सोमवार, 13 मई 2024

 


अपने नेताओं के झूठे बयानों पर ऐसे 

काबू किया था यूरोप के एक अखबार ने

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सुरेंद्र किशोर

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यह बात यूरोप के एक देश से संबंधित है।

बहुत पुरानी भी है।

किंतु अपने इस देश पर आज भी लागू है।

 मैंने कई दशक पहले कहीं यह कहानी पढ़ी थी।

उस देश के अधिकतर नेता अक्सर झूठा  बयान या गलत आंकड़ा देते रहते थे।

वे बयान छपते थे तो अखबारों को दूसरे दिन परेशानी होती थी।या तो उसका खंडन आता था या फिर मानहानि के मुकदमे हो जाते थे।

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एक अखबार ने उसका ठोस उपाय किया।

झूठे नेताओं के झूठे बयान या आंकड़े जब अखबार के दफ्तर में आते थे तो अखबार वाले शंका होने पर उस संबंध में सही बात का पता लगा लेते थे।या पहले से ही उनके पास उस संबंध में सही तथ्य उपलब्ध होते थे।

अखबार उस झूठे बयान या गलत आंकड़े के साथ ही सही बात व सही आंकड़े भी उसी दिन छापने लगे।

अपनी ओर से टिप्पणी--इस नेता की झूठी बात यह है कि उसके विपरीत सही बात यह है।

पाठकगण दोनों को पढ़ें और उसके बाद ही उस पर अपनी राय बनायें।

जब ऐसे- ऐसे अनेक खंडन लगातार छपने लगे तो झूठे नेताओं को शर्म आई।उन्होंने झूठ बोलना काफी कम कर दिया।

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भारत के प्रिंट मीडिया के लिए तो यह करना कई कारणों से संभव नहीं लगता है।

पर, सोशल मीडिया

यह काम करे तो वह अधिक लोकप्रिय हो जाएगा।

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हां, इस मामले में संतुलन बरतने से मीडिया को अधिक लाभ होगा।

समानांतर मीडिया इस मामले में पक्ष और विपक्ष के नेताओं के साथ समान रुख अपनाए।

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अंत में 

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सत्तर-अस्सी के दशकों के बिहार के एक बड़े नेता जब सत्ता में होते थे तो वे राज्य की सिंचित जमीन का एक आंकड़ा बताते थे।आंकड़े को बढ़ा देते थे।

पर जब वही नेता विपक्ष में होते थे तो उनके आंकड़े में भारी कमी आ जाती थी।

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चुनाव के समय अपने देश के अधिकतर नेता लोग सार्वजनिक रूप से झूठ और अशिष्ट शब्दों का कुछ अधिक ही इस्तेमाल करते हैं।कई बार गाली-गलौज भी।

शायद पहले चंडूखानों में ही वैसी अशिष्टता देखी जाती थी।

पर,अब तो ऐसा हो गया है कि नयी पीढ़ी के अनेक लोगों को सक्रिय राजनीति से

घिन आती है।

एक बार एक छात्र ने सरल भाव से 

पूछा--क्या राजनीति में खादी के साथ-साथ झूठ बोलने की भी कोई मजबूरी होती है ?

शिक्षक ने कहा--कोई मजबूरी नहीं।

छात्र सोचने लगा--इन गालीबाज,अशिष्ट और झूठे नेताओं के परिजन और बाल-बच्चे अपने अभिभावक के बारे में कैसी राय बनाता होगा !

निजी टी.वी.चैनलों के कुत्ता भुकाव कार्यक्रमों पर अशिष्ट अतिथियों के बारे में उनके ही परिजन क्या सोचते होंगे ?

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सुरेंद्र किशोर

12 मई 24

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पुनश्चः

एक बार एक पूर्व केंद्रीय मंत्री जो बिहार के प्रमुख नेता थे, कहा था कि चुनाव के समय के गाली-गलौज को हम होली की गालियों की तरह ही बाद में भुला देते हैं।

पर सवाल है कि इस बीच नयी पीढ़ी को आप कैसी शिक्षा दे जाते हैं ? 





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