जो नेता गण हाल के वर्षों में यह आरोप लगाते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ने देश में अघोषित इमर्जेंसी लगा रखी है,वे असली इमर्जेंसी की एक असली कहानी को यहां पढ़ लें।
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सुरेंद्र किशोर
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यह कहानी साप्ताहिक ‘रविवार’ (9 दिसंबर 1979)में छप चुकी है।
कहानी यानी आत्मदाह से ठीक पहले तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के नाम प्रभाकर शर्मा की मार्मिक चिट्ठी में वर्णित कहानी।
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याद रहे कि शर्मा ने उस पत्र की प्रति ‘सरकारी संत’ विनोबा भावे को भी भेजी थी।
पर विनोबा ने उस पत्र की किसी से चर्चा तक नहीं की।
सरकारी भय का ऐसा ही आतंक था।
याद रहे कि इमर्जेंसी में विनोबा की पत्रिका ‘‘मैत्री’’ को भी महाराष्ट्र पुलिस ने जब्त कर लिया था।विनोबा उसके संपादक थे।
जबकि अभूतपूर्व दमनकारी आपातकाल के समर्थन में विनोबा ने आपातकाल को सार्वजनिक रूप से ‘‘अनुशासन पर्व’’ बता दिया था।
याद रहे कि केंद्र सरकार ने आपातकाल में आम लोगों के जीने तक का अधिकार छीन लिया था।
देश के विभिन्न जेलों में कैद हजारों छोटे-बड़े प्रतिपक्षी नेताओं व पत्रकारों को अदालत जाने की अनुमति नहीं थी।
केंद्र सरकार के इस कदम को भयभीत सुप्रीम कोर्ट का भी पूरा समर्थन मिल गया था।
आपातकाल (1975-77)की क्रूरता के खिलाफ प्रभाकर शर्मा ने आत्म दाह करने से ठीक पहले प्रधान मंत्री
इंदिरा गांधी को पत्र लिखा-
‘‘इंदिरा जी,मैं आपके पापी राज्य में (जिन्दा)नहीं रहना चाहता।’’
महात्मा गांधी के आह्वान पर प्रभाकर शर्मा ग्राम सेवा क्षेत्र में कूदे थे।
शर्मा ने यह भी लिखा था--‘‘क्या आपका मीसा (दमनकारी कानून)ईश्वर पर भी लागू होगा ?
आपके पापी शरीर के छूटने पर आपके पिट्ठू और रक्षक साथ नहीं जाएंगे।
अतःअच्छा तो यही है कि आप प्रायश्चितपूर्वक हृदय से भारतीय जनता से अपने अक्षम्य अपराधों के लिए क्षमा मांगें।’’
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याद रहे कि आपातकाल की जन विरोधी क्रूरता और सत्ताधारियों के नग्न
नाच से संतप्तं होकर प्रभाकर शर्मा ने
14 अक्तूबर 1976 को महाराष्ट्र के वर्धा के निकट सुरगांव में अपने शरीर पर तेल छिड़क कर आत्म दाह कर लिया था।
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8 मई 24
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