शनिवार, 11 मई 2024

    बिना विचारे जो करे.........!.

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सुरेंद्र किशोर

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नब्बे के दशक में मंडल आरक्षण विरोधियों से मैं सवाल करता था--

‘‘आप लोग पिछड़ा आरंक्षण का विरोध क्यों कर रहे हैं ?

क्या इस विरोध का परिणाम समझते हैं ?

परिणाम यह होगा कि आज गज नहीं फाड़िएगा तो कल थान हारना पड़ेगा।’’

(कांग्रेस के पूर्व विधायक हरखू झा मेरी इस बात

के आज भी गवाह हैं।वे बिहार विधान सभा के प्रेस रूम में हमलोगों के साथ बैठते थे।मेरी यह बात सुनते थे।बाद के दिनों में झा जी ने एक बार मुझसे कहा भी कि आप तो गज और थान वाली बात कहते ही रहते थे।) 

  आरक्षण के विरोध का क्या नतीजा हुआ ?

लंबे समय तक बिहार में ‘जंगल राज’ रहा।आज भी बिहार में कोई योग्य सवर्ण भी मुख्य मंत्री बनने के लिए तरस जाता है।

दरअसल आजादी के बाद कांग्रेस को बिहार विधान सभा में जब भी खुद का पूर्ण बहुमत मिला,उसने चुन-चुन कर सवर्ण को ही मुख्य मंत्री बनाया।

तब तो किसी सवर्ण ने इस बात को नहीं उठाया।

पर आज कुछ लोगों को लग रहा है कि 1990 से ही लगातार पिछड़ा ही मुख्य मंत्री क्यों है ?

नब्बे के दशक के कुछ आरक्षण विरोधियों को अपनी गलती का आज एहसास हो रहा है।पर,सबको नहीं।

 नब्बे के दशक में कुछ आरक्षण विरोधी मेरे पीठ पीछे

यह कहकर मेरी आलोचना करते थे कि यह पत्रकार

तो सवर्ण होते हुए भी एक खास पिछड़ा नेता का दलाल बन गया है।

उस पिछड़ा नेता का वे नाम भी लेते थे।

जबकि बाद के वर्षों में उसी पिछड़ा नेता ने मुझे एक अखबार की नौकरी से हटवा दिया था।क्योंकि मैं आरक्षण का तो समर्थक था,किंतु भ्रष्टाचार-अपराध का नहीं।

मैं तो भई आरक्षण का समर्थन इसे संवैधानिक प्रावधान मानकर व समाज में समरस स्थिति बनाये रखने के लिए करता था।

वैसे मेरे कुछ करीबी रिश्तेदारों ने तब (मेरे आरक्षण समर्थन के कारण )मुझे पागल घोषित कर रखा था।

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कई दशक पहले जब मैं बिहार के समझदार कम्युनिस्ट नेताओं से पूछता था कि आप तो ईमानदार हैं।

किंतु भ्रष्ट और जातिवादी नेताओं व दलों का समर्थन आप लोग क्यों करते हैं ?

उनका जवाब होता था--‘‘हम सांप्रदायिक तत्वों यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए ऐसा करते है।’’

मैं उन्हें कहता था कि इस तरीके से तो आप नहीं रोक पाएंगे।

वहीं हुआ भी।

आज भाजपा केंद्र व राज्य दोनों जगह सत्ता में है और कम्युनिस्ट लोग अपनी अदूरदर्शिता के कारण अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हाथ -पैर मार रहे हैं।जबकि कम्युनिस्ट आंदोलन में एक से एक त्यागी-तपस्वी नेता व कार्यकर्ता रहे हैं।यदि वे अपनी कुछ नीतियों-रणनीतियों को सुधार कर लेते तो इस गरीब देश के लिए वे उपयुक्त थे।

चीन और रूस के कम्ुयनिस्टों ने तो देश,काल,पात्र की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अपनी नीतियां-रणनीतियां बदल लीं।पर भारत के कम्युनिस्टगण कालबाह्य विचारों की बंदरमूठ पकडे हुए हैं। 

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मेरे मित्र नीतीश कुमार दो बार राजग छोड़कर इस उम्मीद में कांग्रेस गठबंधन में गये थे ताकि कांग्रेस उन्हें अपने गठबंधन का नेता घोषित कर दे।

मैं पहले ही दिन से यह जानता था कि उन्हें कांग्रेस महत्व नहीं देगी।क्योंकि मनमोहन सिंह और नीतीश कुमार मंे भारी फर्क है।

नीतीश जी मुझसे पूछते तो मैं उन्हें असलियत बताता।

पर,बिना पूछे ऐसी सलाह देने पर नेता लोग बहुत नाराज हो जाते हैं।

क्योंकि कुछ खास अवसर पर वे खास तरह के ‘नशे’ में होते हैं।

अपने खुद के फायदे के लिए उनके कुछ करीब सलाहकार उन्हें गुमराह कर देते हैं।

ऐसा मैंने यहां इसलिए लिखा क्योंकि मैं नीतीश जी का प्रशंसक रहा हूं।

मैंने 1967 से मुख्य मंत्रियों को काम करते देर और करीब से देखा है।मैं अंतर कर सकता हूं।

नीतीश ने बिहार को काफी बदल दिया है।

ईमानदार हैं।वंशवादी-परिवारवादी नहीं हैं।सभी जातियों-धर्मों के लोगों को साथ लेकर चलने की कोशिश करते हैं।

पर, गठबंधन बदल-बदल कर उन्होंने खुद ही अपना ज्यादा नहीं तो थोड़ा नुकसान तो कर ही लिया है।जिस तरह तीसरे क्लास का मेरा एक सहपाठी स्लेट पर अपना ही लिखा हुआ बाद में मिटा देता था।

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अभी लोक सभा चुनाव के लिए प्रचार हो रहा हैं।

 वोट डाले जा रहे हैं।

आज भी अनेक अदूरदर्शी नेता और एक हद तक मतदाता भी उसी तरह की अदूरदर्शिता का परिचय दे रहे हैं।

वे कौन -कौन नेता हैं,कौन दल है  और कौन सी गलतियां कर रहे हैं,वह सब

मैं 4 जून के बाद बता दूंगा।

अभी नहीं।

क्योंकि उससे अभी कोई लाभ भी नहीं।ध्यान रहे कि 4 जून के बाद देश मंे बहुत बड़ा बदलाव होने वाला है। 

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गिरधर कविराय

ने ठीक ही कहा है--

बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय,

काम बिगारे आपनो जग में होत हंसाय

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11 मई 24



 


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