रविवार, 30 मार्च 2025

 देश को सिर्फ प्रतिभा-विदेशी डिग्री वाला 

नहीं बल्कि जरूरी जानकारियों के अलावा 

अच्छी मंशा और देश की मिट्टी 

की समझ वाला शासक चाहिए।

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सुरेंद्र किशोर

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‘‘भाजपा अनपढ़ों की फौज,इसके कमांडर भी अनपढ’’

   ---डा.शकील अहमद खान

बिहार कांग्रेस विधायक दल के नेता

दैनिक जागरण-29 मार्च 25     

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‘‘मोदी बहुत बुद्धिमान ,वार्ता सार्थक होगी’’

 अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड टं्रप

दैनिक हिन्दुस्तान-30 मार्च 2025

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इन दो बयानों को तथ्यों की कसौटी पर जरा कस कर देखिए।

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 आजादी के तत्काल बाद के हमारे अति प्रमुख सत्ताधीशों में से अधिकतर आॅक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज से शिक्षित थंे।

इसके बावजूद प्रारंभ के चार दशकों में ही एक सरकारी रुपया 

घिसकर  15 पैसा क्यों और कैसे बन गया ? 

हमारी सीमाएं क्यों सिकुड़ गई ?

(चीन ने 1962 में हमारी 38 हजार वर्ग किलो

मीटर जमीन हमसे छीन ली।)

 ए.जी.नूरानी ने सबूतों के आधार पर इलेस्ट्रेटेड विकली आॅफ इंडिया में कई दशक पहले लिखा था कि चीन ने सोवियत संघ से पूर्व अनुमति लेकर ही 1962 में भारत पर चढ़ाई की थी।इधर विदेश -शिक्षित प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू पूर्व चेतावनियों के बावजूद शांति के कबूतर उड़ा रहे थे।

 याद रहे कि सन 1985 में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि ‘‘हम दिल्ली से 100 पैसे भेजते हैं किंतु गांवों तक उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं।’’

एक दिन में तो 100 पैसे 15 पैसे नहीं हो गये थेे।इसके लिए एक से अधिक प्रधान मंत्रियों के ‘‘योगदान ’’ की जरूरत पड़ी थी।

1962 से पहले नेहरू शासन काल में जब रक्षा मंत्रालय ने सेना की बुनियादी जरूरतों के लिए पैसे मांगे तो वित्त मंत्रालय ने नहीं दिये।

घोटालों की शुरूआत तो जीप घोटाले (1948)से ही हो 

गयी  थी। बेचारे कहां से पैसे देते ?

सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस  अध्यक्ष डी.संजीवैया को इन्दौर के अपने भाषण में यह कहना पड़ा  कि ‘‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।’’

 गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने यह भी कहा था कि ‘‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’’

(कांग्रेस ने पहले मोदी मंत्रिमंडल में खाक पति से लाखपति बने मंत्री खोजे।जब नहीं मिले तो ‘अनपढ’़ का आरोप मढ़ दिया।)

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शिक्षित शासकों की सूची पेश है--

1.-जवाहरलाल नेहरू-प्रधान मंत्री-कैम्ब्रिज 

2.-इंदिरा गंाधी--प्रधान मंत्री--आॅक्सफोर्ड 

3.-राजीव गांधी-प्रधान मंत्री-कैम्ब्रिज

4.-जाॅन मथाई-वित मंत्री-आॅक्सफोर्ड

5.-सी.डी.देशमुख-वित मंत्री-कैम्ब्रिज

6.-एच.एम.पटेल-वित सचिव

       और बाद में वित मंत्री-आॅक्सफोर्ड

7.-मोहन कुमार मंगलम -केदं्रीय मंत्री-कैम्ब्रिज 

8-मनमोहन सिंह-रिजर्व बैंक के गवर्नर--कैम्ब्रिज

9.-एल.के.झा-रिजर्व बैंक के गवर्नर--कैम्ब्रिज

(यह सूची अपूर्ण है।)

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दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी के शासन काल में भारत सरकार का कर राजस्व सन 2014 की अपेक्षा बढ़कर आज लगभग तीन गुणा से भी अधिक  हो गया है।इसलिए देश में विकास

नजर आ रहा है।सेना के पास आज अधिक मात्रा में आधुनिक अस्त्र-शस्त्र हैं।दुश्मन देश आज हमसे सहमते हैं।

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10 साल (2015-25)में भारत की अर्थ व्यवस्था 2 दशमल 1 ट्रिलियन डाॅलर से बढ़कर 4 दशमलव 3 ट्रिलियन डाॅलर हो चुकी है।

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करीब बीस साल की आजादी के बावजूद सन 1966-67 में बिहार में भारी सूखा और अकाल पड़ा था।

लोग भूखों मर रहे थे।मवेशियां मर रही थीं।

बिहार सरकार ने केंद्र सरकार अनाज की मांग की।

उस मांग पर 5 नवंबर 1966 को प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 

पटना में संवाददाताओं से कहा कि ‘‘भारत सरकार के लिए यह संभव नहीं है कि हम बिहार की अनाज की मांग पूरी कर सकें।’’ध्यान रहे कि तब दोनांे जगह कांग्रेस सरकारें ही थीं। 

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दूसरी ओर,कोरोना महामारी को ध्यान में रखते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने 80 करोड़ जनता के लिए हर माह अनाज देने का जो प्रावधान किया,वह आज भी जारी है।

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पढ़े-लिखे प्रधान मंत्री

मनमोहन सिंह के पास जाकर कोई जरूरी  काम के लिए भी धन मांगता था तो सरदार जी कहते थे कि ‘‘रुपए पेड़ पर नहीं उगते।’’

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बेचारे सरदार जी क्या करते ?

दरअसल किसी और के इशारे पर रुपए तो घोटालों में चले जाते थे।जब भ्रष्टाचार की बात की जाती तो सरदार जी कहते कि ‘‘गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं।’’

इधर डा.शकील अहमद खान के शब्दों में ‘‘अनपढ़ों’’की सरकार मोदी सरकार के घोटाले खोज -खोज प्रतिपक्षी नेता,वकील ,पत्रकार हार गये।अब तक तो नहीं मिला।

पता नहीं,शायद  आगे मिले !!!

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सुना है कि किसी प्रतिपक्षी दल का भी कोई संासद नितिन गडकरी के यहां अपने क्षेत्र में सड़क बनवाने की मांग करने जाता है तो मंत्री उसे भी उपकृत कर देते हैं ।क्योंकि भारत सरकार के पास अब पैसों की कमी नहीं है।  

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दरअसल सिर्फ प्रतिभा-डिग्री से ही नहीं बल्कि शासक की अच्छी मंशा से देश आगे बढ़ता है।वैसे आज की भारतीय राजनीति में सर्वाधिक प्रतिभाशाली -सुपठित नेता सुधांशु त्रिवेदी भाजपा में हीं मौजूद हैं,इतना जानकार किसी अन्य दल में नहीं।ओवैसी भी सुधांशु की प्रतिभा की तारीफ कर चुके हैं।

कांग्रेस तो राहुल गांधी की अपेक्षा अधिक प्रतिभाशाली दिखाई पड़ने वाले नेताओं को ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह पार्टी से बाहर करती रहती है।

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30 मार्च 25


शनिवार, 29 मार्च 2025

 बांग्ला देश की घटनाओं ने दे दी सीख 

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बांग्ला देश में हुए -हो रहे अल्पसंख्यक संहार-

बलात्कार के बाद भारत में जो भी चुनाव हो 

रहे हैं, उनमें भाजपा गठबंधन ही जीत रहा है।

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सुरेंद्र किशोर

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गत साल अगस्त में बांग्ला देश में सत्ता पलट हुआ।

जेहादी मानसिकता वाले नये सत्ताधारियों ने उसके बाद वहां के अल्पसंख्यकों का भारी संहार किया।उनकी महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया।आगजनी की।वहां से लगातार महिलाओं की चीत्कार सुनी गई।

वे सारे चीत्कार सहित लोमहर्षक दृश्य भारत के लोगों ने अपने -अपने टी.वी.सेटों पर देखे।

  वह सब देखकर भारत के बहुसंख्यक समुदाय के लोग मध्य युग के अपने पूर्वजों की अपार दुर्दशा-पीड़ा  की कल्पना कर रहे थे।साथ ही, नब्बे के दशक में कश्मीर में हुए हिन्दू संहार-बलात्कार की गंभीरता की कल्पना भी कर रहे थे।

कश्मीर और मध्य युग वाली घटनाओं के लोमहर्षक दृश्य तो यहां के आज के किसी ने तब नहीं देखे थे।

  उसी बीच कांग्रेस के दो पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर और सलमान खुर्शीद ने बारी -बारी से सार्वजनिक रूप से यह भी कह कर जले पर नमक छिड़क दिया कि जो कुछ बांग्ला देश में हो रहा है,वह भारत में भी हो सकता है।

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उन घटनाओं पर योगी आदित्यनाथ ने कहा कि 

‘‘बंटोगे तो कटोगे।’’

नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘‘एक रहोगे तो सेफ रहोगे।’’

इसका भी व्यापक असर हुआ। 

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उसके बाद इस देश में मुख्यतः दो घटनाएं हुईं।

1.-महाकुम्भ में अभूतपूर्व भीड़ हुई।

2.-बांग्ला देश के तख्ता पलट सह व्यापक हिंसा के बाद भारत में जितने चुनाव हुए,सबमें एन.डी.ए.की ही जीत हुई।

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1.-हरियाणा में विधान सभा चुनाव--अक्तूबर, 2024

2.-नवंबर 24 में बिहार में 4 विधान सभा क्षेत्रों में उप चुनाव।

3.-महाराष्ट्र  विधान सभा चुनाव-दिसंबर, 2024

4.-दिल्ली विधान सभा चुनाव-फरवरी, 2025

5.-यू.पी.का मिल्कीपुर विधान सभा उप चुनाव

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इस बीच कोई अन्य चुनाव हुआ हो तो बताइएगा।

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  दूर -दूर तक फैले इन 5 राज्यों के चुनावों में लगातार विजय !

क्या यह संयोग है या बांग्ला देश से लोगों ने सबक 

सीख ली ?

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मेरा तो मानना है कि बांग्ला देश के उन्मादी जेहादी हिंसा ने भारत के हिन्दुओं को अनजाने में जगा कर सीख दे दी।

मध्य युग के मुस्लिम आक्रांताओं की क्रूरता की लीपापोती करने वाले वामपंथी इतिहासकारों का रहा-सहा प्रभाव भी बांग्लादेश के उन्मादी जेहादियों ने भारतीय जन मानस से मिटा दिया होगा,ऐसी उम्मीद है।

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इस बीच और आगे यदि कोई राजनीतिक चमत्कार नहीं हुआ तो अगले किसी चुनाव में भी राजग विरोधी राजनीतिक शक्तियों का चुनावी भविष्य सीमित है।

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और अंत में 

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बिहार के अगले चुनाव के बारे में कोई भविष्यवाणी करते समय 

हाल के चुनावी इतिहास को याद कर लें।

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बिहार में तीन प्रमुख राजनीतिक शक्तियां हैं।

1.-राजद व सहयोगी

2.-भाजपा व सहयोगी

3.-जदयू व सहयोगी  

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इन तीन में से जो भी दो शक्तियों आपस में मिलकर चुनाव लड़ती हैं,सरकार उसी की बनती है।

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याद रहे कि बांग्ला देश में हुए और रह-रह कर हो रहे हिन्दू संहार के दृश्य बिहार के लोग भी उसी चिंता के साथ अपने टीे.वी.सेटों पर देखते रहे हैं।

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 पहचानिए हवा का रुख अन्यथा

बिला जाएंगे हवा में !

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सुरेंद्र किशोर

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1.-भ्रष्टाचार

2.-अपराध

3.-वंशवाद-परिवारवाद

4.-जेहाद

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मेरी समझ से आज इस देश की यही मुख्य 

चार समस्याएं हैं।

जो प्रतिपक्षी या सत्ताधारी नेता इन समस्याओं के

खिलाफ जितना तेज अभियान चलाएंगे,वे बहुसंख्य 

जनता के बीच उतना ही अधिक लोकप्रिय होते जाएंगे।

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दूसरी ओर, जो नेता इन चार समस्याओं को जितना  

अधिक बढ़ाएंगे, उनका जन समर्थन उतनी ही तेजी 

से घटता जाएगा।

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बांग्ला देश की घटनाओं 

ने दे दी है सीख 

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बांग्ला देश में हुए -हो रहे अल्पसंख्यक संहार-

बलात्कार के बाद भारत में जो भी चुनाव हो 

रहे हैं, उनमें भाजपा गठबंधन ही जीत रहा है।

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    गत साल अगस्त में बांग्ला देश में सत्ता पलट हुआ।

जेहादी मानसिकता वाले नये सत्ताधारियों ने उसके बाद वहां के अल्पसंख्यकों का भारी संहार किया।उनकी महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया।

आगजनी की।वहां से लगातार महिलाओं की चीत्कार भारत के टी.वी.चैनलों पर भी सुनी गई।

 चीत्कार सहित लोमहर्षक दृश्य भी देखे गये।

  वह सब देखकर भारत के बहुसंख्यक समुदाय के लोग मध्य युग के अपने पूर्वजों की अपार दुर्दशा-पीड़ा  की कल्पना कर रहे थे।साथ ही, नब्बे के दशक में कश्मीर में हुए हिन्दू संहार-बलात्कार की गंभीरता की कल्पना भी कर रहे थे।

कश्मीर और मध्य युग वाली घटनाओं के लोमहर्षक दृश्य तो यहां के आज के किसी ने तब नहीं देखे थे।

  उसी बीच कांग्रेस के दो पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर और सलमान खुर्शीद ने बारी -बारी से सार्वजनिक रूप से यह भी कह कर जले पर नमक छिड़क दिया कि जो कुछ बांग्ला देश में हो रहा है,वह भारत में भी हो सकता है।

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संभवतः उन्हीं घटनाओं पर योगी आदित्यनाथ ने कहा कि 

‘‘बंटोगे तो कटोगे।’’

नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘‘एक रहोगे तो सेफ रहोगे।’’

इसका भी व्यापक असर हुआ। 

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उसके बाद इस देश में मुख्यतः दो घटनाएं हुईं।

1.-महाकुम्भ में अभूतपूर्व भीड़ हुई।

2.-बांग्ला देश के तख्ता पलट सह व्यापक हिंसा के बाद भारत में जितने चुनाव हुए,सबमें एन.डी.ए.की ही जीत हुई।

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ये चुनाव हैं जिनमें राजग विजयी रहा।

1.-हरियाणा में विधान सभा चुनाव--अक्तूबर, 2024

2.-नवंबर 24 में बिहार में 4 विधान सभा क्षेत्रों में उप चुनाव।

3.-महाराष्ट्र  विधान सभा चुनाव-दिसंबर, 2024

4.-दिल्ली विधान सभा चुनाव-फरवरी, 2025

5.-यू.पी.का मिल्कीपुर विधान सभा उप चुनाव

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  मेरा तो मानना है कि बांग्ला देश के उन्मादी जेहादी हिंसा ने भारत के हिन्दुओं को अनजाने में जगा कर सीख दे दी।

मध्य युग के मुस्लिम आक्रांताओं की क्रूरता की लीपापोती करने वाले वामपंथी इतिहासकारों का रहा-सहा प्रभाव भी बांग्लादेश के उन्मादी जेहादियों ने भारतीय जन मानस से मिटा दिया होगा,ऐसी उम्मीद है।

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29 मार्च 25


शुक्रवार, 28 मार्च 2025

 भारत एक देश या धर्मशाला ?

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बांग्लादेशी-रोहिंग्या  घुसपैठिए इसलिए 

आ रहे हैं क्योंकि ममता सरकार सीमा 

पर बाड़बंदी के लिए जमीन नहीं दे रही है।

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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कल संसद में कहा कि 

‘‘बंगाल सरकार बाड़बंदी के लिए जमीन नहीं दे रही है,इसलिए घुसपैठिए आ रहे हैं।’’

शाह ने यह भी कहा कि भारत कोई धर्मशाला नहीं, इसलिए कड़ी नजर रहेगी।

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सवाल है कि पश्चिम बंगाल में सन 2026 में होने वाले विधान सभा चुनाव का इंतजार भाजपा -केंद्र सरकार क्यों कर रही  है ? क्या जरूरी है कि तब वहां भाजपा को सत्ता मिल ही जाएगी ?

उससे पहले राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं ?

देश में इस्लामी शासन की आशंका को कम करना हो तो बंगाल में राष्ट्रपति शासन जरूरी है।

2026 तक तो और लाखों घुसपैठिए, जो वास्तव में जेहादी हैं,बंगाल के रास्ते हमारे देश में प्रवेश कर जाएंगे।

घुसपैठिए झारखंड के आदिवासी इलाकों में तो आादिवासी लड़कियों से शादी करके उनकी जमीन पर कब्जा करते जा रहे हैं।इस काम में झारखंड की सोरेन

सरकार का उन्हें समर्थन प्राप्त है।

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याद रहे कि अब तक करीब 8 करोड़ घुसपैठिए भारत के विभिन्न राज्यों में फैल चुके हैं।

प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए ही सीमा की तारबंदी की कोई कोशिश नहीं की।उनका बहाना था--घेराबंदी से दुनिया में भारत की छवि खराब होगी।

कई साल पहले पूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे ने एक टी.वी.डिबेट में यही बात कही थी।उस डिबेट में शिवसेना के संजय निरुपम भी थे।

  दिवंगत दुबे ने कहा कि घेराबंदी से दुनिया में हमारी छवि खराब होगी।उस पर निरुपम ने पूछा--दुबे जी,आप भारत के विदेश सचिव थे या बांग्ला देश के ?’

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मुस्लिम वोट लोलुपता के कारण बंगाल की पहले वाम सरकार और बाद की ममता सरकार ने इस मामले में बंगाल व देश की स्थिति विस्फोटक बना दिया ।

  ज्योति बसु सरकार की पुलिस ने 

 1979 में मरीचझांपी में शरण लिए हिन्दू बंाग्ला देशी शरणार्थियों को तो गोलियों से उड़ा दिया।दूसरी ओर मुस्लिम घुसपैठियों को पश्चिम बंगाल में मतदाता बनवा दिया।

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28 मार्च 25


गुरुवार, 27 मार्च 2025

     22 प्रतिशत अरबपति विदेश में बसना चाहते हैं।

  2023 में 2.15 लाख भारतीयों ने नागरिकता छोड़ी

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    सुरेंद्र किशोर

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ताजा समाचार के अनुसार 22 प्रतिशत भारतीय अरबपति यह देश छोड़कर दूसरे देशें में बसना चाहते हैं।

  गत साल केंद्र सरकार ने राज्य सभा को सूचित किया कि दूसरे देशों में बसने के लिए दो लाख 15 हजार भारतीयों ने 2023 में इस देश की नागरिकता छोड़ दी।

   कारण--

यहां रहने की स्थिति अच्छी नहीं है।

कारोबार में सुगमता नहीं है।विदेशों में जीवन स्तर बेहतर है।

कुछ महीने पहले टी.वी.चैनल पर कनाडा के एक शहर में  भारतीय मूल के दो लोगों  को आपस में बातचीत करते मैंने देखा-सुना  था।एक ने दूसरे से पूछा-भारत क्यों छोड़ा ?

दूसरे ने जवाब दिया--वहां सड़कों पर जाम की समस्या गहरा गई है।

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वैसे कारण और भी हैं--

अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर भारत के सरकारी कार्यालयों में रिश्वत के बिना कोई काम नहीं होता।

 बिहार में तो सरकारी कर्मियों ने अनेक जगहों पर समानांतर सरकारी कार्यालय खोल रखे हैं ताकि उन्हें घूस लेने में कोई असुविधा न हो।

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हाल में इस देश के एक हाई कोर्ट के जज ने कहा कि लड़की का वक्ष स्पर्श करना और पैजामा का नाड़ा खोलना कोई अपराध नहीं है।

एक अन्य हाईकोर्ट जज के आवासीय परिसर में करोड़ों रुपए के नोट्स जलते पाए गये।

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हाल की ए. डी. आर.रिपोर्ट के अनुसार देश के 45 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं।

सांसदों में भी लगभग यही प्रतिश्ता होगा।

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यह संयोग नहीं है कि संसद से लेकर विधान सभाओं तक की कार्यवाहियों पर इन दिनों अराजकता छाई रहती है।

हाल में तो हद हो गई जब चलते सदन में सदन के भीतर एक सांसद भाई ने अपनी सांसद बहन का गाल सहलाया।जब स्पीकर ने कहा कि संसद के नियमों का पालन कीजिए तो उस सांसद ने आरोप लगा दिया कि हमें बोलने नहीं दिया जाता।

कुछ ही माह पहले वही सांसद चलते सदन में अपना सिर बेंच के पिछले हिस्से पर तिरछे टिका कर सोते नजर आये थे।

यानी संसद से सड़क तक अराजकता है।कानून -व्यवस्था बहुत खराब है।

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इन दिनों वक्फ संशोधन विधेयक का भारी विरोध हो रहा है।

हाल में सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि 

‘‘उत्तर प्रदेश में एक लाख 21 हजार वक्फ की संपत्तियां हैं।पर,उनमें से एक लाख 12 हजार संपत्तियों का वक्फ बोर्ड के पास कोई कागजी सबूत नहीं है।’’

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उत्तर प्रदेश सरकार ने इस संबंध में कहा है कि जिस वक्फ जमीन का मालिकाना हक सन 1952 के राजस्व रिकाॅर्ड में दर्ज है,उसी को वक्फ की संपत्ति माना जाएगा।

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पर,जमीयत उलेमा हिन्द कहता है कि मनमोहन सिंह सरकार ने वक्फ बोर्ड को जो ताकत दी है,उसके अनुसार ही हम मालिकाना हक मानते हैं न कि किसी राजस्व रिकाॅर्ड को मानते हैं।

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सन 2013 में मनमोहन सरकार ने जो वक्फ कानून बनाया उसकी धारा-40 के अनुसार वक्फ को यह शक्ति दे दी गयी है कि यदि वक्फ को लगता है कि कोई संपत्ति वक्फ की संपत्ति है तो वक्फ संबंधित जिला पदाधिकारी को उसे खाली कराने का आदेश दे सकता है । उसका यह आदेश डी.एम.को मानना होगा।इस आदेश के खिलाफ यह (मन मोहन सरकार का )कानून किसी को हाई कोर्ट में अपील करने की अनुमति नहीं देता।

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याद रहे कि वक्फ बोर्ड का दावा करीब 9 लाख एकड़ जमीन पर है ।इसमेें से बहुत ही कम जमीन का कागजी सबूत 

वक्फ बोर्ड के पास है।

इसके बावजूद कांग्रेस सहित सारे तथा कथित सेक्युलर राजनीतिक दल वक्फ बोर्ड के इस नाजायज मांग के समर्थन में आंदोलनरत हैं।

ताकि उन्हें मुसलमानों का उन्हें वोट मिल जाएं।

ऐसा देश कितने दिनों तक टिका रहेगा ?मध्य युग की याद आ रही है।

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दिल्ली के सदर बाजार से लेकर पटना के न्यू मार्केट तक पुलिस की मदद से सड़कों पर अवैध कब्जा रहता है।लोगों का चलना दूभर है।

देश के अन्य शहरों का भी यही हाल है।उन अतिक्रमणकारियों से पुलिस को भारी रकम घूस के रूप में मिलती है। गत अक्तूबर में सदर बाजार से तो अतिक्रमण हटाया गया। 12 पुलिस कर्मियों को लाइन हाजिर किया गया।पर ताजा स्थिति का पता नहीं।

पर,पटना में राज्य सरकार ने पूरी ताकत लगाकर देख ली।पटना के सड़क-बाजार से अतिक्रमण नहंीं हट पा रहा है।

घूस खोर पुलिस, मुख्य मंत्री पर भी भारी हंै।

ऐसे ही कटु अनभव के कारण अस्सी के दशक के एक तगड़े मुख्य मंत्री भागवत झा आजाद ने कहा था कि बिहार में मेरा राज नहीं बल्कि दारोगा राज है।

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हरि अनंत हरि कथा अनंता !!

इसलिए इस देश में जिसके पास पैसे हैं,वे यह देश छोड़ रहे हैं।जो भ्रष्ट नेता वोट के लिए जेहादियों के हाथों धीरे -धीरे इस देश का इलाका दर इलाका सौंपने में मदद कर रहे हैं,उनमें से भी कुछ लोग 

विदेश में संपत्ति खरीद रहे हैं।ताकि जब भारत में इस्लामिक राज कायम हो जाए तो वे विदेश में जाकर सपरिवार बस जाएंगे।उनके जातीय वोट बैंक का क्या हश्र होगा,उसकी चिंता उन्हें नहीं है।

मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश विधान सभा में हाल में कहा कि यहां के एक नेता ने लंदन में होटल खरीद लिया है।

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याद रहे कि भारत में प्रतिबंधित जेहादी ंसंगठन पी.एफ.आई.ने . हथियारों के बल पर भारत में सन 2047 तक इस्लामिक शासन कायम कर देने का लक्ष्य तय किर लिया है।हथियार जुटाए जा रहे हैं। विदेशों से उन्हें पैसे मिलते रहे हैं।

मौलाना रशीदी ने तो हाल में कह दिया कि अब हमारी आबादी 40 प्रतिशत हो चुकी है।हम 2047 से पहले ही यह लक्ष्य पूरा कर लेंगे।

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27 मार्च 25

     


बुधवार, 26 मार्च 2025

बिहार में कभी 85 प्रतिशत फेल होते थे, अब 

उतने ही प्रतिशत पास होते हंै।

है न शिक्षा-परीक्षा में अद्भुत चमत्कार !!

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1996 में बिहार में इंटर विज्ञान के 85 प्रतिशत परीक्षार्थी 

फेल कर गये थे।

2025 में लगभग उतने ही प्रतिशत परीक्षार्थी पास हो गये।

यह कैसा चमत्कार है भई ?!

जबकि, आज बिहार में शिक्षण-व्यवस्था का हर स्तर पर 

क्या हाल है,

यह किसी से छिपा हुआ नहीं है।

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परीक्षा में कदाचार रोकने के ‘‘अपराध’’ में यू.पी.

की जनता ने कल्याण सिंह सरकार को अगले 

चुनाव में हरा कर सत्ता से बाहर कर दिया था

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यू.पी. की उस घटना के बाद चुनाव लड़ने वाली कोई सरकार 

वैसा दुःसाहस अब नहीं करती।

यानी जो होता है,वह होने दो !गद्दी रहेगी तो दूसरे 

काम तो होंगे न,भले मानव संसाधान बेहतर न बने। 

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इसीलिए बिहार में जिन स्कूलों में शिक्षक नहीं,लैब नहीं,

वहां के परीक्षार्थी भी इस साल बन गये टाॅपर

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 सन 1992 में कल्याण सिंह सरकार ने नकल विरोधी कानून बनाया।

मुलायम सिंह की सरकार ने 1994 में उस कानून को रद कर दिया।

यानी फिर बैतलवा डाल पर !

दरअसल यू.पी.बोर्ड की परीक्षा में कदाचार पूरी तरह रोक देने के कारण कल्याण सिंह की सरकार 1993 के यू.पी.विधान सभा चुनाव में हार कर सत्ता से बाहर हो गई।

सन 1992 में बाबरी ढांचा गिराने के कारण भाजपा के पक्ष में उत्पन्न सकारात्मक भावना को भी भंजाने में कल्याण सिंह विफल रहे।

 यानी, कदाचार करने-कराने वाली जनता ने यह तय किया कि किसी न किसी तरह परीक्षा में अभी पास करना अधिक जरूरी है,राम मंदिर तो बनता रहेगा।हमारी परीक्षा की कीमत पर तो वह न बने।

अभी हमारे त्राणदाता तो मुलायम सिंह यादव हैं।

याद रहे कल्याण सरकार के नकल विरोधी कानून का व्यापक 

विरोध करके मुलायम सिंह यादव कदाचारी विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों के ‘हीरो’ बन गए थे।

   यानी,मुझे यह लगने लगा है कि चुनाव लड़ने वाली कोई भी सरकार  परीक्षाओं में नकल नहीं रोक सकती। नीतीश सरकार भी यही मानती है।

कदाचार रोकने के लिए शायद किसी तानाशाह शासक की जरूरत इस देश में पड़ेगी।चीन सरकार तो कहती है कि चुनाव लड़ने वाली कोई सरकार इस्लामिक आतंकवादियों से सफलतापूर्वक नहीं लड़ सकती।वह काम तो हमारे जैसे यानी चीन जैसे शासन में ही संभव है।

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   आज भारत का उद्योग जगत कहता है कि सिर्फ 27 प्रतिशत इंजीनियर ही ऐसे हैं जिन्हें नौकरी पर रखा जा सकता है।

 हमारे स्वास्थ्य की देखरेख करने वाले तो ठीकठाक पढ़ लिखकर निकलें,यह जनता की इच्छा होती हैं।पर बिहार के कुछ मेडिकल काॅलेजों से इस बात को लेकर भी हड़ताल की खबर मिलती है कि ‘‘चोरी नहीं तो परीक्षा नहीं।’’यानी जनता भगवान भरोसे !

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जब-जब शिक्षा -परीक्षा के ध्वस्त होने की बात होती है,तब -तब कई लोग अपनी -अपनी ‘सुविधा’ के अनुसार अपना ‘टारगेट’ तय करके आरोप का गोला दागने लगते हैं।

पर 1963 से इस संबंध में मैंने जो कुछ अपनी आंखों से देखा है,उसे संक्षेप में शेयर करता हूं।

राजनीति और प्रशासन में गिरावट के अनुपात में शिक्षा में भी गिरावट होनी ही थी।हुई भी।

पहले परीक्षाओं में ‘सामंतवाद’ था। 1967 से उसमें ‘समाजवाद’ आ गया।

सरकारी नौकरियां देने के लिए कत्र्तव्यनिष्ठ उच्चपदस्थ अफसरों व सेना की देखरेख में यदि उम्मीदवारों की कदाचारमुक्त प्रतियोगी परीक्षाएं हों, तो स्थिति में सुधार हो सकता है।

छोटी -छोटी टुकड़ियों में सालों भर बड़े हाॅल में ऐसी परीक्षाएं होती रहें।

तभी सिर्फ योग्य लोग ही सेवाओं में आ सकेंगे।

अब भी योग्य लोग सेवा में हैं,पर कम संख्या में।

उसके बाद आम परीक्षाओं में जारी कदाचार का कुप्रभाव कम हो जाएगा।

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सन 1963 में मैं मैट्रिक की परीक्षा दे रहा था।

जिला स्कूल में केंद्र था।

उस जिले के सबसे अधिक प्रभावशाली सत्ताधारी नेता के परिवार के एक सदस्य के लिए चोरी की छूट थी।

केंद्र में किसी अन्य के लिए वह ‘सुविधा’ उपलब्ध नहीं थी।

   बाद में काॅलेज का अनुभव जानिए।

मैं बी.एससी.पार्ट वन की परीक्षा दे रहा था।

संयोग से उस काॅलेज के एक उच्च पदाधिकारी के पुत्र की सीट मेरे ही हाॅल में पड़ी थी।

नतीजतन पूरे हाॅल को चोरी की छूट थी।

उसी केंद्र में किसी अन्य हाॅल में कोई छूट नहीं थी।

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उन दिनों मेडिकल - इंजीनियरिंग काॅलेजों में माक्र्स के आधार पर दाखिला हो जाता था।

प्रैक्टिकल विषयों में कुल 20 में उन्नीस अंक मिल जाने पर कम तेज उम्मीदवार भी डाक्टर या इंजीनियर आसानी से बन जाते थे।

  संयोग से मेरा रूम मेट ही इन 250 रुपयों को इधर से उधर करता था।

न जाने कितनों को उसने डाक्टर-इंजीनियर बनवा दिया।

एक दिन मुझसे उसने पूछा, 

‘का हो सुरिंदर,तुमको भी नंबर चाहिए।

तुमको कुछ कम ही पैसे लगेंगे।’’

मैंने कहा कि मुझे कोई नौकरी नहीं करनी है।

मेरा वह रूम मेट खुद हाई स्कूल का शिक्षक बना।

एक दिन पटना शिक्षा बोर्ड आॅफिस के पास  संयोग से मिल गया था।

वैसे भी 200-250 रुपए मेरे लिए जुटाना तब मुश्किल था।

ऐसे गोरखधंघे के कारण ही माक्र्स के आधार पर दाखिला बाद में बंद हो गया।

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  1967 के चुनाव के बाद परीक्षाओं में धुंआधार चोरी शुरू हो गई।

कहा भी जाने लगा कि ‘चोरी में समाजवाद’ आ गया।

महामाया सरकार ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की।

छात्रगण महामाया बाबू के ‘जिगर के टुकड़े’ जो थे ! 

के.बी.सहाय की सरकार को चुनाव में हराने में छात्रों की बड़ी भूमिका थी।

वैसे छात्र आंदोलन के अन्य कारण भी थे।

1967 के आम चुनाव से पहले बड़ा छात्र और जन आंदोलन हुआ था।

छात्रों पर भी जमकर पुलिस दमन हुआ था।

मैं भी तब एक छात्र कार्यकत्र्ता था।

मैंने खुद परीक्षा छोड़ दी थी क्योंकि आंदोलन के कारण मेरी तैयारी नहीं हो पाई थी।

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1972 में केदार पांडेय की सरकार ने नागमणि और आभाष चटर्जी जैसे कत्र्तव्यनिष्ठ अफसरों की मदद से परीक्षा में चोरी को बिलकुल समाप्त करवा दिया।

  पर सवाल है कि अगले ही साल से ही फिर चोरी किसने होने दी ?

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1996 में पटना हाईकोर्ट के सख्त आदेश और जिला जजों की निगरानी में मैट्रिक व इंटर परीक्षाआंे  में कदाचार पूरी तरह बंद कर दिया गया।

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पर, अगले ही साल से कदाचार फिर क्यों शुरू करवा दिया गया ?

किसने शुरू करवाया ?

क्या कदाचार की इस महामारी के लिए आप किसी एक दल एक सरकार या एक नेता या फिर किसी एक समूह को जिम्मेवार मान कर खुश हो जाना चाहते हैं ?

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और अंत में

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मैंने 1963 में मैट्रिक साइंस से फस्र्ट डिविजन में पास किया था।

गांव में रहता था।जवार के कुछ लोग मुझे देखने आए थे कि देखें,कौन लड़का है कि इतना अच्छा रिजल्ट किया।

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इस साल कुल 11 लाख इंटर परीक्षाथियों में से सिर्फ 90 हजार थर्ड डिविजन से पास हुए।

अब उन्हें लोग देखने जाते होंगे कि देखें कैसे अभागा लड़का है जो इस बहती गंगा में भी हाथ नहीं धो सका !!

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हमारे जमाने में बिहार में इक्के दुक्के परीक्षार्थी ही प्रथम श्रेणी में पास करते थे।

इस साल सबसे ज्यादा यानी पांच लाख 8 हजार परीक्षार्थी फस्र्ट डिविजन से पास हुए।पांच लाख 7 हजार सेकेंड डिविजन और सबसे कम यानी करीब 92 हजार थर्ड डिविजन से पास हुए।ऐसा रिजल्ट ही यह साबित करता है कि यह परीक्षा नहीं, बल्कि सब गोलमाल है।

हर समाज, हर देश,हर तबके में ‘‘फस्र्ट डिविजनर’’ सबसे कम होते हैं,सिर्फ बिहार परीक्षा बोर्ड के परीक्षार्थियों को छोड़कर।

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मंगलवार, 25 मार्च 2025

  गद्दारों से देश भारी खतरे में 

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भारत को सन 47 तक दुनिया का 58 वां 

मुस्लिम देश बनाने के लिए हल्का‘युद्ध’ जारी

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सुरेंद्र किशोर

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आज के वोट लोलुप नेताओं से उन्हें 

परोक्ष-प्रत्यक्ष समर्थन मिल रहा जो 

भारत को एक और पाकिस्तान बनाने 

की कोशिश में लगे हुए हैं।

कुछ इलाकों को बना भी दिया है।

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मुस्लिम आक्रांताओं ने बारी -बारी से दुनिया के 57 देशों पर हमला करके उन देशों को तलवार के बल पर या अन्य तरीकों से मस्लिम बहुल देश बना दिया।

मध्य काल में उन आक्रांताओं ने भारत पर भी हमला किया था।पर, यहां आज फिर भी एक अरब हिन्दू क्यों 

बचे रह गये ?

उन्हें किसने बचाया ?

  क्या जेहादियों ने उन पर दया करके उन्हें हिन्दू बने रहने दिया ?

क्यों राजस्थान के किसी जिला मुख्यालय का नाम मुस्लिम 

नाम नहीं है ?उन जेहादियों के खिलाफ कुछ लोग उठ खड़े हुए ,तभी तो आज एक अरब हिन्दू अब भी हैं।पर मध्य युग की उनकी कमी कुछ गद्दार आज पूरी करने के प्रयास में लगे हैं।

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1947 में अविभाजित पाकिस्तान में हिन्दू करीब 20 प्रतिशत थे।

 अब पाकिस्तान में करीब एक दशमलव 6 प्रतिशत (1998)और बांग्ला देश में करीब 8 प्रतिशत हिन्दू बचे हैं।

बाकी हिन्दू कहां गये ?

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ं भारत के  9 राज्य अब हिन्दू बहुल नहीं रहे।

1947 में ये राज्य भी हिन्दू बहुल थे।

ऐसा क्यों और कैसे हुआ ?

मौलाना रशीदी को हाल में यह कहते हुए मैंने टी.वी.चैनल पर सुना कि अब भारत में 40 करोड़ मुसलमान हो गये हैं। 

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पाॅपुलर फ्रंट आॅफ इंडिया ने खुलेआम यह घोषणा कर रखी है कि वह हथियारों के बल पर सन 2047 तक भारत को इस्लामिक देश बना देगा।आज देश के विभिन्न हिस्सों में आए दिन आप उनके उन्मादी हिंसक दृृश्य टी.वी.चैनलों को देख सकते हैं।उनका मनोबल बढ़ा हुआ है।वोट लोलुप नेता उनका हौसला बढ़ा रहे हैं।

प्रतिबंधित जेहादी संगठन पी.एफ.आई.से जुड़े राजनीतिक संगठन एस.डी.पी.आई. के साथ मिलकर इस देश के कौन- कौन राजनीतिक दल चुनाव लड़े रहे हैं ?

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इस देश के कौन -कौन राजनीतिक दल पी.एफ.आई. के खिलाफ एक शब्द का भी कभी उच्चारण नहीं करते ?

आखिर क्यों नहीं करते ?उन दलों की पहचान कीजिए और उनसे अब तो सावधान हो जाइए।

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सिमी पर 2001 में प्रतिबंध लगा।

सिमी का आदर्श था--ओसामा बिन लादेन।

उसका नारा था-‘‘इस्लाम का गाजी कुफ्र्र शिकन,

मेरा शेर ओसामा बिन लादेन।’’

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लगता है कि अब वैसे जेहादी तत्वों ने औरंगजेब को अपना आदर्श हीरो बना लिया है।

यह संयोग नहीं है कि अलीगढ़ में 1977 में जेहादी संगठन सिमी की स्थापना हुई थी।

 सिमी ने प्रतिबंध के खिलाफ जब सुप्रीम कोर्ट में अपील की तो उसके वकील थे कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद।यह अकारण नहीं है कि मणिशंकर अय्््यर और सलमान खुर्शीद ने कुछ ही महीने पहले कहा कि जो कुछ बांग्ला देश में हो रहा है,वह भारत में भी हो सकता है।

प्रतिबंध के बाद सिमी के लोगों ने इंडियन मुजाहिद्दीन बना लिया।

बाद में देश के ऐसे कई संगठनों ने मिलकर पी.एफ.आई बनाया।

पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी पी.एफ.आई.की महिला शाखा के समारोह में शामिल होने के लिए 23 सितंबर, 2017 में कोझीकोड गए थे।

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कुछ वोट लोलुप नेताओें की गद्दारी से आज भारत और बहुसंख्यक समाज बहुत ही खतरनाक दौर से गुजर रहा है।

इस देश में जिन इलाकों में ,मुख्यतः जिन -जिन गैर भाजपा शासित राज्यों में मुसलमान बहुमत में आते जा रहे हैं,वहां से हिन्दू या अन्य समुदाय भागने को विवश हो रहे हैं।उन पीड़ितों के बारे में न तो वहां की सरकारें कुछ कर रही हंै और न ही मीडिया भयवश रिपोर्टिंग कर रहा है।

  आज की अपनी गद्््दारी पर परदा डालने के लिए कुछ नेता मध्य युग के ऐसे राजा को भी झूठे इतिहास पुस्तक के आधार पर गद्दार बता रहे हैं जिसके शरीर पर 80 घाव लगे थे।

देश के मशहूर पत्रकार हर्ष वर्धन त्रिपाठी कहते हैं कि 

‘‘हमले के लिए बाबर को भारत बुलाने वाला दौलत खान लोदी था,राणा सांगा नहीं।

  राणा सांगा हमारे वीर योद्धा थे।

औरंगजेब के पाप को छिपाने के लिए हमारे वीर योद्धाओं को नेता अपमानित कर रहे हैं।

 औरंगजेब का महिमा मंडन करने वाले अबू आजमी के साथ अखिलेश यादव खड़े रहे और अब वह राणा सांगा का अपमान करने वाले रामजीलाल सुमन के साथ खडे़ हैं।’’

2001 में जब सिमी पर प्रतिबंध लगा तो कुछ नेता क्या बोले --.

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सरकार ने सिमी पर जो प्रतिबंध लगाया है,वह मेरी दृष्टि में जायज नहीं है।

     ---शाही इमाम ,फतेहपुरी मस्जिद

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‘‘गुजरात दंगों के बाद दंगों की प्रतिक्रिया में इंडियन मुजाहिद्दीन का गठन हुआ।’’

         ---डा.शकील अहमद,

     कांग्रेस महा सचिव--21 जुलाई 2013

(जबकि सच्चाई यह है कि सिमी पर प्रतिबंध लग जाने के बाद  सिमी ने लोगों ने आई.एम.बनाया।)

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सिमी पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए था।

--मुलायम सिंह यादव

7 अगस्त 2008

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मन मोहन सिंह सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि सिमी के लोग जेहाद का प्रचार कर रहे हैं और कश्मीर में आतंकवादियों की पूरी मदद कर रहे हैं।

....टाइम्स आॅफ इंडिया .....21 अगस्त 2008 -- 

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राम विलास पासवान ने सिमी पर लगे प्रतिबंध को हटाने की मांग की।

        ---12 अगस्त 2008 

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कश्मीर के अलगाववादी नेता 

सैयद अली शाह जिलानी ने कहा कि 

सिमी पर प्रतिबंध नागरिक अधिकार पर हमला है।

--29 सितंबर 2001

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सिमी से प्रतिबंध हटाए जाने के ट्रिब्यूनल के निर्णय पर भाजपा ने केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए इसका ठीकरा गृह मंत्री शिवराज पाटिल पर फोड़ा है।

     ---6 अगस्त 2008

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हालांकि मनमोहन सरकार को फिर से प्रतिबंध लगाना पड़ा।

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रेल मंत्री लालू प्रसाद ने कहा कि मैंने हमेशा कहा है कि  सिमी पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए।

यदि लगता है तो शिव सेना और दुर्गा वाहिनी पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए।

-----टाइम्स आॅफ इंडिया--7 अगस्त 2008

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यशवंत सिन्हा के नेतृत्व में भाजपा के प्रतिनिधि मंडल ने चुनाव आयोग से मिलकर यह मांग की कि सिमी समर्थक दलों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।

   ----19 अगस्त 2008

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सिमी के अहमदाबाद के जोनल सेके्रट्री साजिद मंसूरी ने 2001 में  मीडिया से  बातचीत  में कहा था कि ‘जब हम सत्ता में आएंगे तो सभी मंदिरों को नष्ट कर देंगे और वहां मस्जिद बना देंगे।’ 

मंसूरी का बयान 30 सितंबर 2001 के अखबार में छपा था। 

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2012 में पश्चिम बंगाल के डी.जी.पी.एन.मुखर्जी ने कहा था कि सिमी के जरिए आई.एस.आई.ने माओवादियों से तालमेल बना रखा है।

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 स्थापना के समय  सिमी जमात ए इस्लामी हिंद से जुड़ा संगठन था।

पर जब 1986 में सिमी ने ‘इस्लाम के जरिए भारत की मुक्ति’ का नारा दिया तो जमात ए इस्लामी हिंद ने उससे अपना संबंध तोड़ लिया।

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केंद्र सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध लगाने के लिए जो मापदंड अपनाए,वे अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं।

      ---- इम्तियाज अहमद,

             प्रोफेसर जे.एन.यू

              30 सितंबर 2001

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मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह ने राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के लिए सिमी पर प्रतिबंध लगाने का स्वागत किया,पर बजरंग दल पर प्रतिबंध नहीं लगाने के लिए केंद्र सरकार को फटकार लगाई।

   ---पायनियर--29 सितंबर 2001

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सिमी के संविधान में भारत को मजहबी आधार पर बांटने की बात स्पष्ट रूप से दर्ज है।

-----सी.बी.आई.के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह

   --22 सितंबर 2008 ,राष्ट्रीय सहारा  

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लोकतांत्रिक तरीके से इस्लामिक शासन संभव नहीं है।उसके लिए एकमात्र रास्ता जेहाद है।

-------सिमी सदस्य अबुल बशर--

28 सितंबर 2008--राष्ट्रीय सहारा 

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‘‘जेहाद के नाम पर बिहार में भड़काया जाने लगा है एक वर्ग को।’’

    ----बिहार पुलिस की  खुफिया शाखा की रपट

             22 सितंबर 2001

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     पटना की एन.आई.ए.अदालत ने गांधी मैदान बम विस्फोट ( अक्तूबर, 2013) के 9 आरोपितों को दोषी ठहराया।

एन.आई.ए.के विशेष अभियोजक ललन प्रसाद सिन्हा ने कहा है कि दोषी ठहराए गए ‘सिमी’ से जुड़े रहे हैं।

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इससे पहले जयपुर की अदालत ने देशद्रोह के आरोप में सिमी के 12 सदस्यों को गत मार्च में आजीवन कारावास की सजा दी ।

इससे पहले भी इस देश की अदालतें सिमी के लोगों को समय -समय पर सजाएं देती रही हैं।

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  सिमी के एक सदस्य अबुल बशर का इकबालिया बयान राष्ट्रीय सहारा के 28 सितंबर, 2008 के अंक में छपा है।

इस बयान की पृष्ठभूमि में हमारे देश के कतिपय नेताओं व बुद्धिजीवियों की टिप्पणियों को देखिए।

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 इकाबालिया बयान में बशर ने  

अन्य बातों के अलावा यह भी कहा है कि 

‘‘.....मैं इस विचार से सहमत हूं कि लोकतांत्रिक तरीके से ( भारत में )इस्लामिक शासन संभव नहीं है,उसके लिए एकमात्र रास्ता जेहाद है।’’

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और अंत में

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याद रहे कि जयचंद ने मुहम्मद गोरी से मिलकर पृथ्वीराज चैहान के खिलाफ युद्ध नहीं लड़ा था।जयचंद निजी कारणों से सिर्फ चुपचाप बैठ गया था।यह बात भी छिपाई गई है कि गोरी के लोगों ने बाद में जयचंद को भी मार डाला था।

पर,आज के जेहादी-समर्थक नेता तो राष्ट्र द्रोहियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं।जहां -तहां जीत भी रहे हैं।बदले में उनकी जेहादी गतिविधियों के खिलाफ एक शब्द का भी उच्चारण नहीं कर रहे हैं।उल्टे सिर्फ उनसे यानी भाजपा-आरएसएस से लड़ रहे हैं जिनसे जेहादी लड़ रहे हैं।यानी, लग रहा है कि अपना देश मध्य युग की अपेक्षा आज अधिक खतरनाक दौर में प्रवेश कर गया है।

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सोमवार, 24 मार्च 2025

 वक्फ संशोधन विधेयक विरोधी अभियान 

की खतरनाक मंशा

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 ‘‘हम किसी की भी जमीन हड़प लेंगे ,पर उस पर 

अपने हक के सबूत का कोई कागज नहीं दिखाएंगे !’’

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     सुरेंद्र किशोर

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हाल ही में मशहूर मुस्लिम नेता व सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि 

‘‘उत्तर प्रदेश में एक लाख 21 हजार वक्फ की संपत्तियां हैं।पर,उनमें से एक लाख 12 हजार संपत्तियों का वक्फ बोर्ड के पास कोई कागजी सबूत नहीं है।’’

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दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश सरकार ने इस संबंध में कहा है कि ‘‘जिस वक्फ जमीन का मालिकाना हक सन 1952 के राजस्व रिकाॅर्ड में दर्ज है,उसी को वक्फ की संपत्ति माना जाएगा।’’

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पर,जमीयत उलेमा हिन्द कहता है कि मनमोहन सिंह सरकार ने वक्फ बोर्ड को जो ताकत दी है,उसके अनुसार ही हम मालिकाना हक मानते हैं न कि किसी राजस्व रिकाॅर्ड को मानते हैं।

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सन 2013 में मनमोहन सरकार ने जो वक्फ कानून बनाया, उसकी धारा-40 के अनुसार वक्फ को यह शक्ति दे दी गयी है कि यदि वक्फ को ‘‘लगता है’’ कि कोई संपत्ति वक्फ की संपत्ति है तो वक्फ संबंधित जिला पदाधिकारी को उसे खाली कराने का आदेश दे सकता है । उसका यह आदेश डी.एम.को मानना ही होगा।इस आदेश के खिलाफ यह (मन मोहन सरकार का )कानून किसी को हाई कोर्ट में अपील करने की अनुमति नहीं देता।

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ऐसे ही असंवैधानिक,गैर कानूनी ,अन्यायपूर्ण और अतार्किक प्रावधानों को समाप्त करने के लिए मोदी सरकार ने वक्फ संशोधन विधेयक, 2024 लाया है।

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अन्याय के नमूने

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कर्नाटका के विजयपुरा जिले के किसानों के एक वर्ग ने यह आरोप लगाया कि उनकी जमीन को वक्फ संपत्ति के रूप में चिन्हित किया गया है।बेदखली की नौबत आ रही है।

मुख्य मंत्री सिद्दरमैया ने 29 अक्तूबर 24 को कहा कि विजयपुरा के किसी किसान को बेदखल नहीं किया जाएगा।

याद रहे कि कर्नाटका के मुख्य मंत्री कांग्रेसी हैं।

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ऐसे अन्याय के नमूने केरल,बिहार और तमिलनाडु सहित देश भर से आ रहे हैं।

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यह सब जानते हुए भी इस देश के जो तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक दल मुस्लिम वोट के लोभ में मोदी सरकार की ओर से पेश वक्फ संशोधन विधेयक, 2024 का विरोध कर रहे हैं,वे देश को आखिर कहां ले जाना चाहते हैं ?

मध्य युग में लौटाना चाहते हैं ?

यदि मध्य युग आ जाएगा तो इन राजनीतिक दलों का खुद का अस्तित्व भी मिट जाएगा,इस बात की कल्पना भी वे नहीं कर पा रहे हैं।क्योंकि वे स्वार्थ में अंधे होकर अपने वंशजों के भविष्य की भी ंिचंता नहीं कर रहे हैं।वे यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि आज पाकिस्तान और बांग्ला देश में क्या-क्या हो रहा है !  

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भारत के मुस्लिम संगठन चाहते हंै कि नीतीश सरकार और नायडु सरकार भी उनके वक्फ संशोधन विरोधी अभियान का समर्थन करंे।

 लेकिन नीतीश-नायडु को यह मंजूर नहीं।

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यदि बिहार और आंध्र सरकार के मुखिया इस मध्ययुगीन मानसिकता वाले लोगों की मांग का समर्थन करेंगे तो 

इन राज्यों के गांवों के दबंग लोग किसी की भी जमीन पर कब्जा कर सकते हैं।

  वे कह सकते हैं कि हम इस जमीन पर कब्जे का कोई सबूत नहीं दिखाएंगे।

 इन राज्य सरकारों से वे दबंग यह भी कहेंगे कि जब आप वक्फ बोर्ड की गैर कानूनी-गैर संवैधानिक -गैर तार्किक मांग का समर्थन कर सकते हैं तो हमारे दावे का भी समर्थन आपको करना पड़ेगा।क्योंकि कानून के सामने समानता के हमारे अधिकार की रक्षा होनी ही चाहिए।

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24 मार्च 25 

 


रविवार, 23 मार्च 2025

 डा.लोहिया के जन्म दिन पर

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(23 मार्च 1910--12 अक्तूबर 1967)

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डा.राम मनोहर लोहिया अपना जन्म दिन नहीं मनाते थे।

क्योंकि 23 मार्च (1931) को ही भगत सिंह 

को फांसी पर लटकाया गया था।

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पर,एक पूर्व समाजवादी कार्यकर्ता और जागरूक पत्रकार होने के नाते इस अवसर पर मैं तो उन्हें याद कर ही सकता हूं।

क्योंकि डा.लोहिया ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है।

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लोहिया ने किया था

‘टाइम’पर मुकदमा

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अपने बारे में गलत खबर से खिन्न डा.लोहिया 

ने मशहूर अमरीकी पत्रिका ‘टाइम’ के खिलाफ 

मानहानि का मुकदमा दायर किया था।

लोहिया पर टाइम में छपी खबर से लोगों ने 

जाना कि एक बहुत बड़ी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका भी किस 

तरह गैर जिम्मदाराना रिपोर्टिंग कर सकती है।

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 डा.लोहिया ने ‘टाइम’ सेे दस पैसे के हर्जाने की मांग की थी।

  याद रहे कि फूल पुर लोक सभा उप चुनाव के संबंध में ‘टाइम’ ने निराधार खबर छापी थी।

‘टाइम’ ने अन्य बातों के अलावा यह भी लिख दिया था 

कि ‘‘ डा.लोहिया नेहरू परिवार के आजीवन शत्रु हैं।’’

  भारत की राजनीति के बारे में ‘टाइम’ की छिछली जानकारी का ही यह नतीजा था।(कई दशक पहले इंडियन एक्सप्रेस के तब के संपादक ने मुझसे कहा था कि मैं अंग्रेजी पत्रकारों की अपेक्षा इस देश को अधिक जानता हूं क्योंकि मैं हिन्दी अखबार भी पढ़ता हूं।)  

दरअसल डा.लोहिया जवाहरलाल नेहरू की नीतियों का विरोध करते थे न कि वे उनके आजीवन शत्रु थे।

एक बार डा.लोहिया ने अपने मित्रों से कहा था कि यदि मैं बीमार पड़ूंगा तो मेरी सबसे अच्छी सेवा- शुश्रूषा जवाहर लाल नेहरू के घर में ही होगी। डा.लोहिया जब दिल्ली जेल में थे,प्रधान मंत्री नेहरू ने लोहिया के लिए आम भिजवाया था।इसको लेकर गृह मंत्री सरदार पटेल प्रधान मंत्री से नाराज हुए थे।

 सन 1964 में नेहरू के निधन के बाद डा.लोहिया ने कहा था,‘ ‘1947 से नेहरू को मेरा सलाम !’

पर छिछली रिपोर्टिंग करने वाली पत्रिका को इन तथ्यों से क्या मतलब !  

  खैर ‘आजीवन शत्रु’ वाली बात लोहिया को अधिक बुरी लगी थी।

दरअसल नेहरू के निधन के बाद फूल पुर में उप चुनाव हुआ।डा.लोहिया कांग्रेस की उम्मीदवार विजयलक्ष्मी पंडित के खिलाफ चुनाव प्रचार में गए थे।

 टाइम के 4 दिसंबर, 1964  के अंक में लिखा गया कि ‘डा.लोहिया नेहरू परिवार के आजीवन शत्रु हैं। इस कारण वे उप चुनाव में विजयलक्ष्मी पंडित के विरूद्व प्रचार करने गए थे।

इस बात को नजरअंदाज करते हुए कि 1962 में खुद लोहिया,नेहरू के खिलाफ वहां चुनाव लड़ चुके थे, पत्रिका ने यह भी लिख दिया कि ‘लोहिया ने मतदाताओं से कहा कि विजयलक्ष्मी पंडित की सुन्दरता के जाल में न फंसें।उनके अंदर केवल विष है।’

‘टाइम’ के अनुसार डा.लोहिया ने मतदाताओं से  कहा कि श्रीमती पंडित की युवावस्था जैसी सुन्दरता इसलिए कायम है क्योंकि उन्होंने यूरोप में प्लास्टिक शल्य चिकित्सा करायी है।

 डा.लोहिया ने दिल्ली के सीनियर सब जज की अदालत में टाइम  के संपादक,मुद्रक,प्रकाशक और नई दिल्ली स्थित संवाददाताओं के विरूद्व मानहानि का मुकदमा किया।  

  अदालत में प्रस्तुत अपने आवेदन पत्र में डा.लोहिया ने कहा कि टाइम में प्रकाशित उक्त सारी बातेें बिलकुल मन गढंत हैं और मुझे बदनाम करने के इरादे से इस तरह की कुरूचिपूर्ण बातें मुझ पर आरोपित की गई हंै।

डा.लोहिया ने  कहा कि टाइम ऐसे दकियानूसी कट्टरपंथी तत्वों का मुखपत्र है,जिन्हें हमारी समतावादी और लोकतांत्रिक नीतियां पसंद नहीं हैं।

  नई दिल्ली स्थित संवाददाताओं ने, जो उक्त समाचार भेजने के लिए जिम्मेदार हैं,मुझसे कभी भंेट तक नहीं की।

 ये संवाददाता स्थानीय भाषा भी नहीं जानते।

इसलिए मेरे भाषण की उन्हें सीधी जानकारी भी नहीं हो सकती थी।

शत्रुता के आरोप का खंडन करते हुए डा.लोहिया ने कहा कि

कांग्रेसी शासन अथवा दिवंगत प्रधान मंत्री की जब भी मैंने आलोचना की है तो नीति और सिद्धांत के प्रश्नों पर ही।

किसी निजी द्वेष पर नहीं।

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   समान नागरिक संहिता के 

  पक्षधर थे डा.लोहिया 

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उत्तराखंड सरकार ने गत साल समान नागरिक कानून बना दिया।

डा.राममनोहर लोहिया जीवित होते तो इस पर वे बहुत खुश होते।

भले आज के कथित लोहियावादी इस खबर से दुखी होंगे।

पर,समान नागरिक संहिता के पक्ष में बयान देने के कारण डा.लोहिया सन 1967 का अपना लोक सभा चुनाव हारते -हारते जीते थे।

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तब डा. लोहिया ने चुनाव प्रचार के बीच पत्रकारों के सवाल के  जवाब में यह कह दिया था कि 

‘‘इस देश में सामान्य नागरिक संहिता लागू होनी ही चाहिए।’’

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डा.लोहिया का यह बयान उर्दू अखबारों में कुछ अधिक ही प्रमुखता से छपा था।

उस पर डा.लोहिया के दल के नेतागण चिंतित हो गये।उनमें से एक ने लोहिया से कहा --

‘‘डाक्टर साहब,(उन्हें इसी नाम से पुकारा जाता था)यह आपने क्या कह दिया !

अब तो आप चुनाव हार जाएंगे।’’  

 डा.लोहिया ने कहा था कि 

‘‘हम सिर्फ चुनाव जीतने के लिए नहीं, बल्कि देश को बनाने के लिए राजनीति करते हैं।’’

याद रहे कि वे खुद लोक सभा का चुनाव लड़ रहे थे।

डा. लोहिया जीत तो गए,किंतु  सिर्फ करीब 400 मतों से।

यदि तब कांग्रेस विरोधी हवा नहीं होती तो वे शायद नहीं जीत पाते।

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सुदूर बसे कार्यकर्ताओं से भी जीवंत संबंध

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सन 1967 में डा.राम मनोहर लोहिया को मैंने एक चिट्ठी

लिखी थी।

तब मैं सारण जिला क्रांतिकारी विद्यार्थी संघ का सचिव था।

 संसोपा से जुड़े युवा नेता नरेंद्र कुमार सिंह ने, जो बाद में बिहार सरकार में मंत्री भी बने थे, इस संगठन का निर्माण राज्य स्तर पर किया था।

और, मुझे सारण जिला शाखा का सचिव बना दिया।

 मेरे मन में सवाल उठा कि जब समाजवादी युवजन सभा मौजूद है ही तो इस विद्यार्थी संगठन की क्या जरूरत है ?

(याद रहे कि कुछ महीने बाद जब समाजवादी युवजन सभा का राज्य स्तरीय संगठनात्मक चुनाव हुआ तो मैं संयुक्त सचिव चुना गया था।जो दो अन्य संयुक्त सचिव चुने गये थे,उन में एक लालू प्रसाद यादव थे और एक अन्य थीं शांति देवी (बेगूसराय)।शिवानन्द तिवारी सचिव चुने गये थे।

मुझे लगा कि पार्टी से पूछे बिना ही उत्साह में नरेंद्र जी ने यह विद्यार्थी संगठन बना दिया है।

लोहिया को मैंने लिखा था कि क्या आपकी इसमें सहमति है ?

उसका जवाब उन्होंने अपने निजी सचिव अध्यात्म त्रिपाठी से दिलवाया और उस चिट्ठी पर अपने हाथ से मेरे लिए लोहिया ने लिख दिया--‘‘खुश रहो।’’

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त्रिपाठी जी ने मुझे लिखा,‘‘आपका पत्र राम मनोहर लोहिया को मिला,धन्यवाद।

  यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपलोगों ने समाजवादी युवजन सभा के साथ-साथ क्रांतिकारी विद्यार्थी संघ का भी गठन किया है।(पत्र की फोटो काॅपी इस पोस्ट के साथ दी जा रही है।

यह पत्र हैदराबाद से कई खंडों में प्रकाशित पुस्तक ‘लोकसभा में लोहिया’ में छप चुका है।)

त्रिपाठी जी ने यह भी लिखा--‘‘समाजवादी युवजन सभा का संगठन अभी तक बहुत कमजोर रहा है,चाहे इसका कारण जो भी रहा हो।अधिक से अधिक युवजन इस संगठन में आएं,ऐसी कोशिश आप लोग कीजिए।

  युवजन ही अन्याय के मुकाबले में खड़े हो सकते हैं।रचना के काम भी कर सकते हैं।आपलोग साप्ताहिक या पाक्षिक विचार बैठक नियमित रूप से करें और उसमें देश-विदेश की स्थितियों पर विचार-विमर्श करें।

 ‘जन’ मासिक के जितने भी ज्यादा पाठक होंगे, उतनी ही ठोसता संगठन में आएगी।

  समय- समय पर आप लिखते रहिएगा।’’   

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23 मार्च 25



      

    

   


शनिवार, 22 मार्च 2025

 डा.सच्चिदानंद सिन्हा की अनुपम 

देन पटना की सिन्हा लाइब्रेरी

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सुरेंद्र किशोर

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संविधान सभा के अंतरिम अध्यक्ष डा.सच्चिदानंद सिंहा (1871-1950) के बारे में कंचन किशोर ने दैनिक जागरण 

में विस्तार से लिखा है।

वह लेख इस पोस्ट के साथ यहां दिया जा रहा है।

 आज मैं सिन्हा साहब की अनुपम देन सिन्हा लाइब्रेरी (पटना)की चर्चा करूंगा।

  वैसे तो सत्तर-अस्सी के दशकों में मैं सिन्हा लाइब्रेरी का मेम्बर यानी कार्ड होल्डर था।

  पर, बाद में दशकों तक मेेरा वहां आना -जाना नहीं रहा।

पर,इधर भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर पर पुस्तक लेखन के लिए सामग्री जुटाने के सिलसिले में वहां जाना होता है।

   हाल में मैंने वहां साठ-सत्तर के दशकों के दैनिक अखबारों की फाइलें देखी-पलटी -पढ़ी-नोट किया।

बहुमूल्य जानकारियां मिलीं।मेरा मन सिन्हा साहब के प्रति आदरपूर्ण एहसान से भर उठा।

वहां साठ के दशक से पहले के भी अखबार उपलब्ध हैं।

आज तो कई अखबारों के दफ्तरों में भी उनके अपने ही प्रकाशनों के पुराने अंक उपलब्ध नहीं हैं।सिन्हा लाइब्रेरी के विकास के लिए नीतीश सरकार ने हाल में बड़ा कदम उठाया है।

पुनर्निर्माण-आधुकीकरण की बड़ी योजना है।शायद सिंगापुर की कोई कंपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार कर रही है।यह सब जान कर यह भी लगा कि नीतीश कुमार ने राज्य के अनेक क्षेत्रों में काम किया है।

 सिन्हा लाइब्रेरी के पुस्तकाध्यक्ष का व्यवहार शालीन और सहयोगात्मक रहा।

हां,पुराने पड़ रहे अखबारों-पत्रिकाओं की माइक्रो फिल्मिंग जरूरी लगी।क्योंकि पुराने कमजोर अखबारी कागज के कारण अखबारों के पन्ने फटे मिले।

लगा कि कुछ पाठक -रिसर्चर उलटते समय सावधानी नहीं बरतते।

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कर्पूरी ठाकुर भी कभी सिन्हा लाइब्रेरी के नियमित पाठक थे।

उनके लाइब्रेरी कार्ड को फ्रेम करा कर उसे सिन्हा लाइब्रेरी के रिसर्च सेक्सन की दीवार पर टांग दिया गया है।

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मैं भी 1965 से ही अपने घर में निजी पुस्तकालय-संदर्भालय विकसित करता रहा हूं।

 करीब 25 साल पहले डा.नामवर सिंह और प्रभाष जोशी मेरे आवास पर आये थे।

उन्होंने मेरी लाइब्रेरी देखी।

जोशी जी ने कहा कि देश के किसी पत्रकार की इतनी संपन्न निजी लाइबे्ररी नहीं है।

डा.नामवर सिंह ने कहा कि ‘‘सुरेंद्र जी आपने हीरा संजोकर रखा है।’’

  पिछले 25 साल में तो मेरे इस पुस्तकालय-सह संदर्भालय का आकार करीब दुगुना हो चुका है।बढ़ता जा रहा है।

  अब मुझे एक सहायक की जरूरत महसूस होती है।पर सहायक रखने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं।

  इसे अप डेट करते जाने में कितना अधिक समय,श्रम और धन लगता है,वह मैं ही जानता हूं।

 डा.सच्चिदानंद सिन्हा को पैसे की कमी नहीं थी।

पर पैसे तो बहुत लोगों के पास होते हैं,पर मन वैसा नहीं होता।

सिन्हा साहब के पास धन भी  था और मन भी।

इसीलिए ऐतिहासिक काम कर सके। अब मैं अपना कटु अनुभव आपसे शेयर करता हूं।

मैंने ‘आज’ दैनिक के पटना ब्यूरो प्रमुख पारसनाथ सिंह के साथ मिलकर 13 फरवरी 1977 को जयप्रकाश नारायण का लंबा इंटरव्यू किया था।

उन दिनों जेपी बहुत व्यस्त थे। लोक सभा चुनाव सिर पर था।

देश भर के लोग उनसे मिलना चाहते थे।

फिर भी दैनिक आज का नाम सुनकर हमें उन्होंने समय दे दिया।

मिलने पर वे आधे घंटे तक पारस बाबू से दैनिक आज और उसके संस्थापक राष्ट्ररत्न बाबू शिव प्रसाद गुप्त(1883-1944) की प्रशंसात्मक चर्चा करते रहे। 

 वह चर्चित इंटरव्यू 16 फरवरी 1977 के आज (वाराणसी-कानपुर संस्करण)में पहले पेज पर छपा।

‘आज’के उस इंटरव्यू  की चर्चा करते हुए तब बी बी सी ने अपने बुलेटिन में जेपी की न्यूजब्रेक वाली बातों को प्रसारित किया था।

  हाल में मैंने तय किया कि मैंने अपने पत्रकारीय जीवन में जितनी बड़ी हस्तियों के इंटरव्यू किये हैं, उन्हें एक पुस्तक में सेमटा जाये।

  बाकी कटिंग्स तो मेरे पास हंै,पर ‘आज’ की वह कटिंग नहीं है।

मैंने देश भर  में  खोजवाया।

दैनिक आज के वाराणसी और कानपुर आॅफिस में भी।कहींे ंनहीं मिला।

आज के वाराणसी आॅफिस की फाइल में से 16 फरवरी 1977 का अंक गायब है।कानपुर आॅफिस में तो आज की पुरानी फाइलें दीमकों की खुराक बन चुकी हैं।

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अब आप ही समझिए कि मेरे जैसे साधनहीन व्यक्ति की, अपने पुस्तकालय को बनाये रखने और इसे अपडेट करते जाने की जिद्द, कब तक जारी रहती है !

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22 मार्च 25       


शुक्रवार, 21 मार्च 2025

 कांग्रेस नेता मणि शंकर अय्यर और सलमान खुर्शीद ने गत साल अगस्त में ही यह कह दिया था कि जो कुछ बांग्ला देश में हुआ,वैसा भारत में भी हो सकता है।

   हाल में नागपुर में जो कुछ हुआ,वह बांग्लादेश की घटनाओं की ही झलक प्रस्तुत कर रहा था।

नागपुर में गृह युद्ध का माहौल बनाया गया था न कि किसी लोकतांत्रिक विरोध का।

नागपुर की ताजा घटना से बांग्लादेश का संबंध भी जुड़ा बताया जा रहा है।

बाकी बातें सलमान और अय्यर जांच एजेंसियों को बता सकते

हैं कि उनको कैसे पहले ही पता चल गया था ??

नीचे के दो पोस्ट में आप उन दोनों के बयान पढ़ सकते हैं।

  


गुरुवार, 20 मार्च 2025

 संदर्भ--नागपुर साम्प्रदायिक हिंसा

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 जो लोग औरंगजेब को अपना हीरो

 मानते हैं,वे औरंगजेब के बारे में 

जवाहरलाल नेहरू की इस राय को पढ़ लें

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‘‘औरंगजेब धर्मांध और नीरस आदमी था और उसे

 कला या साहित्य से कोई प्रेम न था।

हिन्दुओं पर पुराना और घृणित जजिया कर लगा कर और उनके बहुत से मंदिरों को तुड़वा कर उसने अपनी बहुत बड़ी प्रजा को बुरी तरह नाराज कर दिया।’’

      --जवाहरलाल नेहरू

    ‘‘हिन्दुस्तान की कहानी’’

(द डिस्कवरी आॅफ इंडिया का हिन्दी अनुवाद)

पृष्ठ संख्या-314

संस्करण--2024

सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन

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अब थोड़ा डा.आम्बेडकर को भी पढ़ 

लीजिए--

डा.बी.आर.आम्बेडकर ने 

मुस्लिम मानसिकता पर जो बेबाक टिप्पणी की है,

उसे भी आम लोगों से छिपाया गया।

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वह टिप्पणी यहां प्रस्तुत है।--

‘‘इस्लाम एक बंद निकाय है

जो मुसलमानों और गैर मुसलमानों के बीच के जो भेद करता है,वह बिलकुल मूर्त और स्पष्ट है।

  इस्लाम का भ्रातृ भाव, मानवता का भ्रातृ भाव नहीं है।

मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव है।

यह बंधुत्व है,परंतु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है।

जो इस निकाय से बाहर हैं,उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा और शत्रुता ही है।

   इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है 

जो स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता।

क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती।

बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है,जिसका कि वे एक हिस्सा है।

   एक मुसलमान के लिए उसके विपरीत या उल्टे मोड़ना अत्यंत दुष्कर है।

जहां कहीं इस्लाम का शासन है,वहीं उसका अपना विश्वास है।

    दूसरे शब्दों में इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट संबंधी मानने की इजाजत नंहीं देता।

  सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे महान भारतीय परंतु सच्चे मुसलमान ने अपने शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए जेरूशलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।’’

----डा.बी.आर.आम्बेडकर 

लिखित पुस्तक 

‘‘पाकिस्तान और भारत का विभाजन’’

 की पृष्ठ संख्या-367 से  

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अब एक खबर लीक से हटकर भी

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ताजा खबरों के अनुसार सउदी अरब के क्राउन प्रिंस 

मोहम्मद बिन सलमान इस स्थिति को बदलना चाहते हैं।

उन्होंने अपने देश में हिन्दू मंदिर के निर्माण की अनुमति दी।

साथ ही, उन्होंने आदेश दिया कि गैर मुस्लिमों के लिए उनके देश में शराब परोसी जा सकती है।

कुछ अन्य बातें भी हैं।

देखना है कि उन्हें कितनी सफलता मिलती है।

भारत सहित दुनिया में सारे लोग मोहम्मद बिन सलमान की तरह ही यदि सह अस्तित्व के सिद्धांत का पालन करें तो शांति बनी रहेगी।

अन्यथा ????

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20 मार्च 25





 


 कर्पूरी एक व्यक्ति नहीं,आंदोलन थे

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 सन 1988 में कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद मैंने पटना में जो दृश्य देखा,उसका मेरे ऊपर भारी असर पड़ा।

उनकी शव यात्रा में मैंने हजारों लोगों को रोते देखा।

नर कंकाल सी एक अनजानी औरत जार-जार रोये जा रही थी।

  एक आदमी के कंधे पर बैठा एक बच्चा हाथ जोड़कर कर्पूरी जी के शव को प्रणाम कर रहा था।

यकीन कीजिए,पूरी शव यात्रा में वह हाथ जोड़े रहा।

दूसरे सारे लोग रोते भी जा रहे थे और ,नारे भी लगाते जा रहे थे।

दरअसल कर्पूरी जी महज व्यक्ति नहीं,आंदोलन थे।

परिवर्तन की आशा थे।

.................................

---दिवंगत हेमवती नन्दन बहुगणा,

  उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री

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ऐसे नेताओं के लिए भारत की धरती अब 

बांझ हो चुकी है।--सु.कि.


बुधवार, 19 मार्च 2025

 


 अपने निंदकों-आलोचकों से

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सुरेंद्र किशोर

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मेरे किसी लेख या फेसबुक पोस्ट में कोई तथ्यात्मक गलती हो और उसकी ओर कोई व्यक्ति इंगित करते हुए मुझे लिखता है तो मैं उसका विनम्रतापूर्व स्वागत करता हूं।मेरा उससे ज्ञानवर्धन ही होता है।कोई सज्जन अपने बेहतर ज्ञान व तर्कों के जरिए मेरी बातों को काट दे तो मुझे तो और भी खुशी होगी।

  लेकिन मेरे तथ्यों पर न जाकर मेरे खिलाफ यदि कोई नाहक जहर उगलता है,व्यक्तिगत टिप्पणी करता है या मानहानि कारक शब्दों का इस्तेमाल करता है तो मैं उस टिप्पणी को अपने फेसबुक वाॅल से सिर्फ डिलीट कर देता हूं।फिर उसे भूल जाता हूं।

ऐसा करके मैं उसी व्यक्ति का बचाव करता हूं।

कल्पना कीजिए कि इस बीच मेरी हत्या हो जाए।फिर जांच एजेंसी खोजेगी कि मुझसे कौन -कौन लोग दुश्मनी या व्यक्तिगत खुन्नस पालते थे।

  उसके बाद आप नाहक परेशानी में पड़ सकते हैं जबकि हत्या में आपका हाथ नहीं रहा होगा।

  आजकल पुलिस-एजेंसियां सोशल मीडिया पर कुछ अधिक ही नजर रखती हैं।

   जहां तक मेरे लेखन का सवाल है,उससे कुछ लोग इन दिनों चिढ़े रहते हैं।

 लेकिन मैं उनकी परवाह नहीं करता।

क्योंकि उनमें इतना बौद्धिक या नैतिक दम नहीं है कि वे मेरे तथ्यों को काट सकें।

 वे सिर्फ मेरी तथाकथित मंशा पर सवाल उठा सकते हैं।उसके लिए किसी तर्क बुद्धि या सबूत की तो तत्काल जरूरत है नहीं।हां,मानहानि का केस होने पर जरूरत पड़ेगी।पर केस करने का मेरे पास समय नहीं।

मैं अपना आदर्श डा.राममनोहर लोहिया और लोकनायक जय प्रकाश नारायण को मानता हूं।

दोनों में से कोई भी अपने लिए सत्ता के पीछे नहीं रहे।

 (क्या मैं सत्ता के पीछे रहा ?क्या मुझे सत्ता की कोई छोटी-मोटी कुर्सी नहीं मिल सकती थी ?

क्या मैं आज भी दो रोटी जुटाने के लिए स्वतंत्र लेखन पर निर्भर नहीं हंू ?कितना जानते हैं आप मेरे बारे में ?)

जेपी-लोहिया ने सिर्फ देश के भले को ध्यान में ही रखकर समय- समय पर राजनीतिक या गैर राजनीतिक पहलकदमी की।

1974-77 के बिहार आंदोलन व सन 1977 के चुनाव में जब जेपी ने समाजवादियों तथा अन्य के साथ-साथ  संघ-जनसंघ-विद्यार्थी परिषद का भी साथ स्वीकार किया तो कई लोगों ने उनकी आलोचना की।

पर,जेपी ने देशहित में उस पहल को ठीक समझा था।ठीक पहल थी भी।

डा.लोहिया ने तो विशेष प्रयास करके विशेष परिस्थिति मेें सन 1967 में बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्यों के गैर कांग्रेसी  मंत्रिमंडलों में एक साथ जनसंघ और सी.पी.आई.के सदस्यों को भी शामिल कराया था।

 जेपी-लोहिया ने अपने समय में वही किया जिसे उन दोनों ने समय -समय पर देश के व्यापक हित में सही समझा।उन्होंने न तो किसी व्यक्तिगत हित को आड़े आने दिया न ही किसी विचार धारा की जकड़बंदी या बंदरमूठ को।

मैं उन दो महान नेताओं की उस लाइन पर चलते हुए वैसा ही लेखन करता रहा हूं जिसे मैं आज देशहित में प्रासंगिक व जरूरी समझता हूं।

  मेरा आदर्श न तो आज की कोई सरकार है और न ही कोई नेता। हां,मैं सिर्फ तुलना कर सकता हूं --पहले या आज की सरकारों के बीच।

यदि कोई विचारधारा भी देशहित के काम न आ पा रही है,कालबाह्य हो चुकी हो तो उसे भी मानते रहने की मैं कोई जरूरत नहीं समझता।

चीन और रूस भी जनहित में अपनी पुरानी विचारधारा की जकड़न से मुक्त हो चुके हंै। 

   आज इस देश-प्रदेश में दूसरे क्या लिख रहे हैं,किस उद््देश्य से लिख रहे हैं,कहां से होकर लिख रहे हैं,उन पर न तो मैं ध्यान देता हूं और न ही उन पर टिप्पणी करता हूं।

  उसके लिए मेरे पास समय भी नहीं है। मैं क्यों नाहक किसी का अभिभावक बनने की कोशिश करूं ?!

किसी लेखक,राजनीतिक कर्मी या पत्रकार को मैं कोई दिशा -निदेश दूं कि आप ऐसा लिखें और ऐसा न लिखे,ऐसा करने का मैं सोच भी नहीं सकता।

यह काम कुछ दूसरे लोगों का है जो यह चाहते हैं कि जैसा वे सोचते हैं,वैसा ही सारे लोग सोचंे।अन्यथा व्यक्तिगत लांछन लगा कर उन्हें बदनाम कर दिया जाएगा।

 पता नहीं,उनके पास इतना खाली समय क्यों है ?

या,यही उनका धंधा ही है !?

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19 मार्च 2025

मेरे फेसबुक वाॅल से


मंगलवार, 18 मार्च 2025

 सुधार की क्षमता गंवाती कांग्रेस

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सुरेंद्र किशोर

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कांग्रेस देश के बदलते मानस और राजनीतिक परिदृश्य 

पर हो रहे परिवर्तन को समझ नहीं पा रही।

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कांग्रेस की पुरानी परंपरा रही है कि जीत का श्रेय 

जहां नेहरू-गांधी परिवार के खाते में जाता है तो हार का ठीकरा दूसरे नेताओं पर फोड़ा जाता है।

इसी अघोषित ,किंतु स्थापित परिपाटी के अनुसार कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने हाल में कहा कि राज्यों के चुनाव परिणामों के लिए पार्टी के प्रभारी जिम्मेदार होंगे।

 कुछ दिन पहले ही गुजरात में राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के नेताओं की भाजपा से मिलीभगत का आरोप लगाते हुए उन्हें कड़ी नसीहत दी।

 राहुल ने ऐसे संदिग्ध नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने से परहेज न करने की बात भी कहीं।

स्पष्ट है कि किसी भी संभावित हार की स्थिति में पार्टी ने अपना रुख पहले से ही तैयार कर लिया है,जिसमंे हार की आंच किसी भी तरह नेहरू-गांधी परिवार पर न पड़ने दी जाएगी।

याद कीजिए कि 1962 में चीन से युद्ध हारने का जिम्मेदार तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.के कृष्ण मेनन और सैन्य नेतृत्व को

बताया गया और नेहरू को उसकी तपिश से बचाने का हर संभव प्रयास किया गया। 

इसके उलट 1971 में बांग्ला देश मुक्ति संग्राम में विजय का पूरा श्रेय इंदिरा गांधी के खाते में गया।

  जब 2014 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय हुई तो उपाध्यक्ष रहे राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की,जिसे एक स्वर से ठुकरा दिया गया।

 असल में जिस संगठन में जब ‘बास इज अलवेज राइट’का चलन होगा तो उसकी चाल बिगड़ने से भला कौन रोक सकता है। 

  राजनीतिक इतिहास यही दर्शाता है कि कांग्रेस स्वयं में 

सुधार की क्षमता पूरी तरह खो चुकी है।

 इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि दोष सिर में है और पार्टी इलाज पैर का करना चाहती है।

 अब जब वोटिंग मशीन पर लांछन लगाना काम नहीं आ रहा है तो कांग्रेस आलाकमान ने अगली किसी आशंकित हार के लिए अभी से बलि का बकरा खोजने की कवायत शुरू कर दी हैं

 आजादी के तत्काल बाद से ही जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक के आधार पर कांग्रेस ने देश पर लंबे समय तक शासन  किया।हालांकि उसे 1952 में भी सिर्फ 45 प्रतिशत वोट मिले।

वह कभी 50 प्रतिशत तक भी नहीं पहुंच पाई।

नेहरू-गांधी परिवार के शीर्ष नेताओं को पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं ने अपना ऐसा मसीहा मान लिया जिसकी आलोचना मानो ईशनिंदा जैसी हो।

 यह कोई नई बात नहीं है।

आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1977 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की भारी पराजय के लिए पूरी तरह इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी जिम्मेदार थे,लेकिन पार्टी में उनकी कोई जवाबदेही तय नहीं की गई और न ही उन्हें पराजय की कोई सजा मिली।

  ऐसा इसलिए क्योंकि नेहरू-गांधी परिवार किसी भी अनुशासन या सजा से हमेशा ऊपर रहा है।

  1977 के लोक सभा चुनाव के ठीक बाद कांग्रेस कार्य समिति सदस्यों और अन्य पदाधिकारियों के सामूहिक इस्तीफे का प्रस्ताव रखा गया था।

 इस निर्णय का आधार इससे पहले इंदिरा गांधी के आवास पर हुई एक बैठक थी।

  हालांकि बाद में नेताओं को लगा कि वह निर्णय कांग्रेस के हित में व्यावहारिक और दूरदर्शितापूर्ण नहीं है।लेकिन उस निर्णय के पीछे मुख्य मंशा यही थी कि बड़ी से बड़ी हार के लिए भी नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व को जिम्मेदार नहीं ठहराना है।

  इससे पहले 1971 के लोक सभा चुनाव में जब कांग्रेस को भारी बहुमत मिला तो कहा गया कि यह इंदिरा जी के चमत्कारिक व्यक्तित्व का असर था।

 चुनाव से पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था।पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकार समाप्त किए।

 इससे कांग्रेस के प्रति आम लोगों खासकर गरीबों का आकर्षण बढ़ा।

1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के पास संगठन का कोई मजबूत ढांचा नहीं था।

 निजलिंगप्पा वाली कांग्रेस का नाम ही संगठन कांग्रेस पड़ा था,क्योंकि संगठन का अधिकांश निजलिंगप्पा के पास ही रह गया था।

1971 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत के पीछे यह तर्क मजबूत था कि शीर्ष नेता में यदि क्षमता-कुशलता है तो तो पार्टी को चुनावी लाभ मिलेगा ही।

 उस समय के नेतृत्व को लोक लुभावन नारे ,भले वे झूठ ही क्यों न हों,गढ़ना तो आता था।

   आज पार्टी और उसके शीर्ष नेतृत्व में ऐसे नारे गढ़ने की ‘प्रतिभा’ का भी अभाव दिखता है।

इसलिए अपनी कमी का दोष अपने दल के कार्यकर्ताओं ,नेताआंे तथा अन्य लोगों पर मढ़ना उसकी मजबूरी हैं

  राहुल गांधी जब सार्वजनिक रूप से अजीबोगरीब बातें कहते हैं और उस कारण उनकी और उनकी पार्टी की किरकिरी होती है तो उसका दोष राहुल के वैचारिक सलाहकारों पर मढ़ दिया जाता है।

 अंतराष्ट्रीय पत्रिका ‘इ इकोनमिस्ट’ ने 2012 में लिखा था कि राहुल गांधी दुविधाग्रस्त और अगंभीर नेता हैं।इसके बावजूद हर कोई राहुल को आगे बढ़ाने में लगा हुआ है।

  लगता है कि कांग्रेस ने अपनी स्थिति का आकलन करना भी बंद कर दिया है जो पार्टी के पतन का एक प्रमुख कारण बना हुआ है।

  एक समय देश के बड़े हिस्से पर शासन करने वाली कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपों से अपनी साख खोती गई,लेकिन पार्टी ने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया।

 स्वतंत्रता के बाद से ही मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की समीक्षा करने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया।

  2014 के चुनाव में मानमर्दन के बाद हार के कारणों की समीक्षा के लिए एंटनी समिति ने अपनी पड़ताल में पाया था कि मुस्लिमों  की ओर झुकाव का पार्टी को भारी खामियाजा भुगतना पड़ा।

इसके बावजूद यही लगता है कि कांग्रेस ने उससे कोई सबक नहीं लिया।

अब कांग्रेस की अपने दम पर मात्र तीन राज्यों में सरकार है और ऐसे ही एक राज्य कर्नाटका की सरकार ने एलान किया है कि सरकारी ठेकों में मुस्लिम ठेकेदारों को आरक्षण दिया जाएगा।

 इस पर बहस भी शुरू हो गई है।

 लेकिन कर्नाटका का मामला यही रेखांकित करता है कि कांग्रेस इस पहलू की कोई परवाह नहीं करती।

 आंतरिक सुरक्षा से जुड़े कुछ मुद्दों पर भी उसका रवैया उसे संदिग्ध बनाता है।

पार्टी देश के बदलते मानस और राजनीतिक परिदृश्य पर होते परिवर्तन को समझ नहीं पा रही और अपना जनाधार एवं प्रासंगिकता खोती जा रही है।

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