राह बदले बिना कांग्रेस का कायापलट कठिन
सुरेंद्र किशोर
सन 1998 और सन 1999 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस, राजग से हार गई थी।
किंतु सन 2004 में कांग्रेस दुबारा केंद्र की सत्ता में वापस आ गई।
इन दिनों भी कांग्रेस के कुछ नेता यह उम्मीद पाले हुए हैं कि
2014 और 2019 की लगातार दो पराजयों के बाद हम एक बार फिर 2024 में सत्ता में आएंगे।
पर,सवाल है कि क्या सन 2004 और सन 2020 की स्थितियां समान हैं ?
बिलकुल नहीं।
सन 2004 में कांग्रेस इसलिए सत्ता में आ गई थी क्योंकि राजग ने अपने कुछ पुराने सहयोगी दलों को खुद से दूर कर दिया था।वह फीलगुड में मगन जो था।
यानी, सन 2004 की जीत में खुद कांग्रेस की कोई खास सकारात्मक भूमिका नहीं थी।
हां, 2009 के चुनाव में कांग्रेस
सरकार की कुछ सकारात्मकताएं जरूर उसे काम आ र्गइं।
पर उसके बाद व पहले की यू.पी.ए.सरकारों ने जो -जो नकारात्मक काम किए थे ,उसके लिए मतदाताओं ने उसे 2014 में माफ नहीं किया।
इधर 2014 के चुनाव की पूर्व संध्या पर नरेंद्र मोदी के रूप में एक प्रामाणिक नेतृत्व विकल्प के रूप में लोगों के सामने मौजूद था।
कांग्रेस पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बीच सन 2014 का लोस चुनाव हुआ था।
2014 और 2019 के बीच कांग्रेस ने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे लोगों को लगे कि कांग्रेस ने इस बीच इन दो प्रमुख बुराइयों से खुद को अलग कर लिया है।
नतीजतन एक बार फिर 2019 में लोगों ने राजग को केंद्र की सत्ता दे दी।
अब जब कि कांग्रेस का तिनका -तिनका बिखरता जा रहा है तो इस पुराने दल के कुछ नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं।
कांग्रेस का एक हिस्सा लगातार दो लोस चुनावों में कांग्रेस की हार के लिए यू.पी.ए.सरकार के कुछ मंत्रियांें को जिम्मेदार ठहरा रहा है तो दूसरी ओर कुछ पूर्व मंत्री यह कह रहे हैं कि संगठन की कमेजारी के कारण हम मोदी सरकार की विफलताओं को जनता तक नहीं पहुंचा सके।
कांग्रेस का यह परंपरागत बहाना रहा है कि कांग्रेस कार्यकत्र्तागण प्रतिपक्ष के आरोपों और अफवाहों को कारगर ढंग से खंडन और प्रतिवाद नहीं कर सके।जिसे शीर्ष नेतृत्व की कमियों को देखने तक की आजादी न हो,वह कारण तो कहीं और ही तो खोजेगा !!
उन तीन-चार बातों की कोई कांग्रेसी चर्चा नहीं कर रहा है जो कांग्रेस के कमजोर होते जाने के मुख्य कारण हैं।
लोक लुभावन नारा गढ़ने वाले शीर्ष नेताओं का कांग्रेस में अब घोर अभाव हो गया है।
इंदिरा गांधी के जमाने में ऐसी कमी नहीं थी।
इंदिरा गांधी के जमाने में लोक लुभावन नारों ने कार्यकत्र्ताओं की कमी पूरी कर दी थी।
याद रहे कि 1969 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ तो अधिकतर पुराने नेता और कार्यकत्र्ता ‘कांग्रेस संगठन’ यानी मूल कांग्रेस में ही रह गए थे।
इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस में तो अधिकतर नए लोग थे।
फिर भी इंदिरा कांग्रेस 1971 का लोक सभा चुनाव बड़े बहुमत से जीत गई।
इंदिरा का नारा था,‘‘गरीबी हटाओ।’’
भले वह झांसा देने वाला नारा था,किंतु तब आम लोगों को काफी हद तक प्रभावित कर गया।
सोनिया-राहुल के नेतृत्व वाली आज की कांग्रेस के बारे में दूसरी बात यह है कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व
न तो तुरंत निर्णय करता है और न ही समावेशी संगठन बनाने पर जोर देता है।
उसने राज्यों को विभिन्न क्षत्रपों व उनकी संतानों के हवाले कर दिया है।
नतीजतन नई पीढ़ी के नेता निराश होकर एक -एक कांग्रेस छोड़ते जा रहे हैं।
कमलनाथ-नकुल नाथ के समक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपना भविष्य नहीं देखा तो बाहर चले गए।
असम और कुछ अन्य राज्यों में भी यही हो रहा है।
राजस्थान में वही कहानी दुहराई जा रही है।
वैभव गहलोत के समक्ष पायलट का भला क्या राजनीतिक भविष्य है ?
इस क्रम में राज्यों में कांग्रेस छिजती जा रही है।
जिन मुख्य कारणों से लगातार दो लोक सभा चुनावों में कांग्रेस की हार हुई,उन कारणों को दूर किए बिना देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का मजबूतीकरण भला कैसे संभव है ?
सन 2014 की हार के कारणों की तहकीकात के लिए सोनिया गांधी ने ए.के.एंटोनी के नेतृत्व में पार्टी का एक पैनल बनाया था।
उसकी रपट भी तभी आ गई थी।
किंतु उस रपट पर कांग्रेस के अंदर न तो कोई विमर्श हुआ और न ही पैनल द्वारा इंगित कमियों को दुरूस्त करने की कोई कोशिश ही हुई।
नतीजतन कांग्रेस सन 2019 के चुनाव में भी केंद्र की सत्ता नहीं पा सकी।
एंटोनी पैनल की मुख्य बात यह थी कि 2014 के लोस चुनाव में कांग्रेस ने धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता का जो नारा दिया ,उससे लोगों में कांग्रेस के प्रति गलत धारणा बनी।
एंटोनी के अनुसार वह धारणा यह थी कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों की ओर झुकी हुई है।एंटोनी के अनुसार इसका चुनावी नुकसान कांग्रेस को हुआ।
एंटोनी रपट के सारे बिंदुओं का पता नहीं चल सका,किन्तु यह अनुमान लगाया गया कि एंटोनी ने यह भी कहा कि यू.पी.ए.सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का कांग्रेसजन कारगर ढंग से प्रतिवाद नहीं कर सके।
अब सवाल है कि कांग्रेस जन उसका जवाब कैसे दे पाते जबकि उन आरोपों के खंडन के लिए उनके पास तथ्य ही नहीं थे ?
राष्ट्रीय स्तर पर दो चुनावी पराजयों के बाद साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कांग्रेस के अपने पिछले रुख में अब भी कोई परिवत्र्तन यानी सुधार नहीं किया है।
पाकिस्तान व चीन को लेकर कांग्रेस नेताओं के आए दिन ऐसे -ऐसे बयान आते रहते हैं जिनसे उन देशों को ही खुशी हो रही होती है।कांग्रेस ऐसा देश नहीं बल्कि अपने वोट बैंकको ध्यान में रख कर करती है।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार मर्ज कांग्रेस पार्टी के सिर में है,पर वह यदाकदा इलाज वह पैर का करने की कोशिश कर रहती है।
आत्मा की जगह काया पर जोर दे रही है।
सिर्फ संगठनात्मक फेरबदल के जरिए कांग्रेस को लगातार पराजयों के भंवर से
निकालना चाहती है।
यह संभव नहीं लगता।
कोरोना संकट से निकलने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार के समक्ष ऐतिहासिक महत्व के कई काम करने होंगे।
सी.ए.ए. के तहत शुरू हुए कामों को पूरा करना है।
केंद्र सरकार के वकील ने इस साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट से कह दिया कि किसी भी सार्वभौम देश के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एन.आर.सी. तैयार करना जरूरी है।
सी.ए.ए. और एन..आर.सी.पर कांग्रेस के पिछले रुख को देश ने देखा है।
उसको लेकर केंद्र सरकार यदि एक बार फिर कोई कदम उठाएगी तो कांग्रेस क्या करेगी ?
वही करेगी जो काम कांग्र्रेसियों ने शाहीनबाग धरना व दिल्ली दंगे के मौके पर किया।
ऐसे मुद्दों पर जब तक कांग्रेस अपना रुख नहीं बदलेगी,तब तक वह आम लोगों का फिर से विश्वास हासिल करने की शुरूआत भी कैसे कर पाएगी ?
मनमोहन सरकार के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के कारण भी कांग्रेस को चुनावी नुकसान उठाना पड़ा था,यह जगजाहिर है।
किसी जिम्मेदार दल से यह उम्मीद की जाती है कि वह ऐसे मामले में अपनी पिछली गलतियों को सुधारे।
पर क्या कांग्रेस में भ्रष्टाचार को लेकर सुधार के कोई लक्षण दिखाई
पड़ रहे हैं ?
दूसरी नरेंद्र मोदी सरकार के किसी मंत्री पर पिछले छह साल में किसी बड़े घोटाले का आरोप नहीं लगा।
ऐसे फर्कों को देखकर लोगों को किसी दल या नेता के बारे में कोई
निर्णय करने में बहुत सुविधा हो जाती है।
प्रथम परिवार सहित कांग्रेस के कई महत्वपूर्ण नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई मुकदमे चल रहे हैं।
उन खास मामलों में उन आरोपितों का कैसा रवैया होगा,वे खुद कानूनी स्थिति को देखते हुए तय कर सकते हैं।
उन मामलों में उनकी मजबूरी हो सकती है।
पर क्या आम भष्टाचारांे को लेकर कांग्रेस अपना रुख-रवैया नहीं बदल सकती ?
चाहे तो बदल सकती है।
पर उम्मीद कम है।क्योंकि राहुल गांधी के अघोषित आर्थिक सलाहकार अभिजीत बनर्जी ने गत साल यह कह दिया कि
‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय,शायद भ्रष्टाचार अर्थ व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था,इसे काट दिया गया है।
मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’
ऐसे सलाहकार बनाने का कारण समझ लीजिए जो यह शिकायत कर रहा है कि मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार पर हमला क्यों किया ?
ऐसे में कांग्रेस के लिए बेहतर भविष्य की कोई उम्मीद
बनती है क्या ?
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13 अगस्त 2020 के दैनिक जागरण में प्रकाशित