रविवार, 21 मार्च 2021

 



जैविक खेती के विस्तार के बिना न मिट्टी बचेगी,न मानवता !

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--सुरेंद्र किशोर--

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एक बड़ी खुश खबरी है।

सरकारी मदद से इस देश में जैविक खेती का विस्तार हो रहा है।जैविक उत्पाद की मांग भी बढ़ रही है।

 मांग इसी तरह बढ़ती गई तो जैविक उत्पादों की कीमतेें भी धीरे -धीरे घटेंगी।

यदि रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल 

धीरे- धीरे समाप्त नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब यहां की मिट्टी खेती लायक नहीं रह जाएगी।

दूसरी ओर, जानकार लोग बताते हैं कि कैंसर मरीजों की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि अस्पतालों के लिए उन मरीजों को संभालना असंभव हो जाएगा।  

पंजाब में उसके लक्षण अधिक दिखाई पड़ रहे हैं।

 जैविक खेती के मामले में देश के कुछ राज्य अच्छा कर रहे हैं।बिहार को इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना है।

जैविक खेती को तेज गति से और अधिक बढ़ाने में बिहार सरकार की भूमिका अपेक्षित है।

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   पंजाब से सबक लेने की जरूरत

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 अधिक उपज के लोभ में पंजाब के किसान आम तौर पर अपने खेतों में प्रति हेक्टेयर 923 ग्राम रासायनिक कीटनाशक दवाएं डालते हैं।

जबकि राष्ट्रीय औसत 570 ग्राम है।

वहां काफी अधिक रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल के कारण भूजल दूषित होता जा रहा है।पानी में आर्सेनिक बढ़ रहा है।

खेती के लिए भूजल का अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है।

इस कारण भूजल के साथ जमीन के भीतर से लवण भी ऊपर आकर खेती योग्य मिट्टी को अनुर्वर बना रहा है।

जल में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ने से पंजाब में कैंसर मरीजों की संख्या बढ़ रही है।

पंजाब के आंदोलनरत किसानों यानी आढ़तियों-मंडियों के बिचैलियों के लिए ये कोई समस्या नहीं हैं।उन्हें सिर्फ येन केन प्रकारेण अधिक उपज चाहिए ताकि अधिक मुनाफा हो सके।

 बिहार के गंगा तटीय इलाकों में भी इसी कारणवश जल जहरीला हो रहा है। 

  पंजाब की समस्या को देखते हुए कम से कम हम तो आने वाली विपत्ति से बचाव कर ही सकते हैं।

बिहार में अभी बेहतर स्थिति है।क्योंकि रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल के मामले में हम पंजाब से बहुत पीछे हैं।

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   विधायिकाओं में मार्शल की उपयोगिता !

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संसद सहित इस देश की विधायिकाओं में कुछ दशक पहले तक यदाकदा मार्शल का उपयोग हुआ करता था।

हालांकि विधायिकाओं में आज की अपेक्षा तब अधिक शालीन व शिक्षित लोग चुनकर जाते थे।

तब हंगामा करने वाले कम ही सदस्य होते थे।

  किंतु आश्चर्य है कि जब संसद और अनेक विधान मंडलों में शोरगुल,हंगामा और अशालीनता बढ़ने लगी तौभी अब शायद ही कहीं मार्शल का उपयोग होता है !

आखिर मार्शल की बहाली व उनकी मौजूदगी का उद्देश्य और औचित्य क्या है !!

यह तो वैसा हुआ कि लोकतंत्र के संतरियों की मौजूदगी में ही रोज-रोज लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की रोज-रोज हत्या होती रहे।

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भूली बिसरी याद

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 सन 1997 में लोक सभा के भीतर ही बिहार के दो बाहुबली सांसदों ने आपस में हाथापाई कर ली थी।

ऐसी अभूतपूर्व व शर्मनाक घटना को सभी दलों के शीर्ष नेतृत्व ने गंभीरता से लिया।

संसद के दोनों सदनों ने करीब एक हफ्ते तक इस पर गंभीर चर्चा की।

अंत में सर्वसम्मत प्रस्ताव पास करके यह संकल्प किया गया कि हम इन बुराइयों से लड़ने के लिए काम करेंगे।

  पर,इस संकल्प को बाद में भुला दिया गया।

आज तो संसद और अधिकतर विधान सभाओं को आए दिन ‘हंगामा सभा’ में परिणत कर दिया जाता है।

बिहार भी उसका अपवाद नहीं है।

हंगामों के कारण नई पीढ़ी के दिल -ओ -दिमाग पर हमारे लोकतंत्र और उन नेताओं की कैसी छवि बनती है जो हंगामा -शेरगुल व अशिष्ट व्यवहार के लिए जाने जाते हैं ?

हालांकि अब भी कई जन प्रतिनिधि मौजूद हैं जो कभी सदन के ‘‘वेल’’ में नहीं जाते।

आज इस देश की विधायिकाओं में जो कुछ हो रहा है,उसे देखते हुए हंगामा शब्द बहुत हल्का पड़ता है।

पता नहीं कौन ‘‘स्टेट्समैन’’ इस स्थिति को कब 

बदल पाएगा ?नेता तो बदलने से रहे। 

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और अंत में

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सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत पहले फेज में 703 सांसदों ने (जिनमें लोक सभा व राज्य सभा के सदस्य शामिल थे) गांव विकास के लिए गोद लिए थे।

 अगले फेज यानी 2016-18 में

 गोद लिए गए गांवों की संख्या घटकर 547 हो गई।

तीसरे फेज में यह संख्या और भी घट गई।

सवाल है कि यह संख्या घट क्यों रही है ?

दरअसल इस योजना के लिए अलग से फंड का प्रावधान नहीं किया गया है।

 केंद्र सरकार जनता के कल्याण व विकास के लिए देश में करीब सवा सौ योजनाएं चलाती हैं।

जाहिर है कि इनमें से अनेक योजनाएं गांवों से संबंधित हैं।

 नरेंद्र मोदी सरकार ने कल्पना की थी कि उन्हीं योजनाओं के तहत गांवों का विकास किया जाए।

उस विकास की देखरेख खुद सांसद करें।

  पर, अपवादों को छोड़कर सांसद आदर्श ग्राम योजना लगभग विफल रही।

क्योंकि उन 125 योजनाओं में से अधिकतर योजनाओं के क्रियान्वयन का हाल भी असंतोषजनक रहा है।

 तो फिर चाहे आप आदर्श शब्द जोड़ दें किंतु नतीजा तो लगभग निराशाजनक ही रहेगा ।

केंद्र सरकार को चाहिए कि वह अपनी 125 योजनाओं के क्रियान्वयन की सफलता की जांच निष्पक्ष एजेंसी से पहले कराए।

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 कानोंकान-प्रभात खबर

19 मार्च 21  


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