जब मैं भी आ गया था इंदिरा के झांसे में !
....................................................
--सुरेंद्र किशोर--
....................................................
‘‘क्या सुरेन ! तुम भी इंदिरा के झांसे में आ गए ?!!
तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।
तुम कैसी-कैसी चिट्ठियां लोहिया जी को लिखा करते थे।
समझ लो।
बैंक राष्ट्रीयकरण करके इंदिरा गांधी लोगों को धोखा दे रही है।’’
1969 में नई दिल्ली के ‘जन’ व मैनकाइंड के कार्यालय में ओम प्रकाश दीपक ने मुझे स्नेह भरी झिड़की के साथ यही बातें कही थीं।
डा.राम मनोहर लोहिया के इस साथी ने,जो लोहिया के विचारों को ठीक ढंग से समझते थे,ठीक कहा था।
यह बात मुझे बाद समझ में आई।
मैं ही गलत था।
तब मेरा युवा -मन बैंक राष्ट्रीयकरण के फैसले से अत्यंत प्रभावित हो गया था।
इंदिरा गांधी ने तो ‘गरीबी हटाओ’ का भी नारा दे दिया।
उसी नारे पर उन्होंने 1971 का लोक सभा चुनाव बड़े बहुमत से जीत लिया।
पर आम लोगों की गरीबी हटाने के बदले बाद में वह अपने पुत्र संजय के लिए मारूति कार कारखाने की स्थापना के काम में मदद करने में लग गईं।
जब 1974 में जेपी के नेतृत्व में बड़ा जन आंदोलन शुरू हुआ तो इमरजेंसी लगाने के बाद 14 अगस्त 1975 को प्रधान मंत्री ने कहा कि
‘‘गरीबी तो जनता की कड़ी मेहनत से ही हटाई जा
सकती है।मेरे पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं ।’’
था न इंदिरा का झांसा !!!
ऐसे झांसेबाज नेताओं की न तो पहले कमी थी और न आज कोई कमी है।
तब इंदिरा जी के झांसे को मेरे जैसे युवा तो क्या, मधु लिमये जैसे प्रौढ़ नेता भी नहीं समझ सके थे।
लिमये जी ने राष्ट्रपति के चुनाव में इंदिरा गांधी के उम्मीदवार वी.वी.गिरि को
समाजवादियों से वोट दे-दिलवा कर जितवा दिया था।
इस तरह इंदिरा जी ने अपने ही दल के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हरवा दिया था।
बाद में लिमये जी को अपनी गलती समझ में आई या नहीं,यह पता नहीं चल सका।
हां, इमरजेंसी में अन्य लोगों के साथ मधु जी को भी 19 महीने तक इंदिरा गांधी की जेल में रहना पड़ा था।
डा. लोहिया का तो 1967 में ही निधन हो चुका था।
किंतु लोहिया के अत्यंत करीबी रहे बुद्धिजीवियों व राजनीतिक कर्मियों को मधु जी या संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का वह फैसला पसंद नहीं आया था।
लोहिया के उन करीबियों को आप ‘‘कुजात लोहियावादी’’ कह सकते हैं।
वी.वी.गिरि के पक्ष में मधु लिमये के फैसले के खिलाफ लोहिया जी की सहयोगी व मिरांडा हाउस की प्रोफेसर रमा मित्र ने लिखकर अपना कड़ा विरोध प्रकट किया था।
याद रहे कि इंदिरा सरकार ने 19 जुलाई, 1969 को 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया।
उसके बाद मैं भी इंदिरा गांधी के झांसे में आ गया था।
उसके बाद सुरेंद्र अकेला के नाम से उनके समर्थन में 27 जुलाई, 1969 के हिंदी साप्ताहिक ‘दिनमान’ में मेरी चिट्ठी छपी।
तब दिनमान की चिट्ठयां भी पढ़ी जाती थीं।
दीपक जी ने मेरी वह चिट्ठी पढ़ ली थी।
मेरी उस चिट्ठी में निम्नलिखित बातें थीं।
‘‘राष्ट्रपति --1972 की संभावित
राजनैतिक अस्थिरता के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपति -पद के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार की प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकता से की जा रही थी।
पर इस दंगल में सिंडिकेट के हाथों प्रधान मंत्री की हार अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।
अब देश की सत्ता घनघोर प्रतिक्रियावादियों के हाथ में जाने की संभावना गहरी हुई है।
अतः श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ कांग्रेस के अन्य प्रगतिशील तत्वों को चाहिए कि वे दल के संकुचित अनुशासन के दायरे से बाहर हो देश के व्यापक हित में दूसरे वामपंथी दलों को किसी अन्य नाम सहमत कराएं।
यह प्रश्न कांग्रेस के प्रगतिशील धु्रवीकरण से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है।
---सुरेंद्र अकेला,दिघवारा,सारण।’’
विद्रोही उम्मीदवार के रूप में वी.वी.गिरि के राष्ट्रपति चुन लिए जाने के बाद
प्रो. रमा मित्र ने लिखा था कि
‘‘ ऐतिहासिक राष्ट्रपति चुनाव के वोट पड़ चुकने के बाद मैं अपना कहना कह रही हूं।
अब तक मैं इस भय से नहीं बोली थी कि मुझे किसी उम्मीदवार का विरोधी या समर्थक कहा जाएगा।
सब ढोलकिए, इंदिरा गांधी,कम्युनिस्ट,सोशलिस्ट,युवा तुर्क, कृष्णमेनन पंथी,अरुणा आसफ अली पंथी तथा अन्य वामपंथियों के बैंड बाजे में शामिल हो गए हैं।
औरों को तो हम समझ लें,लेकिन (लोहियावादी)समाजवादियों को कैसे समझें ?
क्योंकि उनको इंदिरा गांधी के बैंक राष्ट्रीयकरण के बावजूद तथाकथित प्रगतिवाद में और कांग्रेसी प्रतिक्रियावादी तत्वों में
कोई अंतर नहीं करना चाहिए था।
दोनों ही तत्कालीन जनमत के कठौते में उठी हुई लहरों पर तैरते हुए अवसरवादी हैं।
कांग्रेस की सतही क्रांतिवादिता और गहरी प्रतिक्रियावादिता में से कोई एक चुनने लायक चीज नहीं हो सकती।
एक बायें बोलता और दायें चलता है।
दूसरा दायें बोलता और दायें चलता है।
समाजवादी दल के सदस्य के नहीं बल्कि राजनीति के विद्यार्थी के रूप में मेरा विश्लेषण यह है कि संजीव रेड्डी की विजय कांग्रेस में अनिवार्य फांट का कारण होती।
कांग्रेस के विसर्जन और शीघ्र संभव करती।
हो सकता है कि मेरा विश्लेषण गलत निकले,किंतु मैं अपने उन नेताओं से क्षमा चाहती हूं जो समझते हैं कि गिरि की विजय कांग्रेस को बंाटेगी।
मेरे विचार से गिरि की विजय कांग्रेसी प्रधान मंत्री के हाथ को और कांग्रेस संगठन पर उनकी गिरफ्त को और भी मजबूत करेगी।
उस संगठन को एक नई जिंदगी ,चाहे कुछ ही दिन की हो, मिल जाएगी।
--रमा मित्र,’’
दिनमान,
31 अगस्त 1969
...............................................
--सुरेंद्र किशोर-6 अगस्त 2020
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें