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जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 का बिहार आंदोलन मार्च में ही शुरू हुआ था।
बाद में वह देशव्यापी हुआ।
अंततः 1975 के जून में देश में आपातकाल लगा।
आपातकाल मार्च, 1977 तक रहा।
आपातकाल कितना दमनकारी व भयावह था ?
उसका अनुमान इस बात से लगाइए।
उस दौरान करीब सवा लाख राजनीतिक नेताओं व कार्यकत्र्ताओं के अलावा देश भर के 253 पत्रकार भी गिरफ्तार व नजरबंद हुए थे।
उन्हें आंतरिक सुरक्षा कानून(मीसा) व भारत रक्षा कानून (डी.आइ.आर.)के तहत पकड़ा गया था।
यानी, तब की केंद्र सरकार ने 253 पत्रकारों को भी देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक माना था।
इन दिनों अक्सर यह कह दिया जाता है कि देश में अब इमर्जेंसी जैसे हालात हैं।
क्या कभी 19 महीने की कालावधि में किसी सरकार ने करीब 253 पत्रकारों को गिरफ्तार किया है ?
कभी नहीं।
सन 1975-77 के आपातकाल में सरकार ने न सिर्फ सवा लाख नेताओं व राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं को ,बल्कि 253 पत्रकारों को भी जेलों में ठूंस दिया, उन्हें अदालत जाने से भी वंचित कर दिया था।
इतना ही नहीं,देश के 50 पत्रकारों की सरकारी मान्यता भी रद कर दी गई थी।उनमें कई नामी -गिरामी पत्रकार व कार्टूनिस्ट थे।
18 पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद करा दिया गया था।
कुछ नेता लोग आज जब यह कहते हैं कि देश में आपातकाल जैस स्थिति है तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि दमन के उपर्युक्त संक्षिप्त आंकड़ों पर आपकी क्या राय है ?
याद रहे कि इमर्जेंसी का दमन इससे अधिक व्यापक था।
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आपातकाल के पीड़ितों
की पेंशन बंद क्यों ?
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राहुल गांधी ने कहा है कि 1975 में देश में इमर्जेंसी लगाना गलत था।ठीक ही कहा है।
क्योंकि सन 1977 के चुनाव में आम जनता ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर करके इमर्जेंसी को गलत साबित कर भी दिया था।
याद रहे कि इमर्जेंसी के दौरान हजारों निर्दोष लोगों को जेलों में ठूंस कर कांग्रेस सरकार ने उनके साथ नाहक अत्याचार किया था।
बाद में कई गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों ने पीड़ितों के लिए लोकतंत्र सेनानी -जेपी सेनानी पेंशन का प्रावधान किया।
पर मध्य प्रदेश ,महाराष्ट्र और राजस्थान की कांग्रेसी सरकारों ने बारी बारी से उस पेंशन को बंद कर दिया।
यदि राहुल गांधी सचमुच यह मानते हैं कि इमर्जेंसी लगाना गलत था तो वे उस पेंशन को फिर से शुरू करवाएं।
वे तत्काल राजस्थान और महाराष्ट्र सरकारों से कहें कि वे लोकतंत्र सेनानी पेंशन फिर से शुरू करें।
यदि राहुल गांधी ऐसा नहीं करते हैं तो यह माना जाएगा कि इमर्जेंसी को लेकर उनका ताजा बयान मात्र दिखावा है।
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सरकारी योजनाओं की जानकारी
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भारत सरकार की 115 योजनाएं हैं।
वे विकास और कल्याण आदि की योजनाएं हैं।
इनमें से कुछ योजनाओं के नाम तो बहुत चर्चित हैं।
उनके नाम अधिकतर लोगों को मालूम भी हैं।
उन पर हो रहे खर्चे भी नजर आते रहते हैं।
पर क्या आम लोगों को उन सारी 115 योजनाओं के बारे में पता है ?शायद नहीं।
इसी तरह राज्य सरकारों की भी अनेक योजनाएं हैं।
उनमें से कुछ के बारे में लोग जानते हैं।पर यहां भी वही हाल है।अन्य अनेक योजनाओं के बारे में अधिकतर लोगों को कुछ नहीं मालूम।
दोनों सरकारों की इन सारी योजनाओं के बारे में लोगों को पता हो जाए तो इनके कार्यान्वयन की स्थिति के बारे में लोग पता कर लेंगे।
सूचना में बड़ी शक्ति होती है।
उस शक्ति का लाभ अततः लोगों को ही मिलेगा।
सरकारों का यह कत्र्तव्य है कि अपनी योजनाओं के बारे में लोगों को बताए।
समाज में ऐसे जागरूक लोग अब भी मौजूद हैं जो वैसी योजनाओं के लाभ लोगों तक पहुंचाने में सरकार की मदद कर सकते हैं जो सिर्फ कागजों पर हैं।
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प्रशासन में नई प्रतिभाएं
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केंद्र सरकार संयुक्त सचिव स्तर के पदों पर निजी क्षेत्रों से आमंत्रित कर विशेषज्ञों व नई प्रतिभाओं को बहाल करा रही है।
चयन का काम यू.पी.एस.सी. के जरिए ही हो रहा है।
ऐसी बहुत सारी बहालियां हो चुकी हैं।
निजी क्षेत्रों के अफसरों में आम तौर अपने कत्र्तव्यों के प्रति अधिक निष्ठा देखी जाती है।संविदा पर रहने के कारण भी उनमें सक्रियता की कभी कमी नहीं होती।
इससे आई.ए.एस.-आई.पी.एस.की कमी की समस्या भी कम हो रही है।
इसे ‘‘लेटरल इंट्री’’ कहा जा रहा है।
बिहार सहित दूसरे राज्यों में भी केंद्रीय सेवा के अफसरों की भारी कमी है।
इससे सरकारी काम-काज पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
केंद्र सरकार को चाहिए कि वह लेटरल इंट्री के जरिए राज्यों में भी अफसरों की कमी को भी पूरा करे।
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डूबते जहाज से भागते चूहे
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जहाज डूबने लगता है तो चूहे भी भाग खड़े होते हैं।
उसी तरह जिस राजनीतिक दल में सत्ता पाने की ताकत नहीं रह जाती,उसके सत्ताकांक्षी सदस्य दल का साथ छोड़ देते हैं।
इन दिनों इस देश में यही हो रहा है।
कई दलों से उनके नेता-कार्यकत्र्ता अलग होते जा रहे हैं।
हालांकि कुछ दलों ने अपनी गलत नीतियों-रणनीतियों-कार्य नीतियों के कारण ही जाने-अनजाने अपनी ताकत घटाई है।
यदि वे खुद में सुधार लाएं तो उनकी ताकत बढ़ सकती है।
फिर तो वही सत्ताकांक्षी लोग उनके साथ होंगे।यही इन दिनों की राजनीति का आम चलन है।स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छा संकेत नहीं है।
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और अंत में
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पटना स्थित एक सरकारी अस्पताल के निबंधन और बिल बनाने वाले काउंटरों को निजी क्षेत्र के हवाले कर
दिया गया है।
इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंकों के कुछ काउंटरों को भी ‘आउटसोर्स’ कर देना चाहिए।
यानी, ऐसे काउंटर जहां पैसे का लेनेदन नहीं है,उन्हें निजी क्षेत्र को सौंपने से कार्य
-कुशलता बढ़ेगी।
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.कानोंकान
प्रभात खबर,
पटना,5 मार्च 21
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