गुरुवार, 26 नवंबर 2020

     51 साल बाद की नई परंपरा का 

     आशंकित राजनीतिक असर

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      --सुरेंद्र किशोर--

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मैं 1977 से 2001 तक संवाददाता के तौर पर बिहार विधान सभा की कार्यवाहियों की लगातार रिपोर्टिंग करता रहा।

 उस बीच कभी स्पीकर पद के लिए चुनाव होते नहीं देखा।

बाद के वर्षों में भी ऐसा नहीं हुआ।

1977 तक उपाध्यक्ष के पद पर भी सत्तारूढ़ दल के नेता ही बैठते थे।

पर 1977 में मोरारजी देसाई सरकार की पहल से फर्क आया।

फर्क लोक सभा से लेकर देश की विधान सभाओं तक पड़ा।

सदन में प्रतिपक्ष के नेता को कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिलने लगा।

  उससे पहले बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता को राज्य सरकार की तरफ से एक स्टेनो टाइपिंग और कुछ अखबार खरीदने के पैसे मात्र मिलते थे।

पर 1977 में उपाध्यक्ष का पद प्रतिपक्ष को मिलने लगा।

पहली बार प्रतिपक्ष की ओर से राधानंदन झा उपाध्यक्ष बने थे।

51 साल बाद इस बार बिहार में प्रतिपक्ष ने स्पीकर के पद का चुनाव लड़ा।क्योंकि सदन की कार्यवाही में भी शालीनता नहीं थी।

इससे राजनीतिक कटुता बढ़ी।

साथ ही ,

राजद ने एक भाजपा विधायक को प्रलोभन देकर तोड़ने की कोशिश की।

उससे और भी कटुता बढ़ी।

बात तो एक ही विधायक की सामने आई।

संभव है कि कुछ अन्य को भी प्रलोभन मिला हो।

क्योंकि मात्र एक विधायक के सदन से अनुपस्थित हो जाने  से प्रतिपक्ष का स्पीकर तो नहीं बन जाता ! 

अब आगे देखना है कि इस कटुता का राज्य की राजनीति और सदन की कार्यवाही पर कैसा असर पड़ता है।

यह भी कि उपाध्यक्ष प्रतिपक्ष का बनता है या नहीं !

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--सुरेंद्र किशोर-26 नवंबर 20 


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