वो भी क्या दिन थे !
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सुरेंद्र किशोर
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सन 1957 के आम चुनाव होने वाले थे।
कांग्रेस के केंद्रीय प्रेक्षक बनकर मोरारजी देसाई पटना पहुंचे थे।
कट्टर गांधीवादी मोरारजी अन्य बातों के अलावा उम्मीदवारों के पहनावे के बारे में भी कड़ाई से पूछते थे।
सन 1952 में सांसद चुनी जा चुकीं तारकेश्वरी सिंन्हा एक बार फिर उम्मीदवार थीं।
मोरारजी देसाई ने उनसे पूछा कि
’‘तुम लिपस्टिक लगाती हो,कीमती कपड़े पहनती हो ?’’
तारकेश्वरी जी को गुस्सा आ गया।
उन्होंने कहा कि
‘‘ हमारे यहां चूड़ियां पहनना
अपात्रता नहीं बल्कि क्वालिफिकेशन माना जाता है।
आप जो शहतूूश की बंडी पहने हैं,इसकी कीमत से
मेरी छह कीमती साड़ियां आ सकती हैं।’’
उसके बाद तारकेश्वरी सिन्हा ने प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू को चिट्ठी लिखी कि ‘‘आप कैसे -कैसे प्रेक्षक भेजते हैं ?’’
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बाद में केंद्रीय वित मंत्रालय के तहत तारकेश्वरी सिन्हा, मोरारजी देसाई की डिपुटी बना दी गयीं।
कालक्रम में तारकेश्वरी सिन्हा ने एक बार कहा था कि
‘‘रात के अंधेरे में भी मोरारजी के कमरे में जाकर कोई जवान और सुंदर महिला सुरक्षित वापस लौटकर आ सकती है।’’
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बात 1957 के चुनाव के समय की ही है।
पटना में मोरारजी को एक उम्मीदवार के बारे में बताया गया कि वे छुआछूत मानते हैं।
संभवतः दूसरी बार विधान सभा टिकट के उस उम्मीदवार से देसाई ने पूछा--‘‘पंडत,सुना है, तुम छुआछूत मानते हो ?’’
पूर्वात्तर बिहार के उस पंडितजी से मोरारजी भाई ने कहा कि कांग्रेस तो छुआछूत के खिलाफ है।तुमको तो टिकट नहीं मिलेगा।
पंडित जी ने कहा कि ‘‘रखिए अपना टिकट अपने पास।
मैं चला।’’
यह कहते हुए पंडित जी चले गये।
भले पंडित जी का सिद्धांत सही नहीं था।
पर,जो भी था,विधान सभा की सदस्यता के लिए उन्होंने उसे नहीं छोड़ा।
याद रहे कि उन दिनों कांग्रेस के टिकट का मतलब था जीत की गारंटी।
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आज टिकट और सिद्धांत के बीच कौन नेता, कौन सा विकल्प चुनेगा ?
कल्पना कर लीजिए।
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वो भी क्या दिन थे !
फिल्म नजराना (1961)का गाना है--
एक वो भी दिवााली थी,एक ये भी दिवाली है,(सिद्धांतोे के मामले में) उजड़ा
हुआ गुलशन है,रोता हुआ माली
(सिद्धांतप्रिय आम जनता)है।
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