मंगलवार, 30 मार्च 2021

    हेमंत शर्मा की नई पुस्तक ‘‘एकदा भारतवर्षे...’’

   भी उनकी पिछली पुस्तकों जैसी ही पठनीय

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     --सुरेंद्र किशोर--

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एक बार सुभाषचंद्र बोस रेल की प्रथम श्रेणी में 

यात्रा कर रहे थे।

 उनके सिवा उस डिब्बे में कोई नहीं था।

अचानक उसमें एक महिला चढ़ी।

जब गाड़ी चलने लगी, तब उस महिला ने अपना मायाजाल 

फैलाया।

  बोली, ‘‘तुम्हारे पास जो कुछ भी हो,

उसे दे दो।नहीं तो अगले स्टेशन पर चिल्लाकर तुम्हें बदनाम कर दूंगी।’’

  सुभाष बाबू चुप थे।

 चुप ही रह गए।

महिला ने कई बार अपनी बात दुहराई।

तब सुभाष बाबू ने संकेत में कहा कि ‘‘मैं गूंगा और बहरा हूं।

आप क्या कह रही हैं,मैं समझ नहीं पा रहा हूं।

  कृपया आप लिख कर दीजिए।’’

महिला ने तुरंत वही बात लिखकर दे दी।

अब एक लिखित दस्तावेज सुभाष बाबू के हाथ में था।

 उन्होंने हंसते हुए कहा कि अब जो आपकी इच्छा हो, करिए।

महिला गंभीर हुई।

उसे लगा कि उसने भयंकर भूल कर दी।

पर, अब वह क्या कर सकती थी ?

गिड़गिड़ाने लगी।

 और, क्षमा मांगने के सिवा उसके पास कोई रास्ता न रहा।

सुभाष बाबू ने उसे क्षमा कर दिया।

सुभाष बाबू के लिए यह एक क्षण का फैसला था।

इस एक क्षण में उन्होंने विवेक की नींव पर पैर रखकर पासा ही पलट दिया।

ऐसे क्षण हम सभी के जीवन में आते हैं।

तय हमें करना है-डर या विवेक ?

जीवन के राजमार्ग में बिना लड़खड़ाए चलते रहने के लिए यह फैसला बेहद जरूरी है।

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ऐसी ही कथाओं का संकलन है ‘‘एकदा भारतवर्षे..।’’

  इसके रचयिता व जनसत्ता में हमारे सहकर्मी हेमंत शर्मा

का नाम ऐसे लेखकों में शमिल हो गया है जिनकी लगभग सारी पुस्तकें पठनीय हैं।

हेमंत जी की अन्य पुस्तकें हैं-भारतेंदु समग्र(संपादन),युद्ध में अयोध्या,अयोध्या का चश्मदीद, कैलास -मानसरोवर की अंतर्यात्रा कराती पुस्तक ‘द्वितीयोनास्ति’ और ‘तमाशा मेरे आगे।’

  ‘एकदा भारतवर्षे....’ (प्रभात प्रकाशन) के बारे में प्रसून जोशी लिखते हैं-

‘‘ये कथाएं संस्कृति के कैप्सूल हैं।

हेमंत जी धरती से उगे हैं।

उनके लिए मिट्टी से जुड़ा सत्य बहुुत अर्थ रखता है।

एकदा भारतवर्षे की कहानियों पर असगर वजाहत की टिप्पणी है ‘‘इन कहानियांें का भावार्थ हमारे वत्र्तमान समय के साथ जुड़ा है।’’

 ध्यान चंद- हिटलर संवाद पढ़कर असगर वजाहत की टिप्पणी आपको माकूल लगेगी। 

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  हिटलर ने हाॅकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को बुलाकर कहा कि ,,

‘‘मैं तुम्हारे हाॅकी के खेल पर मुग्ध हूं।

मैं चाहता हूं कि तुम भारत छोड़कर जर्मनी आ जाओ।

मेजर ध्यानचंद ने हंसते हुए उत्तर दिया,‘‘श्रीमन् यह असंभव है।

जिस देश की मिट्टी से यह तन बना है,जहां का अन्न खाकर बड़ा हुआ हूं।

मेरी सांसों में जहां की वायु का प्रकम्पन है,मैं चाहूंगा ,अंत तक उसी देश की सेवा करूं।’’

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ध्यानचंद के बारे में यह सच्ची कहानी, जो इससे पहले भी कई बार कही जा चुकी है,इस देश की आज की स्थिति में सर्वाधिक मौजूं है ।

आज इसी देश के अनेक लोग इसी देश का अन्न खाकर  विदेशी इशारों पर इसे टुकडे़-टुकड़े करने का नारा लगाते रहते हैं।

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29 मार्च 21    


  


 

  


शुक्रवार, 26 मार्च 2021

 



रामानंद तिवारी के जन्म दिन के अवसर पर 

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पुलिस से पुलिस मंत्री बने थे स्वतंत्रता 

सेनानी रामानंद तिवारी

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--सुरेंद्र किशोर 

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स्वतंत्रता सेनानी व समाजवादी नेता दिवंगत रामानंद तिवारी पुलिस से पुलिस मंत्री तक बने थे।

   निधन से पहले वे लोक सभा (1977)के सदस्य भी चुने  गए थे।

  पर, अंगे्रजी का ज्ञान नहीं रहने के कारण वे केंद्र में मंत्री नहीं बन सके।

  समाजवादी नेता मधु लिमये के बारे में रामानंद तिवारी  यह कहा करते थे कि ‘अंगेजी हटाओ ’ का नारा देने वाली सोशलिस्ट पार्टी के नेता मधु लिमये द्वारा यह कहा जाना कि आप केंद्र में मंत्री इसलिए नहीं बन सकते क्योंकि आप अंग्रेजी नहीं जानते, शर्म की बात है।

   मधु लिमये ने यही कह कर उनके मंत्री बनने का विरोध कर दिया था।

  यानी, यदि उन्हें अंग्रेजी आती तो वे केंद्र में भी मंत्री बने होते।

  बिहार में तो वे दो -दो बार पुलिस मंत्री रहे।

    पर ये तिवारी जी थे कौन ?

 तिवारी जी का जन्म उन्हीं के शब्दों में ‘एक कंगाल द्विज’ के घर हुआ था।

  वे अविभाजित शाहाबाद जिले के मूल निवासी थे।

  उनके होश सम्भालने से पहले ही उन पर से पिता का साया उठ गया।

   उनकी मां ने किसी तरह उन्हें बड़ा किया।

   पहले तो तिवारी जी रोजी-रोटी की तलाश में कलकत्ता गये।

   पर उन्हें वहां काफी कष्ट उठाना पड़ा तो  वे लौट आये ।

   उन्हें हाॅकर, पानी पांड़े और ‘कूक’ के भी काम करने पड़े।

   वे पुलिस में भर्ती हो गये।

  सन् 1942 में महात्मा गांधी के आह्वान पर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये।

  उन्होंने अपने कुछ साथी सिपाहियों को संगठित किया और आजादी के सिपाहियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। 

  तिवारी जी गिरफ्तार कर लिये गये।

 हजारीबाग जेल भेज दिये गये।

   जेल में उनकी जयप्रकाश नारायण से भेंट हुई।

  जेपी से प्रभावित होने की घटना के बारे में तिवारी जी ने एक बार इन पंक्तियों के लेखक को बताया था। उन्होंने कहा कि दूसरे बड़े नेता जेल में अलग खाना बनवाते थे ।

   पर, जेपी जेल में अपने साथियों के साथ ही खाते और रहते थे।

  इसी बात ने तिवारी जी को जेपी की ओर मुखातिब किया ।

   वे भी समाजवादी बन गये।

  आजादी के बाद सन् 1952 के चुनाव में ही तिवारी जी शाह पुर से समाजवादी विधायक बन गये।

  वे लगातार  सन 1972 के प्रारंभ तक विधायक रहे।

  सन् 1972 में वे हार गये। सन् 1977 में वे बक्सर से 

जनता पाटी के सांसद बने । 

  इस बीच वे सन् 1967 में महामाया प्रसाद सिंहा सरकार और सन् 1970 में कर्पूरी ठाकुर सरकार में वे पुलिस मंत्री थे।

  पुलिस मंत्री के रूप में उन्होंने बिहार पुलिसमेंस असोसियेशन को मान्यता दिलवाई।

   ऐसी मान्यता देने वाला बिहार पहला राज्य बना।

  तिवारी ने पुलिसकर्मियों की दयनीय सेवा शत्र्तों की ओर पहली बार लोगों का ध्यान खींचा।

  उनके प्रयासों से आम  सिपाहियों की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ।

  पर अब भी सिपाहियों की हालत ठीक नहीं है।

  उनके काम के घंटे अधिक हैं।

 उनके लिए रहने की उचित व्यवस्था नहीं है ।

 और, डयूटी के समय उन्हें समुचित भोजन तक नहीं दिया जाता।

  कोई सरकार यदि सिपाहियों की सेवा शत्र्तें मानवीय बना दे तो वह तिवारी जी को श्रद्धांजलि होगी।

    वे आज के अधिकतर नेताओं से अलग थे।

  उनमें पद और पैसा के प्रति लोभ नहीं था।

  जिस तरह सन 1996 में ज्योति बसु को उनकी पार्टी ने प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया,उसी तरह सन 1970 में रामानंद तिवारी को उनकी पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने मुख्य मंत्री नहीं बनने दिया।

  यानी यूं कहें कि पार्टी के कुछ नेताओं ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि खुद तिवारी जी ने मुख्य मंत्री बनने से इनकार कर दिया।

   उनसे कहा गया कि वे ऐसी सरकार के मुख्य मंत्री कैसे बनेंगे जिस सरकार में जनसंघ शामिल रहेगा ? बिहार विधान सभा के सदस्यों  का बहुमत तिवारी जी को मुख्य मंत्री बनाने के लिए तैयार था।

  तिवारी जी को राज भवन जाकर सिर्फ मुख्य मंत्री पद की शपथ लेनी थी।

   यानी, बारात सज गई थी,पर दूल्हा भाग चला।

  कारण सैद्धांतिक था।

    क्या सैद्धांतिक कारण से कोई मुख्य मंत्री पद छोड़ता है ?

  तिवारी जी के मुख्य मंत्री नहीं बनने के कारण दारोगा प्रसाद राय मुख्य मंत्री बन गये।

  

  पर जनसंघ को लेकर वह  बहाना भी बोगस था।

   संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने सन् 1967 में उसी जनसंघ के साथ बिहार में भी सरकार बनाई थी।

  फिर जब दारोगा प्रसाद राय की सरकार गिर गई तो उसी जनसंघ के ही साथ मिलकर संसोपा के ही कर्पूरी ठाकुर ने सरकार बना ली।

   यानी जनसंघ का बहाना सिर्फ तिवारी जी को मुख्य मंत्री पद तक पहुंचने से रोकने के लिए था।

  हालांकि तिवारी जी भी जब कर्पूरी ठाकुर मंत्रिमंडल में शामिल हो गये तो अनेक लोगो ंको आश्चर्य हुआ।

   इसको लेकर तिवारी जी की आलोचना हुई।

  पर इस बात को लेकर उनकी तारीफ जरूर हुई कि भले ही कारण जो भी रहा हो ,पर रामानंद तिवारी ने पास आए मुख्य मंत्री पद को ठुकरा दिया।

  आज जब ऐसे नेता नहीं पाये जाते तो यह सब देख कर तिवारी जी की याद आती है।

   रामानंद तिवारी के बारे में बिहार के पूर्व डी.जी.पी.,आर.आर.प्रसाद ने लिखा है,

  ‘फौज की नौकरी के बाद जब मैं बिहार काॅडर में आया तो मेरी उनसे फिर मुलाकात पटना में हुई।

  तब वे पुलिस मंत्री थे।

  मुझे याद है,उन्होंने कहा था,‘जो आदमी बेजुबान घरेलू पशु नहीं रखता है,वह पुलिस विभाग में अच्छा अफसर नहीं हो सकता है।

  क्योंकि यहां आरक्षी बेजुबान होता है।’

उन्होंने यह भी बताया था कि ब्रिटिश शासन के दौरान जिस पुलिस अफसर ने उन्हें सेवामुक्त किया था, उसे आज भी देख कर वे खड़े हो जाते हैं और उनकी इज्जत करते हैं।’

    ‘तिवारी जी ने कहा था कि  सामान्यतः पदाधिकारी आरक्षियों से ऐसा काम करवाते हैं जिनसे उनकी मान मर्यादा को ठेस पहुंचती है।

तिवारी जी यह भी कहते थे कि जो खतरा फौज में है,उससे अधिक खतरा पुलिस में है।

  क्योंकि फौज में तो पता होता है कि दुश्मन किधर है,पर पुलिस को नहीं मालूम कि किस गली में दुश्मन है।पुलिस को तो रोज ही जंग लड़नी पड़ती है।’

      तिवारी जी से संबंधित एक प्रकरण मुझे भी याद  है।

  सत्तर के दशक की बात है।

 पटना के आर.ब्लाॅक स्थित उनके आवास के बरामदे में समाजवादी  विधायक वीर सिंह बैठे थे।

  मैं भी वहां था।

  वीर सिंह एक खास आग्रह लेकर तिवारी जी के पास आये थे।

 वे चाहते थे कि रोगी महतो हत्याकांड के मुकदमे को तिवारी जी समाप्त करा दें।

  दरअसल साठ के दशक में चम्पारण के चनपटिया के एक बड़े व्यापारी के फार्म हाउस की जमीन पर तिवारी जी के नेतृृृृृृृत्व  में भूमि आंदोलन हुआ था।

  वह आंदोलन सच्चा था।

 समाजवादियों की मांग थी कि भूमिपतियों की जमीन गरीबों में बंटे।

  तिवारी जी उस जमीन पर जबरन हल चला रहे थे। उनके साथ कुछ अन्य कार्यकत्र्ता और गरीब लोग थे।

  भूमिपति के लठैतों ने हमला करके तिवारी जी को भी बुरी तरह घायल कर दिया।

  उस हमले में रोगी महतो नामक एक कार्यकत्र्ता की मौत हो गई।

  तिवारी को तब कई महीने तक अस्पताल में रहना पड़ा था।उसी केस को रफादफा करने के लिए वीर सिंह तिवारी जी के पास आये थे।

  अभियुक्त व्यापारी बहुत ही अधिक पैसे वाला था।वीर सिंह की बात सुन कर तिवारी जी सबके सामने रोने लगे।

   उन्होंने वीर सिंह से साफ -साफ कह दिया,

  ‘तुमको उस व्यापारी से मिल जाना है तो मिल जाओ।

पर मैं मरते दम तक शहीद रोगी महतो की लाश पर समझौता नहीं कर सकता।’

 तिवारी जी उस समय विधायक नहीं थे।उनके दल के विधायक राम बहादुर सिंह के नाम पर आवंटित सरकारी मकान में वे रहते थे।

 तिवारी जी गाय पालते थे।उसके दूध में से कुछ दूध वे बगल के मकान में रह रहे विधान पार्षद कुमार झा को बेचते थे। तिवारी जी के घर के खर्चे को उठाने में उस दूध से मिले पैसे का भी योगदान था।

  वैसी स्थिति में आज का कोई नेता क्या वही बात कहता जो बात तिवारी जी ने वीर सिंह से कही ?

  अनुमान लगा लीजिए कि वह मशहूर व्यापारी हत्या के एक मुकदमे से बचने के लिए कितनी बड़ी राशि खर्च कर सकता था।

 आजादी के बाद के वर्षों में मशहूर समाजवादी नेता  कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच संबंध ठीकठाक ही था।

 पर बाद के वर्षों में बिगड़ गया।बिहार के इन दो दिग्गज समाजवादी नेताओं के बीच के पत्र व्यवहार को पढ़ना अपने आप में एक अनुभव है।

  तिवारी जी का  वह पत्र 14 जनवरी 1973 के दिनमान में छपा था।

 उसमें रामानंद तिवारी ने कर्पूरी ठाकुर को लिखा कि ‘मैं कभी सामंत नहीं रहा।परंतु एक कंगाल द्विज के घर मंे जन्म अवश्य लिया है जिसमें न मेरा कसूर है और न किसी और का।

  क्योंकि इस देश में जब तक वर्ण व्यवस्था रहेगी, तब तक हर कोई किसी न किसी जाति में पैदा होता रहेगा।

  परंतु मुझ कंगाल द्विज पर यह यह आक्रोश और द्वेष क्यों ?

   मैं जब से समाजवादी आंदोलन में आया,तब से मैंने यज्ञोपवीत निकाल दिया,चोटी काट दी।

  अपने छोटे बेटे का यज्ञोपवीत नहीं किया।

  परंपरा थी कि ब्राह्मण हल नहीं चलाता।

  मगर मैंने उस परंपरा को तोड़ कर हजारों लोगेां के सामने हल चलाकर अपने को शूद्र की श्रेणी में लाने का प्रयास किया।

  सारी द्विजवादी परंपराओं को छोड़ने के बाद भी यदि मेरे ऊपर द्विजवाद का आरोप लगाया जाये तो मैं क्या कर सकता हूं ?

  रामानंद तिवारी के उस पत्र से उनके व्यक्तित्व की एक महत्वपूर्ण तस्वीर सामने आती है।

  इस पत्र से उस कशमकश का भी पता चलता है जो लोहियावादी समाजवादी आंदोलन में सवर्ण नेताओं और कार्यकत्र्ताओं के मन में था।

 यहां कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच के विवाद पर कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है।

  उस विवाद पर अलग से चर्चा हो सकती है।

 पर उस कशमकश की चर्चा प्रासंगिक है जो तिवारी जी जैसे जन्मना द्विज समाजवादियों के मन में था।

  इससे  उपजी पीड़ा की भी कल्पना की जा सकती है।

  इस तरह पीड़ित समाजवादी कार्यकत्र्ताओं को तो कांग्रेस में कोई सम्मानपूर्ण स्थान  भले नहीं मिलता,पर रामानंद तिवारी चाहते तो उन्हें कोई बड़ी जगह आसानी से मिल सकती थी।

  पर वे अपने विचारों की खातिर अपने जीवन की अंतिम बेला तक लड़ते-झगड़ते समाजवादियों के साथ ही रहे।

  वैसी परिस्थिति में आज का कोई पदलोभी नेता होता तो क्या करता,इस सवाल का जवाब  कठिन नहीं है। 

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    जार्ज फर्नांडिस के नाम पर कोई 

   ढंग का स्मारक क्यों नहीं ?

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      --सुरेंद्र किशोर--

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 भाजपा के राज्य सभा सदस्य व पूर्व केंद्रीय मंत्री

सुरेश प्रभु ने जार्ज फर्नांडिस के नाम पर किसी हवाई अड्डे का नामकरण करने की केंद्र सरकार से मंाग की है।

   पूर्व नागरिक उड्डयन मंत्री श्री प्रभु ने इस संबंध में मौजूदा नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप सिंह पुरी को चिट्ठी लिखी है।

  पता नहीं, इस पर केंद्र सरकार क्या फैसला करेगी !

पर, मेरा मानना है कि जार्ज जैसे नेता की स्मृति को बनाए रखना राजनीति की नई पीढ़ी के लिए और भी जरूरी है।

 हर व्यक्ति में कुछ कमियां हैं तो कुछ खूबियां भी ।

जिनमें अधिक खूबियां होती हैं,उन्हें हम अधिक याद करते हैं।

जार्ज के साथ मैंने वर्षों तक काम किया है।

मैं उनकी खूबियों को भी जानता हूं और कमियांे को भी।

उनमें कमियां नगण्य थीं।

इमर्जेंसी में जार्ज ने जिस तरह अपनी जान हथेली पर लेकर एक तानाशाह व निरंकुश शासक का मुकाबला किया,वह अतुलनीय है।

 जार्ज में जातीय-सांप्रदायिक-क्षेत्रीय भावना नहीं थी। 

जार्ज ने न तो अपने लिए कहीं कोई घर बनाया और न कोई संपत्ति एकत्र की।

जो भी आरोप उन पर लगा,उसमें वे सुप्रीम कोर्ट से निर्दोष 

करार दे दिए गए थे। 

  उन्होंने एक-दो राजनीतिक गलतियां जरूर कीं,पर वैसी गलतियां तो अधिकतर नेता करते रहे हैं।

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जार्ज फर्नांडिस की प्रामाणिक जीवनी हाल में आई है।

पर वह मराठी में है।

लेखक हैं मशहूर मराठी पत्रकार नीलू दामले।

 हिन्दी संस्करण भी आने की उम्मीद है।

जार्ज को अधिकतर लोग टुकड़ों में जानते हैं।

जीवनी हिन्दी में आ गई तो उससे हिन्दी भारत को भी जार्ज के संपूर्ण व्यक्तित्व -कृतित्व से परिचय हो जाएगा।

मजदूर आंदोलन में जार्ज की भूमिका बेहद सराहनीय रही ।

ऐस नेता का कोई ढंग का स्मारक न हो जिसने देश को दिया बहुत अधिक व लिया बहुत कम,तो इस पीढ़ी के नेताओं के लिए भी यह कोई अच्छी बात नहीं।

जबकि दूसरी ओर देश को सपरिवार लूटने वाले अनेक नेताओं के स्मारक जहां -तहां दिखाई पड़ते हैं।

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 21 मार्च 21


मंगलवार, 23 मार्च 2021

 डा.राममनोहर लोहिया के जन्म दिन (23 मार्च) पर

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   लोहिया के सपने और 

   आज की हकीकत

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  --सुरेंद्र किशोर--

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स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी चिंतक डा.राममनोहर लोहिया की कल्पना में आजाद भारत का स्वरूप कैसा था ?

1.- बंबई के मजदूर 12 हजार रुपए चंदा करके लोहिया के इलाज के लिए समय पर दिल्ली नहीं भेज सके।

यह 1967 की बात है।

तब लोहिया लोक सभा के सदस्य थे।

डा.लोहिया जर्मनी में अपने प्रोस्टेट का आॅपरेशन करवाना चाहते थे।

पैसे के अभाव में डा.लोहिया को नई दिल्ली के ही वेलिंगटन अस्पताल में ही आॅपरेशन कराना पड़ा।

सही इलाज नहीं होने के कारण लोहिया की मौत हो गई।

तब बिहार सहित कई राज्यों में लोहिया की पार्टी के नेता सरकार में शामिल थे।

किंतु लोहिया नहीं चाहते थे कि उन राज्यों से चंदा आए।

क्योंकि उससे हमारी सरकार की बदनामी हो सकती है।

सांसद रहने के बावजूद लोहिया के पास निजी कार नहीं थी।

कार न खरीदने व मेंटेन करने के संबंध में लोहिया का तर्क यह था कि ‘‘सांसद के रूप में उतनी आय मेरी नहीं है।’’ 

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लोहिया की चाह और आज की स्थिति--

स्वतंत्र भारत में महाराष्ट्र सरकार का एक मंत्री चाहता है कि उसके व उसके नेता के लिए वहां की पुलिस हर महीने 100 करोड़ रुपए की उगाही करे।

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2.-डा.लोहिया ने अपना कोई परिवार नहीं बसाया।

न ही घर बनाया।

वे चाहते थे कि राजनीतिक जीवन में जो आना चाहते हैं उन्हें अपना परिवार नहीं खड़ा करना चाहिए।

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आज की स्थिति 

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कल तेलांगना से एक शर्मनाक खबर आई।

उसे पढ़कर एक क्षण लगा कि हम आज भी राजतंत्र में ही जी रहे हैं।

खबर है कि वहां के मुख्य मंत्री चाहते हैं कि वे अपने पुत्र को 

उसके अगले जन्म दिन के अवसर पर अपना मुख्य मंत्री पद उपहार के रूप में दे दें।

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3.-डा.लोहिया राजनीति में वंशवाद के सख्त खिलाफ थे।

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आज की स्थिति

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भाजपा,जदयू और कम्युनिस्टों दलों जैसे थोड़ से दलों को छोड़कर लगभग सभी राजनीतिक दल बेशर्म ढंग से वंशवादी -परिवारवादी हो चुके हंै।

  यानी, परिवार के बिना उन दलों की कल्पना ही नहीं हो सकती।

अपवादों को छोड़कर जो दल वंशवादी -परिवारवादी हैं,उन पर भ्रष्टाचार के भी गंभीर आरोप हैं।

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4.-डा.लोहिया ने ‘जाति तोड़ो’ का नारा दिया था।

पिछड़ी जातियों के साथ-साथ वे अगली जातियों की महिलाओं को भी पिछड़ा ही मानते थे।

उनके लिए भी वे विशेष अवसर की जरूरत बताते थे।

डा.लोहिया के लगभग सारे निजी सचिव ब्राह्मण ही थे।

यानी, ऊंची जाति में उनके प्रति द्वेष नहीं था,सिर्फ नेहरू भक्तों को छोड़कर।

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आज क्या हो रहा है ?

देश भर में वोट के मुख्य आधार जातीय व सांप्रदायिक हैं।

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5-लोहिया सांप्रदायिक मामलों में संतुलित विचार रखते थे।

दोनों समुदायों के बीच के अतिवादियों के वे खिलाफ थे।

डा.लोहिया समान नागरिक कानून के पक्षधर थे।

 तब अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि मुझे लोहियावादी मुसलमानों से मिलकर-बातकर करके बहुत खुशी होती है।

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पर आज क्या हो रहा है ?

आज लोहिया के नाम पर राजनीति करने वाले अधिकतर दल व लगभग सारे तथाकथित सेक्युलर दल व बुद्धिजीवीगण संघ परिवार की तो बात-बात में आलोचना करते हैं, किंतु दूसरी ओर वे उन अतिवादी मुस्लिम संगठनों को भी भरपूर बढ़ावा-समर्थन देते हैं,उनसे राजनीतिक तालमेल करते हैं जो सरेआम यह घोषणा करते हैं कि हम इस देश में हथियारों के बल पर इस्लामिक शासन कायम करना चाहते हैं।

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आदि आदि .............

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--23 मार्च 21


सोमवार, 22 मार्च 2021

 जैसा बोओगे,वैसा ही तो काटोगे !!!

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--सुरेंद्र किशोर--

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2 अप्रैल 1975

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कलकत्ता में जयप्रकाश नारायण पर चप्पल और पत्थरों की वर्षा होती रही।

कुछ हुड़दंगी जेपी की कार के ऊपर चढ़कर

उछल कूद मचाते रहे।

फिर भी बंगाल पुलिस मूक दर्शक बनी रही।

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16 अगस्त, 1990

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वाम मोर्चे के गुंडों ने ममता बनर्जी को इतना मारा कि उनके सिर में 16 टांके लगाने पड़े थे।

उस घटनास्थल पर भी बंगाल पुलिस मूक दर्शक बनी रही।

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2018-पंचायत चुनाव

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पश्चिम बंगाल में ग्राम पंचायतों के कुल 58,692 पदों में से 20,159 पदों के चुनाव के लिए किसी भी प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार को नामांकन पत्र भरने नहीं दिया गया।

तब बंगाल पुलिस ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ‘वंंिचत’ हो रहे उन उम्मीदवारों की कोई मदद नहीं की।

मूक दर्शक बनी रही।

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10 दिसंबर 2020

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भाजपा अध्यक्ष जे.पी नड्डा पर बंगाल में तृणमूल के बाहुबली हमलावर  करते रहे और बंगाल पुलिस मूक दर्शक बनी रही।

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बंगाल पुलिस के ऐसे ही ‘रिकार्ड’ को देखते हुए चुनाव आयोग ने निदेश दिया है कि मौजूदा विधान सभा चुनाव के दौरान बंगाल पुलिस कर्मी मतदान केंद्रों के सौ मीटर के दायरे में प्रवेश नहीं करेंगे।

इस निदेश पर तृणमूल कांग्रेस परेशान है।

परेशान होने से क्या होगा ?

विधान सभा चुनाव, पंचायत चुनाव तो है नहीं।

‘‘जैसा बोओगे, वैसा ही तो काटोगे !!!’’

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21 मार्च, 21


रविवार, 21 मार्च 2021

 



जैविक खेती के विस्तार के बिना न मिट्टी बचेगी,न मानवता !

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--सुरेंद्र किशोर--

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एक बड़ी खुश खबरी है।

सरकारी मदद से इस देश में जैविक खेती का विस्तार हो रहा है।जैविक उत्पाद की मांग भी बढ़ रही है।

 मांग इसी तरह बढ़ती गई तो जैविक उत्पादों की कीमतेें भी धीरे -धीरे घटेंगी।

यदि रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल 

धीरे- धीरे समाप्त नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब यहां की मिट्टी खेती लायक नहीं रह जाएगी।

दूसरी ओर, जानकार लोग बताते हैं कि कैंसर मरीजों की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि अस्पतालों के लिए उन मरीजों को संभालना असंभव हो जाएगा।  

पंजाब में उसके लक्षण अधिक दिखाई पड़ रहे हैं।

 जैविक खेती के मामले में देश के कुछ राज्य अच्छा कर रहे हैं।बिहार को इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना है।

जैविक खेती को तेज गति से और अधिक बढ़ाने में बिहार सरकार की भूमिका अपेक्षित है।

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   पंजाब से सबक लेने की जरूरत

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 अधिक उपज के लोभ में पंजाब के किसान आम तौर पर अपने खेतों में प्रति हेक्टेयर 923 ग्राम रासायनिक कीटनाशक दवाएं डालते हैं।

जबकि राष्ट्रीय औसत 570 ग्राम है।

वहां काफी अधिक रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल के कारण भूजल दूषित होता जा रहा है।पानी में आर्सेनिक बढ़ रहा है।

खेती के लिए भूजल का अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है।

इस कारण भूजल के साथ जमीन के भीतर से लवण भी ऊपर आकर खेती योग्य मिट्टी को अनुर्वर बना रहा है।

जल में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ने से पंजाब में कैंसर मरीजों की संख्या बढ़ रही है।

पंजाब के आंदोलनरत किसानों यानी आढ़तियों-मंडियों के बिचैलियों के लिए ये कोई समस्या नहीं हैं।उन्हें सिर्फ येन केन प्रकारेण अधिक उपज चाहिए ताकि अधिक मुनाफा हो सके।

 बिहार के गंगा तटीय इलाकों में भी इसी कारणवश जल जहरीला हो रहा है। 

  पंजाब की समस्या को देखते हुए कम से कम हम तो आने वाली विपत्ति से बचाव कर ही सकते हैं।

बिहार में अभी बेहतर स्थिति है।क्योंकि रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल के मामले में हम पंजाब से बहुत पीछे हैं।

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   विधायिकाओं में मार्शल की उपयोगिता !

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संसद सहित इस देश की विधायिकाओं में कुछ दशक पहले तक यदाकदा मार्शल का उपयोग हुआ करता था।

हालांकि विधायिकाओं में आज की अपेक्षा तब अधिक शालीन व शिक्षित लोग चुनकर जाते थे।

तब हंगामा करने वाले कम ही सदस्य होते थे।

  किंतु आश्चर्य है कि जब संसद और अनेक विधान मंडलों में शोरगुल,हंगामा और अशालीनता बढ़ने लगी तौभी अब शायद ही कहीं मार्शल का उपयोग होता है !

आखिर मार्शल की बहाली व उनकी मौजूदगी का उद्देश्य और औचित्य क्या है !!

यह तो वैसा हुआ कि लोकतंत्र के संतरियों की मौजूदगी में ही रोज-रोज लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की रोज-रोज हत्या होती रहे।

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भूली बिसरी याद

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 सन 1997 में लोक सभा के भीतर ही बिहार के दो बाहुबली सांसदों ने आपस में हाथापाई कर ली थी।

ऐसी अभूतपूर्व व शर्मनाक घटना को सभी दलों के शीर्ष नेतृत्व ने गंभीरता से लिया।

संसद के दोनों सदनों ने करीब एक हफ्ते तक इस पर गंभीर चर्चा की।

अंत में सर्वसम्मत प्रस्ताव पास करके यह संकल्प किया गया कि हम इन बुराइयों से लड़ने के लिए काम करेंगे।

  पर,इस संकल्प को बाद में भुला दिया गया।

आज तो संसद और अधिकतर विधान सभाओं को आए दिन ‘हंगामा सभा’ में परिणत कर दिया जाता है।

बिहार भी उसका अपवाद नहीं है।

हंगामों के कारण नई पीढ़ी के दिल -ओ -दिमाग पर हमारे लोकतंत्र और उन नेताओं की कैसी छवि बनती है जो हंगामा -शेरगुल व अशिष्ट व्यवहार के लिए जाने जाते हैं ?

हालांकि अब भी कई जन प्रतिनिधि मौजूद हैं जो कभी सदन के ‘‘वेल’’ में नहीं जाते।

आज इस देश की विधायिकाओं में जो कुछ हो रहा है,उसे देखते हुए हंगामा शब्द बहुत हल्का पड़ता है।

पता नहीं कौन ‘‘स्टेट्समैन’’ इस स्थिति को कब 

बदल पाएगा ?नेता तो बदलने से रहे। 

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और अंत में

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सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत पहले फेज में 703 सांसदों ने (जिनमें लोक सभा व राज्य सभा के सदस्य शामिल थे) गांव विकास के लिए गोद लिए थे।

 अगले फेज यानी 2016-18 में

 गोद लिए गए गांवों की संख्या घटकर 547 हो गई।

तीसरे फेज में यह संख्या और भी घट गई।

सवाल है कि यह संख्या घट क्यों रही है ?

दरअसल इस योजना के लिए अलग से फंड का प्रावधान नहीं किया गया है।

 केंद्र सरकार जनता के कल्याण व विकास के लिए देश में करीब सवा सौ योजनाएं चलाती हैं।

जाहिर है कि इनमें से अनेक योजनाएं गांवों से संबंधित हैं।

 नरेंद्र मोदी सरकार ने कल्पना की थी कि उन्हीं योजनाओं के तहत गांवों का विकास किया जाए।

उस विकास की देखरेख खुद सांसद करें।

  पर, अपवादों को छोड़कर सांसद आदर्श ग्राम योजना लगभग विफल रही।

क्योंकि उन 125 योजनाओं में से अधिकतर योजनाओं के क्रियान्वयन का हाल भी असंतोषजनक रहा है।

 तो फिर चाहे आप आदर्श शब्द जोड़ दें किंतु नतीजा तो लगभग निराशाजनक ही रहेगा ।

केंद्र सरकार को चाहिए कि वह अपनी 125 योजनाओं के क्रियान्वयन की सफलता की जांच निष्पक्ष एजेंसी से पहले कराए।

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 कानोंकान-प्रभात खबर

19 मार्च 21  


शनिवार, 20 मार्च 2021

 पश्चिम बंगाल में राजनीतिक 

हिंसा की दशकों पुरानी परंपरा

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 क्या 1975 में जेपी पर हमलावर हुई 

भीड़ में ममता बनर्जी भी शामिल थीं ?

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जेपी ने तब कहा था कि ‘मेरी हत्या भी हो सकती थी।’

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   --सुरेंद्र किशोर--

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  16 अगस्त, 1990 को ममता बनर्जी पर वाम मोर्चा के गुंडों ने निर्मम प्रहार किए थे।

ममता के सिर में 16 टांके लगे थे।लंबे समय तक वह अस्पताल में थीं।

  उस हमले के मुख्य आरोपी लालू आलम तब वाम दल में था।

ममता जब सत्ता में आईं तो लालू आलम तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गया।

वाम दल में शामिल होने से पहले लालू आलम कांग्रेस में था।

लालू आलम तो एक प्रतीक है।

जो -जो जब -जब सत्ता में रहे अनेक लालू आलम बारी -बारी से उनके साथ होते गए।

  इस तरह सत्ता के साथ-साथ हिंसा के राक्षस भी एक जगह से दूसरी जगह सफर करते चले गए।

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नक्सलियों का नारा था ‘सत्ता बंदूक की नाल से निकलती है।’

उनका यह भी नारा भी था कि --

‘‘चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन।’’

  1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से जो नक्सली हिंसा शुरू हुई,वह जल्द ही बुद्धिजीवियों के पश्चिम बंगाल को अपने आगोश में ले लिया।

  तब कांग्रेसी नेता सिद्धार्थ शंकर राय मुख्य मंत्री थे।

उन्होंने नक्सलियों के दमन के लिए पुलिस के अलावा कांग्रेस के युवा लोगों तथा अन्य बाहुबली तत्वों को आगे किया।

 1975 के अप्रैल में जयप्रकाश नारायण का कलकत्ता में कार्यक्रम था।  

बिहार में जारी जेपी आंदोलन से प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी भी चिंतित व क्षुब्ध थीं।

  कहा जाता है कि इंदिरा के सलाहकार सिद्धार्थ के प्रदेश से जेपी सुरक्षित लौट आते तो कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को संभवतः अच्छा नहीं लगता।

हांलाकि जेपी ने जब 6 मार्च 1975 में को नई दिल्ली में जुलूस निकाला तो इंदिरा सरकार ने उनकी सुरक्षा का पक्का प्रबंध किया था।

  पर, 2 अप्रैल 1975 के कलकत्ता दौरे के समय जेपी के साथ अभूतपूर्व दुव्र्यवहार हुआ।

दुव्र्यवहार कांग्रेस के लोगों ने किया।पुलिस तब भी मूकदर्शक थी।

जिस कार में जेपी बैठे थे,उसके ऊपर चढ़कर एक लड़की ने काफी उछलकूद मचाई थी।

तब खबर आई थी कि वह लड़की ममता बनर्जी ही थीं।

पर, उसकी पुष्टि नहीं हो सकी।

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जेपी के साथ कलकत्ता में जंगली व्यवहार को लेकर पटना के तब के सबसेे बड़े अखबार ‘आर्यावर्त’ ने कड़ा संपादकीय लिखा था।

  आर्यावर्त कोई जेपी या उनके आंदोलन का समर्थक अखबार नहीं था।

  वह तो जेपी और इंदिरा के बीच सुलह का पक्षधर था।

पर जेपी पर हमले को लेकर दैनिक ‘आर्यावर्त’ ने जो कुछ लिखा ,उससे यह भी पता चला के पश्चिम बंगाल में किस तरह का जंगल राज था।

और उसके लिए कौन -कौन लोग जिम्मेदार थे।

  कानून -व्यवस्था के मामले में आज पश्चिम बंगाल की जो स्थिति है,वैसे में तो आर्यावर्त और भी कड़ा संपादकीय लिखता,यदि उसका प्रकाशन जारी रहता।

  याद रहे कि दरभंगा महाराज के अखबार आर्यावर्त का प्रकाशन बहुत पहले ही बंद हो चुका है।

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आर्यावर्त के तब के

संपादकीय का शीर्षक ही था-

 ‘‘दुर्भाग्यपूर्ण’’

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यहां पेश है उसका संक्षिप्त अंश--

‘‘कलकत्ता यूनिवर्सिटी इंस्टिच्यूट में गत 2 अप्रैल को श्री जयप्रकाश नारायण के प्रति जिस प्रकार का दुव्र्यवहार किया गया उसे हम दुर्भाग्यपूर्ण मानते हैं।

  श्री जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से किसी को विरोध हो सकता है।

  और,लोकतांत्रिक मर्यादा के भीतर रहकर यदि उनके विरूद्ध प्रदर्शन किया जाए तो उसे हम बुरा नहीं कहेंगे।

किंतु विरोध यदि हिंसात्मक रूप ले ले तो फिर उसे दुर्भाग्पूर्ण ही तो कहेंगे ?

    कहते हैं कि श्री जयप्रकाश नारायण जिस गाड़ी से इंस्टिच्यूट वाली सभा में भाषण करने जा रहे थे,वह गाड़ी गेट के भीतर जाने नहीं दी गई।

  श्री नारायण गाड़ी में बैठे रहे और (उन पर )चप्पलों और पत्थरों की वर्षा होती रही।

  कुछ लोग उनकी गाड़ी के ऊपर भी चढ़ गए थे और उछल -कूद मचा रहे थे।

  इस हुल्लड़बाजी में अनेक आदमी पीटे गए।

पत्थरों की चोट से बुरी तरह घायल हो गए।

 जयप्रकाश बाबू ने कहा है कि उनकी हत्या की जा सकती थी।

  वहां की स्थिति का ध्यान रखकर उनका (जेपी) का ऐसा कहना गलत नहीं मालूम होता।

  यह काम जिन लोगों का भी हो उन्होंने अपने दल और पश्चिम बंगाल का नाम ऊंचा नहीं किया है।

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...........................................।’’ 

20 मार्च, 21


    

 

 


शुक्रवार, 19 मार्च 2021

 क्या 2021 की ममता बनर्जी को कभी सन् 

2005 की ममता बनर्जी की याद आती है ?!!

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उन्हें तो नहीं आती,

किंतु संकेत हैं कि मतदाता उन्हें 

इस बार याद दिला दंेगे !

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--सुरेंद्र किशोर--

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4 अगस्त, 2005 को ममता बनर्जी ने लोक सभा के स्पीकर के 

टेबल पर कागज का 

पुलिंदा फेंका।

उसमें अवैध बंगला

देशी घुसपैठियों को मतदाता बनाए जाने के सबूत थे।

उनके नाम गैरकानूनी तरीके से मतदाता सूची में 

शामिल करा दिए गए थे।

ममता ने कहा कि घुसपैठ की समस्या राज्य में महा विपत्ति बन चुकी है।

इन घुसपैठियों के वोट का लाभ वाम मोर्चा उठा रहा है।

उन्होंने  उस पर सदन में चर्चा की मांग की।

चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता

 से इस्तीफा भी दे दिया था।

 चूंकि एक प्रारूप में विधिवत तरीके से इस्तीफा तैयार नहीं था,

इसलिए उसे मंजूर नहीं किया गया।

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दृश्य -2

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जब घुसपैठियों के वोट ममता 

बनर्जी को मिलने लगे तो कल की 

महा विपत्ति उनके लिए

महा संपत्ति बन गई।

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3 मार्च 2020

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पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि 

जो भी बंगला देश से यहां आए हैं,बंगाल में रह रहे हैं ,

चुनाव में वोट देते रहे हैं, वे सभी भारतीय नागरिक हैं।

इससे पहले सीएए,एनपीआर और एन आर सी के विरोध में 

ममता ने कहा कि इसे लागू करने पर गृह युद्ध हो जाएगा । 

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दृश्य-3

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मतदाताओं का बदला रुख देखकर ममता बनर्जी कहने लगी हैं कि 

मेरी गिरफ्तारी हो सकती है।(-द हिन्दू-22 फरवरी 21)

मेरी हत्या कराई जा सकती है।

चुनाव में धांधली कराई जाएगी।

आदि आदि........

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किसी नेता के ऐसे बयान तभी आते हैं जब पराजय की आशंका हो।

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वैसे मैं पक्के तौर पर यह नहीं जानता कि पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में कौन जीतेगा और कौन हारेगा।

पर लगता है कि मतदताओं का एक बड़ा हिस्सा चाहता है कि ममता दीदी घुसपैठियों के बारे में 2005 में जो कुछ चाहती थीं,उनकी वही इच्छा अब पूरी हो जाए।

  क्योंकि यदि उनकी आज की इच्छा पूरी हुई तो बंगाल के एक और कश्मीर बन जाने का खतरा सामने है !

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-19 मार्च 21


गुरुवार, 18 मार्च 2021

 अपराध नियंत्रित करने के नाम पर मुंबई पुलिस में वर्षों से जो विशेष क्राइम यूनिट्स काम कर रही हैं,उन्हें भंग कर देना चाहिए।

  सारी समस्या की जड़ ये ही हैं।

पुलिस की वर्दी में ये यूनिट्स हफ्ताखोरी और अपराध का बड़ा रैकेट चलाती है।

   इन्होंने ही मुंबई पुलिस को बदनाम किया है।

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  --संजय निरुपम-

दैनिक जागरण-18 मार्च 21

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बुधवार, 17 मार्च 2021

 वोटों के लिए राष्ट्रीय हितों की अनदेखी

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    --सुरेंद्र किशोर--

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यह चिंताजनक है कि नकली सेक्युलर नेताओं के लिए देश की एकता-अखंडता से अधिक महत्वपूर्ण उनका वोट बैंक है।

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बंगाल विधान सभा चुनाव के संभावित नतीजों के पूर्वानुमान आने शुरू हो गए हैं।

 कुछ अनुमानों में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच बराबरी का मुकाबला बताया जा रहा है।

कुछ दिनों में स्थिति और भी साफ हो जाएगी।

पिछले कुछ महीनों में जितने बड़े पैमाने पर सांसदों ,विधायकों और नेताओं ने तृणमूल कांग्रेस को छोड़ा, वह एक रिकाॅर्ड है।

यह गौर करने लायक है कि जो भी नेता तृणमूल कांग्रेस छोड़ रहा है,वह मुख्यतः भाजपा में शामिल हो रहा है।

 आम तौर पर ऐसा तब होता है ,जब दल छोड़ने वाले नेताओं को उनके मतदाताओं से यह संकेत मिलता है कि किसी खास दल से चुनाव लड़ोगे तभी उन्हें उनके वोट मिलेंगे।

   आखिर इतनी बड़ी संख्या में सांसद-विधायक ममता का साथ क्यों छोड़ रहे हैं ?

जिस दल के जीतने की पक्की उम्मीद रहती है,उसे शायद ही कोई छोड़ता हो।

स्पष्ट है कि अभी जो चुनावी लड़ाई बराबरी की दिख रही है,उसका स्वरूप आने वाले दिनों में बदल भी सकता है।

मुख्य मंत्री ममता बनर्जी की रणनीतियों से यह लगता है कि 

वह विरोधियों के प्रति तीखे तेवर अपनाने में पीछे नहीं रहने वालीं।

  2016 में ममता बनर्जी ने मोदी और शाह को सार्वजनिक रूप से पंडा और गंुडा कहा था।

वह यह शब्दावली अब भी दोहरा रही हैं।

ममता बनर्जी के एजेंडे में न सिर्फ तुष्टिकरण और भतीजे की राजनीति को आगे बढ़ाने का काम शामिल है,बल्कि बंगला देशी घुसपैठियों की तरफदारी करना भी है।

  ममता बनर्जी अपने नेताओं पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों को गलत बताती हैं।

  इसके साथ ही केंद्र की विकास एवं कल्याणकारी योजनाआंें के अमल को लेकर भी उपेक्षा और असहयोगपूर्ण रवैया अपनाती हैं।

  इससे भाजपा के लिए अनुकूल राजनीतिक-चुनावी परिस्थिति तैयार हो रही है।

घुसपैठियों की विशेष पक्षधरता के कारण ही ममता बनर्जी ने 2020 के प्रारंभ में दार्जिलिंग की रैली में यह घोषणा कर दी कि बंगाल में सी ए ए (एन.पी.आर -एन आर सी) यानी नागरिक संशोधन कानून लागू नहीं होने दिया जाएगा।

ध्यान रहे कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल में कहा है कि कोरोना टीकाकरण के बाद सी ए ए लागू किया जाएगा।

 इससे पहले केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह कह चुकी है कि किसी भी संप्रभु देश के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एन आर सी जरूरी है।

  याद रहे कि अमेरिका,चीन,जर्मनी और जापान जैसे देशों की कौन कहे,पाकिस्तान,अफगानिस्तान और बंगला देश में भी नागरिकता रजिस्टर और नागरिकता कार्ड का प्रावधान है।

 भारत में कुछ लोगों को सी ए ए और एन आर सी किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं।

  इनमें ममता प्रमुख हैं।

उनके जैसे वोटलोलुप नेताओं के लिए भारत कोई देश 

नहीं ,बल्कि धर्मशाला है।

  यह चिंताजनक है कि नकली सेक्युलर नेताओं के लिए देश की एकता अखंडता से अधिक महत्वपूर्ण उनका वोट बैंक है।

  पिछले महीने ही ममता बनर्जी ने कहा कि यदि मुझे जेल में बंद भी कर दिया गया तो मैं बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की तरह ‘जाॅय बांग्ला’ का नारा दूंगी।

  आखिर मुजीब की भूमिका दोहराने के पीछे ममता बनर्जी की मंशा क्या है ?

कहां मुजीब और कहां ममता !

पता नहीं,उनका इरादा क्या है ?

लेकिन अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण की राजनीति में वह किसी से पीछे रहना नहीं चाहतीं।

  इन दिनों बाटला हाउस मुठभेड़ की चर्चा हो रही है।

इस मुठभेड़ के बारे में एक समय ममता बनर्जी ने कहा था कि यदि मुठभेड़ सच साबित हुई तो मैं राजनीति छोड़ दूंगी।

अदालत ने इस मुठभेड़ को सच साबित किया है।

वह ऐसा बयान देकर एक तरह से इंडियन मुजाहिद्दीन के उन आतंकियों का बचाव कर रही थीं

जिन्होंने दिल्ली के एक इंस्पेक्टर को मार दिया था।

क्या ऐसी राजनीति मुजीब करते थे ?

क्या वह देश के दुश्मनों के साथ थे ?

 ऐसा तो बिलकुल भी नहीं था।

 मुजीब एक विशेष परिस्थिति में पूर्वी पाकिस्तान में चमके थे।

उन्हें चुनाव में बहुमत मिलने के बावजूद पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों द्वारा पाकिस्तान का शासक नहीं बनने दिया गया था।

 पूर्वी पाकिस्तान के अधिकतर लोगों की सहानुभूति मुजीब के साथ थी।

  तृणमूल कांग्रेस के जीतने पर ममता बनर्जी ही मुख्य मंत्री बनेंगी।

यदि ममता फिर से सत्ता में आ जाती हैं तो भी केंद्र सरकार को सी ए ए , एन पी आर (एन आर सी)लागू करने में पीछे नहीं हटना चााहिए।

 घुसपैठियों से मुक्ति पाकर देश को सुरक्षित बनाने का दायित्व केंद्र सरकार को निभाना ही पड़ेगा।

ममता बनर्जी की राजनीति कितना मौकापरस्त है,यह एक खास राजनीतिक प्रकरण से पता चल जाएगा।

 इस प्रकरण से यह भी पता चल जाएगा कि वोट बैंक की राजनीति के कारण ममता किस तरह अपने ही रुख से पलट गईं।

  यह प्रकरण सन 2005 का है।

तब बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार थी।

ममता तब लोक सभा सदस्य थीं।

4 अगस्त, 2005 को उन्होंने लोक सभा अध्यक्ष की टेबल पर कागजों का पुलिंदा जोर से फेंका।

 उसमें अवैध बंगलादेशी घुसपैठियों को मतदाता बनाए जाने के सबूत थे।

उनके नाम गैर कानूनी तरीके से मतदाता सूची में शामिल करा दिए गए थे।

यह अवैध काम वाम मोर्चा सरकार के लोगों ने किया था।

ममता ने सदन में कहा कि घुसपैठ की समस्या राज्य में ‘‘महा विपत्ति’’ बन चुकी है।

  इन घुसपैठियों के वोट का लाभ वाम मोर्चा उठा रहा है।

उन्होंने इस पर सदन में चर्चा की मांग की।

 चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।

 चूंकि उनका इस्तीफा विधिवत रूप से तैयार नहीं किया गया था,इसलिए वह मंजूर नहीं हुआ।

   वर्ष 2011 में ममता बनर्जी बंगाल की मुख्य मंत्री बन गईं।

तब से घुसपैठियों के वोट उनकी पार्टी को मिलने लगे।

उसके बाद जो तबका ममता की नजर में ‘‘महा विपत्ति’’ था,वही उनकी पार्टी के लिए वोट बेंक के रूप में ‘‘महा संपत्ति’’ बन गया।

   वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बन गए।

मोदी सरकार ने सी ए ए और एन आर सी की जरूरत महसूस की।

   इस पर मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि ‘‘जो भी बांग्ला देश से यहां आए हैं,वे सभी भारतीय नागरिक हैं।

उन्हें यहां से भगाया नहीं जा सकता।’’

 सी ए ए ,एन पी आर और एन आर सी के विरोध में ममता ने एक अन्य अवसर पर कहा था कि 

‘‘इसे लागू करने पर गृह युद्ध हो जाएगा।’’

 देखना है कि बंगाल में आगे क्या-क्या  होता है ?

वहां जो भी हो,देशघाती राजनीति को पनपने का अवसर नहीं मिलना चाहिए।

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दैनिक जागरण ( 12 मार्च 2021) में प्रकाशित  



  

 

  





  


 



    संक्षिप्त मुलाकात एक बहुत बड़े प्रकाशक से

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 प्रभात प्रकाशन के कर्ता-धर्ता पीयूष कुमार जी जब 

हमारे घर के आसपास की हरियाली देखकर प्रसन्न 

हो रहे थे तभी मेरे पुत्र ने उनकी तस्वीर खींच ली।

  प्रभात प्रकाशन किसी परिचय का मोहताज नहीं है।

दशकों पहले मैं दिल्ली में उनके आॅफिस में गया था जहां तब पीयूष जी के पिताश्री प्रकाशन संभालते थे।

  योग्य पिता के योग्य पुत्र पीयूष जी से बातचीत से एक बार फिर यह लगा कि सफल व्यक्ति के लिए उसकी विनम्रता मूल मंत्र है।

विनम्रता सामने वाले को प्रभावित करती है।

  पीयूष जी मुझे यह कह कर गए कि जिसके पास इतनी समृद्ध लाइब्रेरी है,उसे इधर-उधर झांकने की जरूरत ही नहीं होती।

  इस तरह वे पुस्तकों,पत्रिकाओं और संदर्भ सामग्री की अमूल्यता की ओर इंगित कर रहे थे।

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-- सुरेंद्र किशोर -

 17 मार्च 21 

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--सुरेंद्र किशोर 


    इंदिरा गांधी की नाक की पट्टी तो 

   मतदाताओं की सहानुभूति नहीं हासिल 

   कर सकी थी।

   अब देखना है ममता बनर्जी के पैर की 

   पट्टी का करिश्मा !!

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        --सुरेंद्र किशोर--

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सन 1967 के चुनाव प्रचार के दौरान तत्कालीन प्रधान मंत्री 

इंदिरा गांधी भुवनेश्वर में सभा को संबोधित कर रही थीं।

उनके भाषण के तुरंत बाद छात्रों की उग्र भीड़ ने पथराव शुरू कर दिया।

 एक पत्थर इंदिरा गांधी को लगा।

जिससे उनकी नाक की हड्डी में चोट आई।

उन्हें एक छोटा आपरेशन भी कराना पड़ा।

(चित्र में नाक पर पट्टी दिखाई पड़ रही है)

  इस घटना के बाद सत्ताधारी हलकों में तब यह उम्मीद 

की गई थी कि कांग्रेस को सहानुभूति वोट मिलेंगे।

पर नहीं मिले।

क्योंकि अन्य कारणों से देश के बड़े हिस्से में कांग्रेस सरकार के खिलाफ आम लोगों में असंतोष था।

   1967 का आम चुनाव हुआ।

न सिर्फ ओडिशा में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई,बल्कि आसपास के राज्य बिहार व पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस सरकार हार गई।

कुल सात राज्यों में उस चुनाव के जरिए और बाद में दो अन्य राज्यों में दल बदल के जरिए कांग्रेस की सत्ता जाती रही।

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मौजूदा चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी को भी चोट लगी है। 

कांग्रेस नेता अधीर रंजन चैधरी ने कहा है कि ममता बनर्जी साजिश के जरिए सहानुभूति बटोरना चाहती हैं।

हालांकि ममता जी ने कहा है कि उन पर हमला हुआ था।

पता नही, सच क्या है !

इंदिरा जी पर तो सचमुच हमला हुआ था।

फिर भी उनकी नाक की पट्टी उन्हें वोट नहीं दिला पाई।

देखना है कि ममता बनर्जी के पैर की पट्टी क्या रंग 

दिखाती है !

वैसे आम लोग तो किन्हीं ‘पट्टियों’ से पहले ही अपना मन बना चुके होते हैं।

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--11 मार्च 21  


सोमवार, 15 मार्च 2021

 एक पोस्ट जरा हट के !!

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आचार्य प्रसन्न सागरजी महाराज कहते हैं कि 

‘‘जीवन जीने के दो ही तरीके है-एक तो सोचो 

मेरा कोई अपना नहीं है।

या फिर सोचो सब अपने हैं।’’

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दुःख सबके जीवन में आता है।

सुख के पल हवा की तरह हैं।

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जीवन में दुःख के लिए सबको तैयार रहना चाहिए।

  दुनिया का सबसे बड़ा दुःख है बूढ़े मां-बाप के सामने जवान पुत्र का गुजर जाना।

लेकिन इससे भी बड़ा दुःख है पुत्र का कुपुत्र हो जाना।

 मां-बाप के जीवन में दो बार ही आंसू आते हैं।

एक जब बेटी विदा होती है।

दूसरा जब बेटा मुंह मोड़े तब।

 इन चार बातों के लिए मानव को सदा तैयार रहना चाहिए--

1.-दोस्त कभी धोखा दे सकता है।

2.-बेटा कभी भी मुंह मोड़ सकता है।

3.-किस्मत कभी भी रूठ सकती है।

4.-दुनिया कभी भी छूट सकती है।

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

--सुरेंद्र किशोर-13 मार्च 21


रविवार, 14 मार्च 2021

 


 ट्रैफिक पुलिस की कमियों,अतिक्रमण व ओवरटेकिंग के कारण जाम की समस्या-सुरेंद्र किशोर

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लगता है कि टै्रफिक जाम की समस्या लाइलाज बीमारी बन चुकी है।यदि शासन इस समस्या को अधिक गंभीरता से ले तो लोगों को राहत मिल सकती है।

 एक दूसरे से आगे निकल जाने यानी ओवरटेकिंग की होड़, जाम का बड़ा कारण है।

 दूसरा कारण सड़कों पर भारी अतिक्रमण है।

तीसरा व महत्वपूर्ण कारण अनेक टै्रफिक पुलिसकर्मियों की कत्र्तव्यहीनता है।

ट्रैफिक पुलिस की संख्या भी जरूरत के अनुपात में काफी कम है।

कारण और भी हैं।

किंतु शासन को चाहिए कि वह पहले इन तीन मुख्य समस्याओं पर कठोरता से काबू पाए।

टै्रफिक जाम की असली पीड़ा उन्हें ही मालूम है जो लगातार चार-पांच घंटे तक कहीं जाम की समस्या कभी झेल चुके हैं।

जो चिलचिलाती धूप में जाम में सपरिवार घंटों से फंसे हंै और बच्चों के दूध व पानी के बोतल खाली हो चुके हैं।या फिर गंभीर रूप से घायल या बीमार व्यक्ति अस्पताल के रास्ते में हैं।

जाम में फंसने की पीड़ा एक ऐसी पीड़ा है जिस ओर शासन ने  कभी जरूरत के हिसाब से गंभीरता नहीं दिखाई।

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  समस्या और निदान

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सब जानते हैं कि सड़कों पर अतिक्रमण जितने होते हैं,उससे अधिक कराए जाते हैं।

कराने में किसका हाथ रहता है,उसकी पहचान हो और कड़ी कार्रवाई हो।

इससे शासन के शीर्ष को जनता की वाहवाही मिलेगी।

  ओवरटेकिंग को कौन बढ़ावा देता है ?

क्यों देता है ?

क्या यह बात किसी से छिपी हुई है ?

दूसरा कारण सड़कों पर भारी अतिक्रमण है।

तीसरा व महत्वपूर्ण कारण अनेक टै्रफिक पुलिसकर्मियों की कत्र्तव्यहीनता है।

कारण और भी हैं।

किंतु शासन को चाहिए कि वह पहले इन तीन समस्याओं पर कठोरता से काबू पाए।

टै्रफिक जाम की असली पीड़ा उन्हें ही मालूम है जो लगातार चार-पांच घंटे तक कहीं जाम की समस्या कभी झेल चुके हैं।

 ट्रैफिक पुलिस की संख्या जरूरत की तुलना में कम है।

साथ ही टै्रफिक पुलिसकर्मियों,खासकर महिला पुलिस के लिए

कार्यस्थल पर शौचालय का कोई प्रबंध नहीं है।

इस समस्या का निदान कौन करेगा ?

पहले सुविधा दीजिए,फिर कस कर काम लीजिए।

जब कोई देखता है कि सड़कों पर खुलेआम ट्रैफिक पुलिस रिश्वत लेती है तो उससे शासन का इकबाल घटता है।

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 लाठी से अधिक कारगर स्टिंग आपरेशन

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हाल में एक नेता जी ने अपने लोगों से कहा कि भ्रष्ट सरकारी कर्मियों को लाठी से पीटो ।

  मेरी समझ से उस नेता को यह कहना चाहिए था कि आप लोग भ्रष्टों के खिलाफ स्टिंग आपरेशन करिए-कराइए।

पिछले कुछ महीनों में स्टिंग आपरेशन का सकारात्मक असर दिखाई पड़ा है।

एक मीडिया संगठन ने पटना लोअर कोर्ट में भ्रष्टाचार को लेकर स्टिंग आपरेशन किया था।

संबंधित कर्मचारियों की सेवाएं समाप्त हो गईं।

एक अन्य मीडिया ने पटना कलक्टरी के पास जाली स्टाम्प को लेकर स्टिंग आपरेशन किया था ।इस मामले में भी कार्रवाई करने की प्रशासन ने कोशिश की है।

  दोनों मामलों में संबंधित मीडियाकमियों को सराहना मिली।

पर लाठियों से पीटनेवाली अपील पर न तो नेताजी का कोई मान बढ़ा और न ही किसी ने उनकी अपील पर किसी को लाठी से पीटा।

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   पहले आरक्षित कोटे को तो भरिए

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आरक्षण का प्रतिशत बढ़ा देने की मांग समय-समय पर होती रहती है।

किंतु क्या आरक्षण का पक्षधर कोई नेता यह मांग करता है कि निर्धारित कोटे को भरा क्यों नहीं जाता ?

केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित है।

इनमें से औसतन 15 प्रतिशत सीटें ही भर पाती हैं ?

इसके लिए कौन जिम्मेदार है ?

  1993 के बाद अनेक मंडल मसीहा सत्ता के शीर्ष पर रहे या फिर सत्ता को प्रभावित करने की स्थिति में रहे।

क्या उन लोगों ने पता लगाया कि किन कारणों से सीटें खाली रह जाती हैं ?

पता नहीं लगाया।

वैसे लोग भी सत्ता से हटने के बाद आरक्ष्ण का कोटा बढ़ाने की मांग करते रहते हैं।

कोटा जरूर बढ़वाइए,यदि अदालत अनुमति दे।किंतु जो कोटा उपलब्ध है,उसे तो भरने का उपाय कीजिए।

अन्यथा लोग समझेंगे कि कोटा बढ़ाने की आपकी मांग राजनीति से प्रेरित है।

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  उद्योग मंत्री के लिए अनुकूल अवसर

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बिहार के नए उद्योग मंत्री शाहनवाज हुसैन के लिए अच्छा अवसर है।

उधर केंद्र सरकार ने गन्ना -मक्का से इथनाॅल उत्पादन की अनुमति दे दी और इधर शाहनवाज साहब नए उत्साह के साथ बिहार के उद्योग मंत्री बन गए।

  जानकार लोग बताते हैं कि इस ताजा अनुमति से,जिसकी मांग नीतीश सरकार वर्षों से कर रही थी,बिहार में नए -नए उद्योग खुलेंगे।

  हां,एक कमी फिर भी रह जाएगी ।उसे मुख्य मंत्री को पूरा करना होगा।

उद्योगों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए वे जरूरत के अनुसार नए -नए पुलिस थानों की स्थापना कराएं।

  महेंद्र सिंह धोनी तो आम तौर पर मैच के आखिरी दौर में चैके --छक्के लगात थे।

शाहनवाज को तो ऐसा अनुकूल अवसर मिल गया है कि वे शुरूआती दौर से ही उद्योग के चैके-छक्के लगा सकते हैं।

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 और अंत में

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केरल सी.पी.एम.ने अपने करीब तीन विधायकों के टिकट काट दिए हैं।

उधर,तृणमूल कांग्रेस ने भी अपने दो दर्जन विधायकों के टिकट काटे ।

अब देखना है कि टिकट कटने के बावजूद कितने विधायक सी.पी.एम.में बने रहते है !

यह भी गौर करने लायक बात होगी कि तृणमूल कांग्रेस के कितने विधायक पार्टी छोड़ते हैं।

इस देश की राजनीति के ऐसे दौर में यह सवाल मौजूं है जब कहा जाता रहा है कि 

‘‘टिकट कर्मा,टिकट धर्मा, धर्मा-कर्मा टिकट -टिकट !!’’  

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कानोंकान

प्रभात खबर 

पटना

12 मार्च 21


 


   सरकार मोबाइल जैमर और बुलेटप्रूफ 

   जैकेट की खरीदारी सी.एस.आर.के पैसों से 

   मुकेश अंबानी के जरिए कराए

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    ---सुरेंद्र किशोर--  

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उद्योगपति मुकेश अंबानी को चाहिए कि वह इस देश के जेलों में मोबाइल जैमर मशीन लगवाने का काम अपने हाथ में ले लें।

  सरकार इसकी सहमति दे।

इसमें खुद न सिर्फ अंबानी की भलाई है,बल्कि आम जन की भी।

 यदि उपलब्ध जैमर मशीन 4 -जी पर काम नहीं कर पा रहा है तो अंबानी कारगर जैमर मशीनों के निर्माण की दिशा में काम करें।

  याद रहे कि पुलिस को आशंका है कि हाल में मोबाइल फोन का इस्तेमाल एक टेलीग्राम चैनल बनाने के लिए किया गया।

फिर उस चैनल का इस्तेमाल जैश उल हिंद नामक समूह ने गत 25 फरवरी 2021 को मुकेश अंबानी के दक्षिण मुंबई स्थित घर के बाहर से जिलेटिन की छड़ों से लदी एस यू वी खड़ी करने की जिम्मेदारी लेने के लिए किया।

कहा जा रहा है कि जिम्मेदारी लेने का काम तिहाड़ जेल से हुआ।   

   इस देश के जेलों में जैमर लगाने की सरकारी कोशिश

 अब तक विफल रही है।

कभी शिकायत आई कि मशीन की खरीद में कमीशनखोरी के कारण घटिया जैमर लगे।

कभी यह कि जानबूझ कर जैमर बंद-खराब  कर दिए गए।

कारण सब को मालूम है।जैमर के रख रखाव का काम भी अंबानी के अफसर -कर्मचारी करें।

  अब जब जेल में बंद आतंकवादी व खंूखार अपराधी देश की अर्थ व्यवस्था नष्ट करने के लिए उद्योगपति को निशाना बना रहे हैं तो उसका उपाय सरकारी अनुमति व  सहयोग से खुद उद्यागपति करें। 

 व्यापारियों को  कंपनी सोशल जिम्मेदारी यानी सी.एस.आर. के तहत अपने मुनाफा का 2 प्रतिशत खर्च करने ही हैं।

  अंबानी के दो प्रतिशत जैसी बड़ी राशि का अंदाज कर लीजिए।

वे तो देश के सारे जेलों में आधुनिकत्तम मोबाइल जैमर लगवाने के साथ- साथ एक और काम कर सकते हैं।

 इस मद से वे सेना- पुलिस के लिए गुणवत्ता वाले बुलेट प्रूफ जैकेट की खरीद भी करवा सकते हैं।

  अपने देश के भ्रष्ट सरकारी-गैर सरकारी राक्षस बुलेट प्रूफ की खरीद में भी घोटाला कर देते रहे हैं,ऐसी जानकारियां मिलती रही हंै।

   26 नवंबर 2008 को आतंकवादियों ने मुंबई के ताज होटल आदि पर हमला किया।

  अन्य लोगों के साथ ए.टी.एस.प्रमुख हेमंत करकरे भी शहीद हो गए।

बाद में पता चला कि जो बुलेटप्रूफ जैकेट हेमंत ने पहन रखा था ,वह घटिया जैकेट बुलेट को नहीं रोक सका था।

यानी, उसकी खरीद में घोटाला था।

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--सुरेंद्र किशोर-

14 मार्च 21

  


शनिवार, 13 मार्च 2021

 ‘‘..........स्थानीय मीडिया की मानें ,तो वह (ममता बनर्जी) गाड़ी

में बैठी थीं और उनका पैर बाहर था,जिसके कारण दरवाजा 

बंद करते वक्त उन्हें चोट लग गई।

मगर तृणमूल कांग्रेस का आरोप है कि चार-पांच लोगों ने उन्हें 

धक्का दिया है.........।’’

   --ज्येतिप्रसाद चटर्जी

पश्चिम बंगाल विशेषज्ञ

सी.एस.डी.एस.

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हिन्दुस्तान --12 मार्च, 2021  


गुरुवार, 11 मार्च 2021

 इमरजेंसी में सरकारी आतंक 

का एक नमूना यह भी 

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--सुरेंद्र किशोर-

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  आजकल कुछ लोग यदा -कदा यह कहते रहते हैं कि इन दिनों देश में इमरजेंसी जैसे हालात हैं।

  उन्हें एक छोटी सी ‘इमरजेंसी कथा’ सुनाता हूं।

कर्पूरी ठाकुर इमरजेंसी में फरार थे।

पटना के वीरचंद पटेल पथ स्थित उनके सरकारी आवास 

से शासन ने उनका सारा सामान बाहर फेंक दिया।

 ऐसा करने का शासन को पूरा हक था।

क्योंकि तब तक वे किसी सदन के सदस्य नहीं रह गए थे।

  पर, उसके बाद की कहानी जानिए।

उनके परिजन के समक्ष यह समस्या थी कि उस सामान को कहां रखा जाए ?  

  उनकी पार्टी के एक ऐसे एम.एल.सी.से संपर्क किया गया जो कर्पूरी जी की मेहरबानी से एम.एल.सी.बने थे।

   पर,उस एम.एल.सी.साहब ने अपने लंबे-चैड़े सरकारी आवास में उस सामान को रखने से साफ मना कर दिया।

  फिर सामने आए एक कांग्रेसी विधायक।

वीरेंद्र कुमार पांडेय ने (मांडु से कांग्रेसी विधायक थे।) ने अपने घर में वह सब सामान रखा।

 पता नहीं, पांडे जी अब कहां हैं ?

मैं उनसे अक्सर मिलता था।

एक प्रतिष्ठित परिवार से आते थे।

बहादुर व स्वतंत्र चेता नेता थे।

  जिस समाजवादी एम.एल.सी.ने कर्पूरी जी का सामान रखने से मना कर दिया था,वे फिर भी कर्पूरी जी प्रशंसक -समर्थक थे।

  पर, वे भी एक खास स्थिति में डर गए थे।

 उन्हें लगा था कि सामान रखने के कारण ही उनकी गिरफ्तारी भी हो सकती है।

  1977 में जब कर्पूरी जी मुख्य मंत्री बने तो वे एक बार फिर ‘‘ठाकुर कृपा’’ से एम.एल.सी.बन गए।

मुख्य मंत्री कर्पूरी जी की किसी गलत नीति के खिलाफ जब मैंने दैनिक ‘आज’ में कुछ लिखा तो वह एम.एल.सी.साहब काॅफी हाउस में मुझसे झगड़ बैठे थे।

मैंने झगड़ने वाला यह प्रकरण इसलिए लिखा

कि आप जानें कि वे कर्पूरी जी के प्रति वे कितना ‘लाॅयल’ थे।

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इमरजेंसी में सरकार का ऐसा  आतंक था !

आज मौजूदा सरकार का कितना आतंक है,इसका अनुमान निष्पक्ष लोग आसानी से लगा सकते हैं।

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--सुरेंद्र किशोर--11 मार्च 2021 

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मंगलवार, 9 मार्च 2021

    उनके बयान की बात कौन 

   कहे, इमरजेंसी में जेपी के कहीं 

   आने -जाने की खबर भी नहीं 

   छपने दी जाती थी

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    --सुरेंद्र किशोर--

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16 जुलाई, 1976 को भारत सरकार ने इस देश के अखबारों को यह निदेश दिया था कि 

‘‘जयप्रकाश नारयण के कहीं आने-जाने से संबंधित कोई समाचार न छापा जाए।’’

  आज कुछ लोग कह रहे हंै कि इस देश में इमरजेंसी (1975-77) जैसे हालात हैं।

क्या आज केंद्र सरकार ऐसा कोई आदेश मीडिया

को दे रही है ?

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8 मार्च 21

   


1975-77 के आपातकाल में देश भर के 253 पत्रकार भी हुए थे गिरफ्तार-सुरेंद्र किशोर

 


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  जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 का बिहार आंदोलन  मार्च में ही शुरू हुआ था।

  बाद में वह देशव्यापी हुआ।

अंततः 1975 के जून में देश में आपातकाल लगा।

आपातकाल मार्च, 1977 तक रहा।

आपातकाल कितना दमनकारी व भयावह था ?

उसका अनुमान इस बात से लगाइए।

 उस दौरान करीब सवा लाख राजनीतिक नेताओं व कार्यकत्र्ताओं के अलावा देश भर के 253 पत्रकार भी गिरफ्तार व नजरबंद हुए थे।

उन्हें आंतरिक सुरक्षा कानून(मीसा) व भारत रक्षा कानून (डी.आइ.आर.)के तहत पकड़ा गया था।

   यानी, तब की केंद्र सरकार ने 253 पत्रकारों को भी देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक माना था।

   इन दिनों अक्सर यह कह दिया जाता है कि देश में अब इमर्जेंसी जैसे हालात हैं।

क्या कभी 19 महीने की कालावधि में किसी सरकार ने करीब 253 पत्रकारों को गिरफ्तार किया है ?

कभी नहीं।

  सन 1975-77 के आपातकाल में सरकार ने न सिर्फ सवा लाख नेताओं व राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं को ,बल्कि 253 पत्रकारों को भी जेलों में ठूंस दिया, उन्हें अदालत जाने से भी वंचित कर दिया था।

  इतना ही नहीं,देश के 50 पत्रकारों की सरकारी मान्यता भी रद कर दी गई थी।उनमें कई नामी -गिरामी पत्रकार व कार्टूनिस्ट थे।

 18 पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद करा दिया गया था।

कुछ नेता लोग आज जब यह कहते हैं कि देश में आपातकाल जैस स्थिति है तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि दमन के उपर्युक्त संक्षिप्त आंकड़ों पर आपकी क्या राय है ?

याद रहे कि इमर्जेंसी का दमन इससे अधिक व्यापक था। 

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    आपातकाल के पीड़ितों 

    की पेंशन बंद क्यों ?

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राहुल गांधी ने कहा है कि 1975 में देश में इमर्जेंसी लगाना गलत था।ठीक ही कहा है।

क्योंकि सन 1977 के चुनाव में आम जनता ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर करके इमर्जेंसी को गलत साबित कर भी दिया था।

याद रहे कि इमर्जेंसी के दौरान हजारों निर्दोष लोगों को जेलों में ठूंस कर कांग्रेस सरकार ने उनके साथ नाहक अत्याचार किया था।

बाद में कई गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों ने पीड़ितों के लिए लोकतंत्र सेनानी -जेपी सेनानी पेंशन का प्रावधान किया।

पर मध्य प्रदेश ,महाराष्ट्र और राजस्थान की कांग्रेसी सरकारों ने बारी बारी से उस पेंशन को बंद कर दिया।

  यदि राहुल गांधी सचमुच यह मानते हैं कि इमर्जेंसी लगाना गलत था तो वे उस पेंशन को फिर से शुरू करवाएं।

वे तत्काल राजस्थान और महाराष्ट्र सरकारों से कहें कि वे लोकतंत्र सेनानी पेंशन फिर से शुरू करें।

यदि राहुल गांधी ऐसा नहीं करते हैं तो यह माना जाएगा कि इमर्जेंसी को लेकर उनका ताजा बयान मात्र दिखावा है।  

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 सरकारी योजनाओं की जानकारी 

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भारत सरकार की 115 योजनाएं हैं।

वे विकास और कल्याण आदि की योजनाएं हैं।

इनमें से कुछ योजनाओं के नाम तो बहुत चर्चित हैं।

उनके नाम अधिकतर लोगों को मालूम भी हैं।

उन पर हो रहे खर्चे भी नजर आते रहते हैं।

पर क्या आम लोगों को उन सारी 115 योजनाओं के बारे में पता है ?शायद नहीं।

  इसी तरह राज्य सरकारों की भी अनेक योजनाएं हैं।

उनमें से कुछ के बारे में लोग जानते हैं।पर यहां भी वही हाल है।अन्य अनेक योजनाओं के बारे में अधिकतर लोगों को कुछ नहीं मालूम।

  दोनों सरकारों की इन सारी योजनाओं के बारे में लोगों को पता हो जाए तो इनके कार्यान्वयन की स्थिति के बारे में लोग पता कर लेंगे।

  सूचना में बड़ी शक्ति होती है। 

उस शक्ति का लाभ अततः लोगों को ही मिलेगा।

सरकारों का यह कत्र्तव्य है कि अपनी योजनाओं के बारे में लोगों को बताए।

 समाज में ऐसे जागरूक लोग अब भी मौजूद हैं जो वैसी योजनाओं के लाभ लोगों तक पहुंचाने में सरकार की मदद कर सकते हैं जो सिर्फ कागजों पर हैं।

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   प्रशासन में नई प्रतिभाएं

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  केंद्र सरकार  संयुक्त सचिव स्तर के पदों पर निजी क्षेत्रों  से आमंत्रित कर विशेषज्ञों व नई प्रतिभाओं को बहाल करा रही है।

चयन का काम यू.पी.एस.सी. के जरिए ही हो रहा है।

ऐसी बहुत सारी बहालियां हो चुकी हैं।

निजी क्षेत्रों के अफसरों में आम तौर अपने कत्र्तव्यों के प्रति अधिक निष्ठा देखी जाती है।संविदा पर रहने के कारण भी उनमें सक्रियता की कभी कमी नहीं होती।

इससे आई.ए.एस.-आई.पी.एस.की कमी की समस्या भी कम हो रही है।

इसे ‘‘लेटरल इंट्री’’ कहा जा रहा है।

बिहार सहित दूसरे राज्यों में भी केंद्रीय सेवा के अफसरों की भारी कमी है।

इससे सरकारी काम-काज पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

  केंद्र सरकार को चाहिए कि वह लेटरल इंट्री के जरिए राज्यों में भी अफसरों की कमी को भी पूरा करे।

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 डूबते जहाज से भागते चूहे 

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जहाज डूबने लगता है तो चूहे भी भाग खड़े होते हैं।

उसी तरह जिस राजनीतिक दल में सत्ता पाने की ताकत नहीं रह जाती,उसके सत्ताकांक्षी सदस्य दल का साथ छोड़ देते हैं।

इन दिनों इस देश में यही हो रहा है।

कई दलों से उनके नेता-कार्यकत्र्ता अलग होते जा रहे हैं।

हालांकि कुछ दलों ने अपनी गलत नीतियों-रणनीतियों-कार्य नीतियों के कारण ही जाने-अनजाने अपनी ताकत घटाई है। 

यदि वे खुद में सुधार लाएं तो उनकी ताकत बढ़ सकती है।

फिर तो वही सत्ताकांक्षी लोग उनके साथ होंगे।यही इन दिनों की राजनीति का  आम चलन  है।स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छा संकेत नहीं है।  

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और अंत में

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पटना स्थित एक सरकारी अस्पताल के निबंधन और बिल बनाने वाले काउंटरों को निजी क्षेत्र के हवाले कर 

दिया गया है।

इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंकों के कुछ काउंटरों को भी ‘आउटसोर्स’ कर देना चाहिए।

यानी, ऐसे काउंटर जहां पैसे का लेनेदन नहीं है,उन्हें निजी क्षेत्र को सौंपने से कार्य 

-कुशलता बढ़ेगी।   

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.कानोंकान

प्रभात खबर,

 पटना,5 मार्च 21