कल्पना कीजिए कि अभिषेक मनु सिंघवी राज्य सभा और (कांग्रेस छोड़ने से पहले)
ज्योतिरादित्य सिंधिया लोक सभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता होते !
फिर क्या होता ?
क्या कांग्रेस की आज की अपेक्षा बेहतर छवि संसद के भीतर और बाहर नहीं बनती ?!
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पर, ऐसा न होना था और न हुआ।न आगे का कोई चांस है।
(फिल्मी दुनिया के जानकार दिवंगत भूपेंद्र अबोध (कार्टूनिस्ट पवन के पिता)की एक बात मुझे याद आती है।
उन्होंने एक बार मुझे बताया था कि निदेशक इस बात का ध्यान रखते हैं कि हीरोइन
की सहेलियांें में से कोई भी सहेली हीरोइन से अधिक सुंदर न हो।)
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ऐसा सिर्फ कांग्रेस में ही नहीं होता।
सन 1967 में बिहार में बनी गैर कांग्रेसी सरकार में शामिल
समाजवादी नेतृत्व ने तेज-तर्रार जगदेव प्रसाद के बदले मध्यमार्गी उपेन्द्र नाथ वर्मा को राज्य मंत्री बनवा दिया था।
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बाद के वर्षों में प्रो.जाबिर हुसेन की जगह चम्पारण के एक मुस्लिम नेता को राज्य सभा भेज दिया गया।
1984 में राम विलास पासवान को राज्य सभा भेजने की जगह एक अन्य पासवान जी को संवैधानिक पद दे दिया गया।
ये तो कुछ नमूने हैं।
लिस्ट लंबी हो सकती है।
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दूसरी ओर, जनसंघ - भाजपा की शैली अलग ढंग की है।
पहले अटल बिहारी वाजपेयी और एल.के.आडवाणी की जोड़ी थी।
बाद में सुषमा स्वराज-अरुण जैटली आगे किए गए।
फिर नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी आई।
पीढ़ी परिवर्तन के तहत आगे क्या होगा ?
(अन्य अधिकतर दलों में तो वंशज, आसानी से पूर्वज की जगह ले लेते हैं।)
पर, भाजपा में आगे मुझे डा.सुधांशु त्रिवेदी और डा.सम्बित पात्रा की जोड़ी नजर आ रही है।
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उससे आगे ??
अनुमान लगाइए।
मुझे तो फिलहाल दो अन्य दिखाई पड़ रहे हैं।
1.-कर्नाटका से भाजपा के लोक सभा सदस्य तेजस्वी सूर्या
और 2.-लद्दाख से भाजपा के एम.पी.जे.टी.नामग्याल !
इस संबंध में आप भी अपने अनुमान के घोड़े दौड़ाइए !
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शायद भाजपा यह समझती है कि पुराने नेता दरअसल तालाब के स्थिर जल हैं।
पीढ़ी -परिवर्तन के तहत आया नया नेता नदी का स्वच्छ बहता पानी साबित हो सकता है।
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सुरेंद्र किशोर
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22 दिसंबर 22
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