थोड़ा लिखना, अधिक समझना !
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अस्सी के दशक की बात है।
मैं समाचार एजेंसी यू.एन.आई.के पटना आॅफिस में
बैठा हुआ था।
ब्यूरो प्रमुख डी.एन.झा से कुछ सीखने के लिए उनके
पास अक्सर बैठा करता था।
उनके समक्ष मैंने चर्चित साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ की तारीफ शुरू कर दी।
इस पर झा जी ने मुझे टोकते हुए कहा कि
‘‘रविवार और संडे नहीं चलेगा।
इंडिया टूडे चलेगा।’’
मुझे उनकी यह बात अच्छी नहीं लगी।
क्योंकि एक तो उस पत्रिका की हमलावर रिपोर्टिंग मुझे तब अच्छी लगती थी।
दूसरी बात यह कि ‘रविवार’ मुझसे भी यदाकदा लिखवाता रहता था।
इसलिए मैंने झा जी से पूछा,
‘‘ऐसा आप क्यों कह रहे हैं ?’’
उन्होंने कहा कि
‘‘देखिए,रविवार और संडे जिस पर आरोप लगाता है,उसका पक्ष नहीं देता है।
किंतु यह काम इंडिया टूडे करता है।’’
उस समय तो मैं झा जी की बात से सहमत नहीं हुआ।
पर, जब अस्सी के दशक के अंत में हिन्दी साप्ताहिक रविवार और नब्बे के दशक के मध्य मंे अंग्रेजी साप्ताहिक संडे बंद हो गया तो मुझे झा जी की बात याद आई।
अंग्रेजी ‘इंडिया टूडे’ का प्रकाशन 1976 में शुरू हुआ था।
बाद में वह हिन्दी में भी छपने लगा।
कुछ अन्य भाषाओं में भी।
हिन्दी -अंग्रेजी संस्करण तो मैं अब भी देखता हूं।
अन्य भाषाई संस्करणों का क्या हुआ,यह मैं नहीं कह सकता।
टाइम्स-हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के अच्छे- अच्छे हिन्दी प्रकाशन एक- एक कर बंद हो गए।
ऐसे में इंडिया टूडे का हिन्दी सस्करण जारी रहना सुखद आश्चर्य है।
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मैंने यह सब क्यों लिखा ?
यह प्रकरण मैं कुछ साल पहले भी लिख चुका हंू।
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थोड़ा लिखना ,अधिक समझना !
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सुरेंद्र किशोर--31 अगस्त 20
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