मंगलवार, 9 जून 2020

     सामान्य शिक्षा को नहीं तो कम से कम 
     तकनीकी शिक्षा को तो कदाचार से बचा लो !
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 सन 1992 में कल्याण सिंह सरकार ने नकल विरोधी कानून बनाया।
मुलायम सिंह की सरकार ने 1994 में उस कानून को रद कर दिया।
दरअसल यू.पी.बोर्ड की परीक्षा में कदाचार पूरी तरह रोक देने के कारण कल्याण सिंह की सरकार 1993 के चुनाव में सत्ता से बाहर हो गई।
1992 में बाबरी ढांचा गिराने के कारण उत्पन्न भावना को भंजाने का चुनावी लाभ तक भाजपा को नहीं मिल सका था।
मुलायम सिंह यादव कदाचारी विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों के ‘हीरो’ बन गए थे।
   यानी,मुझे यह लगने लगा है कि  चुनाव लड़ने वाली कोई भी सरकार आम परीक्षाओं में नकल नहीं रोक सकती।
उसके लिए शायद किसी तानाशाह शसक की जरूरत पड़ेगी।
या फिर कोई सरकार चुनाव जीतने के प्रथम साल से ही शिक्षा-परीक्षा माफियाओं पर नकल कसना शुरू कर दे तो शायद कुछ  बात बने।
  अपने ताजा पोस्ट में मैंने मेडिकल शिक्षा-परीक्षा को बेहतर बनाने की जरूरत बताई है।
कम से कम तकनीकी संस्थानों की हालत तो सुधरे !
  आज उद्योग जगत कहता है कि सिर्फ 27 प्रतिशत इंजीनियर ही ऐसे हैं जिन्हें नौकरी पर रखा जा सकता है।
 हमारे स्वास्थ्य की देखरेख करने वाले तो ठीकठाक पढ़ लिखकर निकलें।
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जब-जब शिक्षा -परीक्षा के ध्वस्त होने की बात होती है,तब -तब कई लोग अपनी -अपनी ‘सुविधा’ के अनुसार अपना ‘टारगेट’ तय करके आरोप का गोला दागने लगते हैं।
पर 1963 से इस संबंध में मैंने जो कुछ अपनी  आंखों से देखा है,उसे संक्षेप में शेयर करता हूं।
1.-राजनीति और प्रशासन में गिरावट के अनुपात में शिक्षा में भी गिरावट होनी ही थी।
हुई भी।
2.-पहले परीक्षाओं में ‘सामंतवाद’ था। 1967 से उसमें ‘समाजवाद’ आ गया।
3.-सरकारी नौकरियां देने के लिए कत्र्तव्यनिष्ठ उच्चपदस्थ अफसरों व सेना की देखरेख में उम्मीदवारों की कदाचारमुक्त प्रतियोगी परीक्षाएं हों।
छोटी -छोटी टुकड़ियों में सालों भर बड़े हाॅल में ऐसी परीक्षाएं होती रहें।
तभी सिर्फ योग्य लोग ही सेवाओं में आ सकेंगे।
अब भी योग्य लोग सेवा में हैं,पर कम संख्या में।
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1963 में मैं मैट्रिक की परीक्षा दे रहा था।
जिला स्कूल में केंद्र था।
उस जिले के सबसे अधिक प्रभावशाली सत्ताधारी नेता के परिवार के एक सदस्य के लिए चोरी की छूट थी।
केंद्र में किसी अन्य के लिए वह ‘सुविधा’ उपलब्ध नहीं थी।
   बाद में काॅलेज का अनुभव जानिए।
मैं बी.एससी.पार्ट वन की परीक्षा दे रहा था।
संयोग से उस काॅलेज के एक उच्च पदाधिकारी के पुत्र की सीट मेरे ही हाॅल में पड़ी थी।
नतीजतन पूरे हाॅल को चोरी की छूट थी।
उसी केंद्र में किसी अन्य हाॅल में कोई छूट नहीं थी।
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उन दिनों मेडिकल - इंजीनियरिंग काॅलेजों में माक्र्स के आधार पर दाखिला हो जाता था।
प्रैक्टिकल विषयों में कुल 20 में उन्नीस अंक मिल जाने पर कम तेज उम्मीदवार भी डाक्टर या इंजीनियर आसानी से बन जाते थे।
  संयोग से मेरा रूम मेट ही इन 250 रुपयों को इधर से उधर करता था।
न जाने कितनों को उसने डाक्टर-इंजीनियर बनवा दिया।
एक दिन मुझसे उसने पूछा, 
‘का हो सुरिंदर,तुमको भी नंबर चाहिए।
तुमको कुछ कम ही पैसे लगेंगे।’’
मैंने कहा कि मुझे कोई नौकरी नहीं करनी है।
मेरा वह रूम मेट खुद हाई स्कूल का शिक्षक बना।
एक दिन पटना शिक्षा बोर्ड आॅफिस के पास  संयोग से मिल गया था।
वैसे भी 200-250 रुपए मेरे लिए जुटाना तब मुश्किल था।
ऐसे गोरखधंघे के कारण ही माक्र्स के आधार पर दाखिला बाद में बंद हो गया।
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  1967 के चुनाव के बाद परीक्षाओं में धुंआधार चोरी शुरू हो गई।
कहा भी जाने लगा कि ‘चोरी में समाजवाद’ आ गया।
महामाया सरकार ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की।
छात्रगण महामाया बाबू के ‘जिगर के टुकड़े’ जो थे ! 
के.बी.सहाय की सरकार को चुनाव में हराने में छात्रों की बड़ी भूमिका थी।
1967 के आम चुनाव से पहले बड़ा छात्र और जन आंदोलन हुआ था।
छात्रों पर भी जमकर पुलिस दमन हुआ था।
मैं भी तब एक छात्र कार्यकत्र्ता था।
मैंने खुद परीक्षा छोड़ दी थी क्योंकि आंदोलन के कारण मेरी तैयारी नहीं हो पाई थी।
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1972 में केदार पांडेय की सरकार ने नागमणि और आभाष चटर्जी जैसे कत्र्तव्यनिष्ठ अफसरों की मदद से परीक्षा में चोरी को बिलकुल समाप्त करवा दिया।
  पर सवाल है कि अगले ही साल से ही फिर चोरी किसने होने दी ?
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1996 में पटना हाईकोर्ट के सख्त आदेश और जिला जजों की निगरानी में मैट्रिक व इंटर परीक्षाआंे  में कदाचार पूरी तरह बंद कर दिया गया।
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पर, अगले ही साल से कदाचार फिर क्यों शुरू करवा दिया गया ?
किसने शुरू करवाया ?
क्या कदाचार की इस महामारी के लिए आप किसी एक दल एक सरकार या एक नेता या फिर किसी एक समूह को जिम्मेवार मान कर खुश हो जाना चाहते हैं ?
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--सुरेंद्र किशोर-7 जून 20   


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