मंगलवार, 10 नवंबर 2020

   ‘‘लगता है कि नरेंद्र मोदी अब भी गुजरात दंगे वाले सी.एम. हैं।’’

          --राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी

अब्दुल बारी को इंगित करते हुए

‘‘पता नहीं आप भी जिन्ना के सपूत तो नहीं बनना 

चाह रहे हैं ?’’

             --केंद्रीय मंत्री  गिरिराज सिंह 

--दैनिक भास्कर,पटना, 7 नवंबर 2020

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   मेरी समझ से इन दोनों नेताओं के बयान अतिशयोक्तिपूर्ण हैं।

राजनीति से प्रेरित हैं।

अपने -अपने वोट बैंक को खुश करने वाले बयान हैं।

तथ्य से इनका कोई संबंध नहीं है।

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यह सच है कि शाहीन बाग धरना के समय कुछ मुस्लिम नेताओं ने जरूर यह नारा लगाया था कि 

‘‘हमें जिन्ना वाली आजादी चाहिए।’’

कांग्रेस व कम्युनिस्ट दलांे के बड़े -बड़े नेताओं ने शाहीन बाग जाकर उन देशद्रोहियों को बढ़ावा भी दिया।

पर इसका मतलब यह नहीं कि जिसका भी मुस्लिम नाम है,वे सब जिन्ना के सपूत बनना चाहते हैं।

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दूसरी ओर, अब्दुल बारी सिद्दीकी के बयान से लगता है कि 

उन्होंने नरेंद्र मोदी को ‘‘दंगे का प्रतीक पुरुष’’ मान  लिया है।

 जबकि ऐसा नहीं है।

प्रतीक पुरुष बनने का हक तो उसी को है जिसके कारण दंगे में सर्वाधिक लोगों की जानें गईं हों।

इस देश के दंगों के पिछले आंकड़े मोदी को यह दर्जा नहीं देते।यह मोदी के साथ अन्याय है।

इस देश की बड़ी आबादी इस अन्याय का बदला लेते हुए मोदी को लगातार समर्थन देती जा रही है।

  यह दर्जा किसी और को मिलता है जिसके खिलाफ बोलना सिद्दिकी के लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदेह है।

अभी तो उससे इनका चुनावी तालमेल भी है।

संभव होगा तो साथ सत्ता भी चलाएंगे।

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आंकड़े गवाह हैं।

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ऐसे संवेदनशील मामलों में आंकड़ों के साथ ही बातें करनी चाहिए।

साथ ही, जो लोग गोधरा में ट्रेन में 58 कार सेवकों के दहन कांड की निंदा नहीं करते,उन्हें बाद में  प्रतिक्रियास्वप हुए गुजरात दंगे के खिलाफ बोलने का भी कोई नैतिक अधिकार नहीं है।  

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 सन 2002 के गुजरात दंगे में अल्पसंख्यक समुदाय के 790 और बहुसंख्यक समुदाय के 254 लोग मरे थे।

गुजरात दंगे में दंगाई भीड़ को कंट्रोल करने की कोशिश में 

200 पुलिसकर्मी भी शहीद हुए थे।

गुजरात पुलिस ने दंगाइयों पर जो गोलियां चर्लाइं,उस कारण भी दर्जनों लोग मारे गए थे।

 गुजरात में दंगा शुरू होने से कितनी देर बाद पुलिस-सेना सड़कों पर थी ?

सिर्फ नौ जानें जाने के बाद ही वहां सेना सड़कों पर थी।

इसके विपरीत दिल्ली में 1984 में पुलिस व कांग्रेसियों के नेतृत्व में दो दिनों तक हत्यारों के गिरोह  सिखों का एकतरफा संहार करते रहे।

फिर भी जानबूझकर सेना नहीं बुलाई गई।

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जरा 1989 का भागल पुर दंगा याद कर लें

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  1989 के दंगे में भागलपुर में अल्पसंख्यक समुदाय के करीब 900 और बहुसंख्यक समुदाय के करीब 100 लोग मरे।

पुलिस की गोलियों से वहां कितने दंगाई मारे गए ?

मुझे तो नहीं मालूम।

किसी को मालूम हो तो जरुर बताएं।

 उल्टे पुलिस तो वहां भक्षक बनी रही।

एस.पी.की बदली रुकने के बाद ही अधिक जानें गईं।

दंगे में अकर्मण्यता के कारण पहले उनकी बदली हुई थी।

पर प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने बाद में बदली रोकने का आदेश दे दिया था।

जिस मुख्य मंत्री एस.एन.सिंह ने बदली का आदेश दिया था,वे मुंह ताकते रह गए।

हां, उनकी गलती यह जरूर थी कि उन्होंने तत्काल मुख्य मंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया।

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2002 के गुजरात व 1984 के दिल्ली सिख संहार की यादें

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 यह सही है कि गुजरात में पूर्व सांसद एहसान जाफरी के यहां से फोन शासन को जाता रहा ,पर उन्हें कोई मदद  नहीं मिली।

और , वे दंगाइयों के शिकार हो गए।

पर, दिल्ली में तो राष्ट्रपति जैल सिंह और यहां तक कि इंदिरा -संजय भक्त लेखक सरदार खुशवंत सिंह के त्राहिमाम संदेशों को भी प्रधान मंत्री राजीव गांधी व गृह मंत्री नर सिंह राव ने नजरअंदाज कर दिया था।

जैल सिंह व खुशवंत सिंह अपने -अपने रिश्तेदारों-मित्रों  को हत्यारी जमातों से बचाना चाहते थे।

वे भी नहीं बचा सके।

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मेरा सिर्फ यही कहना है कि जिसकी जितनी बड़ी गलती हो,उसी अनुपात मंे लोगों का उनके खिलाफ गुस्सा होना चाहिए।

पर, लगता है कि कुछ लोगों ने तो अपना सारा गुस्सा सिर्फ नरेंद्र मोदी के लिए ही बचा रखा है।

इसका राजनीतिक लाभ मोदी को मिलता रहा है।

लगता है कि आगे भी मिलता रहेगा।

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---सुरेंद्र किशोर-7 नवंबर 20

  


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