कानोंकान
सुरेंद्र किशोर
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चुनाव मुकाबला कांटे का हो तो भाषणों के स्वर भी हो जाते हैं तीखे
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जब चुनाव मुकाबला कांटे का हो तो अनेक नेताओं की जुबान छुरी की तरह चलने लगती हैं।
कई तो ‘जहर बुझी छुरी’ चलाते रहते हैं।हालांकि सारे नेता एक जैसे नहीं होते।बिहार सहित इस देश के कई नेता अब भी शालीन व गरिमापूर्ण बयानों और भाषणों के लिए जाने जाते हैं। सभी पक्षों के लोग उनका इस कारण सम्मान करते हैं।
कुछ बदजुबान नेताओं को जवाब देने के लिए कई बार प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल उनसे भी अधिक बदजुबान नेताओं को आगे कर देते हैं।
फिर तो संवाद के स्तर की आप कल्पना कर लीजिए।
क्या ऐेसे संवादों को संबंधित नेताओं की संतानें या परिजन भी पसंद करते हैं ?
कुछ करते होंगे।पर,अधिकतर नहीं करते।
पूछने पर कुछ नेता कहते हैं कि क्या करें,राजनीति में यह सब चलता है।
इन गालियों को होली की गाली की तरह ही बाद में भुला दिया जाता है।
पर,वैसे नेता नहीं समझ पाते कि इससे हर चुनाव के बाद राजनीति के बारे में आम धारणा कुछ और खराब हो जाया करती है।
इससे लोकतंत्र का नुकसान ही होता है।
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नेहरू और वी.पी. के उदाहरण
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सन 1962 में उत्तर प्रदेश के फूलपुर लोक सभा चुनाव क्षेत्र में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ डा.राममनोहर लोहिया उम्मीदवार थे।
चुनाव प्रचार के दौरान
प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि
‘‘राजनीतिक मतभेद अपनी जगह है।
लेकिन अगर मुझसे कोई यह पूछे, मैं अपना वोट किसे दूंगा,तो मैं निश्चित रूप से यही कहूंगा कि मैं अपना कीमती वोट राममनोहर लोहिया को दूंगा।’’
सन 1988 में इलाहाबाद संसदीय उप चुनाव में पूर्व केंद्रीय मंत्री व जन मोर्चा के नेता वी.पी.सिंह का मुकाबला कांग्रेस के सुनील शास्त्री से था।
सुनील शास्त्री के पिता लालबहादुर शास़्त्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपना पांचवां बेटा मानते थे।
पूरे चुनाव प्रचार के दौरान एक बार भी न तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सुनील शास्त्री का नाम लिया और न ही सुनील शास्त्री ने विश्वनाथ प्रताप सिंह का।व्यक्तिगत आलोचना की बात कौन कहे !
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चुनाव का सेमी फाइनल
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कर्नाटका विधान सभा चुनाव के लिए 10 मई, 2023 को वोट डाले जाएंगे।
वहां से मिल रही खबरों के अनुसार उस चुनाव में कई मुद्दे सामने आ रहे हैं।कहते हैं कि मुकाबला कांटे का है।नतीजे के बारे में अनुमान लगाना फिलहाल कठिन हो रहा है।
पर,एक बात तय है।
उस चुनाव के नतीजे से अगले लोक सभा चुनाव नतीजों की एक हल्की झलक मिल सकती है।
वैसे पूरी झलक तो नहीं ही मिलेगी।
इस बीच कुछ अन्य राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं।
हां,देश स्तर पर मुरझाती कांग्रेस में एक हद जान आ जाएगी यदि कांग्रेस कर्नाटका विधान सभा में अपने बल पर पूर्ण बहुमत हासिल कर ले।उससे प्रतिपक्षी अभियान को भी बल मिलेगा।
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एक परिवार एक टिकट
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भाजपा ने ‘एक परिवार,एक टिकट’की परंपरा शुरू की है।
भाजपा ने यह शुरूआत गत साल के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव से की ।
कर्नाटका के चुनाव में भी यह परंपरा कायम रही।
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव से ठीक पहले यह खबर आई थी कि कम से कम दो बडे़ गैर भाजपा नेताओं का भाजपा में इसी शर्त के कारण प्रवेश नहीं हो सका।क्योंकि वे अपने और अपने पुत्र के लिए चुनावी टिकट चाहते थे।
यह ऐसी परंपरा है जिसे भाजपा विरोधी दल भी अपना सकते हैं।
इससे किसी भी दल में कार्यकर्ताओं का मनोबल बना रहेगा।यदि अधिक से अधिक टिकट कुछ ही परिवारों में सिमट जाए तो अन्य कार्यकर्ता किस उम्मीद या किस प्रेरणा से पार्टी में काम करते रहेंगे ?
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भूली बिसरी यादें
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एक बार प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने सी.पी.आई.सांसद भोगेंद्र झा से पूछा था,‘‘यदि केदार पांडेय (बिहार के मुख्य मंत्री पद से)को हटा दिया जाए तो कैसा रहेगा ?’’
भोगेंद्र झा ने पूछा -क्यों ?
इंदिरा जी का जवाब था-उनके खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों के
बहुत से पत्र आ रहे हैं।
झा जी अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘क्रांति योग’ में लिखते हैं-
‘‘सिर्फ उन्हीं के खिलाफ बहुत से पत्र आ रहे हैं ?
यदि हां तब तो किसी संगठित प्रयास से आता होगा।
आपकी पार्टी में कौन है जो भ्रष्ट नहीं है ?
भ्रष्टाचार में केदार पांडेय का नंबर बिहार में पहला,दूसरा,तीसरा,चैथा भी नहीं होगा।पांचवां,छठा,सातवां हो सकता है।जब आप उनको हटाएंगी तो
बिहार अनावश्यक रूप से सामाजिक आधार विभाजित हो जाएगा।’’
इस तरह पांडेय जी को हटाने का प्रस्ताव स्थगित हो गया।
बाद में केंद्रीय मंत्री ललितनारायण मिश्र ने भोगेंद्र झा से कहा कि ‘‘प्रधान मंत्री ने आपकी बात मान ली।’’केदार पांडेय 1972-73 में मुख्य मंत्री थे।
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और अंत में
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अंग्रेजों ने भारत छोड़ते समय चीन को लेकर दो बातें कही थीं।
पहली बात यह कि तिब्बत चीन का है।
दूसरी बात कि भारत और चीन के बीच की मैकमोहन रेखा ही वास्तविक विभाजन रेखा हैं।भारत ने दोनों बातें मान लीं।
पर,उसी बात पर चीन ने तिब्बत को तो हथिया लिया ।पर वह मैकमोहन रेखा नहीं मानता।
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