पब्लिक सेक्टर के बारे में एक जरूरी विमर्श
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लोक उपक्रम के संचालकों को ईमानदार व
कत्र्तव्यनिष्ठ बनाए बिना आप विनिवेश नहीं रोक सकते।
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--सुरेंद्र किशोर--
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सन 1977-78 की बात है।
तब मैं पटना के लोहिया नगर में, जिसे लोग अब भी कंकड़बाग ही कहते हैं, रहता था।
राज्य परिवहन निगम की बस यानी सरकारी बस से पटना जंक्शन तक जाया-आया करता था।
उन दिनों मैं दैनिक आज में काम करता था।
50 पैसे लगते थे।
अधिकतर यात्री 25 पैसे देकर बस में बैठ जाते थे।
उनके लिए टिकट नहीं कटते थे।
मैं उन अत्यंत थोडे़ लोगों में था जो पूरे 50 पैसे देकर टिकट लेने की जिद करता था।
मुझे देखते ही कंडक्टर की भृकुटि तन जाती थी।उसे 25 पैसे का नुकसान जो हो जाता था !
पर, वह जान गया था कि मैं अखबार में काम करता हूं,इसलिए मन मसोस कर टिकट फाड़ कर मुझे दे देता था।
अब आप ही बताइए कि सरकारी बसें लंबे समय तक कैसे चलेंगी ?
राज्य सरकार कितने दिनों तक कितना घाटा उठाएगी ?
बाद में बस बंद हो र्गइं।
आॅटो रिक्शे का चलन शुरू हो गया।
तब तक मैंने साइकिल खरीद ली थी।
जब में ‘जनसत्ता’ ज्वाइन किया तो बिहार राज्य पथ परिवहन निगम के एक अफसर मुझसे मिले।
उन्होंने मुझे देर तक समझाया कि एक खास कंपनी का बस खरीदना क्यों जरूरी है।
दरअसल उनका वरीय अधिकारी ईमानदार था और टाटा कंपनी से ही बस खरीदने की जिद पर अड़ा था।
टाटा कंपनी बस-ट्रक बेचने के लिए खरीददार को दलाली नहीं देती थी।
किंतु एक दूसरी कंपनी खूब देती थी।
जिस तरह बोफोर्स कंपनी दलाली देती थी,पर सोफ्मा तोप कंपनी नहीं देती थी।
जबकि सोफ्मा तोप, बोफोर्स से बेहतर थी।वैसे बोफोर्स भी खराब नहीं है।
खैर, यह तो परिवहन निगम के राज्य मुख्यालय स्तर के भ्रष्टाचार की कहानी रही।
ऐसे में बिहार के सरकारी पथ परिवहन निगम का जो हाल होना था,वह हुआ।
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अब जरा एयर इंडिया पर नजर दौड़ाएं।
पिछले वित्तीय वर्ष में एयर इंडिया को 8556 करोड़ रुपए का घाटा हुआ।
पिछले दस साल में कुल घाटा 69,575 करोड़ रुपए हुआ है।
घाटे का मुख्य कारण हैं भ्रष्टाचार और कार्य कुशलता में कमी।
साथ ही, कमीशन के लिए जहाजों की गैर जरूरी व महंगी खरीद।
क्या जनता के टैक्स के पैसों में से अरबों रुपए इसका घाटा पाटने में लगाया जाना चाहिए या एयर इंडिया का विनिवेश करना चाहिए ?
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विनिवेश का विरोध कम्युनिस्ट लोग अधिक करते हैं।दूसरे वे लोग हैं जो ऐसे उपक्रमों को जारी रखना चाहते हैं ताकि उसकी खरीद में कमीशन मिले।
हाल तक अनेक लोक उपक्रमों की दर्जनों गाड़ियां केंद्रीय मंत्रियों व बड़े अफसरों की निजी सेवा में लगी रहती थीं।
सुना है कि मोदी सरकार ने उसे रोका है।
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दरअसल सार्वजनिक उद्यम को ठीक से चलाने के लिए अफसरों -कर्मचारियों में कठोर ईमानदारी की जरूरत रहती है।
वह भारत में आजादी के बाद से ही नहीं थी।
वैसे प्रभावशाली लोग अपने लोगों को इसमें आसानी से काम जरूर दिलवा देते थे।
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चीन में भी लोक उपक्रमों में जब भ्रष्टाचार नहीं रोका जा सका तो वहां की सरकार निजीकरण की ओर मुड़ी।
चीन सरकार ने तर्क दिया कि ‘‘हम समाजवाद को मजबूत करने के लिए पूंजीवाद अपना रहे हैं।’’
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कलकत्ता के सार्वजनिक क्षेत्र के मशहूर होटल, ग्रेट ईस्टर्न होटल में जब घाटा बढ़ने लगा तो ज्योति बसु सरकार ने उसे एक विदेशी कंपनी के हाथों बेच देने का सौदा किया।
पर सी.पी.एम.से जुड़े मजदूर संगठन सीटू के सख्त विरोध के कारण उन्हें अपना फैसला वापस लेना पड़ा।
पर जब राज्य की आर्थिक स्थिति और बिगड़ी तो बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने उस होटल को बेच दिया।
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पर मोदी सरकार विनिवेश करती है तो कम्युनिस्ट और वे नेता जो महंगी व अनावश्यक खरीद के जरिए पैसे बनाते रहे हैं,विरोध करने लगते हैं।
ऐसा कब तक चलेगा ?
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हां,एक बात और।
जब तक कोई लोक उपक्रम लाभ में हैं।यदि उसका लाभ बढ़ता जा रहा है,तब तक विनिवेश न करंे।
लेकिन यदि लाभ निरंतर घटता जा रहा है तो कर दीजिए।
अन्यथा घाटा होने लगेगा तो उसे फिर खरीदेगा कौन ?
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--सुरेंद्र किशोर-21 सितंबर 20
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