सोमवार, 29 मई 2023

 बागेश्वर बाबा धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की ‘कथा’ में 

देश भर में उमड़ती भीड़ का निहितार्थ समझिए

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1990-91 में लालू प्रसाद की सभाओं में जुट रही भारी भीड़ का निहितार्थ जिसने नहीं समझा,उन्हें 15-20 साल तक ‘झेलना’ पड़ा।

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2013-14 में नरेंद्र मोदी की सभाओं की भारी भीड़ का निहितार्थ जिसने नहीं समझा,उन्हें अब तक मोदी को ‘झेलना’ पड़ रहा है।

आगे भी नहीं झेलना पड़ेगा,इसकी कोई गारंटी नहीं।

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अब आइए ‘बागेश्वर बाबा’ के लिए जुटती अभूतपूर्व भीड़ पर ।

इस भीड़ का निहितार्थ नहीं समझिएगा तो काफी लंबे समय तक उस स्थिति को ‘झेलना’ पड़ेगा जिसकी आपको कल्पना नहीं होगी।

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इसलिए बागेश्वर बाबा को हंसी में मत उड़ाइए।खुद में जल्द से जल्द सुधार की लीजिए।

देश की समाज-नीति -राज-नीति की जहां तक मेरी समझ है,उसके अनुसार मेरा यह मानना है कि बागेश्वर बाबा के लिए जुट रही भीड़ असामान्य है।मौजू है।कुछ खास संदेश दे रही है।

उससे काफी महत्व की बातें जुड़ी हुई हंै,सिर्फ चमत्कार नहीं।

किसी बड़े से बड़े बाबा के लिए ऐसी रिस्पोंसिव भीड़ यानी रूचि व उत्साहपूर्वक पक्ष में भावना व्यक्त करने वाली भीड़ पहले नहीं मिलती थी।

धीरेंद्र शास्त्री की हिन्दू राष्ट्र की बात को लेकर अधिक उत्साह है,यह जाहिर है।

हालांकि हिन्दू राष्ट्र बनाने का उनका वादा संविधान विरोधी है और गलत भी है।

पर,जब देश के कोई भी तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक दल, जेहादी संगठन पी.एफ.आई. के सन 2047 वाले घोषित लक्ष्य पर बयान तक नहीं दे पा रहा है,उल्टे कांग्रेस हाल में उसी संगठन से जुड़े एस.डी.पी.आई. की मदद से कर्नाटका का चुनाव जीत जाती है तो बागेश्वर बाबा का जन समर्थन क्यों नहीं बढ़ेगा ?सब तरफ से निराश लोग बाबा के पास जा रहे हैं।

अनेक लोग जब यह देख रहे हैं कि बड़े- बड़े राजनीतिक दल जेहादियों से हमें व हमारे वंशज को नहीं बचाएंगे क्योंकि उन्हें तो सिर्फ वोट बैंक चाहिए,ऐसे में शायद ‘‘बागेश्वर सरकार’’ हमारे काम आ जाएं !!

मरता ,क्या न करता !! 

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इस तथ्य को कोई झुठला नहीं सकता कि ममता सरकार की मदद से सैकड़ों बंगलादेशी-रोहिंग्या घुसपैठिए इस देश में रोज प्रवेश कर रहे हैं।वे पूरे देश में फैलते जा रहे हैं।हाल के दशकों में इस देश के कई जिले हिन्दू बहुल से मुस्लिम बहुल हो गए और होते जा रहे हैं। जाकिर नाइक को यह बोलते हुए सुना-देखा जा रहा है कि भारत में मुस्लिमों की आबादी अब 40 प्रतिशत हो चुकी है।

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याद रहे कि पी.एफ.आई.ने यह लक्ष्य तय किया है कि वह हथियारों के बल पर भारत को 2047 तक इस्लामी राष्ट्र बना देगा।

इसके लिए वह हजारों हथियार बांट रहा है और लाखों लश्कर तैयार कर रहा है।केरल में तो उसके लश्कर यूनिफार्म में ‘सैन्य परेड’ भी कर रहे हंै।

पी.एफ.आई.कहता है कि यदि हमारे साथ इस देश के 10 प्रतिशत मुस्लिम भी आ जाएं तो हम अपना लक्ष्य पूरा कर लेंगे।

यह इस देश के लिए सौभाग्य की बात है कि पी.एफ.आई.के साथ 10 प्रतिशत भी मुसलमान नहीं है।उन मुसलमानों को सलाम जो पी.एफ.आई.का साथ नहीं दे रहे हैं।पर,उन दलों को शर्म आनी चाहिए जो वोट व सत्ता के लिए देश की सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं।

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कम संख्या में होने के बावजूद जब तब व जहां तहां हिंसा फैलाने के लिए जितने लोगों की जरूरत होती है,उतने लोग पी.एफ.आई.के साथ आज भी हैं।

देश की कई राज्य सरकारें वोट के लिए पी.एफ.आई.का समर्थन कर रही हैं।

भाजपा जब 2014 में केंद्र में सत्ता में आई थी,तब अनेक लोगों को यह उम्मीद थी कि वह इस मामले में कुछ खास करेगी।यानी जिस तरह चीन सरकार जेहादी उइगर मुसलमानों के खिलाफ कठोरत्तम कार्रवाई कर रही है,उसी तरह की कार्रवाई भाजपा सरकार  भारत में करेगी।

पर भाजपा सरकार से इस मामले में कई लोगों को निराशा ही मिल रही है।बी.एस.एफ.भी बंाग्ला देश की सीमा से घुसपैठियों को पश्चिम बंगाल में  आने से रोकने में विफल हैं।लोगबाग उसके कारण की चर्चा भी करते हैं।अमित शाह को उस चर्चा की नोटिस लेनी चाहिए।

ऐसे निराश लोग बाबा बागेश्वर की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं।

आगे क्या -क्या होगा,यह देखना दिलचस्प होगा।

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किंतु तथाकथित सेक्युलर दल यदि चाहते हैं कि पी.एफ.आई. के प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद से वे केंद्र की सत्ता हासिल कर लेंगे तो वह उनके लिए प्रति उत्पादक ही साबित होगा।

वैसी सत्ता अधिक दिनों नहीं चलेगी।

इसलिए कि पी.एफ.आई.किसी का नहीं है।

याद रहे कि कर्नाटका की नयी कांग्रेसी सरकार ने पी.एफ.आई. के कुछ एजेंडा पर काम करना शुरू भी कर दिया है।

केंद्र में कोई नयी सरकार बनेगी तो उसे भी वह सब एजेंडा लागू करना पड़ेगा।

फिर बाबा बागेश्वर का ‘जन समर्थन’ भाजपा के साथ जुड़ जाएगा।

अभी तो बागेश्वर बाबा कह रहे हैं कि हमारा किसी दल से कोई संबंध नहीं।दल हमसे अलग ही रहें।

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जेपी आंदोलन जब शुरू हुआ था तो छात्र-युवा बड़े -बड़े राजनीतिक नेताओं को अपने मंच से उतार दिया करते थे।

पर,जब प्रशासन का दमन शुरू हुआ तो बाद में प्रतिपक्षी नेताओं के मजबूत कंधे ही अंततः उनके काम आए।

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 29 मई 2023

 


 


  पैसों की मार बड़ी मार !!

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सुरेंद्र किशोर

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सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास योजना में सिर्फ संसद भवन ही नहीं है बल्कि सरकारी दफ्तरों के लिए भवन भी बनाए गए हैं।

उन नये भवनों में वे सब कार्यालय अब स्थानांतरित किए जाएंगे जो अभी निजी मकानों में किराए पर है।

   वे निजी मकान राजनीतिक दलों के कुछ नेताओं के हैं।

 एक अनुमान के अनुसार 1000 करोड़ रुपए उनको हर साल किराया के रूप में केंद्र सरकार देती रही है।

जब वे कार्यालय सेंट्रल विस्टा में स्थानातरित हो जाएंगे तो केंद्र सरकार के उतने रुपए हर साल बचेंगे।

उधर वे नेतागण 1000 करोड़ रुपए सालाना से वंचित हो जाएंगे।हालांकि उनके मकान के नए किरायेदार मिल जाएंगे।पर क्या वे इतना अधिक किराया देंगे ?

पैसों की मार बहुत बड़ी मार होती है।

उससे बड़ी पीड़ा होती हैं।

 बौखलाहट होती है।मुंह से ‘गालियां’ निकलती हैं।

निकल भी रही हैं।

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यह तो दूसरी मार है।

करीब आधे दर्जन राजनीतिक दलों के तीन दर्जन छोटे-बड़े नेताओं के खिलाफ भीषण भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के तहत पहले से ही मुकदमे चल रहे हैं।कई नेता जमानत पर हैं।

उनके बहुत सारे पैसे जब्त हो गए।

अदालतें भी उन्हें कोई राहत नहीं दे रही हैं। 

सत्ता पास में नहीं है तो कमाई के रास्ते भी अब कम हैं।

आगे सत्ता मिलेगी या नहीं,इस बात में भी कई लोगों के संदेह है।ऊपर-ऊपर वे जो कहें !

क्योंकि गठबंधन की स्थिति अभी साफ नहीं है।शायद बाद में गठबंधन हो जाए।उसके बाद भी क्या सफलता मिलेगी ?

ऐसे में पीड़ित नेताओं की मनःस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।

उन ‘‘पीड़ित प्राणियों’’ पर गुस्सा नहीं बल्कि दया ही की जा सकती है।

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28 मई 23  


सोमवार, 22 मई 2023

        मेरा लैंडलाइन फोन नंबर

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मोबाइल फोन के रेडिएशन से अपने कान को यथासंभव 

बचाने के लिए मैंने लैंडलाइन फोन ले लिया है।

उसका नंबर है--0612-7180572

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मैं जहां रहता हूं,वहां बी.एस.एन.एल.की पहुंच नहीं है।

इसलिए मेरा लैंडलाइन फोन निजी कंपनी का है। 

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सुरेंद्र किशोर

21 मई 23


  भ्रष्टाचार का बचाव करने वालों की जीत मुश्किल 

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     सुरेंद्र किशोर

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इस देश में जब- जब चुनाव का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार विरोधी अभियान रहा,तो भ्रष्टाचार का बचाव करने वालों की ही हार हुई।

अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर आजादी के बाद का इतिहास इसी बात का गवाह है।

सन 2024 के लोक सभा चुनाव में इससे कुछ अलग रिजल्ट होगा,यह मान लेना मुश्किल है।

आजादी के तत्काल बाद से ही कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने शुरू हो गए थे।

पर,1962 तक लोगबाग ऐसे दल यानी कांग्रेस और उसके नेताओं के प्रति मोहित थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में मुख्य भूमिका निभाई थी।इसलिए बहुत बातें नजरअंदाज होती रहीं।

 दूसरी ओर, तब प्रतिपक्ष भी काफी बिखरा -बिखरा था।सब अपने आप में मगन थे।

फिर भी जब -जब कांग्रेस सत्ता में आई उसे 50 प्रतिशत से कम ही मत मिले।

1966-67 में जब गैर कांग्रेसी दलों में सीमित चुनावी एकता हुई तो देश के नौ प्रदेशों में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई।यदि थोड़ी और अधिक दलीय एकता हुई होती तो केंद्र से भी सन 1967 में ही कांगेस सत्ता से बाहर हो गई होती।याद रहे कि 1967 के चुनाव का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था।

  याद रहे कि उससे पहले कांग्रेस आत्म मुग्धता की स्थिति में थी।

कोई घोटाला साबित हो जाने पर भी सत्ताधारी नेता प्रतिपक्ष से कहा करते थे कि आप में ताकत है तो अगले चुनाव में फरिया लीजिएगा।

जांच कमेटी ने जीप घोटाले में वी.के.कृष्ण मेनन को दोषी माना।फिर भी गृह मंत्री ने 30 सितंबर 1955 को संसद में कह दिया कि इस केस को बंद कर दिया गया है। जब प्रतिपक्ष ने दोषी को सजा देने की मांग पर जोर दिया तो गृह मंत्री ने कहा कि इसका फैसला अगले चुनाव में हो जाएगा।

 इसी तरह बारी बारी से मुंदरा कांड, धर्मतेजा ऋण घोटाला,प्रताप सिंह कैरो घोटाला, लोहा कांड,छोआ कांड और साठी कांड जैसे घोटाले होते रहे।

उस दौरान भी प्रतिपक्षी दल कांग्रेस सरकारों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लगभग देश भर में अभियान चलाते रहे।

मतदाताओं पर उस अभियान का असर हुआ। वोटरों ने 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस को काफी हद तक हद तक सबक सिखा दिया।

 क्योंकि खुद कांग्रेस सरकारों ने उस बीच कोई सबक नहीं सीखा था।जबकि, इन्दौर के अपने भाषण में कांग्रेस के अध्यक्ष डी. संजीवैया ने 1963 में ही कहा था कि 

‘‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’’

सन 1971 के बाद तो लूट की गति तेज हो गई।

प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने भ्रष्टाचार का बचाव करते हुए कहा था कि भ्रष्टाचार तो सिर्फ भारत में नहीं है।यह तो विश्व व्यापी है।

उससे पहले 1967 में जिन नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं थीं,वे भी अपनी कमजोरियों और भ्रष्टाचार के छिटपुट आरोपों के कारण स्थायित्व नहीं पा सकीं।कांग्रेसी फिर सत्ता में आ गए।प्रतिपक्षी एकता के शिल्पकार डा.राम मनोहर लोहिया ने 1967 की गैर कांग्रेसी सरकारों से कहा था कि ‘‘बिजली की तरह कौंध जाओ और सूरज की तरह स्थायी हो जाओ।’’

पर वे यह काम नहीं करवा सके।लोहिया का बताया वह काम लोहिया का नाम लिए बिना आज मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ बखूबी कर रहे हैं।

1969 में इंदिरा गांधी ने जब कांग्रेस पार्टी तोड़ी और गरीबी हटाओ का नारा दिया तो उसके पीछे भी उनका पूंजीवाद व प्रकारांतर से भ्रष्टाचार पर ही हमला था।उन्होंने पूंजीवाद और भ्रष्टाचार को समानार्थक शब्द बना कर पेश किया इसका उन्हेें चुनावी लाभ भी मिला।

बाद में यह माना गया कि जनता ने इंदिरा गांधी के झांसे में आकर सन 1971 के लोक सभा चुनाव में उन्हें लोक सभा में पूर्ण बहुमत दे दिया।

उसके बाद इंदिरा गांधी अपने असली स्वरूप में आ गईं।

उन्होंने आम लोगों की गरीबी हटाने की जगह अपने पुत्र संजय गांधी के लिए मारूति कार कारखाना स्थापित करवाया।मारूति घोटाला सामने आया।उसके अलावा भी घोटाले हुए।

उधर केंद्र सरकार व कांग्रेस की राज्य सरकारों में भी तब भ्रष्टाचार,संस्थागत रूप लेने, पनपने और बढ़ने लगा।

 इस पृष्ठभूमि में बिहार से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 में जन आंदोलन शुरू हो गया।वह आंदोलन देशव्यापी हुआ।

उस आंदोलन के मुख्य मुद्दे थे-भ्रष्टाचार,महंगी,बेरोजगारी और कुशिक्षा।

उधर प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी  अपने चुनावी भ्रष्टाचरण के कारण जब 1975 में अपनी सांसदी गंवा बैठीं तो उसे फिर से पाने के लिए उन्होंने आपात्काल देश पर थोप दिया।

  इमर्जेंसी में उन्होंने उन चुनावी कानूनी को बदलवा कर उसे पिछली तारीख से लागू करवा दिया।

  इंमर्जेंसी के अत्याचार और भ्रष्टाचार के मिले-जुले कारणों से 1977 में इंदिरा गांधी की सरकार सत्ता से बाहर हो गई।

 मोरारजी देसाई के नेतृत्व में 1977 में केंद्र में गठित पहली गैर कांग्रेसी सरकार पर भ्रष्टाचार का तो कोई बड़ा आरोप नहीं लगा।किंतु जनता पार्टी की सरकार कलही सरकार साबित हुई ।उससे ऊबकर जनता ने सन 1980 में कांग्रेस को फिर सत्तासीन कर दिया।

 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में जो सरकार बनी,वह अपने भ्रष्टाचारों के कारण ही 1989 में सत्ताच्युत हो गई।

आज देश के जितने बड़े -बड़े नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार और बड़े -बड़े घोटाले के जो आरोप लगे हैं,इसके मुकाबले 1984-89 के दौर के आरोप अब हल्के लग रहे हैं।

   बोफोर्स घोटाले को नापसंद करके मतदाताओं ने कांग्रेस को 404 सीटों के हिमालय से उतार कर 197 सीटांे की सरजमीन पर उतार कर खड़ा कर दिया था।

उस चुनाव के बाद कांग्रेस को कभी लोक सभा में अपना बहुमत नहीं मिल सका।

अब आप आज के घोटालों और तब के घोटालों की मात्रा,प्रकार और गंभीरता पर गौर कीजिए।

भ्रष्टाचार को लेकर आम लोगों की वितृष्णा अब भी कम नहीं हुई है।

2014 के लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एन.डी.ए. की बड़ी जीत का काफी ‘श्रेय’ मन मोहन सिंह के दस साल के घोटाला राज को दिया जा सकता है।उन घोटालों ने कांग्रेस सरकार के प्रति लोगों में वितृष्णा पैदा कर दी।उसका लाभ आम आदमी पार्टी जैसी गैर जिम्मेदार पार्टी ने भी उठा लिा।

दूसरी ओर गुजरात के मुख्य मंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की साफ-सुथरी छवि को लगभग देश भर के लोगों ने पसंद किया।

दूसरी बार 2019 में जब अधिक बहुमत से भाजपा ने लोस चुनाव में  विजय प्राप्त की तो उसका बड़ा कारण यह था कि 2014 और 2019 के बीच मोदी सरकार के खिलाफ घोटाला का कोई ठोस आरोप सामने नहीं आया।

दूसरी ओर 1991 से लेकर बाद के वर्षों तक भी केंद्र और राज्य सरकारों में बैठे नेताओं को उनके भ्रष्टाचार का चुनावी खामियाजा बारी बारी से भुगतना पड़ा।

देश में जब -जब भ्रष्टाचार मुद्दा बना,जिन पर भी ठोस आरोप लगा,जनता के एक हिस्से ने उन्हें वोट देना बंद कर दिया।

  क्षेत्रीय दलों को उसका नुकसान उठाना पड़ा।

पूरे दौर में अक्सर कांग्रेस ही भ्रष्टाचार को लेकर बचाव की मुद्रा में रही।आज भी है।

आज ऐसी स्थिति बन रही है कि अगला लोक सभा चुनाव भ्रष्टाचार पर हमला करने वालों और भ्रष्टाचार का बचाव करने वालों के बीच ही होगा।समकालीन इतिहास बताता है कि वैसे में भ्रष्टाचार का बचाव करने वालों की जीत तब मुश्किल होती है।

हालांकि आज के प्रतिपक्षी नेतागण भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ मजबूत दलीय गठबंधन बनाने के लिए प्रश्त्नशील है।

साथ ही, वे उसके जरिए सामाजिक गठबंधन की मजबूती का हौसला भी बांध रहे हैं।

किंतु उत्तर प्रदेश के पिछले साल के दो लोक सभा

उप चुनावों और बिहार के विधान सभा उप चुनावों के नतीजे बता रहे हैं कि तथाकथित धर्म निरपेक्ष-सामाजिक न्याय के पैरोकार दलों का वोट बैंक दरक रहा है।

   लोगों का मूड यह बता रहा है कि सन 2024 के लोस चुनाव से पहले तक जितने अधिक भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाइयां होंगी,जनता से प्रतिपक्ष का दुराव बढ़ेगा।

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7 अप्रैल 23. 

 


शनिवार, 20 मई 2023

 वेबसाइट मनी कंट्रोल हिन्दी पर 15 मई 23 को प्रकाशित

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मोहम्मद अली जिन्ना ने संविधान सभाइयों से कहा 

था कि वे देश की कानून-व्यवस्था को प्राथमिकता दंे

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सुरेंद्र किशोर

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   नए देश पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्यों से  

पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना ने 

कहा था  कि ‘‘किसी भी सरकार का पहला कत्र्तव्य कानून-व्यवस्था बनाये रखना है।

क्योंकि राज्य के द्वारा रियाया के जीवन ,संपत्ति और धार्मिक आस्था को पूरी तरह संरक्षित किया जाना जरूरी है।’’

 उन्होंने यह भी कहा था कि भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी सबसे बड़े अभिशाप हंै जिन्हें अविभाजित भारत भुगतता रहा है।

दूसरे देशांे में भी ये बुराइयां हैं,पर हमारी हालत ज्यादा बदतर है।ये सचमुच जहर हैं। हमें इनसे कठोर हाथों से निपटना चाहिए।मैं यह उम्मीद करता हूं कि इस सभा के सदस्यों के लिए जितना जल्दी संभव हो सके,आप इस दिशा में समुचित कदम उठाएंगे।’’

   यदि जिन्ना परलोक से आज के अस्तव्यस्त पाकिस्तान को देख रहे होंगे तो क्या सोच रहे होंगे ?

यही कि ‘‘हमारे देश के हुक्मरानों ने हमारी कल्पना के देश को बर्बाद कर रखा है।’’

आज वास्तव में पाकिस्तान के हालात बेकाबू हो रहे हैं।

जैसा इससे पहले कभी नहीं हुआ,वह सब आज हो रहा है।

पड़ोसी देश होने के कारण भारत का भी चिंतित होना स्वाभाविक है।पर,आज पाकिस्तान में जिन्ना को कोई याद नहीं कर रहा है।वहां अतिवादी हावी हो रहे हैं।

ऐसे में जिन्ना को याद करना मौजू होगा। 

जिन्ना ने कालाबाजारियों के खिलाफ भी देशवासियों को चेताया था।

उन्होंने कहा था कि ‘‘यह दूसरा अभिशाप है।

मैं जानता हूं कि कालाबाजारिये बार -बार पकड़े जाते हैं। दंडित किए जाते हैं।न्यायिक सजाएं सुनाई जाती हैं।या कभी -कभी जुर्माने भी किए जाते हैं।इस राक्षस से अब आपको निबटना है।’’

मिस्टर जिन्ना ने भ्रष्टाचार के साथ -साथ भाई भतीजावाद से भी दूर रहने की सलाह दी थी।

इधर आजादी के तत्काल बाद भारत के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था कि कालाबाजारियों को करीब के लैम्पपोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए।

  यानी, आजादी के बाद दोनों देशों के नेताओं ने जिन समस्याओं पर चिंता प्रकट की थी,दुर्भाग्य है कि वे समस्याएं आज तक हल नहीं हुईं।कमोबेश मौजूद हैं।

    अफसोसनाक बात यह है कि आजादी के इतने साल बाद भी हिंदुस्तान व पाकिस्तान के काला बाजारिए व भ्रष्ट तत्व आज नेहरू और जिन्ना की इन बातों को मुंह चिढ़ा रहे हैं।

वैसे भारत की अपेक्षा पाकिस्तान के हालात बहुत अधिक खराब हो चुके हैं।खराब होते जा रहे हैं।

पाकिस्तान में तो राजनीतिक अनिश्चितता का दौर भी चल रहा है।उसे अराजकता भी कह सकते हैं।हालांकि भारत की हालत बेहतर है।हाल के वर्षों में तो भारत में हालात और अधिक बेहतर हो रहे हंै। 

   नेहरू के अलावा भी भारत के कई स्वतंत्रता सेनानियों की इस संबंध में चेतावनियांे व नसीहतों को तो हम कई बार पढ़ चुके हैं।पाकिस्तान की संविधान सभा में जिन्ना के भाषण को  उधृत करके भाजपा नेता एल.के.आडवाणी कभी राजनीतिक मुसीबत में फंस चुके थे।

  जसवंत सिंह ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘जिन्ना भारत विभाजन के आईने में ’ में इसे प्रकाशित किया है।जिन्ना ने अपने देश के संविधान निर्माताओं से यह भी कहा था कि उन्हें संविधान बनाते समय किन -किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। 11 अगस्त 1947 को मिस्टर जिन्ना ने कहा कि ‘आप आजाद हैं।आप पाकिस्तान देश में अपने मंदिरों में जाने के लिए आजाद हैं ।

आप अपनी मस्जिदों में या फिर अपने किसी अन्य धर्मस्थल में जाने के लिए आजाद हैं।आप किसी भी धर्म,जाति या नस्ल के हो सकते हैं ।उसका देश के काम काज से कोई लेना देना नहीं हैं।

   जिन्ना ने यह भी कहा कि ‘ मैं सोचता हूं कि हम इसे आदर्श की तरह सामने रखें और  आप पाएंगे कि कालांतर में हिंदू ,हिंदू नहीं रहेंगे और मुसलमान ,मुसलमान नहीं रहेंगे।यह बात मैं किसी धार्मिक बोध के संदर्भ में नहीं कह रहा हूं। क्योंकि वह हर आदमी की व्यक्तिगत आस्था है,बल्कि इस देश के नागरिकों के राजनीतिक बोध की दृष्टि से कह रहा हूं।’

आडवाणी ने अपनी पाकिस्तान यात्रा में संभवतः पाकिस्तानवासियों को यही याद दिलाई थी कि वे देखें कि कायदे आजम की इस इच्छा का कितना पालन हो रहा है !   

  वैसे कायदे आजम की यह इच्छा अत्यंत आदर्श भरी इच्छा ही थी।क्योंकि धर्म के आधार पर निर्मित किसी देश के हुक्मरानों से जिन्ना कुछ अधिक ही उम्मीद कर रहे

 थे।

 मोहम्मद अली जिन्ना का 11 सितंबर 1948 को निधन हो गया।इसलिए दुनिया यह नहीं देख सकी कि वे  अपने देश के हुक्मरानों से अपनी इन इच्छाओं को लागू करा पाते है या नहीं।इधर गांधी भी 1948 में नहीं रहे।जवाहर लाल नेहरू भी कालाबाजारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से नहीं लटकवा सके।

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15 मई 23



 


    क्या उत्तराखंड अगले पांच साल में 

   एक नयी ‘कश्मीर घाटी’ बनने वाला है ?

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सुरेंद्र किशोर

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उस राज्य से लौट रहे लोग यह बता रहे हैं कि उत्तराखंड

जल्द ही एक और कश्मीर बनने जा रहा है।

वहां भारी संख्या में बंगलादेशी व रोहिंग्या घुसपैठिए बसते जा रहे हैं।

वे तीर्थ स्थलों को घेर कर बस रहे हैं।

इस खबर की केंद्रीय आई.बी.पुष्टि करता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम।

किंतु जाकिर नाइक(दिग्विजय सिंह के शब्दों में शांतिदूत)ने 23 अगस्त 2020 को ही कह दिया कि भारत में हिन्दुओं की आबादी अब 60 प्रतिशत से कम हो चुकी है।(गुगल पर इस बयान को आप भी पढ़ सकते हैं।)

इस प्रतिशत पर किसी सांसद को संसद में सवाल करना चाहिए था।

असलियत जानना चाहिए था।

किंतु हमारे अनेक सांसदों को हंगामे से फुर्सत ही कहां मिलती है !

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हाल में पश्चिम बंगाल के लौटे मेरे एक गैर राजनीतिक करीबी ने बताया कि रोज ही सैकड़ों बंगला देशी और रोहिंग्या घुसपैठिए पश्चिम बंगाल की सीमा में प्रवेश कर रहे हैं और पूरे देश में फैल रहे हैं।

उन्होंने हावड़ा रेलवे स्टेशन पर उनकी बड़ी संख्या देखी थी।

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लगता है कि सीमा सुरक्षा बल को भी उन्हें रोकने में कोई रूचि नहीं है।

पश्चिम बंगाल की वाम व ममता सरकारों के लिए तो वे वोट बैंक रहे हैं।

यदि ऐसा है तब तो केंद्र की मोदी सरकार सन 2024 का चुनाव नहीं जीत पाएगी।

क्योंकि घुसपैठियों को तत्काल वोटर बना देने वाली आंतरिक शक्तियां काफी सक्रिय हैं।ममता बनर्जी कह चुकी है कि पश्चिम बंगाल में सी.ए.ए. और एन.आर.सी.लागू किया जाएगा तो खून की नदियां बह जाएंगी।

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गुगल पर ही ममता बनर्जी का एक भाषण सुन लीजिए जो उन्होंने 3 मई 2022 को ईद के अवसर पर दिया था।

उन्होंने कहा कि ‘‘हम काफिर नहीं हैं।हम लड़ना जानते हैं।’’

कल्पना कर लीजिए आने वाले दिनों में इस देश में क्या-क्या होने वाला है !

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पश्चिम बंगाल,केरल,यू.पी.और कर्नाटका विधान सभाओं के गत चुनावों में अल्पसंख्यक मतों की अभूतपूर्व एकजुटता की करामात आप देख चुके हैं।

उत्तरा खंड जैसे जिन राज्यों में अल्पसंख्यक वोट अभी तक चुनावों में निर्णायक नहीं रहे हैं,वहां घुसपैठ करवा कर जनसंख्या के अनुपात को तेजी से बदला जा रहा है।(क्या कर रही है केंद्र की देश भक्त सरकार ?)

इस्लामिक उपदेशक व भारत से भगोड़ा जाकिर नाइक ने भारत के अल्पसंख्यकों से अपील की है कि (यह बयान भी गुगल पर उपलब्ध है।)केरल के आसपास के राज्यों के अल्पसंख्यक केरल में जाकर बसना शुरू कर दें।वहां की आबादी बढ़ानी है।

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यह सब लिखने पर मेरे बारे में कुछ लोग जो भी अर्थ लगाएं,किंतु हम अपने मौजूदा व आने वाले वंशजों के जीवन को भारी संकट में नहीं डालना चाहते।इसलिए लोगों को चेता रहे हैं।

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तीर्थ स्थलों वाले राज्य उत्तराखंड को युद्ध स्थल बनने से बचाना हो तो केंद्र सरकार को चाहिए कि वह उत्तरा खंड को जल्द से जल्द यू.पी.में फिर से मिला दे।

योगी आदित्य नाथ उस राज्य को भी बचा लेंगे।बल्कि वही बचा सकते हैं।मोदी-अमित शाह ढीले पड़ रहे हैं। 

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उत्तराखंड को अब भी घुसपैठियों से बचा लेने के कुछ अन्य उपाय भी उपलब्ध हैं जिन्हें यहां नहीं बताया जा सकता हैै।

हालांकि वे उपाय यू ट्यूब पर बताए जा रहे हैं।

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   20 मई 23


बुधवार, 17 मई 2023

    याद कीजिए लोहिया-प्रायेजित रामायण मेला

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   सुरेंद्र किशोर

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जितने लोग ‘‘बागेश्वर बाबा’ को देखने-सुनने गए थे,जरूरी नहीं कि वे सब के सब भाजपा के ही वोटर हैं।

भक्त और वोटर में फर्क करना चाहिए।

किंतु यदि कुछ राजनीतिक दलों ने  धीरेंद्र शास्त्री को अपमानित करना जारी रखा,तो कुछ ‘भक्त’ प्रतिक्रियास्वरूप भाजपा के वोटर भी बन जा सकते हैं।

कर्नाटका चुनाव के लिए मतदान से पहले एक कांग्रेस नेता ने कहा था कि हम पी.एफ.आई.और बजरंग दल दोनों पर प्रतिबंध लगाएंगे।

हालांकि पी.एफ.आई.पर प्रतिबंध पहले ही लग चुका है।

यानी कांग्रेसी होशियार निकले।

उन्होंने एक तरह से संतुलन बनाया,नकली ही सही।

पर, बिहार के जो नेता कभी भूल कर भी पी.एफ.आई.शब्द का उच्चारण तक नहीं करते वे भी ‘बाबा’ पर अभूतपूर्व ढंग से आक्रामक हैं।इतने आक्रामक क्यों हैं,यह बात छिपी हुई नहीं है।

धीरेंद्र बाबा के लिए जुटी  भीड़ भी अभूतपूर्व रही है और किसी अन्य बाबा पर इतना अधिक आक्रमण इससे पहले कभी नहीं हुआ। 

अरे भाई, जिस उद्देश्य से आप आक्रामक हंै,उस उद्देश्य की पूत्र्ति स्वयंमेव होने ही वाली है।

कर्नाटका की तरह बिहार में भी अगले चुनाव में अल्पसंख्यक वोट एक ही दल यानी सिर्फ महा गठबंधन को ही मिलने की पूरी उम्मीद है।

फिर अकारण बागेश्वर बाबा के कुछ भक्तों को भाजपा खेमे में क्यों ढकेल रहे हो ?

क्योंकि लोगबाग देख रहे हैं कि आप सिर्फ बहुसंख्यक साप्रदायिकता के खिलाफ बोलते हैं,अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के खिलाफ कततई नहीं।

.................................

आजादी के बाद जब डा.राममनोहर लोहिया देश को गरमाने 

के लिए निकले तो उन्हें एक बात देखकर अजीब लगा।

वह यह कि रामलीला में तो बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं किंतु हमारी सभाओं में कम ही लोग आते हैं।

संभवतः उसी के बाद उन्हंे ‘रामायण मेला’ लगवाने का आइडिया आया।लगवाया भी।

......................................

सत्तर के दशक में बिहार माकपा के एक प्रमुख नेता तकी रहीम से मैं यदाकदा मिलता रहता था।

उन्होंने एक संस्मरण सुनाया।

उन्होंने कहा कि मैं पटना के पास के एक राजपूत बहुल गांव में पार्टी के प्रचार के लिए  गया था।

मैंने राजपूतों की बैठकी में कहा कि कम्युनिस्ट और क्षत्रिय एक ही समान हैं।

क्षत्रिय जो वचन देता है,उस पर कायम रहता है।

वचन को पूरा करने के लिए वह कभी -कभी बल प्रयोग भी करता है।

सोवियत संघ के कम्युनिस्टों ने वहां की जनता को वचन दिया कि हम साम्यवाद लाएंगे।

कम्युनिस्टों ने उसके लिए बल प्रयोग भी किया।’’

तकी साहब बोले कि अपनी शौर्य गाथा सुनकर उस गांव के कुछ राजपूत हमारे दल के प्रभाव में आ गए।

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 17 मई 23

 


     गंजियों को अदल-बदल कर पहनना !

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         सुरेंद्र किशोर

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अस्सी के दशक में हमारे एक परिचित बुद्धिजीवी की एक विशेष ‘आदत’ थी।

यह सच्ची कहानी है।

मत पूछिएगा कि बुद्धिजीवी पत्रकार थे या कवि।

वे गंदी गंजी पहनने के अभ्यस्त थे।

उनके पास दो गंजियां थीं।

एक गंजी जब गंदी हो जाती थी तो वे दूसरी पहनने लगते थे।

जब वह भी गंदी हो जाती थी तो दोनों गंजियों की गंदगी का आपस में मिलान करते थे।

दोनों में से जो गंजी अपेक्षाकृत उन्हें साफ लगती थी,उसे वे पहनने लगते थे।

फिर दूसरी की बारी आती थी।

इस तरह वे लंबे समय तक उन गंजियों को साफ किए बिना पहनते रहते थे।

उनके पास बैठने वाले व्यक्ति कई बार दुर्गंध परेशान हो जाते थे।

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सन 1967 से मैं राजनीति देख रहा हूं।

बुद्धिजीवी जी की गंजी को थोड़ी देर के लिए राजनीतिक दल मान लें।

(अधिक देर के लिए नहीं।राजनीतिक दल वालों से क्षमा प्रार्थना सहित !) अपवादों को छोड़कर इस देश-प्रदेश के आम मतदातागण दशकांे से दो गंजियों को बदल-बदल कर बारी -बारी से पहनते रहते हैं।

कर्नाटका के ताजा चुनाव नतीजों से इसकी तुलना आप कर सकते हैं।

उससे पहले कर्नाटका में हुए कई विधान सभा चुनावों में आम तौर पर सरकारें बदलती रहीं।

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जो लोग

कर्नाटका के ताजा चुनाव नतीजों से कुछ लोग उत्साहित है।कई लोग उसमें अपने लिए सन 2024 के लोक सभा चुनाव में शुभ-लाभ देख रहे है।

 वही लोग सन 2018 के राजस्थान विधान सभा चुनाव नतीजों में, जिसमें कांग्रेस जीत गई थी, सन 2019 के लोक सभा चुनाव नतीजों की झलक देख रहे थे।पर ,क्या हुआ ?

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सन 2024 में अंततः क्या होगा ?

आम मतदाता तब यदि यह महसूस करेंगे कि मनमोहन सिंह की दस साला सरकार (2004-2014)से मोदी की दस साला सरकार बदतर रही तो वे एक बार फिर ‘‘मनमोहन सिंह टाइप की सरकार’’ स्थापित कर देंगे।

यदि उन्हें उल्टा महसूस हुआ तो नरेंद्र मोदी जारी रहेंगे।

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(हां, इस विश्लेषण में साम्प्रदायिक वोट बैंक समूहों और सामाजिक समूहों की राजनीतिक ताकतों को ध्यान में नहीं रखा गया है।क्योंकि वह तो घटती-बढ़ती रहती है।यू.पी.उसका उदाहरण है।वहां आजम गढ़ ढह रहा है और आजम का गढ़ भी।)

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14 मई 23

 


 जितने के हकदार हैं,राहुल गांधी 

जी को उतना ही श्रेय दीजिए !

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सुरेंद्र किशोर

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जो लोग कर्नाटका फतह का श्रेय पूरा श्रीमान राहुल गांधी को दे रहे हैं,मेरा मानना है कि उनकी गलतफहमी अगले चुनाव में दूर हो जाएगी।

दरअसल,हाल के कर्नाटक विधान सभा चुनाव में मुख्यतः तीन फैक्टर कारगर रहे।

1.-वहां अक्सर मौजूदा सरकार चुनाव हार जाती है।

ऐसा कई दशकों से हो रहा है।

इस बार हारने की बारी भाजपा सरकार की थी।

2.-कुछ भाजपा नेताओं के ‘40 प्रतिशत कमीशन’ की चर्चा ने कांग्रेस के पक्ष में काम किया।

3.-पिछले कुछ चुनावों से देश के अधिकतर मुस्लिम मतदातागण एक ही दल को वोट दे रहे हैं।

इस एकतरफा वोटिंग का लाभ गत चुनावों में ममता बनर्जी,ं माकपा(केरल ) और उत्तर प्रदेश में सपा को मिल चुका है।

इस बार बारी कर्नाटका में कांग्रेस की थी।

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अब इसमें भारत जोड़ो यात्रा का कहां और कैसा रोल दिखाई पड़ता है ?

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इसके विपरीत भारत जोड़ो यात्रा के दौरान हुए उप चुनावों में भी कांग्रेस की हार हुई थी।

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जांलधर के कांग्रेसी सांसद संतोख सिंग चैधरी उसी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ‘शहीद’ हो गये थे। 

यात्रा में दिल के दौरे से उनकी मृत्यु हो गई।

हाल के उप चुनाव में उनकी विधवा को,जिसे कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया था, हार का मुंह देखना पड़ा।

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 14 मई 23


 पी.एफ.आई.का ‘इस्लामिक भारत’ 

बनाम स्वामी धीरेंद्र का ‘हिन्दू राष्ट्र’

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एक के प्रति नरमी  और दूसरे को जेल भेजने की तैयारी ?

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प्रति उत्पादक साबित होता रहा है नेताओं का ऐसा रवैया

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सुरेंद्र किशोर

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पोप ने सन 2016 में मदर टेरेसा को ‘संत’ की उपाधि दे दी।

अपनी ‘अलौकिक दैविक शक्तियों’ से जो व्यक्ति कम से कम दो 

चमत्कार कर देता है,उसे पोप संत की उपाधि दे देते हैं।

कहा गया कि टेरेसा ने दो चमत्कार कर दिए थे।

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इस देश के किसी तथाकथित सेक्युलर दल के नेता ने तब भी यह नहीं कहा कि 

कोई अलौकिक शक्ति होती ही नहीं है।क्योंकि मामला वोट बैंक का था।

किंतु बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर और ‘‘बजरंग बली की कृपा से चमत्कार’’ दिखा रहे धीरेंद्र स्वामी के खिलाफ कई नेता गण न सिर्फ अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं बल्कि उन्हें जेल भेजने की भी धमकी दे रहे हैं।

साथ ही,यह भी कहा जा रहा है कि एक सुहानी साहा भी धीरेंद्र शास्त्री की ही तरह ही ‘चमत्कार’ दिखाती है।

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मैं खुद नहीं जानता कि ‘मदर टेरेसा’,‘धीरेंद’्र या ‘सुहानी’ का यह सब चमत्कार है या विज्ञान !

यह भी नहीं जानता कि चमत्कार होता भी है या नहीं।

पर, जो भी हो,

नेताओं को चाहिए कि वे कम से कम वोट के लिए यानी कुछ धार्मिक समूहों को  खुश करने के लिए दोहरा रवैया न अपनाएं।

अन्यथा, देर-सबेर यह रवैया उनके लिए ही ‘प्रति उत्पादक’ साबित होगा।

विवादास्पद चमत्कार दिखाकर संत की उपाधि पाने वाली को तो सम्मान और उसी तरह का काम करने वाले धीरेंद्र स्वामी का अपमान ?

इसके विपरीत दोनों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए अन्यथा एकतरफा रवैए से आपका अपना वोट बैंक भी गड़बड़ा सकता है।

याद रहे कि इंदिरा गांधी की सरकार ने मदर टेरेसा को 1980 में भारत रत्न से सम्मानित किया था।

टेरेसा के विरोधी लोग कहते रहे हैं कि मदर टेरेसा का मुख्य उद्देश्य सेवा नहीं बल्कि  धर्म परिवर्तन करवाना था।

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याद रहे कि आज तक किसी हिन्दू संत को भारत रत्न नहीं मिला है।

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पी.एफ.आई. का घोषित उद्देश्य है--हथियारों के बल पर भारत को 2047 तक इस्लामिक देश बना देना।

इसके बावजूद पी.एफ.आई.के राजनीतिक संगठन एस.डी.पी.आई.से साठगांठ करके कांग्रेस ने हाल में कर्नाटका विधान सभा चुनाव जीता है।

2018 में भी एस.डी.पी.आई.का कांग्रेस से चुनावी तालमेल था।

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धीरेंद्र स्वामी हिन्दू राष्ट्र बनाने का संकल्प दुहराते रहते हैं।

उनकी यह बात पूर्णतः संविधान विरोधी है।

हालांकि धीरेंद्र यह नहीं कहते कि हम हथियारों के बल पर हिन्दू राष्ट्र बनाएंगे।

पर,जो संगठन हथियारों का सहारा ले रहा है,उसे मान,उसके प्रति नरमी  और धीरेंद्र का अपमान ????

याद रहे कि धीरेंद्र में रिकाॅर्ड भीड़ जुटाने की क्षमता है ।

याद रहे कि पी.एफ.आई. के हजारों जेहादी इस देश में इन दिनों सक्रिय हैं।समय -समय पर वे अपनी ‘करामात’ दिखाते रहते हैं।सेक्युलर सत्ता उनके विरूद्ध कायम केस उठा लेती है।ऐसा किसी अन्य देश में नहीं होता।

यूं ही नहीं हम सैकड़ों साल तक गुलाम रहे !! 

 सेक्युलर सरकारें उसके खिलाफ उतनी सख्ती नहीं बरत रही हैं जितनी के वे हकदार हैं।

  क्या आपने किसी सेक्युलर दल के बड़े नेता को पी.एफ.आई.के  खिलाफ उसी लहजे में बयान देते देखा-सुना है जिस लहजे में धीरेंद्र स्वामी के खिलाफ वे बयान दे रहे हैं ?

पी.एफ.आई. के पूर्व संगठन सिमी के कांग्रेसी नेता सलामन खुर्शीद सुप्रीम कोर्ट में वकील थे।

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हमारे अधिकतर नेताओं के ऐसे  दोहरे आचरण-रवैए  से आम हिन्दू क्या सोचेगा ?

क्या सोच रहा है ?

यही न कि पी.एफ.आई.के हथियारबंद दस्तों से हमें ये नेता तो नहीं बचाएंगे।

शायद धीरेंद्र स्वामी की जमात बचाए !!

क्या बागेश्वर बाबा के पीछे अभूतपूर्व भीड़ का यही कारण है ?

इस पर मनन और रिसर्च करने की जरूरत हैं।

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देश के ऐसे बदलते हालात में किसी वोट बैंक को पक्का मत समझिए।

इसलिए देश की बाह्-आंतरिक सुरक्षा के बारे में सोचिए।

याद रखिए गत साल आजम गढ़ और रामपुर लोक सभा सीटें भाजपा जीत गई।

हाल में यू.पी. विधान सभा के दो कठिन उप चुनाव भी भाजपा जीत गई।

बिहार में भी हाल के दो विधान सभा उप चुनावों में भाजपा की जीत को भी विश्लेषित कर लीजिए।

कुढ़हनी और गोपाल गंज में 51 प्रतिशत सवर्ण नहीं हैं।

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17 मई 23

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पुनश्चः

कुछ लोगों को मेरा पोस्ट बुरा लगे तो माफ कीजिएगा।

क्योंकि मैं अपना कत्र्तव्य निभा रहा हूं।

इसी तरह का कर्तव्य मैंने 1990 में पिछड़ा आरक्षण को समर्थन देकर निभाया था।

पूर्व कांग्रेसी विधायक हरखू झा इस बात के गवाह हैं।मैं उन दिनों झा जी के समक्ष भी सवर्णों से कहता था कि ‘गज नहीं फाड़िएगा तो थान हारना पड़ेगा।’

वही हुआ।

 थान ऐसा हारे कि आज भी योग्यता रहते हुए भी किसी सवर्ण के मुख्य मंत्री बनने का यहां कोई चांस नहीं हैं।ं

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इस पोस्ट के साथ एक सूची दे रहा हूं।

यह 1990 की है।

खुद देख लें ,तब केंद्रीय सेवाओं में कितने पिछड़े थे।

इसके बावजूद सवर्णों ने जब आरक्षण का विरोध किया तो पिछड़ों ने लालू प्रसाद जैसा नेता ‘पैदा’ कर दिया।

यानी ताकत प्रदान कर दिया।

कैसा अनुभव रहा आपको लालू यादव का ?!!


 


    याद कीजिए लोहिया-प्रायेजित रामायण मेला

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   सुरेंद्र किशोर

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जितने लोग ‘‘बागेश्वर बाबा’ को देखने-सुनने गए थे,जरूरी नहीं कि वे सब के सब भाजपा के ही वोटर हैं।

भक्त और वोटर में फर्क करना चाहिए।

किंतु यदि कुछ राजनीतिक दलों ने  धीरेंद्र शास्त्री को अपमानित करना जारी रखा,तो कुछ ‘भक्त’ प्रतिक्रियास्वरूप भाजपा के वोटर भी बन जा सकते हैं।

कर्नाटका चुनाव के लिए मतदान से पहले एक कांग्रेस नेता ने कहा था कि हम पी.एफ.आई.और बजरंग दल दोनों पर प्रतिबंध लगाएंगे।

हालांकि पी.एफ.आई.पर प्रतिबंध पहले ही लग चुका है।

यानी कांग्रेसी होशियार निकले।

उन्होंने एक तरह से संतुलन बनाया,नकली ही सही।

पर, बिहार के जो नेता कभी भूल कर भी पी.एफ.आई.शब्द का उच्चारण तक नहीं करते वे भी ‘बाबा’ पर अभूतपूर्व ढंग से आक्रामक हैं।इतने आक्रामक क्यों हैं,यह बात छिपी हुई नहीं है।

धीरेंद्र बाबा के लिए जुटी  भीड़ भी अभूतपूर्व रही है और किसी अन्य बाबा पर इतना अधिक आक्रमण इससे पहले कभी नहीं हुआ। 

अरे भाई, जिस उद्देश्य से आप आक्रामक हंै,उस उद्देश्य की पूत्र्ति स्वयंमेव होने ही वाली है।

कर्नाटका की तरह बिहार में भी अगले चुनाव में अल्पसंख्यक वोट एक ही दल यानी सिर्फ महा गठबंधन को ही मिलने की पूरी उम्मीद है।

फिर अकारण बागेश्वर बाबा के कुछ भक्तों को भाजपा खेमे में क्यों ढकेल रहे हो ?

क्योंकि लोगबाग देख रहे हैं कि आप सिर्फ बहुसंख्यक साप्रदायिकता के खिलाफ बोलते हैं,अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के खिलाफ कततई नहीं।

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आजादी के बाद जब डा.राममनोहर लोहिया देश को गरमाने 

के लिए निकले तो उन्हें एक बात देखकर अजीब लगा।

वह यह कि रामलीला में तो बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं किंतु हमारी सभाओं में कम ही लोग आते हैं।

संभवतः उसी के बाद उन्हंे ‘रामायण मेला’ लगवाने का आइडिया आया।लगवाया भी।

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सत्तर के दशक में बिहार माकपा के एक प्रमुख नेता तकी रहीम से मैं यदाकदा मिलता रहता था।

उन्होंने एक संस्मरण सुनाया।

उन्होंने कहा कि मैं पटना के पास के एक राजपूत बहुल गांव में पार्टी के प्रचार के लिए  गया था।

मैंने राजपूतों की बैठकी में कहा कि कम्युनिस्ट और क्षत्रिय एक ही समान हैं।

क्षत्रिय जो वचन देता है,उस पर कायम रहता है।

वचन को पूरा करने के लिए वह कभी -कभी बल प्रयोग भी करता है।

सोवियत संघ के कम्युनिस्टों ने वहां की जनता को वचन दिया कि हम साम्यवाद लाएंगे।

कम्युनिस्टों ने उसके लिए बल प्रयोग भी किया।’’

तकी साहब बोले कि अपनी शौर्य गाथा सुनकर उस गांव के कुछ राजपूत हमारे दल के प्रभाव में आ गए।

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 17 मई 23

 


शनिवार, 13 मई 2023

 40 साल पहले

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10 मई, 1983 को ‘आज’ और ‘प्रदीप’ में छपी  

 बाॅबी हत्या कांड की सनसनीखेज खबर ने 

राजनीति में हलचल मचा दी थी

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उच्चत्तम स्तर से सी.बी.आई.पर दबाव डलवा कर कई प्रमुख 

नेताओं को जेल जाने से बचा लिया गया था

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सुरेंद्र किशोर 

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10 मई 1983 को पटना के दैनिक आज और दैनिक प्रदीप में सनसनीखज खबर छपी थी।

वह खबर श्वेतनिशा त्रिवेदी उर्फ बाॅबी की रहस्यमय हत्या को लेकर थी।

उससे पहले दो दिनों से पटना के राजनीतिक हलकों में यह सनसनीखेज अफवाह तैर रही थी कि बिहार विधान सभा की एक महिला स्टाफ की हत्या करके उसकी लाश गायब कर दी गई है।यह भी कि उसमें नेताओं का हाथ है।

उस संबंध में न तो कोई एफ.आई.आर.हुई थी और न ही बाॅबी के अभिभावक कुछ कहने को तैयार थीं।अखबार  भी खबर नहीं दे रहा था।

उन दिनों मैं दैनिक ‘आज’ का संवाददाता था।प्रदीप के संवाददाता और अपने मित्र परशुराम शर्मा से मैंने विचार विमर्श किया।हमने तय किया कि 

हम लोग रिश्क लेंगे।

रिश्क लिया।दोनों अखबारों में यह खबर छपी।

संयोग से उन दिनों पटना के डी.एम.,आर.के. सिंह अैार वरीय एस.पी.किशोर कुणाल थे।

दोनों कत्र्तव्यनिष्ठ अफसर थे।

कुणाल जी ने पहल की।

आज और प्रदीप में छपी खबरों को आधार बना कर प्राथमिकी दर्ज कराई।प्राथमिकी में दोनों अखबारों के नाम दर्ज हैं।

कब्र से लाश निकाली गई।जांच आगे बढ़ी।

जब बड़े -बड़े सत्ताधारी नेता फंसते नजर आए तो मामला सी.बी.आई. को सौंप दिया गया।

उच्चत्तम स्तर से सी.बी.आई.को यह निदेश

मिला कि इस केस को रफा दफा कर दिया जाए।रफा दफा कर दिया गया।

उन दिनों अदालत भी आज की तरह सक्रिय नहीं थी।इसलिए पटना हाईकोर्ट में संबंधित दायर पी.आई.एल.भी अस्वीकृत कर दिया गया।

   कुछ सत्ताधारी नेताओं को बचाने के लिए सी.बी.आई.ने श्वेत निशा त्रिवेदी उर्फ बाॅबी की हत्या को आत्म हत्या करार देकर उस केस को रफा दफा कर दिया था।

 एक कांग्रेसी विधायक ने हाल में यह तर्क दिया है कि ‘‘यदि बाॅबी सेक्स स्कैंडल को हम तब रफा-दफा नहीं करवाते तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता।’’

बिहार विधान सभा सचिवालय की अति सुंदर महिला टाइपिस्ट  बाॅबी को जहर दिया गया जिससे 7 मई 1983 को उसकी मौत हो गयी।

उस समय यह आम चर्चा थी कि किसने जहर दिया।

बाॅबी बिहार विधान परिषद की सदस्य कांग्रेसी नेत्री राजेश्वरी

सरोज दास की,जो विधान परिषद की उप सभापति रह चुकी थीं,गोद ली हुई बेटी थी।

 हत्या उनके पटना स्थित सरकारी आवास में ही हुई।वे ईसाई थे।

हड़बड़ी में लाश को कब्र में दफना दिया गया।  

दो डाक्टरों से निधन के कारणों  से संबंधित जाली सर्टिफिकेट ले लिये गये।एक डाक्टर ने लिखा कि आंतरिक रक्त स्त्राव से बाॅबी की मृत्यु हुई।दूसरे ने लिखा कि अचानक हृदय गति रुक जाने  से मृत्यु हुई।

लाश का पोस्ट मार्टम हुआ । वेसरा में मेलेथियन जहर पाया गया।

 करीब सौ कांग्रेसी विधायकों ने तत्कालीन मुख्य मंत्री डा.जगन्नाथ मिश्र का घेराव करके उनसे  कहा कि आप जल्द  केस को सी.बी.आई.को सौंपिए अन्यथा आपकी सरकार गिरा दी जाएगी।किशोर कुणाल दबाव में नहीं आ रहे थे।

 राज्य सरकार ने 25 मई 1983 को इस केस की जांच का भार सी.बी.आई.को सौंप दिया था। 

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 अल्पसंख्यक मतों की एकजुटता जारी

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सुरेंद्र किशोर

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हाल के वर्षों में हुए बंगाल,यू.पी. और केरल विधान सभा चुनावों की तरह ही कर्नाटका के ताजा चुनाव में भी मुस्लिम मतदाताओं ने एकजुट होकर मतदान किया है, ऐसा संकेत मिल रहा है।

यह एकजुटता आगे भी जारी रहने की उम्मीद है।

...........................................,

लगता है कि कर्नाटका विधान सभा के चुनाव में इस बार अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण कांग्रेस के पक्ष में हो गया था।मुस्लिम बहुल और देवगौड़ा के प्रभाव वाले इलाके में जे डी एस को उनके वोट मिलने ही थे।

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इससे पहले गत पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में अल्पसंख्यक मतों का धुव्रीकरण ममता बनर्जी के पक्ष में हुआ था।

नतीजतन माकपा और कांग्रेस शून्य पर आउट हो गए थे।

उस समय अधीर रंजन चैधरी ने कहा था कि मुसलमान मतदाताओं ने कांग्रेस को ं छोड़ दिया।सी.पी.एम.ने अपने प्रभाव वाले मुसलमानों से कहा कि आप लोग भी ममता की 

पार्टी को वोट दे दीजिए।

.....................................

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में अल्पसंख्यकों ने लगभग एकजुट होकर सपा के पक्ष में मतदान किया।नतीजतन बसपा-कांग्रेस की खटिया खड़ी हो गई। 

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इसीलिए तथाकथित सेक्युलर दलों को अल्पसंख्यक मत पाने के लिए कोई विशेष अतिवादी-एकतरफा रुख अपनाने या बयान देने की कोई आवश्यकता नहीं है।

अन्यथा, वह प्रति-उत्पादक साबित हो सकता है। 

अल्पसंख्यक मतदाता ऐसे भी बहुत होशियार होते हैं।इन दिनों कुछ और चतुर हो गए हैं।

वे उसी दल के पक्ष में मतदान कर रहे हैं और करेंगे जो दल या उम्मीदवार भाजपा के खिलाफ सर्वाधिक मजबूत दिखाई पड़ेंगे।

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13 मई 23


शुक्रवार, 12 मई 2023

 एक राजनीतिक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष व केंद्र में मंत्री रह चुके नेता के 

दल बदल को देख कर आपको कैसा लगता है ?

मुझे तो लगता है कि राजनीतिक क्षेत्र में ‘उपकार’ शब्द के लिए कोई जगह नहीं है।

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दूसरी ओर,

संवैधनिक पद पर रह चुके एक काबिल नेता के राजनीतिक संन्यास को देख कर आपको कैसा लगता है ?

मुझे तो लगता है कि राजनीतिक ‘संग्राम’ के मैदान में एम्बुलेंस नहीं हुआ करता।

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सुरेंद्र किशोर 

12 मई 23


मंगलवार, 9 मई 2023

 सत्तर के दशक में सही साबित हुआ था

जयप्रकाश नारायण का राजनीतिक पूर्वानुमान

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सुरेंद्र किशोर

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    त्रिभाषी साप्ताहिक पत्रिका ब्लिट्ज (25 जनवरी 1975, बंबई )से बातचीत में जयप्रकाश नारायण ने जो राजनीतिक पूर्वानुमान लगाया था,वह सन 1977 के मार्च में सच साबित हो गया।

..................................

नेहरू परिवार के प्रति आम तौर से नरम रहे जेपी ने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से सिर्फ एक ही मांग की थी।वह यह कि वह बिहार विधान सभा को भंग करके फिर से चुनाव करवा दें।क्योंकि यह विधान सभा जनता का विश्वास खो चुकी है। 

उससे ठीक पहले मोरारजी देसाई के अनशन के दबाव में आकर इंदिरा गांधी गुजरात विधान सभा चुनाव करवा चुकी थीं।

पर,बिहार के मामले में ‘‘एकाधिकारवादी’’ इंदिरा जी जिद्द पर अड़ गईं।उन्होंने भंग करने की मांग ठुकरा दी। 

याद रहे कि जेपी के नेतृत्व में बिहार

में छात्रों-युवकों ने सन 1974 में आंदोलन शुरू किया था।

इस बीच ब्लिट्ज के संवाददाता ए.राघवन और हसन कमाल ने जेपी से लंबी बातचीत की।

उस बातचीत में जेपी ने कहा कि ‘‘बिहार आंदोलन एक सड़ी-गली व्यवस्था के खिलाफ चलाया जा रहा है।’’(हालांकि पीछे देखने पर यह तय करना मेरे लिए कठिन जान पड़ता है कि आज की व्यवस्था अधिक सड़ी-गली है या 1975 की !!)

जेपी ने कहा कि इसका इंदिरा हटाओ के मामले से कोई संबंध नहीं है।

जेपी ने साफ शब्दों में कहा कि ‘‘लेकिन यदि प्रधान मंत्री अपनी मौजूदा नीति पर अड़ी रहीं ,तो इस आंदोलन का उठता हुआ तूफान दूसरी बहुत सी चीजों के साथ प्रधान मंत्री को भी किनारे कर देगा।यानी आंदोलन उन्हें सत्ता से हटा देगा।’’

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1977 के मार्च में हुए लोक सभा चुनाव में केंद्र से कांग्रेस की सत्ता चली गई।यहां तक कि खुद इंदिरा गांधी रायबरेली और संजय गांधी अमेठी लोक सभा क्षेत्र में बुरी तरह हार गये।

उत्तर भारत की लगभग सभी सीटें कांग्रेस हार गई थी।

जेपी आंदोलन का दक्षिण भारत पर असर नहीं था।

.......................................

12 मार्च, 1977 को हमने भी दैनिक ‘आज’ के लिए जे पी का इंटरव्यू किया था।

इस बातचीत में उन्होंने कहा था कि यदि हम लोक सभा चुनाव जीत गए तो बिहार सहित विधान सभाओं को भी भंग कराकर फिर से चुनाव करवाएंगे।

वही हुआ भी।

1977 के मार्च की किसी तारीख को ‘आज’ के पहले पेज पर प्रकाशित इस इंटरव्यू को बी बी सी ने अपने बुलेटिन में उधृत किया था।

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9 मई 23


 


 यह प्रचार गलत है कि सरदार पटेल की अंत्येष्टि 

में प्रधान मंत्री नेहरू शामिल ही नहीं हुए थे

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सुरेंद्र किशोर

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मैं भी इस कुप्रचार में आ गया था।कुप्रचार यह कि सरदार पटेल की अंत्येष्टि में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू शामिल नहीं हुए थे।

सरदार पटेल का 1950 में निधन हुआ था।

  सन 2013 में ही अंग्रेजी साप्ताहिक आउटलुक ने यह गलतफहमी दूर कर दी थी।

पत्रिका के उस अंक पर तब मेरा ध्यान नहीं गया था।आज गया।

उसके कवर पर तब के टाइम्स आॅफ इंडिया के पहले पेज की फोटो काॅपी छपी है।

सरदार पटेल की अंत्येष्टि की खबर का उप शीर्षक है--राष्ट्रपति प्रधान मंत्री अंत्येष्टि में शामिल हुए

(आउटलुक का वह कवर पेज इस पोस्ट के साथ यहां दिया जा रहा है जिस पर अखबार की फोटोकाॅपी छपी है।)

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दरअसल तब किसी ने अफवाह फैला दी होगी।किसी अन्य ने बाद में कहीं लिख दिया होगा।

 अफवाह तो स्नोबाॅल की तरह होती है।आगे लुढकने के साथ मोटी होती जाती है।

दरअसल नेहरू ने पटेल की, उनके जीवन काल में इतनी उपेक्षा की थी कि ऐसी अफवाह को सच मानने के लिए अनेक लोग तैयार बैठे थे।

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एक अफवाह बिहार को लेकर भी

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1989 के भागलपुर दंगे के समय प्रधान मंत्री राजीव गांधी भागलपुर गए थे।

उस समय सत्येंद्र नारायण सिंह बिहार के मुख्य मंत्री थे।

उस यात्रा के बाद कांग्रेस के (सत्येंद्र बाबू से) दिलजले नेताओं ने यह प्रचार कर दिया कि सत्येंद्र बाबू तो बीमारी का बहाना बनाकर पटना में ही रह गए थे।

वे प्रधान मंत्री के साथ वहां गए ही नहीं।

मैंने हाल में वह कुप्रचार कहीं छपा हुआ देखा।

वैसे तो मुझे सत्येद्र बाबू ने खुद बताया था कि वे उस दिन भागलपुर गए थे।

फिर भी हाल में मैंने तब उनके प्रमुख सचिव रहे आर.यू.सिंह से  पूछा।उन्होंने कहा कि छोटे साहब पी.एम.के साथ उस दिन भागलपुर में थे।

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अखबारों को रफ हिस्ट्री कहा जाता है।

फेयर हिस्ट्री तो अलग चीज है।सही इतिहासकार या पुस्तक लेखक अखबारों से मुख्यतः सूत्र ग्रहण करता है।फिर वह तथ्यों की कहीं और से भी पुष्टि करता है।अन्यथा, इतिहास बनेगा कि नेहरू पटेल की अंत्येष्टि में नहीं गए थे।

और,1989 में मुख्य मंत्री बीमारी का बहाना बना कर पी.एम.के साथ भागलपुर नहीं गए।

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3 मई 23  


   

चुनाव नतीजों के बारे में सन 1977 में भी 

  कई बड़े नेता पूर्वानुमान नहीं लगा पाए थे

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1977 के जिस लोक सभा चुनाव में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी तक की पराजय हो गई  थी,उसके बारे में भी चुनाव से पहले यह आशंका जाहिर की जा रही थी कि पता नहीं कैसा नतीजा आएगा।

  चूंकि इमरजेंसी की ज्यादतियों की पृष्ठभूमि में  

 चुनाव होने को थे,इसलिए उसकी निष्पक्षता  को लेकर जयप्रकाश नारायण से लेकर जार्ज फर्नांडिस तक भी आशंकित थे।

आज जब कुछ लोग सन 2024 के लोक सभा चुनाव को लेकर स्पष्ट भविष्यवाणियां कर रहे हैं तो उस पर अचरज होता है।क्या इतना आसान है सटीक चुनावी भविष्यवाणी करना ?  

जनवरी, 1977 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा कर दी।

उन्होंने कहा कि मार्च में चुनाव होंगे ।

चूंकि उन्होंने इमरजेंसी को पूरी तरह समाप्त किए बिना ऐसा किया था,इसलिए  

 प्रतिपक्षी दल थोड़ी देर के लिए हतप्रभ हो गये थे।

  जयप्रकाश नारायण से लेकर जार्ज फर्नांडिस तक 

ने आशंकाएं जाहिर की थी।

चुनाव की घोषणा के बाद जयप्रकाश नारायण ने प्रतिपक्षी दलों से अपील की कि वे आपस में विलयन कर लें।एक दल बना लें।जब इस काम में देरी होने लगी तो जेपी ने धमकी दी कि यदि आपलोग विलयन नहीं करेंगे तो हम नई पार्टी बना लेेंगे।

फिर तो वे लाइन पर आ गए।

  चार गैर कांग्रेसी दलों यथा जनसंघ, संगठन कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय लोक दल के नेताओं  मिलकर जनता पार्टी बना ली ।

  बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र मुकदमे के सिलसिले में देश द्रोह के आरोप में जेल में बंद जार्ज फर्नांडिस ने तो चुनाव के बहिष्कार के पक्ष में ही एक बार अपनी राय दे दी थी।हालांकि जनता पार्टी कौन कहे सोशलिस्ट घटक के भी अन्य नेता  जार्ज से असहमत थे।

बाद में जनता पार्टी ने जार्ज को बिहार के मुजफ्फरपुर लोक सभा क्षेत्र  से उम्मीदवार बनाया और वे भी भारी मतों से जीते।

चुनाव की घोषणा के बाद प्रेस सेंसरशीप में ढिलाई जरूर दे दी गयी थी।

राजनीतिक बंदियों की रिहाई शुरू हो गयी थी।पर रिहाई की रफ्तार काफी धीमी थी।

याद रहे कि 25 जून 1975 की रात में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो उसके साथ देश भर के करीब सवा लाख राजनीतिक कार्य कत्र्ताओं-नेताओं तथा कुछ अन्य लोगों को किसी सुनवाई के बिना जेलों में ठूंस दिया गया था।कुछ पत्रकार भी बंदी बना लिए गए थे।

लोगों के मौलिक अधिकार कौन कहे,जीने का अधिकार भी छीन लिया गया था।

यानी प्रतिपक्षी दलों के पास  चुनावी  तैयारी के लिए समय बहुत कम था।

  पर जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ तो जनता पार्टी के पक्ष में भारी जन समर्थन की खबरें सुदूर जगहों से भी आने लगीं।

 उससे पहले चुनाव की घोषणा के तत्काल बाद जयप्रकाश नारायण ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि 

‘‘सरकार सोचती है कि उसे चुनाव में बहुमत मिलेगा।

क्योंकि विरोधी दलों को चुनाव की तैयारी करने के लिए कोई समय नहीं दिया गया है। 

सत्तारूढ़ दल ने आपात स्थिति को पूर्ण रूप से समाप्त न करने और हजारों बंदियों को न छोड़ने 

से अपना इरादा स्पष्ट कर दिया है।

इसलिए यदि कांग्रेस जीत जाती है तो आगे क्या होगा, यह बात भी लोगों के सामने स्पष्ट हो जानी चाहिए।’’

मीडिया से बातचीत में तब के आंदोलन के शीर्ष नेता जेपी ने हालांकि यह

भी कहा कि ‘‘ लोगों को इतनी आसानी से धोखा नहीं दिया जा सकता है।उन्होंने कठिन रास्ते से यह सीख लिया है कि केवल प्रजातांत्रिक तरीके से ही गरीब लोगों के अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं।अधिकारों के दुरूपयोग से लोगों के मन में विरोध की भावना पैदा हो गयी है।इसी कारण उनकी सहानुभूति विरोधी दलों के साथ है।’’

जेपी का यह अनुमान बाद में सही निकला था।

यानी,  1977 के चुनाव  नतीजे ने इसे सही साबित कर दिया था।हालांकि उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में जनता पार्टी को बहुत कम सीटें मिलीं।

  उधर चुनाव की घोषणा कर देने के तुरंत बाद इंदिरा गांधी ने रिक्त स्थानों को देखते हुए कांग्रेस संसदीय बोर्ड को पुनर्गठित किया।राज्यों को निदेश दिया कि वे उम्मीदवारों के नामों की सिफारिश भेजें।

 प्रधान मंत्री की पहली चुनावी सभा कानपुर में हुई।बहुत बड़ी भीड़ थी।

 इंदिरा गांधी ने वहां लोगों से अपील की कि ‘‘मुझे उम्मीद है कि आप लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संगठनों को नष्ट करने वाली शक्तियों को प्रोत्साहित नहीं करेंगे।

क्योंकि ये शक्तियां आपकी कठिनाइयां बढ़ाएंगी।

प्रगति बाधित  करेंगी।’’

उनका इशारा जेपी और नव गठित जनता पार्टी की ओर था।

जेपी और जेपी के शब्दों के चयन पर ध्यान दीजिए।

नवगठित जनता पार्टी के अध्यक्ष मोरारजी देसाई और उपाध्यक्ष चरण सिंह चुने गए। युवा तुर्क चंद्रशेखर का गुट भी जनता पार्टी में शमिल हो गया था।25 जून 1975 को अपनी गिरफ्तारी तक चंद्र शेखर कांग्रेस में थे।

मोरारजी देसाई ने घोषणा की कि जनता पार्टी अच्छे उम्मीदवार खड़ा करेगी।उसका भरसक पालन हुआ।

जेपी ने लोगों से अपील की थी कि वे जनता पार्टी को उदारतापूर्वक दान दें ताकि चुनाव का खर्च उठाया जा सके।

 इमरजेंसी से ऊबे अधिकतर मतदाताओं में जनता पार्टी के पक्ष में इतना अधिक उत्साह था कि जनता पार्टी का अधिकतर चुनावी खर्च आम जनता ने ही उठा लिया था।

  उस चुनाव में मुख्य रूप से कांग्रेस के साथ सी.पी.आई.थी तो जनता पार्टी के साथ सी.पी.एम.और अकाली दल।जगजीवन राम के नेतृत्व वाली कांग्रेस फाॅर डेमोक्रेसी ने जनता पार्टी के साथ चुनावी तालमेल किया।जगजीवन राम ने चुनाव की घोषणा के बाद कांग्रेस छोड़ी थी।

 याद रहे कि 1977 के लोक सभा चुनाव में जनता पार्टी को 295 और कांग्रेस को 154 सीटें मिलीं।

मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने।

सरकार ठीक-ठाक चल रही थी।पर जनता पार्टी के कुछ बड़े नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण मोरारजी सरकार अपना  कार्य काल पूरा नहीं कर सकी।सन 1980 में आम चुनाव हुआ और इंदिरा गांधी एक बार फिर सत्ता में आ गईं।

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5 मई 23  ़ 

 


 



महाराणा प्रताप की याद में 

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इस महावीर के प्रति सरकारी उदासीनता के बावजूद 

लोगबाग गांवों में भी महाराणा प्रताप के चित्र टांगते थे

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सुरेंद्र किशोर

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जो घास की रोटी खाना मंजूर करता है, फिर भी अपने सिद्धांत से समझौता नहीं करता,उसे उसी तरह का सम्मान मिलता है जिस तरह का सम्मान महाराणा प्रताप व उनके वंशज को मिलता रहा है।

मैंने बचपन से ही अपने गांव तथा आसपास के इलाकों में देखा है कि लोग महाराणा प्रताप के बड़े -बड़े चित्र वाले कलेंडर दीवालों पर लगाना पसंद करते थे।

ऐसा करने वालों में लगभग हर जाति के लोग थे।

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महाराणा प्रताप की प्रतिष्ठा के कुछ नमूने यहां प्रस्तुत हैं--

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भारत की आजादी के बाद तक भी कहीं किसी समारोह में राजस्थान के सभी राजा, महाराणा प्रताप के वंशज को शाष्टांग प्रणाम

करते थे।

सभी राजा, यानी सभी राजा !

पता नहीं, अब क्या स्थिति है ?

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अंग्रेजी सरकार ने जार्ज पंचम के दिल्ली दरबार(सन 1911) में हाजिर होने से सिर्फ महाराणा प्रताप के वंशज को छूट दे दी थी।

याद रहे कि सारे भारतीय राजाओं की यह मजबूरी होती थी कि वे ब्रिटिश किंग के सामने झुककर उन्हें नजराना दें।

चूंकि महाराणा के वंशज इसके लिए तैयार नहीं थे,इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें यह छूट दे दी थी।(-एम.ओ.मथाई लिखित पुस्तक ‘‘नेहरू के साथ तेरह वर्ष’’से)

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आजादी के बाद एकमात्र अपवाद सामने आया था।

महाराणा के वंशज को ‘‘महाराज प्रमुख’’ बनाया गया।

अन्य राजे-महाराजे ‘राज प्रमुख’ ही बने।

जबकि, जयपुर अपेक्षाकृत बड़ा राज्य था।

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प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने महाराणा के वंशज को दिल्ली बुलाकर अपने साथ प्रधान मंत्री आवास में ठहराया और उनकी समस्या दूर की थी।

प्रधान मंत्री की ओर से ऐसा सम्मान शायद ही किसी को मिलता था।  

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यह सब क्यों हुआ ?

क्योंकि महाराणा प्रताप एक मात्र राजा थे जिन्होंने घास की रोटी भले खाई, किंतु बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की।

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नीतीश सरकार ने हाल में पटना के मुख्य मार्ग यानी मजहरूल हक पथ,यानी, फ्रेजर रोड पर महाराणा प्रताप की मूर्ति लगवा कर उन्हें सम्मान दिया।

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बिहार विधान परिषद के सदस्य व बिहार जदयू के उपाध्यक्ष संजय सिंह ने इस काम को संभव बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।(वैसे मेरी समझ से एक कमी रह गयी।उस मूर्ति के शिला लेख में वह टिप्पणी होनी चाहिए थी जो वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष ने महाराणा प्रताप के शौर्य के बारे में व्यक्त की थी।याद रहे कि राष्ट्राध्यक्ष का कहना था कि महाराणा की युद्ध नीति से मिली प्रेरणा से ही वियतनाम अमेरिका को पराजित कर पाया था।)

याद रहे कि आजादी के 75 साल में इससे पहले किसी राज्य सरकार को महाराणा की याद नहीं आई थी।

दूसरी ओर नब्बे के दशक में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री

अर्जुन सिंह ने मुगल सम्राट अकबर की 450 वीं जयंती धूमधाम से मनाने का काम शुरू कर दिया था।

किंतु दक्षिण भारत से विरोध होने पर उन्हें समारोह को बीच में ही रोक देना पड़ा।याद रहे कि दक्षिण के लोग अकबर को हमलावर मानते हैं।

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एक सवाल जरूर है।

वह यह कि महाराणा प्रताप के जीवन से आज के नेताओं व अन्य लोगों को कैसी शिक्षा लेनी चाहिए ?

जवाब यह है कि सबसे बड़ी शिक्षा तो यही अपेक्षित है कि भले ‘‘घास की रोटी खानी पड़े’’ किंतु वे सत्ता सुख और धन लिप्सा की पूर्ति के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता न करें।

देश-प्रदेश के हितों को नुकसान न पहुंचाएं।

बाहर-भीतर के देशद्रोहियों से मुकाबला करते समय वोट बैंक का ध्यान न रखें। 

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क्या ऐसी शिक्षा ग्रहण करना आज के अधिकतर नेताओं के लिए आसान है ?

आसान तो नहीं है किंतु असंभव भी नहीं है।

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9 मई 23


 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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सर्वदलीय बैठक के सर्वसम्मत निर्णय के बावजूद बाद में उसी फैसले का विरोध !

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गत साल 2 जून को बिहार सरकार ने तय किया कि राज्य में जाति आधारित गणना कराई जाएगी।

उससे एक दिन पहले सर्वदलीय बैठक में ऐसा करने का निर्णय हुआ था।

पर,इस 4 मई को ऐसी गणना पर पटना हाईकोर्ट ने अस्थायी रोक

लगा दी तो कुछ राजनीतिक नेताओं के स्वर बदल गए।

कुछ नेताओं के परोक्ष कटाक्षों और परस्पर विरोधी बयानों से यह लगता है कि कुछ दलों व नेताओं के लिए सर्वदलीय फैसलों का भी कोई मतलब नहीं है।

  ऐसे ही राजनीतिक प्रकरणांे से राजनीति की साख घटती है।

वैसे पटना हाईकोर्ट ने एक बुनियादी सवाल उठाया है।

वह यह कि राज्य सरकार को ऐसा करने का अधिकार नहीं है।

यानी, यह अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार का है।

यानी यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा।सुप्रीम कोर्ट अब जो फैसला करे।

  उससे पहले केंद्र सरकार यह कह चुकी है कि हम जाति आधारित गणना नहीं कराएंगे।

यदि राज्य सरकार चाहे तो करा सकती है।दरअसल आरक्षण का मामला जब अदालतों में जाता है तो कई बार अदालतें पूछती है कि किन आंकड़ों के आधार पर यह इतना आरक्षण हुआ है।कुछ सरकारें भी चाहती हैं कि पूरे समाज के समरूप विकास के लिए पहले इस बात का पता लगा लिया जाए कि कौन सा समूह अब भी पिछड़ा हुआ है।गणनाओं के आंकड़े विशेष मदद का आधार बताएंगे।फिर पिछड़ गए लोगों का विकास करके पूरे समाज का समरूप विकास किया जा सकेगा। 

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अजब-गजब राजनीति 

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 पहले राजी और बाद में बेराजी हो जाने की कुछ दलों की पुरानी आदत रही है।

ऐसा ही एक प्रकरण सन 1999 में देश के सामने आया था।

 आतंकवादियों ने इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण कर लिया।उसे वे कंधार ले गए जिसमें 152 यात्री थे।

आतंकी मसूद अजहर तथा कुछ अन्य को जेल से छोड़ने की मांग करने लगे। 27 दिसंबर, 1999 को प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सर्वदलीय बैठक बुलाई।

बैठक में यह सहमति बनी कि बंधक यात्रियों को ‘‘किसी भी कीमत पर’’ सरकार छुडव़ाए।

केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह मसूद अजहर तथा अन्य को लेकर कंधार गए।बंधकों को छुड़वाया।पर,इधर प्रतिपक्षी दलों के नेतागण सरकार की इस बात को लेकर बाद में आलोचना करने लगे कि मसूद अजहर को लेकर मंत्री कंधार क्यों गए ?

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घर से मतदान

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कर्नाटका विधान सभा चुनाव में एक बड़ी बात हो रही है।

80 साल से अधिक उम्र के मतदातागण पोस्टल बैलेट के जरिए अपने घरों से ही मतदान कर रहे हैं।यह सुविधा किसी भी उम्र के दिव्यांगों को भी मिल रही है।

ऐसी सुविधा का लाभ बाद के चुनावों में देश भर के मतदाता उठाएंगे।

इससे बड़ी बात यह भी होगी कि मतदान का प्रतिशत थोड़ा बढ़ जाएगा।

यदि यह सुविधा अन्य आयु वर्ग के लोगों को भी मिलने लगे तो मतदान का प्रतिशत और भी बढ़ेगा।

 हां,इस संबंध में यहां एक सलाह दी जा 

सकती है।

दरअसल नगरों के उच्च वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के अनेक मतदातागण मतदान के दिन अपने घरों में आराम करते हैं।वे मतदान केंद्रों पर नहीं जाते।यदि उनसे कुछ शुल्क लेकर उनके लिए भी ऐसी सुविधा का प्रावधान हो जाए तो मतदान का प्रतिशत और बढे़गा। 

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भूली -बिसरी यादें

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पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 2 सितंबर 1977 को सुमित्रानंदन पंत को लिखा कि ‘‘श्री पी.डी.टंडन से यह सुनकर आश्चर्य हुआ कि आपने मुझे लिखा और मैंने उस पत्र का उत्तर नहीं दिया।

मेरी कोशिश हमेशा रही है कि प्रत्येक पत्र जो मुझ तक पहुंचे ,उसका जवाब स्वयं दूं।

फिर आप जैसे प्रसिद्ध उच्च कोटि के कवि की कैसे उपेक्षा करती ?

हार के बाद बहुत सारे पत्र और तार आये।

 उसी समय घर बदलना था और दफ्तर वाले सब चल दिये।

तो हो सकता है कि डाक में कुछ गड़बड़ी हो और आपका पत्र मेरे पास पहुंच न पाया हो।

   आपका स्नेह और सद्भावना भरा पत्र मेरे लिए विशेष ही मूल्यवान 

था।

आपका पत्र आप जैसे श्रेष्ठ कवियों के साथ काव्य शास्त्र विनोद में बीते हुए समय की भी याद दिलाता।

दुर्भाग्य की बात है ,पत्र खो गया।

शुभ कामनाओं के साथ इंदिरा गांधी।’’

इस पत्र को यहां पेश करने का उद्देश्य यह है कि लोग जानें कि एक शीर्ष साहित्यकार के बारे में एक शीर्ष नेत्री की कैसी राय थी।  

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और अंत में

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कर्नाटका के पूर्व मुख्य मंत्री जगदीश शेट्टार ने भाजपा क्यों छोड़ी ?

भाजपा से उनकी शिकायत रही कि पार्टी, लिंगायतों के बीच से दल के लिए नया काॅडर तैयार कर रही थी।

ऐसी शिकायत इस देश के अन्य राज्यों के अनेक नेताओं की भी अपने नेतृत्व से रही है।

ऐसे नेतागण दल को तालाब के पानी के रूप में देखते हैं।दूसरी ओर विकासशील दलों के नेता अपने दल को अविरल जल वाली नदी बनाना चाहते हैं।

याद रहे कि शेट्टार भाजपा के टिकट पर छह बार विधायक बने।

पर,इस बार जब भाजपा ने उन्हें टिकट से वंचित कर दिया तो शेट्टार ने कांग्रेस ज्वाइन कर ली।

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शुक्रवार, 5 मई 2023

 कर्नाटका में पी.एफ.आई.के राजनीतिक संगठन के 

साथ कांग्रेस का चुनावी तालमेल

ऐसा ही तालमेल सन 2018 के चुनाव में भी था

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सुरेंद्र किशोर

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अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जेहादी संगठन सिमी पर सन 2001 में प्रतिबंध लगा दिया था।

उसके बाद सिमी तथा कुछ अन्य अतिवादी संगठनों ने मिलकर पहले इंडियन मुजाहिद्दीन और बाद में पी.एफ.आई. बनाया।

नरेंद्र मोदी सरकार ने पी.एफ.आई.पर प्रतिबंध लगाया।

याद रहे कि पी.एफ.आई.ने सन 2047 तक हथियारों के बल पर भारत को इस्लामिक देश बना देने का लक्ष्य तय कर रखा है।उसके लिए वह लगातार काम भी कर रहा है।

पी.एफ.आई.का राजनीतिक संगठन है एस.डी.पी.आई.।

पी.एफ.आई.का महिला संगठन भी है।

सितंबर, 2017 में पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी केरल के कोझीकोड में आयोजित महिलाओं के एक सम्मेलन में शामिल हुए थे।

वह महिला संगठन पाॅपुलर फं्रट आॅफ इंडिया से संबद्ध है।

उस समय उस पर काफी विवाद हुआ था।

सिमी पर जब प्रतिबंध लगा तो सिमी ने सुप्रीम कोर्ट में प्रतिबंध हटाने के लिए याचिका दायर की।तब सिमी के वकील थे बड़े कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद।

यानी,सिमी-पी.एफ.आई.-एस.डी.पी.आई.से कांग्रेस का मधुर संबंध रहा है।

सन 2018 के कर्नाटका विधान सभा चुनाव में भी कांग्रेस ने एस.डी.पी.आई. से कुछ क्षेत्रों में चुनावी तालमेल किया था।

इस बार भी दोनों दलों में वैसा ही तालमेल है।

(अभी -अभी मैंने अपने इस वाॅल पर ‘टाइम्स नाऊ’ का एक आइटम शेयर किया है।उसे पढ़ लीजिएगा।देश को सुरक्षित रखना चाहते हों तो इन सब चिंताजनक विवरणों को जरूर पढ़िए।)  

याद रहे कि सब कुछ जानते हुए भी कांग्रेस ने न तो सिमी पर प्रतिबंध लगाया और न ही पी.एफ.आई. पर।

यह देश के लिए कितनी चिंता की बात है,वह आप समझिए।

कल्पना कीजिए कि कांग्रेस कर्नाटका में और बाद में केंद्र में सत्ता में आ जाए तो पी.एफ.आई. को काम करने में कितनी बड़ी सुविधा मिल जाएगी।

  पी.एफ.आई. को केरल की माकपा सरकार ने खुली छूट दे रखी है।

वहां के ईसाई पी.एफ.आई. की हिंसा और लव जेहाद से इतने परेशान हैं कि वे भाजपा में जा रहे हैं।क्योंकि माकपा सरकार से उन्हें सुरक्षा नहीं मिल रही है।

याद रहे कि सन 2008 में जब पाक आतंकवादियों ने मुम्बई के ताज होटल आदि पर हमला किया तो कुछ लोगों ने मनमोहन सरकार को सलाह दी थी कि वह पाकिस्तान पर सख्त कार्रवाई करे।

अपुष्ट खबर के अनुसार मनमोहन सरकार ने 

कहा था कि वैसा करने पर सन 2009 के आगामी लोक सभा चुनाव में हमें मुस्लिम वोट नहीं मिलेंगे।

2014 के लोक सभा चुनाव के बाद ए.के.एंटोनी कमेटी ने कहा था कि हम कांग्रेसी इसलिए भी हारे क्योंकि लोगों की यह धारणा बनी कि हमारी पार्टी का झुकाव मुसलमानों की ओर अधिक था।इसे लोगों ने अच्छा नहीं माना।


    कर्पूरी ठाकुर बनाम अरविंद केजरीवाल

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किसे किस रूप में याद करेगा इतिहास ?!

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     सुरेंद्र किशोर

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इन दिनों दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल के ‘‘45 करोड़ी शीश महल’’ की जोरदार चर्चा है।

  (वैसे इस मामले में केजरीवाल इस गरीब देश में अकेले नहीं हैं।

पर, उन्होंने हद जरूर कर दी है।

जिस देश के अनेक सरकारी अस्पतालों में डिटाॅल और रूई तक उपलब्ध नहीं हैं।

जहां के अनेक सरकारी स्कूलों में बच्चों के लिए शिक्षक,भवन, बेंच और ब्लैक बोर्ड नहीं है,वहां के अनेक सत्तधारी नेतागण मध्य युगीन ऐयाश राजाओं व बादशाहों की तरह व्यवहार करें तो यह लोकतंत्र कब तक चल पाएगा ?)

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इस पृष्ठभूमि में मुझे अविभाजित बिहार के मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर की याद आ गई।

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कर्पूरी जी जिस झोपड़ी में पैदा हुए,अपने बाल-बच्चों के लिए वही झोपड़ी छोड़ गए।

  समस्तीपुर जिले के पितौझिया गांव  

कर्पूरी जी के न रहने के बाद हेमवतीनन्दन बहुगुणा गए थे।

उस झोपड़ी को देखा तो बहुगुणा जी की आंखों में आंसू आ गए थे।

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अब कर्पूरी ठाकुर के कुत्र्ता फंड की कहानी भी पढ़ लीजिए

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सन 1977 में मुख्य मंत्री बनने के बाद की यह कहानी है।

  उससे पहले वे सन 1967 में उप मुख्य मंत्री और सन 1970 में मुख्य मंत्री रह चुके थे।

कर्पूरी जी 1952 से लगातार किसी न किसी सदन के सदस्य रहे।

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जयप्रकाश नारायण के पटना स्थित आवास पर जेपी का जन्म दिन मनाया जा रहा था।

उस अवसर पर देश भर के जनता पार्टी के बड़े -बड़े नेतागण जुटे थे।

   मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर भी वहां पहुंचे।

  उनका कुत्र्ता थोड़ा फटा हुआ था।

  चप्पल की स्थिति भी ठीक नहीं थी।

दाढ़ी बढ़ी हुई थी। 

और बाल बिखरे हुए थे ।

क्योंकि कंघी शायद ही वे फेरते थे।

  धोती थोड़ा ऊपर करके कर्पूरी जी पहनते थे।

यानी, देहाती दुनिया के सच्चे प्रतिनिधि।

कर्पूरी जी की ‘फटेहाली देख कर’ एक नेता ने कहा कि 

‘‘भई किसी मुख्य मंत्री के गुजारे के लिए उसे न्यूनत्तम कितनी तनख्वाह मिलनी चाहिए ?वह तनख्वाह कर्पूरी जी को मिल रही है या नहीं ?’’

   इस टिप्पणी के बाद जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्रशेखर उठ खडे़ हुए।

वे बड़े नाटकीय ढंग से अपने कुत्र्ते के अगले हिस्से के दो छोरों को दोनों हाथों ंसे पकड़कर खड़े हो गये।

  वे वहां उपस्थित नेताओं के सामने बारी -बारी से जा -जाकर वे कहने लगे,

  ‘‘आपलोग कर्पूरी जी के कुत्र्ता फंड में चंदा दीजिए।’’

 चंदा मिलने लगा।

कुछ सौ रुपये तुरंत एकत्र हो गये।

  उन रुपयों को चंद्रशेखर जी ने कर्पूरी जी के पास जाकर उन्हें समर्पित कर दिया और उनसे आग्रह किया कि आप इन पैसों से कुत्र्ता ही बनवाइएगा।

  कोई और काम मत कीजिएगा।

  कर्पूरी जी ने मुस्कराते हुए उसे स्वीकार कर लिया और कहा कि ‘‘इसे मैं मुख्य मंत्री रिलीफ फंड में जमा करा दूंगा।’’

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27 अप्रैल 23.