमेरिकी पेपर में
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पर, वह रपट एक अमेरिकी अखबार में छप गया।
उसके बाद लोक सभा में हंगामा हो गया।
प्रतिपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने रपट को प्रकाशित करने की मांग की।
उसी के जवाब में गृह मंत्री चव्हाण का उपर्यक्त बयान आया था।
यदि उसी समय रपट जारी करके पैसे लेने वालों के खिलाफ जांच करायी गयी होती तो राजनीति और चुनाव में स्वच्छता लाने में सुविधा होती।
पर जांच कैसे होती ?
उस रपट के अनुसार कांग्रेस के ही कुछ दक्षिणपंथी नेताओं ने अमेरिका से तो कुछ वामपंथियों ने कम्युनिस्ट देश से पैसे लिए थे।
अब स्थिति कंट्रोल के बाहर
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पर अब तक स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि इस समस्या से निपटना इस देश के लिए मुश्किल हो चुका है।
चिंताजनक बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल खुद को सूचना के अधिकार के तहत लाने तक को तैयार नहीं है।
1967 में नेता व दल आम तौर पर चुनाव लड़ने के लिए देसी-विदेशी शक्तियों से पैसे लेते थे।
अब तो आरोप है कि अधिकतर नेतागण अपनी निजी संपत्ति बढ़ाने के लिए भी पैसे ले रहे हैं।
अब तो चुनावी टिकट बेचकर भी भारी धनराशि कमाने का धंधा भी दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है।
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--26 जून 20
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