जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं,उन राज्यों की
साठ-सत्तर के दशकों की राजनीति कैसी थी ?
इस पर मुझे लिखना था तो तब की साप्ताहिक पत्रिका (दिनमान) मेरे काम आई।
1982 के बाद की घटनाओं के लिए ‘इंडिया टूडे’ मेरे काम आता है।
सन 1982 से पहले के अंक मेरे पास नहीं हैं।
इंडिया टूडे का प्रकाशन 1976 और दिनमान का प्रकाशन
1965 में शुरू हुआ था।
वैसे हिन्दी इंडिया टूडे, दिनमान का विकल्प नहीं बन सका।
शायद उसे बनना भी नहीं है।
कुल मिलाकर त्रुटिहीनता और संतुलन के मामले में ‘इंडिया टूडे’ लाजवाब है।
ये दो पत्रिकाएं मुझे तथ्यों की याद दिला देती है।
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ऐसा नहीं कि विदेश में छपने वाली पत्र-पत्रिकाएं त्रुटिहीन होती हैं।
हालांकि यहां के कई लोेगों के लिए वे वेद वाक्य हैं।
1964 में डा.लोहिया के बारे में टाइम मैगजिन ने जो गलती की थी कि वैसी गलती
भारत की कोई सामान्य पत्रिका भी संभवतः नहीं कर सकती।
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मैं ‘माया’ से लेकर ‘धर्मयुग’ तक के लिए लिखता था।
इन दो पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग से मेरे लेखों पर अक्सर सवाल पूछे जाते थे। चिट्ठियां आती थीं।
आपने यह लिख दिया,उससे आपका आशय स्पष्ट नहीं हो रहा है।
आपने यह लिख दिया,इसका आपके पास सबूत है क्या ?
मैं संतोषजनक जवाब देता था तभी छपता था।
ध्यान रहे कि तब डाक से चिट्ठियां आती-जाती थीं,क्योंकि तब तक टेलेक्स,टेलीप्रिंटर,फैक्स या ईमेल आदि का यहां प्रचलन नहीं था।
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अब आप ‘टाइम’ मैगजिन पर आइए।
उसका बड़ा नाम है।वह जोरदार रिपोर्टिंग करता रहा है।
पर,ऐसा नहीं है कि वह गलतियां नहीं करता।
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सन 1964 में अमरीकी साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ ने डा.राममनोहर लोहिया
के खिलाफ गलत व बिल्कुल निराधार खबर छाप दी थी।
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उस गलत खबर से खिन्न डा.लोहिया
ने ‘टाइम’ पर मानहानि का मुकदमा
दायर किया था।
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याद रहे कि फूल पुर लोक सभा उप चुनाव के संबंध में ‘टाइम’ ने निराधार खबर छापी थी।
‘टाइम’ ने अन्य बातों के अलावा यह भी लिख दिया था
कि ‘‘ डा.लोहिया नेहरू परिवार के आजीवन शत्रु हैं।’’
भारत की राजनीति के बारे में ‘टाइम’ की छिछली जानकारी का ही यह नतीजा था।
दरअसल समाजवादी नेता डा.लोहिया, जवाहरलाल नेहरू की नीतियों का विरोध करते थे न कि वे उनके आजीवन शत्रु थे।
एक बार डा.लोहिया ने अपने मित्रों से कहा था कि
‘‘यदि मैं बीमार पड़ूंगा तो मेरी सबसे अच्छी सेवा- शुश्रूषा जवाहरलाल नेहरू के घर में ही होगी।’’
आजादी के बाद एक बार डा.लोहिया जब दिल्ली जेल में थे,प्रधान मंत्री नेहरू ने अपने निजी सचिव एम.ओ. मथाई के जरिए उनके लिए आम भिजवाया था।
सन 1964 में नेहरू के निधन के बाद डा.लोहिया ने कहा था, ‘‘1947 से पहले के नेहरू को मेरा सलाम !’’
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नेहरू के निधन के बाद फूल पुर लोक सभा क्षेत्र के उप चुनाव में
डा.लोहिया कांग्रेस की उम्मीदवार विजयलक्ष्मी पंडित के खिलाफ चुनाव -प्रचार में गए थे।
‘टाइम’ के 4 दिसंबर, 1964 के अंक में लिखा गया कि
‘‘डा.लोहिया नेहरू परिवार के आजीवन शत्रु हैं।
इस कारण वे उप चुनाव में विजयलक्ष्मी पंडित के विरूद्व प्रचार करने गए थे।’’
पत्रिका ने यह भी लिख दिया कि
‘‘लोहिया ने मतदाताओं से कहा कि वे विजयलक्ष्मी पंडित की सुन्दरता के जाल में न फंसें।उनके अंदर केवल विष है।’’
‘टाइम’ के अनुसार डा.लोहिया ने मतदाताओं से कहा कि श्रीमती पंडित की युवावस्था जैसी सुन्दरता इसलिए कायम है क्योंकि उन्होंने यूरोप में प्लास्टिक शल्य चिकित्सा करायी है।
डा.लोहिया ने दिल्ली के सीनियर सब जज की अदालत में टाइम के संपादक,मुद्रक,प्रकाशक और नई दिल्ली स्थित संवाददाताओं के विरूद्व मानहानि का मुकदमा किया।
अदालत में प्रस्तुत अपने आवेदन पत्र में डा.लोहिया ने कहा कि टाइम में प्रकाशित उक्त सारी बातेें बिलकुल मनगढंत हैं और मुझे बदनाम करने के इरादे से इस तरह की कुरूचिपूर्ण बातें मुझ पर आरोपित की गई हंै।
डा.लोहिया ने कहा कि टाइम ऐसे दकियानूसी कट्टरपंथी तत्वों का मुखपत्र है, जिन्हें हमारी समतावादी और लोकतांत्रिक नीतियां पसंद नहीं हैं।
नई दिल्ली स्थित संवाददाताओं ने, जो उक्त समाचार भेजने के लिए जिम्मेदार हैं, मुझसे कभी भंेट तक नहीं की।
ये संवाददाता स्थानीय भाषा भी नहीं जानते।
इसलिए मेरे भाषण की उन्हें सीधी जानकारी भी नहीं हो सकती थी।
शत्रुता का आरोप का खंडन करते हुए डा.लोहिया ने कहा कि
कांग्रेसी शासन अथवा दिवंगत प्रधान मंत्री की जब भी मैंने आलोचना की है तो नीति और सिद्धांत के प्रश्नों पर ही।
किसी निजी द्वेष पर नहीं।
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उस मुकदमे का अंततः क्या हश्र हुआ ,मैं जान नहीं सका।
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याद रहे कि हाल के कोविड काल में ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने भारत में मृतकों की संख्या के बारे में निराधार खबर छापी थी जिसका भारत सरकार ने खंडन किया था।
भारत में कुल तीन लाख लोग मरे थे जबकि ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने लिखा कि 42 लाख लोग मरे।
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इस पृष्ठभूमि में मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि आज मैंने जिस लेख के लिए 1967 के दिनमान से तथ्य लिए हैं, वे गलत नहीं हो सकते।
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जिन पत्रकारों को सेवा निवृति के बाद भी प्रासंगिक व जनापयोगी बने
रहना हैं,उन्हें अपना निजी संदर्भालय अपने सेवाकाल में ही तैयार करते रहना चाहिए।संदर्भालय में भरसक त्रुटिहीन संदर्भ सामग्री रहे।
आज सटीक ओर त्रुटिहीन लेखन करने वाले फ्रीलांसर की कमी होती जा रही है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में दिक्कत यह है कि जब कोई पत्रकार लंबी तपस्या के बाद प्रौढ़ और ज्ञानी होता है तभी उसे रिटायर कर दिया जाता है।
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सुरेंद्र किशोर
27 नवंबर 23
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