कश्मीर समस्या और हमारे पहले के शीर्ष शासक
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आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति के पद पर प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू एक ऐसे नेता को बैठाने की जिद पर अड़ गए थे जिनकी राय रही थी कि
‘‘कश्मीर समस्या के हल के लिए कश्मीर को 10 वर्षों के लिए अमेरिका, सोवियत रूस और ब्रिटेन की संयुक्त परिषद को सौंप देना चाहिए।’’
यदि आज कोई बड़ा नेता इस तरह का विचार व्यक्त करे तो उसके बारे में इस देश के लोगों की कैसी राय बनेगी ?
अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
पर यही बात पूर्व गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी उर्फ राजा जी ने सार्वजनिक रूप से कभी कह दी थी।
आज ‘दिनमान’ की फाइल उलट रहा था तो संबंधित रपट मिली।
संयोग से यह महीना भी अगस्त का ही है।
राजाजी ने अगस्त, 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का भी विरोध किया था।
वे खुली अर्थ व्यवस्था के पक्ष में थे जबकि जवाहरलाल मिश्रित अर्थ व्यवस्था के पक्षधर थे।
सवाल है कि राजाजी और नेहरू में कौन सी बात समान यानी कामन थी ?
अनुमान लगाइए।
जब कांग्रेस पार्टी राजाजी पर राजी नहीं हो रही थी तो इस सवाल पर नेहरू ने प्रधान मंत्री पद से इस्तीफे तक की धमकी दे डाली थी।
किसी ने जब कहा कि
‘‘दे दो इस्तीफा,’’तो वे पीछे हट गए।
सरदार पटेल ,महावीर त्यागी और रामनाथ गोयनका आदि राजेंद्र बाबू के पक्ष में थे।
आखिरकार राजेन बाबू राष्ट्रपति बन गए।
आजादी के तत्काल बाद जवाहरलाल नेहरू प्रधान मंत्री बने।
डा.एस.राधाकृष्णन उप राष्ट्रपति बने ।
यदि राजाजी राष्ट्रपति बन गए होते तो क्या इस बात की आंशका नहीं रहती थी कि ऐसी सोच वाले शीर्ष नेता कश्मीर को तीन देशों को सौंप देते ताकि ‘‘इससे स्थिति की परीक्षा हो सकेगी और यह संभव है कि भारत और पाकिस्तान के बहुत से जटिल प्रश्न इससे हल हो जाएं।’’
क्या कश्मीर पर इस्लामिक शासन लागू करने के अलावा पाक का कभी और कोई लक्ष्य रहा है ?
इतनी सी बात उन दिनों के बड़े नेताओं की भी समझ नहीं आ रही थी।
मौजूदा मोदी सरकार कश्मीर समस्या को वास्तविक परिप्रेक्ष्य में समझ कर उसकी ‘दवाई’ करने की कोशिश कर रही है।
इस्लामिक शासन कायम करने की कोशिश को विफल करने की समस्या को चीन भी अपने एक प्रदेश में हल करने की कोशिश कर रहा है।अपने ढंग से।
चीन तो कहता है कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के पास जेहादियों को सही राह पर लाने का कोई कारगर उपाय है ही नहीं ।
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सुरेंद्र किशोर-8 अगस्त 20
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