विधायिकाओं में लगातार अशोभनीय दृश्यों
से क्या सीख रहीं नई पीढियां !
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--सुरेंद्र किशोर--
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विधायिकाओं में हंगामों व कामकाज ठप होने की समस्या इस देश में गंभीर होती जा रही है।
हाल में राज्य सभा के सभापति एम.वेंकैया नायडू को यह कहना पड़ा कि ‘‘हम दिन प्रति दिन असहाय होते जा रहे हैं।’’
उत्तर प्रदेश विधान सभा में कभी खून बहे थे तो केरल विधान सभा हुई तोड़फोड़ का मुकदमा अब भी अदालत में चल रहा है।
उस मुकदमे को हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भी उचित ठहराया।
उससे पहले केरल सरकार विशेषाधिकार की आड़ में उस आपराधिक मुकदमे से आरोपी विधायकों को बचाना चाहती थी।
आज भी संसद में क्या हो रहा है ?
बिहार विधान सभा में गत मार्च में क्या नहीं हुआ !
कुछ ही माह पहले कर्नाटका विधान परिषद के सभापति को जबरन उनके आसन से उठाकर कुछ सदस्यों ने अलग कर दिया।
ऐसी समस्या से देश के पीठासीन पदाधिकारीगण
कैसे निपटें ?
समय-समय पर हुए पीठासीन पदाधिकारियों के सम्मेलनों के प्रस्तावों व सिफारिशों पर ध्यान दीजिए।
वे हंगामों से आजिज आ चुके मौजूदा पीठासीन पदाधिकारियों व सत्ताधारी दलों को राह दिखाते हैं।
वे उनका अध्ययन करें।
उन्हें कड़ाई से लागू करें।
अन्यथा, इतिहास किसी को माफ नहीं करेगा।
आखिर मार्शल की बहाली होती ही क्यों है ?
कई दशक पहले राज्य सभा से समाजवादी नेता राजनारायण को बारी-बारी से कई बार मार्शल आउट किया गया था।
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एक वह भी समय था
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कर्पूरी ठाकुर लंबे समय तक बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे थे।
वे कभी मार्शल से हाथापाई करते नहीं देखे गए ।
जब-जब पीठासीन पदाधिकारी सदस्यों को सदन से बाहर करने का मार्शल को निदेश देते थे, दिवंगत ठाकुर तथा अन्य अधिकतर प्रतिपक्षी विधायकगण खुद को मार्शल के हवाले कर देते थे।
मार्शल उन्हें टांग कर सदन से बाहर कर देते थे।सदस्य भी हंसते हुए बाहर हो जाते थे।
किंतु आज ?
कई बार तो अत्यंत शर्मनाक स्थिति पैदा हो जाने पर भी आम तौर पर पीठासीन पदाधिकारी मार्शल का उपयोग नहीं करते।
यदि करते भी हैं तो कई माननीय सदस्य मार्शल के साथ दुश्मन जैसा व्यवहार करने लगते हैं।
यह सब देख -सुनकर इस देश की नई पीढ़ी के दिल ओ दिमाग पर हमारे लोकतंत्र की कैसी छाप पड़ती है ?
क्या ऐसी स्थिति में आज के स्कूली बच्चे खुद में जन प्रतिनिधियों व जनतंत्र के प्रति सम्मान का भाव पैदा करते हुए बड़े होते हैं ?
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सम्मान की रक्षा के लिए
कठोर कार्रवाई जरूरी
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यदि लोकतंत्र व जन प्रतिनिधियों के प्रति आम लोगों में सम्मान कायम रखना हो या बढा़ना हो तो इस देश की विधायिकाओं में जारी अराजकता को समाप्त करना ही होगा।
यदि सही ढंग से देश-प्रदेश चलाने की जिम्मेदारी सरकारों की है तो सदन की गरिमा बनाए रखने की जिम्मेदारी उसकी भी है।वैसे किसी भी सदन के ‘‘किंग आॅफ द किंग्स’’ पीठासीन पदाधिकारी ही होते हैं।
किंतु शासक दल के सक्रिय सहयोग के बिना वे सदन में अनुशासन कायम नहीं कर सकते।
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डा.लोहिया और गैर कांग्रेसी सरकार
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सन 1967 में डा.राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसी सरकारों को एक महत्वपूर्ण सलाह दी थी।
उन्होंने कहा था कि छह महीने के भीतर कुछ ऐसे -ऐसे काम करके दिखा दो कि लोगों को कांग्रेस की पिछली सरकार और तुम्हारी इस सरकार में फर्क साफ-साफ दिखाई पड़ने लगे।
बिहार की नीतीश सरकार विपरीत परिस्थितियों में भी जनहित के ऐसे -ऐसे काम करती जा रही है जिनसे पिछली सरकार से उसका फर्क नजर आता रहता है।
बिहार की सत्ता से राजद के हटने के बाद लालू प्रसाद ने कहा था कि इस कठिन प्रदेश बिहार में लगातार 15 साल तक राज चला लेना कोई आसान काम नहीं है।
परोक्ष रूप से लालू जी, नीतीश कुमार को चुनौती दे रहे थे कि दम हो तो 15 साल तक राज चलाकर दिखाओ।
नीतीश कुमार ने दिखा भी दिया।
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काम की गति बढ़ाइए
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करीब डेढ़ साल पहले नागरिक (संशोधन)विधेयक पास हुआ।
उस पर राष्ट्रपति की मुहर भी लग गई।
फिर भी उसे अभी लागू नहीं किया जा रहा है।
आखिर क्यों ?
इसलिए कि उसकी नियमावली अब तक नहीं बनी।
हाल में सरकार ने संसद को बताया कि अगले साल जनवरी तक वह प्रक्रिया पूरी हो जाएगी।
उधर रोहिणी आयोग का भी लगभग यही हाल है।
सन 2017 में रोहिणी न्यायिक आयोग बना था।
आयोग को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि वह छह माह में अपनी रपट दे ।आयोग को यह पता लगाना था कि आरक्षण का लाभ सभी जातीय समूहों को समरूप ढंग से मिल रहा है या नहीं।
आयोग के कार्यकाल का इस बीच कई बार विस्तार किया गया।
जानकार सूत्रों के अनुसार आयोग महत्वपूर्ण व मूल काम कर भी चुका है।
किंतु उसे फाइनल रपट तैयार करने में समय लग रहा है। ..................
और अंत में
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पचास के दशक में इस देश के राष्ट्रपति का वेतन दस हजार रुपए मासिक था।
मुद्रा स्फीति को ध्यान में रखा जाए तो आज उनका वेतन उस हिसाब से करीब साढ़े आठ लाख रुपए होना चाहिए था।
किंतु राष्ट्रपति
को आज हर माह वेतन मद में सिर्फ 5 लाख रुपए ही मिलते हैं।
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साप्ताहिक काॅलम ‘कानोंकान’
आज के ‘प्रभात खबर’ के बिहार संस्करणों में प्रकाशित
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