शनिवार, 20 मार्च 2021

 पश्चिम बंगाल में राजनीतिक 

हिंसा की दशकों पुरानी परंपरा

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 क्या 1975 में जेपी पर हमलावर हुई 

भीड़ में ममता बनर्जी भी शामिल थीं ?

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जेपी ने तब कहा था कि ‘मेरी हत्या भी हो सकती थी।’

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   --सुरेंद्र किशोर--

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  16 अगस्त, 1990 को ममता बनर्जी पर वाम मोर्चा के गुंडों ने निर्मम प्रहार किए थे।

ममता के सिर में 16 टांके लगे थे।लंबे समय तक वह अस्पताल में थीं।

  उस हमले के मुख्य आरोपी लालू आलम तब वाम दल में था।

ममता जब सत्ता में आईं तो लालू आलम तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गया।

वाम दल में शामिल होने से पहले लालू आलम कांग्रेस में था।

लालू आलम तो एक प्रतीक है।

जो -जो जब -जब सत्ता में रहे अनेक लालू आलम बारी -बारी से उनके साथ होते गए।

  इस तरह सत्ता के साथ-साथ हिंसा के राक्षस भी एक जगह से दूसरी जगह सफर करते चले गए।

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नक्सलियों का नारा था ‘सत्ता बंदूक की नाल से निकलती है।’

उनका यह भी नारा भी था कि --

‘‘चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन।’’

  1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से जो नक्सली हिंसा शुरू हुई,वह जल्द ही बुद्धिजीवियों के पश्चिम बंगाल को अपने आगोश में ले लिया।

  तब कांग्रेसी नेता सिद्धार्थ शंकर राय मुख्य मंत्री थे।

उन्होंने नक्सलियों के दमन के लिए पुलिस के अलावा कांग्रेस के युवा लोगों तथा अन्य बाहुबली तत्वों को आगे किया।

 1975 के अप्रैल में जयप्रकाश नारायण का कलकत्ता में कार्यक्रम था।  

बिहार में जारी जेपी आंदोलन से प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी भी चिंतित व क्षुब्ध थीं।

  कहा जाता है कि इंदिरा के सलाहकार सिद्धार्थ के प्रदेश से जेपी सुरक्षित लौट आते तो कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को संभवतः अच्छा नहीं लगता।

हांलाकि जेपी ने जब 6 मार्च 1975 में को नई दिल्ली में जुलूस निकाला तो इंदिरा सरकार ने उनकी सुरक्षा का पक्का प्रबंध किया था।

  पर, 2 अप्रैल 1975 के कलकत्ता दौरे के समय जेपी के साथ अभूतपूर्व दुव्र्यवहार हुआ।

दुव्र्यवहार कांग्रेस के लोगों ने किया।पुलिस तब भी मूकदर्शक थी।

जिस कार में जेपी बैठे थे,उसके ऊपर चढ़कर एक लड़की ने काफी उछलकूद मचाई थी।

तब खबर आई थी कि वह लड़की ममता बनर्जी ही थीं।

पर, उसकी पुष्टि नहीं हो सकी।

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जेपी के साथ कलकत्ता में जंगली व्यवहार को लेकर पटना के तब के सबसेे बड़े अखबार ‘आर्यावर्त’ ने कड़ा संपादकीय लिखा था।

  आर्यावर्त कोई जेपी या उनके आंदोलन का समर्थक अखबार नहीं था।

  वह तो जेपी और इंदिरा के बीच सुलह का पक्षधर था।

पर जेपी पर हमले को लेकर दैनिक ‘आर्यावर्त’ ने जो कुछ लिखा ,उससे यह भी पता चला के पश्चिम बंगाल में किस तरह का जंगल राज था।

और उसके लिए कौन -कौन लोग जिम्मेदार थे।

  कानून -व्यवस्था के मामले में आज पश्चिम बंगाल की जो स्थिति है,वैसे में तो आर्यावर्त और भी कड़ा संपादकीय लिखता,यदि उसका प्रकाशन जारी रहता।

  याद रहे कि दरभंगा महाराज के अखबार आर्यावर्त का प्रकाशन बहुत पहले ही बंद हो चुका है।

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आर्यावर्त के तब के

संपादकीय का शीर्षक ही था-

 ‘‘दुर्भाग्यपूर्ण’’

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यहां पेश है उसका संक्षिप्त अंश--

‘‘कलकत्ता यूनिवर्सिटी इंस्टिच्यूट में गत 2 अप्रैल को श्री जयप्रकाश नारायण के प्रति जिस प्रकार का दुव्र्यवहार किया गया उसे हम दुर्भाग्यपूर्ण मानते हैं।

  श्री जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से किसी को विरोध हो सकता है।

  और,लोकतांत्रिक मर्यादा के भीतर रहकर यदि उनके विरूद्ध प्रदर्शन किया जाए तो उसे हम बुरा नहीं कहेंगे।

किंतु विरोध यदि हिंसात्मक रूप ले ले तो फिर उसे दुर्भाग्पूर्ण ही तो कहेंगे ?

    कहते हैं कि श्री जयप्रकाश नारायण जिस गाड़ी से इंस्टिच्यूट वाली सभा में भाषण करने जा रहे थे,वह गाड़ी गेट के भीतर जाने नहीं दी गई।

  श्री नारायण गाड़ी में बैठे रहे और (उन पर )चप्पलों और पत्थरों की वर्षा होती रही।

  कुछ लोग उनकी गाड़ी के ऊपर भी चढ़ गए थे और उछल -कूद मचा रहे थे।

  इस हुल्लड़बाजी में अनेक आदमी पीटे गए।

पत्थरों की चोट से बुरी तरह घायल हो गए।

 जयप्रकाश बाबू ने कहा है कि उनकी हत्या की जा सकती थी।

  वहां की स्थिति का ध्यान रखकर उनका (जेपी) का ऐसा कहना गलत नहीं मालूम होता।

  यह काम जिन लोगों का भी हो उन्होंने अपने दल और पश्चिम बंगाल का नाम ऊंचा नहीं किया है।

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20 मार्च, 21


    

 

 


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