सोमवार, 13 मई 2024

 मां के साथ-साथ आज पिता की याद में भी 

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सुरेंद्र किशोर

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मेरे बाबू जी जब हम दोनों भाइयों को अपनी पुश्तैनी जमीन बेच कर छपरा और पटना रखकर पढ़ा रहे थे तो उसी बीच एक स्थानीय मुखिया मेरे घर आये।

बाबू जी से बोले--‘‘आप सोना जइसन जमीन बेचकर पढ़ा रहे हैं।पढ़- लिखकर उ सब शहर में बस जइहन स,रउआ के ने पूछिहन स।’’

उस पर बाबू जी बोले--‘‘सोना अइसन जमीन बेच के हीरा गढ़त बानी।

ने पूछिहन त कवनो बात नइखे।हमरा खाए -पिए के कवन दिक्कत बा ?तोहरा इ सब ने बुझाई।’’

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बाबू जी खुद सिर्फ साक्षर थे।जमींदारी की मालगुजारी की  रसीद पर कैथी में कुछ लिखकर दस्तखत करते हुए मैं उन्हें देखता था जब मैं छोटा था।

खुद लघुत्तम जमीन्दार थे और एक बड़े जमीन्दार के तहसीलदार थे।मेरे घर में राम चरित मानस,शुकसागर और आल्हा ऊदल की किताब को छोड़कर कोई पठनीय सामग्री नहीं रहती थी।

पर शिक्षा के प्रति बाबू जी को बेहद लगाव था।

मैं 1963 में अपने परिवार में पहला मैट्रिकुलेट हुआ।

आसपास के गांव के किसी ऐसे परिवार को मैं नहीं जानता जो अपने बाल- बच्चों को जमीन बेच कर पढ़ा रहा हो।

मेरे बचपन में मेरे परिवार के पास जितनी जमीन थी,अब उससे आधी से भी कम रह गई है।पर, सड़क-बिजली-बाजार आदि विकसित हो जाने के कारण पहले की अपेक्षा आज की कम जमीन की कीमत भी,पहले की अधिक जमीन की कीमत से कई गुणा बढ़ चुकी है।बढ़ ही रही है।उस इलाकों को न्यू पटना बनाने का नीतीश कुमार का वायदा है।

यानी, मेरे बाबूजी दूरदर्शी थे--परंपरागत विवेक से लैस थे।

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मेरी मां के साथ मेरे बाबू जी जितना आदर से बातें करते थे ,उतना आदर-भाव मैंने किसी अन्य जोड़ी के बीच नहीं देखा।

 मां तो मां ही होती है।

किसी ने ठीक ही कहा है कि चूंकि ईश्वर हर जगह मौजूद नहीं रह सकते, इसलिए उन्होंने घर-घर मां भेज दिया।

मेरे बड़े भाई सौतेले थे।

फिर भी, मेरी मां ने उन्हें अपने पुत्र के समान ही प्यार दिया।

1986 में जब बाबू जी का निधन हुआ तो हमने मां से कहा कि अब आप पटना चल कर हमारे साथ रहिए।उसने कहा कि यह नहीं हो सकता।

लोग क्या कहेंगे ?

कहेंगे कि सौतेले बेटे को छोड़कर पटना चली गयी।मेरी मां नहीं आई। बाद में अपने आखिरी दिनों में पटना आकर मेरे साथ रही थी।

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 मां के साथ संतान के संबंध में कोई स्वार्थ नहीं होता।

यानी, निःस्वार्थ प्यार सिर्फ मां का प्यार ही होता है।

पिता का तो कम से कम यह स्वार्थ रहता ही है कि मेरी संतान मुझसे आगे बढ़ जाए।अधिक तरक्की करे।

  पर, मां को इन सबसे भी कोई मतलब नहीं।

बाकी लोगों के साथ तो लोगों का आपसी ‘लेन देन’ का रिश्ता होता है।

जरूरी नहीं कि उससे पैसे ही जुड़े हों।

लेन देन मतलब आप जितना स्नेह दीजिएगा,उतना पाइएगा।

जितना सम्मान दीजिएगा,उतना पाइएगा।

जितना दूसरे का ध्यान रखिएगा,उतना वह आपका ध्यान रखेगा।

अपवाद की बात और है।

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इसलिए विपरीत परिस्थितियों के लिए ठीक ही कहा गया है,

‘कुछ हंस कर बोल दो,

कुछ हंस कर टाल दो।

परेशानियां बहुत हैं,

कुछ वक्त पर डाल दो।’ 

मां के अलावा बाकी लोगों से संबंध निभाते रहने के लिए इस फार्मूले का इस्तेमाल किया जा सकता है।

संबंध तो कच्चा धागा है जिस पर निरंतर प्रेम का मांझा

लगाते रहना पड़ता है।

पर मां के मामले में इसकी भी जरूरत नहीं पड़ती।

और अंत में

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एक बार मेरी पत्नी मेरे नन्हे पुत्र को पीट रही थीं।शिक्षिका हैं,वैसे भी उनका अधिकार था।

तब तक सरकार ने शिक्षकों के हाथों से छड़ियां नहीं छीनी थीं।

खैर ,उन दिनों मेरी मां भी मेरे साथ ही रहती थीं।

उसे पोते  पर दया आ गई।

बोली, क्यों मार रही हो ?

उसने कहा कि ‘होम वर्क नहीं बनाया है।’

 मेरी मां ने कहा कि 

‘मैंने तो कभी एक चटकन भी नहीं मारा,

 फिर भी मेरे दोनों बबुआ कैसे पढ-लिख गए ?’ 

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12 मई 24


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