भ्रष्टाचार का बचाव करने वालों की जीत मुश्किल
...............................................
सुरेंद्र किशोर
....................................
इस देश में जब- जब चुनाव का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार विरोधी अभियान रहा,तो भ्रष्टाचार का बचाव करने वालों की ही हार हुई।
अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर आजादी के बाद का इतिहास इसी बात का गवाह है।
सन 2024 के लोक सभा चुनाव में इससे कुछ अलग रिजल्ट होगा,यह मान लेना मुश्किल है।
आजादी के तत्काल बाद से ही कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने शुरू हो गए थे।
पर,1962 तक लोगबाग ऐसे दल यानी कांग्रेस और उसके नेताओं के प्रति मोहित थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में मुख्य भूमिका निभाई थी।इसलिए बहुत बातें नजरअंदाज होती रहीं।
दूसरी ओर, तब प्रतिपक्ष भी काफी बिखरा -बिखरा था।सब अपने आप में मगन थे।
फिर भी जब -जब कांग्रेस सत्ता में आई उसे 50 प्रतिशत से कम ही मत मिले।
1966-67 में जब गैर कांग्रेसी दलों में सीमित चुनावी एकता हुई तो देश के नौ प्रदेशों में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई।यदि थोड़ी और अधिक दलीय एकता हुई होती तो केंद्र से भी सन 1967 में ही कांगेस सत्ता से बाहर हो गई होती।याद रहे कि 1967 के चुनाव का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था।
याद रहे कि उससे पहले कांग्रेस आत्म मुग्धता की स्थिति में थी।
कोई घोटाला साबित हो जाने पर भी सत्ताधारी नेता प्रतिपक्ष से कहा करते थे कि आप में ताकत है तो अगले चुनाव में फरिया लीजिएगा।
जांच कमेटी ने जीप घोटाले में वी.के.कृष्ण मेनन को दोषी माना।फिर भी गृह मंत्री ने 30 सितंबर 1955 को संसद में कह दिया कि इस केस को बंद कर दिया गया है। जब प्रतिपक्ष ने दोषी को सजा देने की मांग पर जोर दिया तो गृह मंत्री ने कहा कि इसका फैसला अगले चुनाव में हो जाएगा।
इसी तरह बारी बारी से मुंदरा कांड, धर्मतेजा ऋण घोटाला,प्रताप सिंह कैरो घोटाला, लोहा कांड,छोआ कांड और साठी कांड जैसे घोटाले होते रहे।
उस दौरान भी प्रतिपक्षी दल कांग्रेस सरकारों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लगभग देश भर में अभियान चलाते रहे।
मतदाताओं पर उस अभियान का असर हुआ। वोटरों ने 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस को काफी हद तक हद तक सबक सिखा दिया।
क्योंकि खुद कांग्रेस सरकारों ने उस बीच कोई सबक नहीं सीखा था।जबकि, इन्दौर के अपने भाषण में कांग्रेस के अध्यक्ष डी. संजीवैया ने 1963 में ही कहा था कि
‘‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’’
सन 1971 के बाद तो लूट की गति तेज हो गई।
प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने भ्रष्टाचार का बचाव करते हुए कहा था कि भ्रष्टाचार तो सिर्फ भारत में नहीं है।यह तो विश्व व्यापी है।
उससे पहले 1967 में जिन नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं थीं,वे भी अपनी कमजोरियों और भ्रष्टाचार के छिटपुट आरोपों के कारण स्थायित्व नहीं पा सकीं।कांग्रेसी फिर सत्ता में आ गए।प्रतिपक्षी एकता के शिल्पकार डा.राम मनोहर लोहिया ने 1967 की गैर कांग्रेसी सरकारों से कहा था कि ‘‘बिजली की तरह कौंध जाओ और सूरज की तरह स्थायी हो जाओ।’’
पर वे यह काम नहीं करवा सके।लोहिया का बताया वह काम लोहिया का नाम लिए बिना आज मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ बखूबी कर रहे हैं।
1969 में इंदिरा गांधी ने जब कांग्रेस पार्टी तोड़ी और गरीबी हटाओ का नारा दिया तो उसके पीछे भी उनका पूंजीवाद व प्रकारांतर से भ्रष्टाचार पर ही हमला था।उन्होंने पूंजीवाद और भ्रष्टाचार को समानार्थक शब्द बना कर पेश किया इसका उन्हेें चुनावी लाभ भी मिला।
बाद में यह माना गया कि जनता ने इंदिरा गांधी के झांसे में आकर सन 1971 के लोक सभा चुनाव में उन्हें लोक सभा में पूर्ण बहुमत दे दिया।
उसके बाद इंदिरा गांधी अपने असली स्वरूप में आ गईं।
उन्होंने आम लोगों की गरीबी हटाने की जगह अपने पुत्र संजय गांधी के लिए मारूति कार कारखाना स्थापित करवाया।मारूति घोटाला सामने आया।उसके अलावा भी घोटाले हुए।
उधर केंद्र सरकार व कांग्रेस की राज्य सरकारों में भी तब भ्रष्टाचार,संस्थागत रूप लेने, पनपने और बढ़ने लगा।
इस पृष्ठभूमि में बिहार से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 में जन आंदोलन शुरू हो गया।वह आंदोलन देशव्यापी हुआ।
उस आंदोलन के मुख्य मुद्दे थे-भ्रष्टाचार,महंगी,बेरोजगारी और कुशिक्षा।
उधर प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी अपने चुनावी भ्रष्टाचरण के कारण जब 1975 में अपनी सांसदी गंवा बैठीं तो उसे फिर से पाने के लिए उन्होंने आपात्काल देश पर थोप दिया।
इमर्जेंसी में उन्होंने उन चुनावी कानूनी को बदलवा कर उसे पिछली तारीख से लागू करवा दिया।
इंमर्जेंसी के अत्याचार और भ्रष्टाचार के मिले-जुले कारणों से 1977 में इंदिरा गांधी की सरकार सत्ता से बाहर हो गई।
मोरारजी देसाई के नेतृत्व में 1977 में केंद्र में गठित पहली गैर कांग्रेसी सरकार पर भ्रष्टाचार का तो कोई बड़ा आरोप नहीं लगा।किंतु जनता पार्टी की सरकार कलही सरकार साबित हुई ।उससे ऊबकर जनता ने सन 1980 में कांग्रेस को फिर सत्तासीन कर दिया।
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में जो सरकार बनी,वह अपने भ्रष्टाचारों के कारण ही 1989 में सत्ताच्युत हो गई।
आज देश के जितने बड़े -बड़े नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार और बड़े -बड़े घोटाले के जो आरोप लगे हैं,इसके मुकाबले 1984-89 के दौर के आरोप अब हल्के लग रहे हैं।
बोफोर्स घोटाले को नापसंद करके मतदाताओं ने कांग्रेस को 404 सीटों के हिमालय से उतार कर 197 सीटांे की सरजमीन पर उतार कर खड़ा कर दिया था।
उस चुनाव के बाद कांग्रेस को कभी लोक सभा में अपना बहुमत नहीं मिल सका।
अब आप आज के घोटालों और तब के घोटालों की मात्रा,प्रकार और गंभीरता पर गौर कीजिए।
भ्रष्टाचार को लेकर आम लोगों की वितृष्णा अब भी कम नहीं हुई है।
2014 के लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एन.डी.ए. की बड़ी जीत का काफी ‘श्रेय’ मन मोहन सिंह के दस साल के घोटाला राज को दिया जा सकता है।उन घोटालों ने कांग्रेस सरकार के प्रति लोगों में वितृष्णा पैदा कर दी।उसका लाभ आम आदमी पार्टी जैसी गैर जिम्मेदार पार्टी ने भी उठा लिा।
दूसरी ओर गुजरात के मुख्य मंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की साफ-सुथरी छवि को लगभग देश भर के लोगों ने पसंद किया।
दूसरी बार 2019 में जब अधिक बहुमत से भाजपा ने लोस चुनाव में विजय प्राप्त की तो उसका बड़ा कारण यह था कि 2014 और 2019 के बीच मोदी सरकार के खिलाफ घोटाला का कोई ठोस आरोप सामने नहीं आया।
दूसरी ओर 1991 से लेकर बाद के वर्षों तक भी केंद्र और राज्य सरकारों में बैठे नेताओं को उनके भ्रष्टाचार का चुनावी खामियाजा बारी बारी से भुगतना पड़ा।
देश में जब -जब भ्रष्टाचार मुद्दा बना,जिन पर भी ठोस आरोप लगा,जनता के एक हिस्से ने उन्हें वोट देना बंद कर दिया।
क्षेत्रीय दलों को उसका नुकसान उठाना पड़ा।
पूरे दौर में अक्सर कांग्रेस ही भ्रष्टाचार को लेकर बचाव की मुद्रा में रही।आज भी है।
आज ऐसी स्थिति बन रही है कि अगला लोक सभा चुनाव भ्रष्टाचार पर हमला करने वालों और भ्रष्टाचार का बचाव करने वालों के बीच ही होगा।समकालीन इतिहास बताता है कि वैसे में भ्रष्टाचार का बचाव करने वालों की जीत तब मुश्किल होती है।
हालांकि आज के प्रतिपक्षी नेतागण भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ मजबूत दलीय गठबंधन बनाने के लिए प्रश्त्नशील है।
साथ ही, वे उसके जरिए सामाजिक गठबंधन की मजबूती का हौसला भी बांध रहे हैं।
किंतु उत्तर प्रदेश के पिछले साल के दो लोक सभा
उप चुनावों और बिहार के विधान सभा उप चुनावों के नतीजे बता रहे हैं कि तथाकथित धर्म निरपेक्ष-सामाजिक न्याय के पैरोकार दलों का वोट बैंक दरक रहा है।
लोगों का मूड यह बता रहा है कि सन 2024 के लोस चुनाव से पहले तक जितने अधिक भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाइयां होंगी,जनता से प्रतिपक्ष का दुराव बढ़ेगा।
.................................................
7 अप्रैल 23.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें