सिंगापुर तब और अब
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सुरेंद्र किशोर
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भारत के अनेक समर्थ लोगों की यह राय रही है कि जरूरत पड़ने पर वे सिंगापुर के अस्पतालों पर सर्वोत्तम इलाज के लिए पूरा भरोसा कर सकते हैं।
सिंगापुर जैसे एक छोटे देश ने कुछ ही दशकों में ऐसा कमाल कैसे कर दिया ?
याद रहे कि वह कभी मछुआरों और लुटेरों का देश था।
हमारे देश की तरह कभी सोने की चिड़िया नहीं था।
पर,हाल के दशकों में उसे ठीक कर देने का श्रेय ली कुआन शू को जाता है ।
वे सन 1959 से सन 1990 तक सिंगापुर के प्रधान मंत्री थे।
उन्होंने देश को पूरी तरह बदल दिया।
वहां अन्य चीजें पटरी पर आ र्गइं ंतो अस्पताल भी ठीक हो गए।
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हां,शू ने शासन को टाइट करने के लिए थोड़ी कड़ाई जरूर की थी ।
वैसी कड़ाई की भारत में आज भी कमी देखी जाती है।यहां शासन ढीला-ढाला है।
जिसे जब जो जी में आता है,करता रहता है।
अपवादों की बात और है।
यहां कुछ अधिक ही ‘‘लोकतंत्र’’ है।
इसे लूट तंत्र भी आप कह
सकते हैं।यहां सुधार की रफ्तार अत्यंत धीमी है।
लुटेरों और देशद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई करने वाले शासकों को,यहां तक कि प्रधान मंत्री तक को भी जान से मारने की धमकी दी जाती है।
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शू के सत्ता में आने से पहले सिंगापुर में प्रति व्यक्ति आय मात्र पांच सौ यू.एस.डाॅलर थी।
समय के साथ वह बढ़कर अब वहां की प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. 60 हजार यू.एस.डालर से भी अधिक हो चुकी है।
आजादी के तत्काल बाद की हमारी सरकार के बारे में ली कुआन शू की राय थी कि
‘‘.................समस्याओं के बोझ के कारण प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने विचारों और नीतियों को लागू करने का जिम्मा मंत्रियों और सचिवों को दे दिया।
अफसोस की बात है कि वे लोग भारत के लिए वांछित परिणाम लाने में असफल रहे।’’
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सिंगापुर की जब बात होती है तो यहां के कुछ लोग यह कहने लगते हैं कि वह छोटा देश है।
उसे ठीक करना आसान है।
भारत बड़ा देश है।
यह काम मुश्किल है।
मेरी समझ से यह बहाना है।
दिल्ली व मुम्बई महानगर पालिकाएं तो छोटी-छोटी शासकीय इकाइयां ही हैं।
वहां के कूड़े तक साफ नहीं होते।
हर बरसात में भारी जल जमाव होता है।
सड़क जाम की समस्या तक दूर नहीं होती।
इसलिए कि वहां के भ्रष्टों के खिलाफ कठोर कारवाई नहीं होती।
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12 दिसंबर 22
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