शनिवार, 3 दिसंबर 2022

 सन 1969 में ‘दिनमान’ में पत्र लिखकर मैंने भी आह्वान किया   था कि सक्रिय राजनीति में ‘‘लौट आओ जयप्रकाश’’

   ................................

   सुरेंद्र किशोर

   ..............................

  वैसे तो जयप्रकाश नारायण ने सन 1974 में ही आंदोलन 

का नेतृत्व करना शुरू किया था।

किंतु उससे पहले मुझ सहित अनेक छोटे-बड़े नेता,कार्यकर्ता,बुद्धिजीवी तथा युवजन उनसे सार्वजनिक रूप से और मिल कर यह अपील करते रहे थे कि आप सक्रिय राजनीति में आ जाइए।

  सबसे गंभीर अपील डा.राम मनोहर लोहिया ने उनसे मिलकर की थी।

जेपी से कहा था कि ‘‘तुम ही इस देश को गरमा सकते हो।’’

वह सच साबित हुआ भी।

...............................

दरअसल जेपी की धर्म पत्नी प्रभावती जी के निधन और उनके मित्र और आजादी की लड़ाई के सहयोगी क्रांतिकारी सूरज नारायण सिंह की निर्मम हत्या के बाद जेपी आंदोलन में कूद पड़ने के लिए उनकी मानसिक पृष्ठभूमि तैयार हो गई।स्वास्थ्य कारणों से प्रभावती जी उन्हें सक्रिय होने नहीं देती थंीं।

सूरज बाबू की हत्या से जेपी के मन में शासन के प्रति क्षोभ  

भर उठा।

...........................

जेपी के ‘‘लौट आने’’ के लिए उससे पहले मैंने दिनमान(18 मई,1969)में एक चिट्ठी लिखी थी।

मैं उन दिनों सुरेंद्र अकेला के नाम से लिखा करता था।

‘दिनमान’ तब की सर्वाधिक लोकप्रिय व प्रतिष्ठित पत्रिका थी।मत-सम्मत यानी संपादक के नाम पत्र भी पढ़े जाते थे।

जिस पत्रिका के संपादक सच्चिदानंद (हीरानंद) वात्स्यायन

(अज्ञेय) हों।

जिस पत्रिका के बिहार संवाददाता फणीश्वरनाथ रेणु हों,उस पत्रिका का भला क्या कहना !

संभवतः खुद जेपी भी उसे पढा कऱते थे।

......................................

रेणु जी बिहार विधान सभा की प्रेस दीर्घा में बैठकर भी रिपोर्टिंग करते थे।

नियम को शिथिल करके पहली बार किसी साप्ताहिक पत्रिका के संवाददाता को विधान सभा की प्रेस दीर्घा का प्रवेश पत्र मिला था।रेणु जी जब संवाददाता बन जाएं तब तो नियम शिथिल होना ही था।

प्रस पास उन्हें मिले भी क्यों नहीं !

स्पीकर के पद उन दिनों लक्ष्मी नारायण सुधांशु विराजमान थे जो खुद साहित्यकार भी थे।

..............................

अब मैं अपनी वह चिट्ठी यहां प्रस्तुत करता हूं।

उस चिट्ठी का शीर्षक था-

   ‘‘लौट आओ जयप्रकाश’’

 पूरा पत्र इस प्रकार है--

 श्री जयप्रकाश नारायण के समय-समय पर व्यक्त विचारों से लगता है कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं में आज भी उनकी गहरी रुचि है।

  विनोबा के आदर्शों और कार्य पद्धतियों के औचित्य-अनौचित्य तथा उसमें जयप्रकाश के बहुमूल्य जीवन के सदुपयोग-दुरुपयोग की चर्चा छोड़ भी दी जाए तो भी एक सवाल तो बच ही जाता है कि क्या जयप्रकाश जी ने अपने विचारों के मौलिक पविर्तन के कारण राजनीति को छोड़ देश-सेवा का व्रत लिया है ,या देश की गंदी राजनीति से ऊबकर पलायनवादिता का सहारा लेकर राजनीति से विरत हुए हैं ?

  इसका जवाब उन्हें ही देना है।

 देश जब इस भयंकर आर्थिक संकट ,क्षेत्रीय बिखराव और भावनात्मक विभेद के दौर से गुजर रहा हो,तो जयप्रकाश नारायण तट पर सर्वोदय की छाया में खडे़ हों और ऐसे आदर्शों की बातें करते रहें जिनकी पूर्ति मर कर भूत बन जाने के बाद भी होने की आशा दूर -दूर नहीं दिखाई पड़े तो आनेवाली पीढ़ी कभी उन्हें माफ नहीं करेगी।

   यदि उनके दिल में थोड़ी भी द्विविधा हो तो उन्हें निर्भयतापूर्वक पुनर्विचार करना चाहिए।

  सक्रिय राजनीति में उनके लौटते कदम का स्वागत वे सारे लोग करेंगे जिन्हें देश का समाजवादी -जनतांत्रिक भविष्य धूमिल होता नजर आ रहा है।

  ---सुरेंद्र अकेला,  

   भरतपुर(सारण)

साप्ताहिक दिनमान,18 मई 1969

.........................................

(तब का सुरेंद्र अकेला अब का सुरेंद्र किशोर)

................................

दशकों बाद अपने इस पत्र को दुबारा मैंने पढ़ा है।

मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि मैं उस कम उम्र में भी ऐसी चिट्ठी लिख सका।

हालांकि एक कमी जरूर रही ।वाक्य लंबे थे।

लंबे वाक्य पाठकों के दिमाग पर बोझिल होते हैं

...........................

3 दिसंबर 22





  


कोई टिप्पणी नहीं: