सरकारी पत्रिका योजना
..............................
सन 1984 के भारत और आज के भारत
में कितना अंतर ?
आज आप जो गंदगियां देख रहे हैं,
उसकी नींव आजादी के तत्काल बाद ही
पड़ चुकी थी
..............................................
दशकों से जमी काई जल्दी साफ नहीं होती
........................................................
. --सुरेंद्र किशोर--
.......................................
सन 1984 तक इस देश का क्या हाल हो चुका था ?
‘योजना’ पत्रिका के 15 अगस्त, 1984 के अंक में जो कुछ छपा था,उससे देश का हाल का पता नई पीढ़ी के लोगों को भी चल जाएगा।
उस सरकारी पत्रिका के कवर पेज पर
लिखा हुआ था-
‘‘ये गंदे लोग, यह गंदा खेल।’’
‘योजना’ के तब के प्रधान संपादक रघुनन्दन ठुकराल की हिम्मत व देश सेवा की भावना तो देखिए !
पता नहीं, वह अंक आने के बाद उनकी नौकरी रही या गई ?
.......................................................
सन 1946 से 1984 तक इस देश मंे जितने भी प्रधान मंत्री हुए,सबको भारत रत्न सम्मान मिल चुका है।
ऐसे ‘‘भारत रत्नों’’ की यही उपलब्धि थी ? !!!
एक अन्य उपलब्धि के बारे मंे तो अगले प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने 1985 में देश को बताया था,
‘‘केंद्र सरकार सौ पैसे दिल्ली से भेजती है,किंतु उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं।’’
याद रहे कि भारत रत्न का सम्मान राजीव गांधी को भी मिल चुका है।
हाॅकी में बारी -बारी से तीन स्वर्ण पदक दिलाने वाले ध्यानचंद को भले न मिले !
नेताओं को उसे पाने से भला कौन रोक सकता है ?
..............................................
जब अपवादों को छोड़ कर सरकारी व निजी क्षेत्र में गंदे लोग ही फैले हुए हों तो वही होना था जैसा राजीव गांधी ने 1985 में कहा था।
यानी 100 पैसों को तभी घिसकर 15 पैसे बना दिया गया था।
........................................
उन गंदे लोगों की सूची ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘योजना’ के उसी अंक में पेश की थी।
अब्बास के अनुसार,
1.-अफसरशाह
2.-सत्तारूढ़ दल के राजनीतिज्ञ
3.-विपक्षी दलों के राजनीतिज्ञ
4.-योजनाकार (अधिकारी वर्ग)
5.-योजनाकार (स्वप्नद्रष्टा)
6.-बड़े पत्रकार
7-छोटे पत्रकार
8.-उपदेशक (धर्म संबंधी)
9.-उपदेशक (मंद बुद्धि वाले दर्शन शास्त्री और शिक्षा शास्त्ऱी)
10.-साधु संत (ढोंगी)
11.-व्यापारी तथा
12-शिक्षा विद्
........................................
यह सूची पेश करते हुए अब्बास ने लिखा कि
‘‘किसी का नाम लेने की कोई जरूरत नहीं, पर वे सभी समूह
जो हमारे सामजिक जीवन को अपने कारनामों से दूषित करते हैं,उनका भंडाफोड़ करने से समाज के लोग इन गंदे लोगों और उनके खेल के बारे में जान जाएंगे।
आशा है कि इससे वे आत्म शुद्धि का मार्ग अपनाएंगे।
.................................
‘‘योजना’’ के छपने के दशकों बाद के भारत पर नजर दौड़ाइएगा ।
क्या अब्बास साहब की भोली आशा पूरी हो सकी ?
..................................
हां, एक बात जरूर कही जा सकती है कि गंदगी साफ करने की कोशिश आज कुछ अधिक ही हो रही है।
किंतु इस नेक कोशिश के अनुपात में समस्याएं बहुत विराट हो चुकी हैं।
...................................
अब अगस्त 1984 की योजना पत्रिका में प्रकाशित कुछ लेखों के शीर्षक देख लीजिए।
केंद्रीय मंत्री रहे बसंत साठे के लेख का शीर्षक है-
‘‘हम तो केवल सत्ता भोगते हैं,शासन तो अफसर चलाते हैं।’’
.............................
खुशवंत सिंह ने लिखा कि अनेक पत्रकार बंधु गैर कानूनी ढंग से पैसे कमाते हैं।
.......................................................
मधु दंडवते लिखते हैं कि मूल्यों के अनवरत ह्रास ,बढ़ते हुए जातिवाद व भ्रष्टाचार के कारण राजनीति पतन के गर्त तक जा पहुंची है।
.....................................................
अफसरशाही के बारे में बिहार सरकार मुख्य सचिव रहे पी.एस.अप्पू ने लिखा है कि ‘‘जब राजनीतिक व्यवस्था पतनोन्मुख हो
और समाज में विघटन हो जैसा कि भारत में आजकल हो रहा है,तो यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि अफसरशाही को सुधारना संभव नहीं।’’
....................................................
7 अगस्त 21
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें