सोमवार, 2 नवंबर 2020

     बिहार के पिछड़ापन का जिम्मेदार कौन ?

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बिहार के पिछड़ेपन के लिए जो जिम्मेदार रहे,

उनके ही राजनीतिक उत्ताधिकारी

आज सवाल उठा रहे हैं।

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          --सुरेंद्र किशोर--

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बिहार में चुनाव का अवसर हो और इस राज्य के पिछड़ापन का मुद्दा नहीं उछले, ऐसा भला कैसे हो सकता है ?

हर चुनाव में यह होता है।

इस बार भी यह मुद्दा उछल रहा है।

किंतु विडंबना यह है कि जो राजनीतिक शक्तियां इस राज्य के पिछड़ेपन के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार रही हंै,वही इस मामले में आज अधिक मुखर हैं।

अविभाजित बिहार में देश का करीब 40 प्रतिशत खनिज पदार्थ पाया जाता है।

बिहार की भूमि भी काफी उर्वर  है।

राज्य में कई सदानीरा नदियां बहती हैं।

फिर भी आजादी के बाद इस राज्य में न तो कृषि का अपेक्षित विकास हुआ और न उद्योग का।

 आजादी से पहले टाटा नगर यानी जमशेद पुर बसा।

सोन नहर का भी निर्माण अंग्रेजों ने ही कराया था।

उससे वहां खुशहाली आई।

पर आजादी के बाद कोई नया ‘टाटा नगर’ नहीं बसा।

सरकारी क्षेत्र में लोक उपक्रम लगे,पर उनमें से अधिकतर सफेद हाथी ही सबित हुए।

  सार्वजनिक क्षेत्र के लिए जिस तरह की ईमानदारी व कार्यकुशलता की जरूरत थी,उसे सुनिश्चित नहीं किया जा सका। 

    रेल भाड़ा समानीकरण ने अविभाजित बिहार में बड़े उद्योग का विकास रोक दिया।

उधर बिहार में कृषि-सिंचाई पर अपेक्षाकृत कम सरकारी खर्च के कारण खेती का भी अपेक्षित विकास नहीं हो सका।

  दरअसल कृषि प्रधान राज्य में खेती के विकास से ही किसानों की क्रय शक्ति बढ़ती । 

उससे उद्योगों का भी विकास होता।

पर ऐसा नहीं हो सका।

जब अधिकांश आबादी की क्रय शक्ति बढ़ी ही नहीं तो कारखानों के माल को कौन खरीदता ?

यदि कोई नहीं खरीदेगा तो कारखाने विकसित कैसे होंगे ? 

नतीजतन बिहार को पिछड़ा रहना ही था।

पिछड़ेपन के मामले में सन 1970 में बिहार का देश के राज्यों में नीचे से दूसरा स्थान था।

तब सर्वाधिक पिछड़ा राज्य ओड़िशा था।

1993 तक बिहार आर्थिक मामलों में उसी स्थिति में था जिस स्थिति में शेष भारत उससे 15-20 साल पहले था।

  यानी, अन्य राज्यों की तरक्की होती गई,पर बिहार अन्य राज्यों से पिछड़ता गया। 

इसके लिए कौन जिम्मेदार थे ?

जो जिम्मेदार रहे,उनके राजनीतिक उतराधिकारी आज बिहार के चुनाव में कैसी -कैसी बातें कर रहे हैं ?

  सन 1951 से 1990 तक का हाल जानिए।

कृषि व इससे संबंधित क्षेत्र में केंद्र सरकार ने बिहार में प्रति व्यक्ति  172 रुपए खर्च किए।

उसी अवधि में पंजाब में 594 रुपए खर्च किए ।

 आंतरिक संसाधन जुटाने में भी बिहार सरकार लगभग विफल रही।

सन  1999-2000 वित्तीय वर्ष में बिहार सरकार ने आंतरिक स्त्रोत से कुल 1982 करोड़ रुपए जुटाए।

उन्हीं दिनों आंध्र प्रदेश सरकार की सालाना आय करीब 6 हजार करोड़ रुपए होती थी।

 केंद्रीय आर्थिक सहायता, राज्य के आंतरिक राजस्व के अनुपात में ही मिलनी थी।

     अब आप ही बताइए कि बिहार के ‘बीमारू’ राज्यों (बिहार,मध्य प्रदेश,राजस्थान और उत्तर प्रदेश)की श्रेणी में ला देने के लिए कौन -कौन से दल प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जिम्मेदार रहे।

   2005 के बाद स्थिति में सुधार होना शुरू हुआ।

पर धीमी गति से ही।लेकिन तब तक तो देर हो चुकी थी।

 इस बीच आबादी बढ़ी।

खर्च बढ़ा।लोगों की जरूरतें बढ़ी।

फिर बिहार के लिए  विशेष दर्जे की मांग शुरू हुई।

अंततः केंद्र सरकार ने कह दिया कि यह संभव नहीं है।

फिर तो बिहार सरकार को खुद ही राज्य का विकास करना है।

हांलाकि 2014 के बाद बिहार को मिल रही केंद्रीय सहायता में काफी वृद्धि हुई है।

 पर,वह जरूरतों को देखते हुए वह भी नाकाफी है।

 बेहतर प्रशासन व  वित्तीय प्रबंधन के कारण अनुमान है कि वित्तीय वर्ष 2019-20 में बिहार सरकार की

अपनी आय 38 हजार 606 करोड़ रुपए होगी।

  2004-05 में बिहार सरकार का सालाना बजट करीब 25 हजार करोड़ रुपए का था।

अब वह बढ़कर करीब दो लाख करोड़ रुपए का हो गया है।

  सरकारी खर्चे में ‘लीकेज’ पहले बहुत अधिक था,अब कम हुआ है।

पर बंद नहीं हुआ है।

चुनाव के बाद बनने वाली सरकार को लीकेज रोकने पर ध्यान देना होगा।

तभी बिहार का विकास और भी तेज गति से संभव है।

 आजादी के पहले रेल भाड़ा समानीकरण नीति नहीं  थी।

पर बाद में समानीकरण लागू कर दिया गया ।

फिर तो  रेलगाड़ी के जरिए धनबाद से खनिज पदार्थ पटना पहुंचाने में जितना भाड़ा लगता था,उतना ही भाड़ा मुम्बई पहुंचाने में लगता था।

इसका परिणाम यह हुआ कि बाहर के उद्योगपतियों के सामने बिहार आकर उद्योग लगाने की मजबूरी नहीं रह गइ्र्र।

आजादी से पहले ऐसी मजबूरी थी।इसीलिए जमशेदजी टाटा ने बिहार आकर टाटानगर में औद्योगिक नगरी बसाई।

  रेल भाड़ा समानीकरण की नीति बनाते समय तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, 

‘‘राष्ट्र को सबल बनाना है तो क्षेत्रीय विषमता मिटानी होगी।इसके लिए रेलभाड़ा समानीकरण जरूरी  है।’’

 इस काम में नेहरू जी के मुख्य सलाहकार थे-सी.डी.देशमुख,टी.टी.कृष्णमाचारी और प्रताप सिंह कैरो।

 पर कैरो साहब ने कृषि पर होने वाले केंद्रीय खर्च में से सर्वाधिक हिस्सा अपने राज्य पंजाब के लिए ले लिया।

उस पैसों से भांखड़ा नांगल बना।

उससे पंजाब की खेती चमकी।

   बिहार के किसी नेता ने जब जवाहरलाल नेहरू  से कोसी नदी पर बांध बनाने के लिए आर्थिक मदद मांगी तो उन्होंने कहा कि उसके लिए लोगों से श्रमदान की अपील कीजिए। 

 यदि गंडक सिंचाई योजना और कोसी नदी योजना पर आजादी के बाद से ही ठोस काम हुआ होता तो खेती के मामले में बिहार तभी विकसित राज्य हो गया होता।

   जब रेल भाड़ा समानीकरण की नीति से क्षेत्रीय विषमता घटने के बदले बढ़ी तो पिछली सदी के अंतिम दशक में उसे समाप्त कर दिया गया।

पर एक अनुमान के अनुसार तब तक अविभाजित बिहार को करीब 10 लाख करोड़ रुपए से वंचित हो जाना पड़ गया था।

   यानी टाटा नगर की तरह अन्य उद्योग बिहार में लगते  तो 10 लाख करोड़ रुपए का लाभ बिहार को मिल जाता और वह  पिछड़ा नहीं रहता।

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दैनिक जागरण,30 अक्तूबर 20


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