शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

 सिर में दर्द हो तो क्या सिर काट दोगे ?

राजद्रोह कानून का दुरुपयोग हो 

रहा है तो क्या इस कानून को ही खत्म कर दोगे 

जबकि देश में राजद्रोहियों की संख्या बढ़ती जा रही है ?     

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        सुरेंद्र किशोर

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   राजद्रोह कानून के औचित्य पर भारत का सुप्रीम कोर्ट इन दिनों विचार कर रहा है।

इस कानून के दुरुपयोग की खबरों से सुप्रीम कोर्ट का भी चिंतित हो जाना लाजिमी है।

किंतु उम्मीद है कि अंततः सुप्रीम कोर्ट इस कानून को जारी रखने के पक्ष में ही अपनी राय देगा।

सुप्रीम कोर्ट से यह भी उम्मीद की जाती है कि वह इस कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए कड़े कदम उठाने का सख्त निदेश सरकार को देगा।

यदि इस कानून को रद करने के पक्ष में राय देगा तो संभव है कि सुप्रीम कोर्ट को वैसे किसी आदेश पर देर- सबेर पुनर्विचार करना पड़ेगा।

क्योंकि इस देश में राजद्रोहियों की संख्या बढ़ रही है। 

 राजद्रोह कानून के दुरुपयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट सन 1962 में ही अपना दिशा -निदेश दे चुका है।

शासन यह सुनिश्चित करे कि 

1962 के उस ऐतिहासिक जजमेंट की धज्जियां नहीं उड़ाई जाएं।

हाल के वर्षों में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम इस संबंध में 1962 के अपने निर्णय पर कायम हैं।

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वैसे यह बात सभी पक्षों को समझ लेनी चाहिए कि जो शक्तियां इस देश में राजद्रोही गतिविधियां चला रही हैं,या जो किसी लाभ-लोभ के तहत उनके समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि राजद्रोह कानून रद कर दिया जाए।

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   1962 के जजमेंट की कहानी

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26 मइर्, 1953 को बिहार के बेगूसराय में एक रैली हो रही थी।

फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह रैली को संबांधित कर रहे थे।

रैली में सरकार के खिलाफ अत्यंत कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने कहा कि 

‘‘सी.आई.डी.के कुत्ते बरौनी में चक्कर काट रहे हैं।

कई सरकारी कुत्ते यहां इस सभा में भी हैं।

जनता ने अंगे्रजों को यहां से भगा दिया।

कांग्रेसी कुत्तों को गद्दी पर बैठा दिया।

इन कांग्रेसी गुंडों को भी हम उखाड़ फकेंगे।’’

   ऐसे उत्तेजक व अशालीन भाषण के लिए बिहार सरकार ने केदारनाथ सिंह के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दायर किया।

केदारनाथ सिंह ने पटना हाईकोर्ट की शरण ली।

हाईकोर्ट ने उस मुकदमे की सुनवाई पर रोक लगा दी।

बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई।

सुप्रीम कोर्ट ने आई.पी.सी.की राजद्रोह से संबंधित धारा  

को परिभाषित कर दिया।

  20 जनवरी, 1962 को मुख्य न्यायाधीश बी.पी.सिन्हा की अध्यक्षता वाले संविधान पीठ ने कहा कि

 ‘‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है,जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े।’’

 चूंकि केदारनाथ सिंह के भाषण से ऐसा कुछ नहीं हुआ था,इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह को राहत दे दी।

   देशद्रोह के हाल के कुछ मामलों को अदालतें 1962 के उस निर्णय की कसौटी पर ही कसे।

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राजद्रोह का ताजा मामला 9 फरवरी 2016 को जे एन यू कैम्पस में सामने आया था।

तब वहां कश्मीरी जेहादी अफजल गुरू की बरखी मनाई जा रही थी।

उस अवसर पर खुलेआम नारे लगे--

‘‘भारत की बर्बादी तक,कश्मीर की आजादी तक,

जंग रहेगी,जंग रहेगी।

भारत तेरे टुकड़े होंगे,

इंशाअल्लाह,इंशा अल्लाह।

अफजल हम शर्मींदा हैं,

तेरे कातिल जिंदा हैं।’’

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कौन कहेगा कि 2016 के बाद वैसे लोगों की संख्या इस देश में घट गई है जो 

इस लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं कि ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’’ ?

क्या ऐसे लोगों का मुकाबला शासन किसी हल्के कानूनों के जरिए कर सकता है ?

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याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने आपात काल में दिए गए अपने एक मशहूर जजमेंट को खुद ही कुछ साल पहले गलत बताया।

वह निर्णय बंदी प्रत्यक्षीकरण को लेकर था।

तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आपातकाल में नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की मांग नहीं कर सकता।

नागरिक अधिकारों में जीने का अधिकार भी शामिल है। 

उससे ठीक पहले केंद्र सरकार के वकील नीरेन डे ने सबसे बड़ी अदालत से   

कहा था कि यह इमरजेंसी (1975-77)ऐसी है जिसके दौरान यदि शासन किसी की जान भी ले ले तो उस हत्या के खिलाफ अदालत की शरण नहीं ली जा सकती।

सुप्रीम कोर्ट ने तब नीरेन डे की बात पर अपनी मुहर लगा दी थी।

याद रहे कि इमरजेंसी में पूरे देश मेें शासन ने भय और आतंक का माहौल खड़ा कर दिया था।

पर,जब वैसा माहौल नहीं रहा तो सुप्रीम कोर्ट को बाद में अपने उस पुराने निर्णय पर पछतावा हुआ था।

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     डा.लोहिया भी समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे

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       सुरेंद्र किशोर

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डा.राम मनोहर लोहिया समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे।

इसलिए भी कि भारत के संविधान के नीति निदेशक तत्व वाले अध्याय में लिखा हुआ है कि 

‘‘राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता, यानी यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने का प्रयास करेगा।’’

  गृह मंत्री अमित शाह ने कल भोपाल में जो कुछ कहा ,  वह न सिर्फ संविधान सम्मत है,बल्कि डा.लोहिया के विचार के अनुकूल भी है।

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 डा.लोहिया सन  1967 में उत्तर प्रदेश के कन्नौज से लोक सभा चुनाव लड़ रहे थे।

किसी पत्रकार ने पूछ दिया, ‘‘आप सामान्य नागरिक संहिता के पक्ष में हैं ?

लोहिया ने कहा कि ‘‘हां, मैं पक्ष में हूं।’’

दूसरे दिन अखबार में प्रमुखता से लोहिया की यह टिप्पणी छप गई।

उसपर डा.लोहिया के एक प्रमुख साथी ने उनसे कहा कि ‘‘डाक्टर साहब,यह आपने क्या कह दिया ?

कन्नौज में मुसलमान वोटर की अच्छी-खासी आबादी है।अब तो आप चुनाव नहीं जीतिएगा।’’

उस पर डा.लोहिया ने जवाब दिया,‘‘मैं सिर्फ चुनाव जीतने के लिए राजनीति नहीं करता।देश बनाने के लिए राजनीति करता हूं।’’

  इस बयान के कारण डा.लोहिया करीब 400 मतों से विजयी हुए जबकि उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस विरोधी हवा थी।

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यानी, आज भी इस देश में दो तरह के नेता व दल हैं।

 एक चुनाव जीतने वाले और दूसरे देश बनाने वाले।

देखना है कि आने वाले वर्षों में कौन विजयी होता है।  

  


 मोरारजी देसाई सरकार के कैबिनेट मंत्रियों के नाम निम्नलिखित हैं।

इनमें बताइए कि संगठन कांग्रेस घटक के कौन -कौन थे ?

आपने लिखा है कि अधिकांश संगठन कांग्रेस के थे।

1.-मोरारजी देसाई

2-.चरण सिंह

3.-जगजीवन राम

4-एच.एम.पटेल (रिटायर आई.सी.एस.)

5-अटल बिहारी वाजपेयी

6-एल.के. आडवाणी

7-जार्ज फर्नाडिस

8-प्रकाश सिंह बादल

9-सिकंदर बख्त

10-पी.रामचंद्रन

11-पी सी चुंदर

12-शांतिभूषण

13-बृजलाल वर्मा

14-मधु दंडवते

15-राजनारायण

16-हेमवतीनंदन बहुगुणा

17-रवींद्र वर्मा

18-मोहन धारिया

19-बीजू पटनायक

20-पुरुषोत्तम कौशिक 

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हां,मोरारजी देसाई के दो निर्णयों की जरूर आलोचना हुई।

एक तो उन्होंने राज्यपाल अधिकतर संगठन कांग्रेस के लोगों को ही बनाए।

दूसरी आलोचना मधु लिमये ने यह की कि उत्तर भारत की  दो मजबूत जातियों राजपूत और यादव में से कोई कैबिनेट में नहीं था।

बाद में 1980 में संजय गांधी ने उस असंतोष का फायदा उठाकर चार राज्यों में राजपूत मुख्य मंत्री बनवाए।

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प्रमोद जी, कभी-कभी आपकी जानकारीपूर्ण टिप्पणियों से मैं भी अपनी जानकारी बढ़ाता हूं।

मेरी इस टिप्पणी के जरिए आप भी चाहें तो अपनी जानकारी बढ़ा सकते हैं।


     जब रक्षक ही बन जाए भक्षक !

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    सुरेंद्र किशोर

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प्रवर्तन निदेशालय ने एक पूर्व बी एस एफ अफसर सतीश कुमार को इसी सोमवार को गिरफ्तार किया है।

वह भारत-बांग्ला देश सीमा पर तैनात था।

बी एस एफ के 36 बटालियन के कमांडेंट रहे सतीश पर एक तस्कर से 12 करोड़ रुपए लेने का आरोप है।

तस्करों ने ये पैसे अफसर सतीश के पत्नी और ससुर के बैंक खातों में डाले ।

  इससे पहले केंद्रीय एजेंसी ने तस्कर मुहम्मद एनामुल हक, विनय मिश्र तथा अन्य के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया है।इन पर मनी लाउंडरिंग का भी आरोप है।

विनय मिश्र तृणमूल युवा कांग्रेस का पदाधिकारी है और टीएमसी एम.पी.अभिषेक बनर्जी का अत्यंत करीबी है।

विनय मिश्र यह देश छोड़कर भाग गया है।

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भारत -बांग्ला देश सीमा पर पशुओं से लेकर कोयला तक और बांग्ला देशी व रोहिंग्या घुसपैठियों तक की भी खुलेआम ‘तस्करी’ होती रही है।

तस्करों को पहले वाम मोर्चा तथा अब ममता सरकार का संरक्षण प्राप्त है।

घुसपैठियां इनके वोट बैंक रहे हैं।

बी.एस.एफ. के अनेक अफसरांे व सिपाहियों की उन तस्करों से साठगांठ रही है।

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मनमोहन सिंह सरकार ने संसद में बताया था कि पश्चिम बंगाल में 57 लाख घुसपैठिए हैं।

  बिहार में 5 लाख,असम में 50 लाख दिल्ली में साढ़े तीन लाख,त्रिपुरा सवा तीन लाख,नगालैंड में 50 हजार और देश के अन्य प्रांतों में करीब 50 लाख घुसपैठिए मौजूद हैं।

  चूंकि घुसपैठियों का आना अब भी जारी है, इसलिए इनकी ताजा संख्या का आप अनुमान लगा ही सकते हैं।

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ममता पहले घुसपैठियों के सख्त खिलाफ थीं।

अब उनके बचाव में हैं।ं

ऐसे-ऐेसेे नेता मिले हैं अपने इस अभागे देश को !

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4 अगस्त, 2005 को ममता बनर्जी ने लोक सभा के स्पीकर के टेबल पर कागज का पुलिंदा फेंका।

उसमें अवैध बांग्ला देशी घुसपैठियों को  मतदाता बनाए जाने के सबूत थे।

उनके नाम पश्चिम बंगाल में गैरकानूनी तरीके से मतदाता सूची में शामिल करा दिए गए थे।

वह काम वाम मोर्चा सरकार ने किया था।

ममता ने संसद में गुस्से में कहा कि घुसपैठ की समस्या राज्य में महा विपत्ति बन चुकी है।

याद रहे कि इन घुसपैठियों के वोट का लाभ तब वाम मोर्चा उठा रहा है।

ममता ने उस पर सदन में चर्चा की मांग की।

चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता

 से इस्तीफा भी दे दिया था।

 चूंकि एक प्रारूप में विधिवत तरीके से इस्तीफा तैयार नहीं था,इसलिए उसे मंजूर नहीं किया गया।

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जब घुसपैठियों के वोट ममता 

बनर्जी को मिलने लगे

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3 मार्च 2020

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पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि 

‘‘जो भी बांग्ला देश से यहां आए हैं,बंगाल में रह रहे हैं ,

चुनाव में वोट देते रहे हैं, वे सभी भारतीय नागरिक हैं।’’

इससे पहले सी ए ए,एन पी आर और एन आर सी के विरोध में ममता ने कहा कि इसे लागू करने पर 

गृह युद्ध हो जाएगा । 

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एक बार पश्चिम बंगाल से भाजपा सांसद ने संसद में कहा 

कि पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में हिंदुओं को त्योहार मनाने के लिए अब स्थानीय इमाम से अनुमति लेनी पड़ती है।

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कई साल पहले ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक खबर छपी थी।

उसमें पश्चिम बंगाल के एक गांव की कहानी थी।

वह गांव बंाग्ला देशी मुस्लिम घुसपैठियों के कारण

 मुस्लिम बहुल बन चुका था।

वहां हिंदू लड़कियां हाॅफ पैंट पहने कर 

हाॅकी खेला करती  थी।

पर, अब मुसलमानों ने उनसे कहा कि फुल पैंट 

पहन कर ही खेल सकती हो।

खेल रुक गया है।

बंगाल के गावों में जाकर अब ऐसी रिपोर्टिंग करने की हिम्मत मुख्य धारा की मीडिया को नहीं है।

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यह बात तब की है जब बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्य मंत्री थे।

उनका एक बयान ‘जनसत्ता’ में छपा।

उन्होंने कहा था कि घुसपैठियों के कारण सात जिलों में 

सामान्य प्रशासन चलाना मुश्किल हो गया है।

बाद में उन्होंने उस बयान का खुद ही खंडन कर दिया।

पता चला कि पार्टी हाईकमान

के दबाव में उन्होंने कह दिया कि मैंने वैसा कुछ कहा ही नहीं था।

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कई दशक पहले मांगने पर वाम मोरचा सरकार ने केंद्र

 सरकार को सूचित किया था कि 40 लाख अवैध बंाग्ला देशी पश्चिम बंगाल में रह रहे हैं।

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अगले कुछ वर्षों में पश्चिम बंगाल और केरल में क्या-क्या होने जा रहा है,इसका पूर्वानुमान लगाने के लिए इन प्रदेशों के भीतरी इलाकों का अध्ययन  करना पड़ेगा।

वैसे देश के बाहर से जाकिर नाइक कुछ संकेत देता रहता हैं

 देश के भीतर के कतिपय अतिवादी मुस्लिम नेता यहां के टी.वी.चैनलों पर बैठकर बंगाल-केरल के बारे में अपने भावी मंसूबे का इशारों-इशारों में एलान करते रहते हैं।

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26 अप्रैल 22


  




    


 मिलिए एक और ‘पी.एम.

मेटेरियल’ मायावती जी से

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सुरेंद्र किशोर

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प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवारों की 

अस्थायी सूची

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राहुल गांधी,

ममता बनजीर्,

के. चंद्रशेखर राव,

अरविंद केजरीवाल, 

और अब मायावती !

सन 2024 के लोस चुनाव से पहले और भी कुछ 

नेता खुद को पी एम मेटेरियल घोषित कर 

सकते हैं।या घोषित हो सकते हैं।

ऐस क्यों न हो  ?

जो व्यक्ति मुख्य मंत्री रह चुका है, यदि वह 

अपनी प्रोन्नति चाहता है तो उसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ?

हर मुख्य सचिव चाहता है कि वह कैबिनेट सचिव बने। 

जब देवगौड़ा और और इंदर कुमार गुजराल प्रधान मंत्री बन सकते हैं तो वे क्यों नहीं जिनकी चर्चा ऊपर की गई है।

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जो भी क्षत्रीय नेता प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार हैं,या होंगे,वे चाहेंगे कि उनके प्रभाव क्षेत्र से अधिक से अधिक सांसद जीत कर जाएं।

इसके लिए वे यह कोशिश करेंगे कि बिना तालमेल के अधिक से अधिक लोक सभा चुनाव क्षेत्रों से उनके दल चुनाव लड़े।

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इस पृष्ठभूमि में इतने अधिक पी एम मेटेरियल्स की खबर सुन कर मौजूदा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को खुश होना चाहिए या चिंतित ? !!!

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फेसबुक वाॅल से

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29 अप्रैल 22   


बुधवार, 27 अप्रैल 2022

    कृषि कानून 

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निजी प्रतिष्ठान पंजाब में गेहूं खरीदने से परहेज कर रहे हैं।

क्योंकि वहां अधिक मंडी शुल्क है।

   दूसरी ओर ,अन्य राज्यों के किसानों को उनकी फसल का मूल्य एम एस पी से भी अधिक मिल रहा है।

  वहां खुले बाजार में न्यूनत्तम समर्थन मूल्य से अधिक पैसे किसानों को मिल रहे हैं।दैनिक जागरण की यही खबर है।

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कृषि कानूनों को वापस करा देने के लिए किसानों ने करीब एक साल तक दिल्ली के पास धरना दिया।

  जन जीवन अस्त व्यस्त कर दिया।

 कानून वापस हो गया।

वापसी से पंजाब के अढ़तिए और मंडी के दलाल अधिक खुश हुए।क्योंकि मंडियों का वर्चस्व बना रहा।

पर, वहां के किसानों को क्या मिला ?

उन्हें अपनी फसल को अन्य राज्यों की अपेक्षा कम कीमत पर बेचना पड़ रहा है।  

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आंदोलन के दिनों यह कहा जाता था कि आंदोलन किसानोें का नहीं बल्कि अढ़तिए और मंडी के दलालों का है।वह बात बाद में सच साबित हुई।

याद करें आंदोलनकारी धरना स्थल पर ए.सी.लगे टेंट में रहते थे और टी.वी.पर काजू- किसमिस खाते नजर आतेे थे।

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सुरेंद्र किशोर

27 अप्रैल 22

 


मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

 आजाद भारत के अजब नेताओं 

की गजब कहानी

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सुरेंद्र किशोर

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मात्र 12 हजार रुपए का प्रबंध न हो पाने के कारण 

डा.लोहिया इलाज के लिए जर्मनी न जा सके और 

गुजर गए

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किंतु सोनिया गांधी के न्यूयार्क में इलाज के लिए 

एक बैंक के प्रमुख से 2 करोड़ रुपए वसूल लिए गए

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डा.राममनोहर लोहिया सन 1967 में प्रोस्टेट के आॅपरेशन के दौरान नई दिल्ली के वेलिंगटन अस्पताल (अब राम मनोहर लोहिया अस्पताल)में अकाल मौत मर गए।

वे जर्मनी में अपना आपरेशन करवाना चाहते थे।

जर्मनी के एक विश्वविद्यालय ने उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया था।

आने-जाने का ख्र्च जर्मन विश्व विद्यालय दे रहा था।

पर वहां आॅपरेशन में 12 हजार रुपए लगने थे।

 1967 में बिहार और उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें थीं।

उनमें से कई सरकारों में डा.लोहिया की पार्टी संसोपा के मंत्री भी थे।

बिहार में तो कर्पूरी ठाकुर उप मुख्य मंत्री,वित्त मंत्री और शिक्षा मंत्री थे।

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पर, डा.लोहिया ने अपने लोगों से कह दिया था कि जिन राज्यों की सरकारों में हमारे दल के मंत्री हैं,वहां से मेरे इलाज के लिए चंदा नहीं आएगा।

डा.लोहिया ने एक मजदूर नेता से कहा कि तुम बंबई के मजदूरों से मेरे इलाज के लिए चंदा एकत्र करो।

वह मजदूर नेता समय पर चंदा एकत्र नहीं कर सके।

इस बीच लोहिया की बीमारी बढ़ गई।

उन्हें दिल्ली के वेलिंगटन अस्पताल में तुरंत भर्ती होकर आपरेशन कराना पड़ा।

पता नहीं, जानबूझ कर,लापारवाही से या किसी षड्यंत्र के तहत लोहिया को इन्फेक्सन हो गया।

उन्हें बचाया नहीं सका।

सन 1977 की केंद्र सरकार ने उनके इलाज में हुई लापरवाही के आरोप की जांच कराई।

किंतु बाद में यह सुना गया कि जो डाक्टर कसूरवार ठहराया गया,वह मोरारजी सरकार की एक बड़ी हस्ती का करीबी निकल गया।

उसे बचा लिया गया।

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खैर, अब सोनिया गांधी के इलाज पर आइए।

आज के अखबारों में एक सनसनीखेज किंतु शर्मनाक खबर छपी है।

वह यह कि यस बैंक के पूर्व अध्यक्ष राणा कपूर को प्रियंका गांधी से (मकबूल फिदा हुसेन की) पेंटिंग 2 करोड़ रुपए में खरीदने के लिए विवश किया गया था।

कांग्रेस नेता व केंद्रीय मंत्री मुरली देवड़ा ने राणा से वायदा किया था कि पेंटिंग खरीदने पर उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

याद रहे कि राणा ने पेंटिंग खरीदी और उसी पैसे से सोनिया गांधी का न्यूयार्क में इलाज हुआ।

अब कांग्रेस यह नहीं कह रही है कि खरीदने की खबर गलत है।

बल्कि यह कह रही है कि यह बात पुरानी है।

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25 अप्रैल 22


   


 सांसद आदर्श ग्राम योजना

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सन 2014 में बिहार सहित पूरे देश में सांसद आदर्श ग्राम योजना शुरू की गई थी।

यह एक महत्वाकांक्षी योजना है।

पर, अपवादों को छोड़कर उसमें वांछित सफलता नहीं मिल सकी।

   इस योजना ने एक महत्वपूर्ण बात जगजाहिर कर दी।

वह यह कि केंद्र और राज्य सरकारों ने सरजमीन पर यानी गांव स्तर पर लागू करने के लिए जितनी योजनाएं बनाई हैं,उनमें से अनेक योजनाएं कागजों पर ही ‘कार्यान्वित’ हो रही हैं।

 याद रहे कि सांसद आदर्श ग्राम योजना के लिए सरकार ने अलग से निधि का आबंटन नहीं किया था।

पहले से जो योजनाएं चल रही हैं,उन्हीें के पैसों से गंावों का विकास करना था।

  ग्राम योजना की विफलता के बाद सरकार को इस बात की जांच करानी चाहिए कि गांवों के लिए जितने पैसे जिस काम के लिए भेजे जाते हैं,उनमें से कितने पैसे वास्तव में उन कामों पर खर्च हो रहे हैं।

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प्रभात खबर

25 अप्रैल 22

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पुनश्चः 

केंद्र और राज्य सरकारों की लगभग 250 छोटी-बड़ी योजनाएं 

चलती रहती हैं।

कई योजनाएं तो नामी-गिरामी हैं।

किंतु कई अन्य योजनाओं के नाम भी लोगों को नहीं मालूम।

यदि सरकारें उन योजनाओं के नाम प्रकाशित करें या अंचल कार्यालयों और पंचायत भवनों के नोटिस बोर्ड पर नाम टंगवा   दंे तो कई जागरूक लोग उसे सरजमीन पर ढूंढ़ने की कोशिश कर सकते हैं।


     जब रक्षक ही बन जाए भक्षक !

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    सुरेंद्र किशोर

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प्रवर्तन निदेशालय ने एक पूर्व बी एस एफ अफसर सतीश कुमार को इसी सोमवार को गिरफ्तार किया है।

वह भारत-बांग्ला देश सीमा पर तैनात था।

बी एस एफ के 36 बटालियन के कमांडेंट रहे सतीश पर एक तस्कर से 12 करोड़ रुपए लेने का आरोप है।

तस्करों ने ये पैसे अफसर सतीश के पत्नी और ससुर के बैंक खातों में डाले ।

  इससे पहले केंद्रीय एजेंसी ने तस्कर मुहम्मद एनामुल हक, विनय मिश्र तथा अन्य के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया है।इन पर मनी लाउंडरिंग का भी आरोप है।

विनय मिश्र तृणमूल युवा कांग्रेस का पदाधिकारी है और टीएमसी एम.पी.अभिषेक बनर्जी का अत्यंत करीबी है।

विनय मिश्र यह देश छोड़कर भाग गया है।

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भारत -बांग्ला देश सीमा पर पशुओं से लेकर कोयला तक और बांग्ला देशी व रोहिंग्या घुसपैठियों तक की भी खुलेआम ‘तस्करी’ होती रही है।

तस्करों को पहले वाम मोर्चा तथा अब ममता सरकार का संरक्षण प्राप्त है।

घुसपैठियां इनके वोट बैंक रहे हैं।

बी.एस.एफ. के अनेक अफसरांे व सिपाहियों की उन तस्करों से साठगांठ रही है।

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मनमोहन सिंह सरकार ने संसद में बताया था कि पश्चिम बंगाल में 57 लाख घुसपैठिए हैं।

  बिहार में 5 लाख,असम में 50 लाख दिल्ली में साढ़े तीन लाख,त्रिपुरा सवा तीन लाख,नगालैंड में 50 हजार और देश के अन्य प्रांतों में करीब 50 लाख घुसपैठिए मौजूद हैं।

  चूंकि घुसपैठियों का आना अब भी जारी है, इसलिए इनकी ताजा संख्या का आप अनुमान लगा ही सकते हैं।

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ममता पहले घुसपैठियों के सख्त खिलाफ थीं।

अब उनके बचाव में हैं।ं

ऐसे-ऐेसेे नेता मिले हैं अपने इस अभागे देश को !

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4 अगस्त, 2005 को ममता बनर्जी ने लोक सभा के स्पीकर के टेबल पर कागज का पुलिंदा फेंका।

उसमें अवैध बांग्ला देशी घुसपैठियों को  मतदाता बनाए जाने के सबूत थे।

उनके नाम पश्चिम बंगाल में गैरकानूनी तरीके से मतदाता सूची में शामिल करा दिए गए थे।

वह काम वाम मोर्चा सरकार ने किया था।

ममता ने संसद में गुस्से में कहा कि घुसपैठ की समस्या राज्य में महा विपत्ति बन चुकी है।

याद रहे कि इन घुसपैठियों के वोट का लाभ तब वाम मोर्चा उठा रहा है।

ममता ने उस पर सदन में चर्चा की मांग की।

चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता

 से इस्तीफा भी दे दिया था।

 चूंकि एक प्रारूप में विधिवत तरीके से इस्तीफा तैयार नहीं था,इसलिए उसे मंजूर नहीं किया गया।

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जब घुसपैठियों के वोट ममता 

बनर्जी को मिलने लगे

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3 मार्च 2020

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पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि 

‘‘जो भी बांग्ला देश से यहां आए हैं,बंगाल में रह रहे हैं ,

चुनाव में वोट देते रहे हैं, वे सभी भारतीय नागरिक हैं।’’

इससे पहले सी ए ए,एन पी आर और एन आर सी के विरोध में ममता ने कहा कि इसे लागू करने पर 

गृह युद्ध हो जाएगा । 

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एक बार पश्चिम बंगाल से भाजपा सांसद ने संसद में कहा 

कि पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में हिंदुओं को त्योहार मनाने के लिए अब स्थानीय इमाम से अनुमति लेनी पड़ती है।

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कई साल पहले ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक खबर छपी थी।

उसमें पश्चिम बंगाल के एक गांव की कहानी थी।

वह गांव बंाग्ला देशी मुस्लिम घुसपैठियों के कारण

 मुस्लिम बहुल बन चुका था।

वहां हिंदू लड़कियां हाॅफ पैंट पहने कर 

हाॅकी खेला करती  थी।

पर, अब मुसलमानों ने उनसे कहा कि फुल पैंट 

पहन कर ही खेल सकती हो।

खेल रुक गया है।

बंगाल के गावों में जाकर अब ऐसी रिपोर्टिंग करने की हिम्मत मुख्य धारा की मीडिया को नहीं है।

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यह बात तब की है जब बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्य मंत्री थे।

उनका एक बयान ‘जनसत्ता’ में छपा।

उन्होंने कहा था कि घुसपैठियों के कारण सात जिलों में 

सामान्य प्रशासन चलाना मुश्किल हो गया है।

बाद में उन्होंने उस बयान का खुद ही खंडन कर दिया।

पता चला कि पार्टी हाईकमान

के दबाव में उन्होंने कह दिया कि मैंने वैसा कुछ कहा ही नहीं था।

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कई दशक पहले मांगने पर वाम मोरचा सरकार ने केंद्र

 सरकार को सूचित किया था कि 40 लाख अवैध बंाग्ला देशी पश्चिम बंगाल में रह रहे हैं।

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अगले कुछ वर्षों में पश्चिम बंगाल और केरल में क्या-क्या होने जा रहा है,इसका पूर्वानुमान लगाने के लिए इन प्रदेशों के भीतरी इलाकों का अध्ययन  करना पड़ेगा।

वैसे देश के बाहर से जाकिर नाइक कुछ संकेत देता रहता हैं

 देश के भीतर के कतिपय अतिवादी मुस्लिम नेता यहां के टी.वी.चैनलों पर बैठकर बंगाल-केरल के बारे में अपने भावी मंसूबे का इशारों-इशारों में एलान करते रहते हैं।

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26 अप्रैल 22


  




    


रविवार, 17 अप्रैल 2022

 त्रिदोष ग्रस्त पार्टी की दवा, हकीम 

लुकमान के पास भी नहीं

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1.-एक परिवार के अयोग्य मुखिया के 

    हाथों में पार्टी गिरवी 

2.-धार्मिक अतिवाद की लगातार तुष्टि

3.-कुछ अपवादों को छोड़ अधिकतर नेतागण भ्रष्टाचार-परिवारवाद में लिप्त

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 कफ,पित्त और वात यानी त्रिदोष से पीड़ित

किसी व्यक्ति का इलाज तो संभव है,किंतु किसी राजनीतिक दल.का नहीं।

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मैंने किसी दल का नाम नहीं लिखा।

आप भी न लिखें।

यदि समझ गए तो सिर्फ मुस्कराइए

यदि यह दल बीमार रहेगा तो देश को स्वस्थ बने रहने में मदद मिलेगी

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16 अप्रैल 22


शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

 आतंकियों के खिलाफ युद्ध जीतना हो तो सरकारी 

भ्रष्टाचार के खिलाफ महा युद्ध करिए

अन्यथा, यह देश नहीं बचेगा

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सुरेंद्र किशोर

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महाराष्ट्र के मंत्री नवाब मलिक जेल जाने के बावजूद मंत्री पद पर बने हुए हैं। 

किंतु आरोप लगने पर कर्नाटका के मंत्री के.एस.ऐश्वरप्पा ने कहा है कि मैं मंत्री पद से इसी शुक्रवार को इस्तीफा दे दूंगा।

  यह तो भिन्नता हुई।

पर, भ्रष्टाचार के विस्तार व गंभीरता के मामले में दोनों राज्यांे में कितनी समानता है ?

जो लोग इन राज्यों से आने वाली खबरों पर नजर रखते हैं,वे कहते हैं कि उनमें कोई खास भिन्नता नहीं है।

काफी समानताएं हैं।

हालांकि महाराष्ट्र, कर्नाटका से अब भी आगे है।

एक दूसरे को बचाने की कोशिश के मामले में तो महाराष्ट्र के कुछ नेताओं का किसी से कोई मुकाबला ही नहीं।

 भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप से सने एक नेता को बचाने की सिफारिश करने शरद पवार हाल में प्रधान मंत्री के पास चले गए।

हालांकि पी एम ने उन्हें कोई आश्वासन नहीं दिया।

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कर्नाटका के ठेकेदार का आरोप है कि वहां के मंत्री ने उससे 40 प्रतिशत कमीशन मांगा।

ठेकेदार ने आत्म हत्या कर ली।

जानकार लोग बताते हैं कि सांसद फंड का कमीशन भी इतना ही है।

हालांकि कई सांसद आज भी कमीशन नहीं लेते।

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बताया जाता है कि सांसद फंड में कमीशन के अनुपात में ही सरकारी काम में कमीशन बढ़ता जा रहा है।

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बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण भी देश की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा को भारी खतरा पहुंच सकता है।

टुकड़े-टुकड़े गिरोह के सदस्य हमारी पूरी सिस्टम को ही एक दिन खरीद ले सकते हैं।

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यदि आपको इस बात में शक हो तो नब्बे के दशक के जैन हवाला कांड को याद कर लीजिए।

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जैन हवाला कांड के लाभुकों में भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति ,दो पूर्व प्रधान मंत्री, कई पूर्व मुख्य मंत्री व पूर्व-वत्र्तमान केंद्रीय मंत्री स्तर के अनेक नेता शामिल थे।

  पैसे पाने वालों में  खुफिया अफसर सहित  15 बड़े -बड़े अफसर भी  थे ।

कुल 55 लाभार्थी थे।(याद रहे कि इनमंे से एक हस्ती को 2 करोड़ रुपए मिले थे।)

  कश्मीरी आतंकियों के लिए पैसे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. हवाला कारोबारियों के जरिए भिजवाती रही।

उन्हीं पैसों में से काफी पैसे 55 बड़ी हस्तियों को मिले थे।

तब के ‘इंडिया टूडे’ के अनुसार कुछ लाभुकों ने अपने प्रभाव  का इस्तेमाल करके आतंकियों को बचाए भी थे। 

जिस घोटाले में लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेता

शामिल हों तो उसमें सजा किसे होगी ?

केस चला,पर सजा नहीं हुई।

इस जैन हवाला केस में सजा से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट पर भारी दबाव पड़ा।

 तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे.एस.वर्माने खुली अदालत में खुद पर भारी दबाव की चर्चा की थी।(भयवश वर्मा साहब ने दबाव डालने वालों को नाम सार्वजनिक नहीं किया।)

  याद रहे कि उन 55 में से शरद यादव व राजेश पायलट सहित कुछ लाभुकों ने स्वीकार किया था कि किसी जैन ने आकर हमें पैसे दिए थे।

क्या कोई भी व्यक्ति आकर भारी राशि दे देगा और आप उसे स्वीकार कर लेंगे,उसका कुल -गोत्र- मंशा जाने बिना ?

ऐसे हैं हमारे देश के कुछ लोभी लाभुक नेतागण। 

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निखिल चक्रवर्ती संपादित ‘मेनस्ट्रीम’ पत्रिका(12 नवंबर 1994) में मधु लिमये ने पैसे पाने वालों की सूची छपवा दी थी।

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कालचक्र के जरिए इस कांड का भंडाफोड़ करने वालों में एक विनीत नारायण ने तो इस पर करीब 300 पेज की किताब ही लिख दी।वह किताब मेरे सामने है।

‘जनसत्ता’ में राम बहादुर राय ने भी इस कांड पर लिखा था।

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कोई भी यह मानेगा कि नब्बे के दशक की अपेक्षा (सांसद फंड की शुरूआत के बाद)इस देश में भ्रष्टाचार काफी बढ़ गया है।

साथ ही लोभी नेताओं की संख्या व उनका ओहदा भी।

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जिस देश की बड़ी -बड़ी हस्तियों को कोई भी व्यक्ति आकर  पैसे दे देगा और वे ले लेंगे ?

यदि ऐसा है तो उनके हाथों अपना देश कितना सुरक्षित है ?

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अच्छी मंशा वालों से अपील है कि यदि आप आतंकियों-राष्ट्रद्रोहियों-टुकड़े -टुकड़े गिराहों के खिलाफ जारी युद्ध में अंततः जीतना चाहते हैं तो सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ भी महा युद्ध छेड़ दीजिए।सरकारी और गैर सरकारी दोनों स्तरों पर।

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बुधवार, 13 अप्रैल 2022

  एक ‘अनोखे’ राज्यपाल के प्रति 

प्रधान मंत्री की अभूतपूर्व सहिष्णुता !

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सुरेंद्र किशोर

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‘‘.....आने वाले चुनावों में मैं पूरी ताकत लगाकर, पूरे उत्तर भारत में अभियान चलाऊंगा और उनको(यानी, मोदी सरकार को दिल्ली से) भगाऊंगा।’’

  --  मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक

   (इंडियन एक्सपे्रस-7 मार्च 22)

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माननीय मलिक की इस टिप्पणी के एक माह से अधिक हो गए।

फिर भी वे अपने पद पर बने हुए हैं।

क्या आजाद भारत के किसी अन्य राज्यपाल के अपने ही प्रधान मंत्री के खिलाफ ऐसे ‘भाषण’ आपने इससे पहले

 सुने हैं ? 

इंदिरा गांधी यदि आज प्रधान मंत्री होतीं तो मलिक के साथ क्या सलूक करतीं ?

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कुछ लोग नरेंद्र मोदी को अब तक का सबसे बड़ा असहिष्णु प्रधान मंत्री बताते हैं।

हां,प्रधान मंत्री असहिष्णु जरूर हैं।

 किंतु घोटालेबाजों,वंशवादियों और आतंकियों के प्रति।

यहां मिल रही जानकारियों के अनुसार ,शरद पवार ही नही,ं बल्कि मोदी कई अपने लोगों की भी मदद नहीं कर रहे हैं जो घोटालेबाजों को बचाने के लिए प्रधान मंत्री से यदाकदा अपील करते रहते हैं।

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13 अप्रैल 22


मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

 ओमप्रकाश चैटाला की पेंशन राशि 2 लाख 22 हजार 

रुपए तो पी.एफ.पेंशनर की राशि मात्र 1231 रुपए मासिक

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ऐसे देश में रहते हैं हम !!!!!

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सुरेंद्र किशोर

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पी.एफ.से जुड़ी मेरी पेंशन राशि सन 2005 में 1046 रुपए रिपीट 1046 रुपए तय की गई थी।

  सन 2022 में वह राशि बढ़कर 1231 रुपए रिपीट 1231 रुपए हो गई है।

 इस राशि को हासिल करने के लिए पी.एफ.फंड में मेरा भी थोड़ा योगदान रहा,जब मैं रेगुलर सेवा में था।

ध्यान रहे कि यह सब केंद्र सरकार द्वारा संचालित होता है।

हरिवंश जी जब उप सभापति नहीं थे तो उन्होंने राज्य सभा में 

इस दयनीय पेंशन राशि की ओर केंद्र सरकार का ध्यान खींचा था।(पर, भला कौन सुनता है पंेशनर्स के बीच के इन ‘दलितों’ की पीड़ा !!)

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  अब इससे उलट एक उदाहरण देखिए।

आपातकाल में इंदिरा गांधी की सरकार ने पूर्व सांसदों के लिए पेंशन का प्रावधान किया।

  बाद में विधायकों के लिए भी ऐसी व्यवस्था की गई।

तब की सरकार ने अनेक रिटायर संासदों की दयनीय आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए यह प्रावधान किया था।

उन दिनों तक अनेक संासद व विधायक ऐसे हुआ करते थे जिन्होंने सेवा भाव से राजनीति में कदम रखा था व निजी खर्चे के लिए (येन केन प्रकारेण धनोपार्जन) पर ध्यान नहीं दिया।

हालांकि कुछ अपवाद तब भी थे।

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पर,उस पेंशन का ताजा हाल जानिए।

हरियाणा से यह खबर आई है कि पूर्व मुख्य मंत्री ओमप्रकाश चैटाला को हर माह 2 लाख 22 हजार रुपए रिपीट 2 लाख 22 हजार रुपए पेंशन मिलती है।

उनसे भी अधिक पेंशन पाते हैं कैप्टन अजय सिंह यादव।उनकी मासिक राशि 2.लाख 38 हजार रुपए है।

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    जनता के उन महान नेताओं से भला मेरी तुलना ही क्या है !!!

फिर भी मैं यहां किसी की न्यूनत्तम आवश्यकता की बात तो कर ही सकता हूं।

नब्बे के दशक में जब पी.एफ.से जुड़ी पेंशन की कल्पना केंद्र सरकार ने की तो उसे न्यूनत्तम आवश्यकता का भी ध्यान नहीं रहा।

भारत सरकार ने मनरेगा में न्यूनत्तम मजदूरी कितनी तय कर

रखी है ? !!

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देश में पी.एफ.से जुड़े पेंशनर्स की कुल संख्या 23 लाख है।

श्रमजीवी पत्रकार भी इसमें शामिल हैं।

मैं तो अखबारों व वेबसाइट के लिए लिखकर इतने पैसे अब भी कमा लेता हूं कि उससे मेरा खर्च चल जाता है।

किंतु 23 लाख में से कितने पेंशनर्स हैं जिनका रिटायर होने के बाद अपनी अन्य आय से खर्च आराम से चल पाता है ?

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  केंद्र सरकार व राज्य सरकारों पर यह निर्भर है कि वे ओम प्रकाश चैटाला और अजय सिंह यादव जैसों के लिए जितनी राशि मन करे, तय करें।

किंतु समय मिले तो कभी यह भी सोचें कि इस पी.एफ.पेंशनर्स का काम 1231 रुपए मासिक से कैसे चलेगा जिस दिन  

उसका शरीर लिखने-पढ़ने के लायक नहीं रहेगा ?

मैंने अपना उदाहरण देकर 23 लाख पेंशनर्स की पीड़ा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है।  

अन्यथा, अनेक लोग इसे अविश्वसनीय ही मानते कि किसी को सिर्फ 1231 रुपए भी पेंशन मिलती है।

यह भी कि 17 साल में सिर्फ 185 रुपए की बढ़ोत्तरी हुई है।

यानी, औसतन साल में करीब 10 रुपए की बढ़ोत्तरी !

हालांकि नियमित बढ़ोत्तरी का इसमें कोई प्रावधान ही नहीं है। 

ऐसी पेंशन योजना दुनिया में कहीं और भी हो तो मेरा आप जरूर ज्ञानवर्धन करें।

(पूर्व सांसदों और अन्य राज्यों के पूर्व विधायकों की पेंशन राशि का कोई सटीक आंकड़ा मेरे पास नहीं है।इसीलिए नमूने के तौर पर हरियाणा का दे दिया।यह आज के ‘द हिन्दू’ में छपा है।) 

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12 अपैल 22


 8 अप्रैल, 22 के दैनिक भास्कर (पटना) में संवाददाता गिरिजेश की खबर का शीर्षक है-

‘‘24 में 16 सीटों पर जिनके पास ज्यादा पैसा,वही जीते

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जीते प्रत्याशियों की औसत संपत्ति 73 करोड़’’ 

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इस साहसपूर्ण खबर के बारे में मेरा यह कहना नहीं है कि किसी के पास यदि अधिक पैसे हैं तो उसे सदन का सदस्य बनना चाहिए।

बल्कि, पैसे वालों का भी प्रतिनिधित्व होना ही चाहिए।

पर, जरा अनुपात तो देखिए !

असंतुलित अनुपात बोध इस देश की एक बड़ी समस्या है।

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समय बीतने के साथ ही बिहार ही नहीं, बल्कि देश के विभिन्न सदनों में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।

सन 2014 में मायावती ने सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया था कि एक निवर्तमान राज्य सभा सदस्य ने राज्य सभा का सदस्य फिर से बना देने के लिए मुझे 100 करोड़ रुपए का आॅफर दिया था।

 हालांकि उस नेता जी ने उल्टे मायावती पर यह कहते हुए पलट वार किया कि मायावती जी ने ही मुझसे उतने रुपए मांगे थे।

उससे देश को यह तभी मालूम हो गया था कि कुछ खास सीटों का ‘रेट’ क्या चल रहा है।

खैर, उस मामले में कौन गलत था,कौन सही,यह जांचने का मेरे पास कोई जरिया नहीं।

किंतु इस देश- प्रदेश की राजनीति को दशकों से करीब से देखने -समझने का अनुभव मुझे जरूर है।

1967 से देख -समझ रहा हूं।

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धीरे -धीरे लोकतांत्रिक संस्थाओं से वैसे छोटे -बड़े नेता गायब होते जा रहे हैं जिनमें सिर्फ ज्ञान,योग्यता ,सेवा भाव किंतु गरीबी है।

हालंाकि अब भी वैसे इक्के- दुक्के सेवाभावी लोग सदन में नजर आ जाते हैं।पर वे भी अगले कुछ साल में गायब हो जाएंगे। 

   देश का दुर्भाग्य है कि अब उनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है जिनके पास पारिवारिक पृष्ठभूमि है, अपार पैसे हैं, जातीय -घार्मिक भावना उभारने का कौशल है और जिन्हें खूंखार अपराधियों व भ्रष्टाचारियों से भी कोई दुराव नहीं है। 

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यदि देश के सदनों की बनावट में तीव्र बदलाव की प्रक्रिया की रफ्तार यूं ही जारी रही तो अगले दो-तीन दशकों में देश की विभिन्न विधायिकाओं का स्वरूप कैसा बनेगा ?

अनुमान लगा लीजिए। 

उसका देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा पर कैसा असर पड़ेगा ?

हां, वैसा तो बिलकुल ही नहीं जिसकी कल्पना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं ने की थी।

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ताजा खबर यह है कि पांच विधान सभाओं के गत चुनाव में नरेंद्र मोदी ने किसी भाजपा संासद

के पुत्र को टिकट नहीं लेने दिया।

एक कंेद्रीय मंत्री के पुत्र को तो राज्य सरकार में मंत्री नहीं बनने दिया जबकि वे 2017 से ही विधायक रहे हैं।

इसको लेकर भाजपा के वैसे अनेक नेता गण मोदी से सख्त नाराज बताए जा रहे हैं जिनके पुत्र टिकट नहीं पा सके।

  वह नाराजगी आने वाले दिनों में भाजपा के भीतर कौन सा गुल खिलाएगी,वह देखना दिलचस्प होगा।

  क्या मोदी का यह ‘सफाई अभियान’ आगे भी जारी रह पाएगा ?

‘नागपुर’ का उस पर कैसा रुख रहेगा ?

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11 अप्रैल 22. 

 


शनिवार, 9 अप्रैल 2022

 भीषण टैक्स चोरी में लगे सफेदपोश 

अपराधियों पर कार्रवाई जरूरी 

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कोलकाता की आबादी डेढ़ करोड़ है।

चंडीगढ ़की आबादी मात्र 11 लाख है।

किंतु प्रत्यक्ष कर में चंडीगढ़ कोलकाता से 

ज्यादा हिस्सेदारी करता है।

  ---अभिषेक --दैनिक जागरण-9 अप्रैल 22

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पटना नगर निगम को वित्तीय वर्ष 2015-16 में होल्डिंग टैक्स के मद में करीब साढ़े 32 करोड़ रुपए मिले थे।

जबकि 2021-22 में उसकी आय बढ़कर करीब 98 करोड़ रुपए हो गई।

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह काम निजी एजेंसी को दे दिया गया है।

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  मुझे लगता है कि सरकारी करों की वसूली के मामले में केंद्र सरकार व राज्य सरकारों का भी लगभग यही हाल है।

भ्रष्ट अफसरों-कर्मचारियों की मिलीभगत से देश भर में व्यापक कर चोरी हो रही है।

वैसे पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार अधिक कर संग्रह कर पा रही है।

पर, इसे और बढ़ाने की अब भी गुंजाइश बनी हुई है।

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 यदि कर चोरी बंद हो जाए तो कल्याण,विकास और रक्षा-सुरक्षा मद में अधिक खर्च हो सकेंगे।

 नतीजतन कोई बाहरी व भीतरी विरोधी इस देश को नुकसान नहीं पहुंचा पाएगा।

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सोमवार, 4 अप्रैल 2022

 अदालती निर्णय के कारण जब चरण सिंह 

और कलाम साहब का स्मारक नहीं बन सका 

तो पासवान जी का कैसे बन जाता ?

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सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के कारण राम विलास पासवान के सरकारी बंगले को स्मारक नहीं बनाया जा सका।

वह निर्णय सन 2013 का है।

उस निर्णय के बाद स्मारक बनाने पर रोक लग गई है।

इस बीच पूर्व प्रधान मंत्री चरण सिंह और पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब के परिजन ने केंद्र सरकार से स्मारक की मांग की थी।

पर केंद्र सरकार उस अदालती आदेश का पालन कर रही है कि दिल्ली के उस सरकारी मकान को स्मारक में नहीं बदला जा सकता जिनमें कोई वी.आई.पी.रहते थे।

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      एक भूली -बिसरी याद

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  नई दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ के 

  8 सितंबर, 1974 के अंक में मुख्य पृष्ठ का शीर्षक था ,

‘‘संसद या चोरों और दलालों का अड्डा ?’’

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इसके साथ दी गई स्टोरी में लाइसेंस घोटाले को उजागर किया गया था।उस घोटाले को पहले दबा दिया गया था।

  ‘प्रतिपक्ष’ की इस धमाकेदार स्टोरी और उसके शीर्षक को लेकर लोक सभा में पीलू मोदी और राज्य सभा में लालकृष्ण आडवाणी ने इस पत्रिका  के खिलाफ विशेषाधिकार हनन के प्रस्ताव पेश किये।

 इसके पीछे विरोधी दलों की एक रणनीति थी ।

वे इसी बहाने दबा दिये गये पांडिचेरी लाइसेंस घोटाले को एक बार फिर उजागर करना चाहते थे। 

 विरोधी दलों की रणनीति को पहले सत्ताधारी कांग्रेस ने नहीं समझा।

 इसलिए अनेक कांग्रेसी सदन में एक साथ खड़े हो गये।

संसद के प्रति अवमाननापूर्ण टिप्पणी पर वे अब तक एक कम चर्चित पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ के खिलाफ, जिस पत्रिका का तब मैं बिहार संवाददाता था, कार्रवाई करने के लिए स्पीकर से मांग करने लगे।

पर इस बीच किसी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को इसके पीछे की रणनीति के बारे में बता दिया।

फिर क्या था !

इंदिरा जी के इशारे पर कांग्रेसी सांसदगण स्पीकर जी.एस.ढिल्लो से  यह गुजारिश करने लगे कि पत्रिका के खिलाफ इस मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए।

मामला आगे बढ़ता तो केंद्र सरकार की फजीहत हो जाती।

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आज का ताजा हाल

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स्थानीय निकाय क्षेत्रों से बिहार विधान परिषद की 24 सीटों के  चुनाव के लिए आज वोट डाले जा रहे हैं।

 पटना की चर्चित व साहसी पत्रिका ‘‘समकालीन तापमान’’ ने ‘‘पांच अरब का अदृश्य खेल’’ शीर्षक के तहत इस चुनाव पर 

राजेश पाठक की एक रपट प्रकाशित की है।

 रपट में यह लिखा गया है कि 

‘‘यहां बड़ा सवाल यह भी है कि इस रूप में विधान परिषद की सदस्यता पाने में धन बल का इतना बड़ा खेल क्यों होता है ?

मोटा-मोटी यह माना जा सकता है कि विधान पार्षद

के तौर पर शासन-प्रशासन और समाज में रुतबा -रुआब तो कायम हो ही जाता है,सुख -सुविधाएं इतनी हैं कि उन्हें पाने की लालसा में आठ-दस करोड़ रुपए पानी में बहाने में धन बलियों को कोई दर्द नहीं होता।

वैसे भी ये रुपये पसीने की कमाई के तो होते नहीं हैं !’’

 कल हुई ‘तैयारी’ और आज के मतदान के दौरान इस चुनाव में रूचि रखने वाले पूरे राज्य के जानकार लोग यह जान गए होंगे कि पांच अरब रुपए खर्च हो रहे हंै या कम या फिर कोई खर्च नहीं हो रहा है !

  यदि अपार धन लगाकर सदस्य बनने की बात सही है तो फिर सवाल उठता है कि हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं का स्वरूप कैसा बनता जा रहा है ?

इसका प्रशासन,राजनीति व जन मानस पर कैसा असर हो रहा है ?

क्या ऐसे ही लोकतंत्र के लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने त्याग किए थे,बलिदान दिए थे और कष्ट सहे थे ?

इन सवालों पर विचार करने के लिए आज कितने लोग इस देश में तैयार हैं ?

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सुरेंद्र किशोर

4 अप्रैल 22 


शनिवार, 2 अप्रैल 2022

    डा.लोहिया संपादित पुस्तक ‘एक्शन 

    इन गोवा’ का पुनप्र्रकाशन संभव हुआ 

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      सुरेंद्र किशोर   

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दशकों से सुनता आ रहा हूं कि गोवा मुक्ति आंदोलन में डा.राममनोहर लोहिया की महत्वपूर्ण भूमिका थी।

 पर, उस आंदोलन का विवरण अब पढ़ने को मिल रहा है।

इसके लिए डा.राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन के अध्यक्ष

अभिषेक रंजन सिंह और राम मनोहर लोहिया समता न्यास, के मैनेजिंग ट्रस्टी शरद बदरी विशाल पित्ती का आभारी हूं।

  इनके कारण ही ‘एक्शन इन गोवा’ नामक पुस्तक का पुनर्प्रकाशन संभव हो सका है।

‘एक्शन इन गोवा’ के साथ-साथ दो अन्य प्रकाशन भी मेरे

सामने हैं --

1.-क्रांति स्मरण -2021--स्मारिका

2.-सालाजार की जेल में उन्नीस महीने (368 पेज)

पुस्तक लेखक त्रिदिब चैधुरी

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 1947 में प्रकाशित इस पुस्तक का संपादन खुद डा.लोहिया ने किया था।

 यह पुस्तक देश के अनेक शीर्ष पुस्तकालयों में भी उपलब्ध नहीं है।

 अभिषेक जी ने कोलकाता के एक पुस्तकालय से इसे खोज निकाला।

तभी इसका पुनप्र्रकाशन संभव हो पाया।

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गोवा मुक्ति आंदोलन के रचयिता डा.लोहिया के संबंध में मशहूर पत्रकार के. विक्रम राव के दो शब्द--

‘‘भारत तब स्वतंत्र नहीं हुआ था।

उस वक्त यानी 1946 में डा.राममनोहर लोहिया अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की भांति जेल से रिहा हो गए थे।

उधर फ्रांसिसी साम्राज्य भी पाण्डिचेरि छोड़ने का मुहुर्त तय कर रहा था।

  मगर पुर्तगाली प्रधान मंत्री डा.एंटोनियो सालाजार अपने गोवा उपनिवेश को मुक्त करने की कोई योजना के बारे में सोच तक नहीं रहा था।

 उसके इस रवैये पर डा.लोहिया का आक्रोशित होना स्वाभाविक था।

 बाम्बे के साथियों से राय -मशविरा के बाद डा.लोहिया ने गोवा मुक्ति का खाका रचा।

  जवाहरलाल नेहरू तब तक अंग्रेज वायसराय के साथ मिलकर भारत की अंतरिम सरकार के गठन की योजना बना रहे थे।

डा.लोहिया अहमदनगर के किले की जेल में तीन साल से ज्यादा कैद रहे थे।

और, छूटकर बाहर आ गए थे।

 उन्होंने गांधी जी को अपने गोवा संघर्ष की सूचना दी।

 बापू ने अनुमोदन भी किया।

फिर वही हुआ जो प्रत्याशित था।

 नेहरू ने डा.लोहिया की योजना को अनावश्यक और आतिशी कदम बताया।

 पर, लाहौर जेल की कठिन यातना का भोगी यह गांधीवादी संघर्ष से क्यों पीछे हटता ?

 फिर पंजिम में जो हुआ, वह सर्वविदित है।

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‘एक्शन इन गोवा’ के 

पुनर्प्रकाशक का पता

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अभिषेकरंजन सिंह

अध्यक्ष,

डा.राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन

यू-252 ए,दूसरा तल्ला

शकरपुर

बैंक आॅफ बड़ौदा के निकट

दिल्ली-110092

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 क्या ढीली-ढाली लोकतांंित्रक व्यवस्था में     भ्रष्टाचार-आतंकवाद का इलाज संभव नहीं ?।।

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सुरेंद्र किशोर

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कर्नाटका में सरकारी ठेकेदार अफसरों -नेताआंेें को देते  हंै  40 प्रतिशत कमीशन यानी रिश्वत।

देते क्या हैं,देने पड़ते हैं।

वहां के ठेकेदार संघ ने इस संबंध में प्रधान मंत्री को पत्र लिखा है।(द हिन्दू-31 मार्च 22)

लेने वालों में बड़ी हस्तियां भी हैं।

चूंकि बिहार के ठेकेदार संघ ने संभवतः वैसा कोई पत्र कहीं नहीं भेजा है, इसलिए यहां की दर मैं नहीं बता सकता।

हां, बिहार के अधिकतर जन प्रतिनिधियों के क्षेत्रीय फंड में कमीशन की रेट लगभग उतनी ही बताई  जाती है।

पता नहीं सच क्या है !

बाकी जानकार लोग बताएंगे।

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 इस देश में यह सब क्या हो रहा है जबकि हमारा प्रधान मंत्री ईमानदार है !

क्या सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए अंततः किसी खूंखार तानाशाह की ही जरूरत पड़ेगी ?

कई निराश लोग तो कहते हैं कि भारत जैसे एक ढीले-ढाले लोकतंत्र में न तो भ्रष्टाचार का कारगर इलाज संभव है और न ही आतंकवाद का।

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31 मार्च 22 


शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

 पश्चिम बंगाल की समस्याओं का एकमात्र 

हल राष्ट्रपति शासन और राज्य का बंटवारा

अन्यथा, पूरे बंगाल की स्थिति कश्मीर वाली हो जाएगी

कुछ हिस्सों में तो हो ही चुकी है।

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अधिकांश मीडिया की खबरों के अनुसार 

 तृणमूल कांग्रेस के दो परस्पर विरोधी गिराहों के बीच सार्वजनिक संपत्ति की लूट के माल के ‘बंटवारे’ को लेकर विवाद था।

वीरभूम जिले में हाल में हुई हिंसा-प्रतिहिंसा का मुख्य कारण 

यही था।

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पर,मुख्य मंत्री ममता बनर्जी यह कह रही हैं कि उक्त नरसंहार के लिए पुलिस को दोष मत दीजिए।

अब सवाल है कि पुलिस की साठगांठ के बिना न तो बिहार में बालू की लूट होती है न ही पश्चिम बंगाल में।किसी अन्य राज्य में भी नहीं।

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दरअसल शासन के बल पर प्रतिपक्षी दलों को पराजित कर देने के बाद अब तृणमूल कांग्रेस के विभिन्न गिरोह आपस में ही मारकाट कर रहे हैं।

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अप्रैल, 2019 में चुनाव आयोग के विशेष पर्यवेक्षक अजय नायक ने,जो बिहार काॅडर के अफसर रहे, कहा था कि 15 साल पहले बिहार की जो स्थिति थी,वही हालत आज पश्चिम बंगाल की है।

बंगाल के लोगों का पुलिस पर भरोसा नहीं है।इस टिप्पणी को लेकर ममता बनर्जी ने अजय नायक के खिलाफ चुनाव आयोग से शिकायत की थी।

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  पश्चिम बंगाल में हिंसा कोई नई बात नहीं।

खुद ममता बनर्जी वाम मोर्चा के गुंडे के भीषण हमले का शिकार हुई थी।

मरते -मरते बची थीं।

पर सत्ता में आने पर उसी हमलावर गुंडे को ममता ने अपनी पार्टी में शामिल कर लिया।

ऐसे लोगों की उन्हें जरूरत जो थी !

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‘‘चीन के चेयरमैन हमारे चेयर मैन’’के नारे के साथ 1967 में उभरे नक्सलियों ने बंदूक के बल पर सत्ता पर कब्जे की कोशिश बंगाल में शुरू की थी।

  लंबे समय तक हिंसा जारी रही।

1972 में कांग्रेस के सिद्धार्थ शंकर राय सरकार ने नक्सलियों के सफाये के लिए पुलिस और गुंडों की खूब मदद ली।

नतीजतन अनेक अत्यंत  प्रतिभाशाली छात्र, जो नक्सली बन गए थे,मार डाले गए।

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फिर आया वाम मोरचा का राज।

वाम मोर्चा ,खास कर सी.पी.एम. में सिद्धार्थ के अनेक गुंडे शामिल हो गए।

कांग्रेस जब उनका मुकाबला नहीं कर सकी तो निर्भीक व जिद्दी ममता बनर्जी मुकाबले में आई।

अब सत्ता के बल पर ममता के बाहुबलियों की राज्य में तूती बोल रही है।

32 प्रतिशत मजबूत वोट बैंक का जिसे समर्थन हो,उसे भला जल्दी कौन डिगा सकता है ?

उस वोट बैंक का लक्ष्य और चाह न तो विकास है और न सुशासन, बल्कि ‘‘कुछ और’’ ही है।

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यदि कांग्रेस, नरेंद्र मोदी सरकार को राज्य सभा में साथ देती तो बंगाल में अब तक राष्ट्रपति शासन लागू हो गया होता ।

पर कांग्रेस को डर है कि उससे उसका अन्य राज्यों में अपना वोट बैंक गड़बड़ा जाएगा।जबकि, ममता ने बंगाल में कांग्रेस को समाप्त कर दिया है।1999 में बिहार में राष्ट्रपति शासन का विरोध करके कांग्रेस ने बिहार में अपनी लुटिया डूबो चुकी है।

 यदि आज इंदिरा गांधी सत्ता में होती तो ममता सरकार को तुरंत बर्खास्त कर देती।

इसकी अपेक्षा काफी छोटे ‘अपराध’ के कारण इंदिरा राज में राज्य सरकारें बर्खास्त होती रहीं।

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