रविवार, 31 जनवरी 2021

     हामिद अंसारी का सेक्युलरिज्म

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पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा है कि वह सेक्युलरिज्म मौजूदा सरकार के शब्दकोश में नहीं है जो 2014 से पहले की केंद्र सरकार के शब्दकोश में था।  

  क्या हामिद अंसारी और कांग्रेस का सेक्युलरिज्म,पी.एफ.आई.के सेक्युलरिज्म से मेल खाता है ?

यदि ऐसा नहीं है तो पूर्व उप राष्ट्रपति अंसारी पी.एफ.आई.की महिला शाखा के समारोह में शामिल होने के लिए सितंबर, 2017 में कोझीकोड क्यों गए थे ?

  पी.एफ.आई.के राजनीतिक संगठन एस.डी.पी.आई.का गत कर्नाटका विधान सभा चुनाव में कांग्रेस से तालमेल क्यों हुआ था।

क्या पी.एफ.आई.सेक्युलर संगठन है ?

  केरल सरकार ने  24 दिसंबर, 2012 को हाईकोर्ट से कहा कि सिमी का ही नया रूप पाॅपुलर फं्रट आॅफ इंडिया है।

  याद रहे कि यह आरोप है कि गत साल दिल्ली व उत्तर प्रदेश में भीषण दंगे कराने में पी.एफ.आई.का हाथ था।.

    सिमी के बारे में जानिए।

 उस संगठन के अहमदाबाद जोन के सेके्रट्री साजिद मंसूरी ने 2001 में  मीडिया से  बातचीत  में कहा था कि

 ‘जब हम भारत में सत्ता में आएंगे तो सभी मंदिरों को नष्ट कर देंगे और वहां मस्जिद बना देंगे।’

सिमी के एक दूसरे नेता ने मीडिया से कहा था कि लोकतांत्रिक तरीके से भारत में इस्लामिक शासन संभव नहीं है।इसलिए हमारा  एकमात्र रास्ता जेहाद है।

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सन 2001 में सिमी पर प्रतिबंध लगा दिया था।

बाद की मनमोहन सरकार ने भी उस पर प्रतिबंध जारी रखा।क्योंकि खुफिया रपट ही वैसी थी।

प्रतिबंध के खिलाफ कांग्रेस नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद सुप्रीम कोर्ट में सिमी के वकील थे।

  इस देश के अधिकतर तथाकथित ‘सेक्युलर’ दलों ने समय -समय पर सार्वजनिक रूप से सिमी का बचाव किया।

  नरेंद्र मोदी की चुनावी सफलता दूसरा सबसे बड़ा कारण यही था।

सबसे बड़ा कारण मनमोहन सरकार का भीषण भ्रष्टाचार था।

यदि कांग्रेस सरकारों ने आम मुसलमानों के कल्याण के लिए काम किए होते तो उसकी वैसी चुनावी दर्गति नहीं होती।

पर उसने मुसलमानों के बीच के जेहादी तत्वों का हमेशा साथ दिया।   

    अब समझ गए न कि हामिद अंसारी का सेक्युलरिज्म कैसा है ?

क्या हामिद ने कभी सिमी,पी.एफ.आई.या जेहादी तत्वों  का विरोध किया ?

 अन्य धर्मो के अतिवादी तत्वों की खूब आलोचना कीजिए।

 पर जरा जेहादियों के खिलाफ भी तो कुछ बोलिए।

यदि नहीं तो कांग्रेस व हामिद अंसी जैसे लोगों व बुद्धिजीवियों का कोई भविष्य नहीं है।

वे लगातार हाशिए पर पहुंचते रहेंगे।

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--सुरेंद्र किशोर --31 जनवरी 21 




बुधवार, 27 जनवरी 2021

 तथाकथित किसान आंदोलन का घिनैाना रूप

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शर्म करो किसान नेताओ !

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चेतावनी के बावजूद अपने बीच से विध्वंसक तत्वों को निकाल बाहर नहीं किया

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किसानों की नेतागिरी छोड़ो या आज के विध्वंसक हिंसक तत्वों के खिलाफ गवाही दो 

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--सुरेंद्र किशोर--

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1.-खालिस्तानी तत्व-नक्सली तत्व-पाक समर्थक तत्व-आढतिए और मंडी के दलाल-वे दल जिनके नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में मुकदमे चल रहे हैं आदि ने मिलकर दिल्ली को आज बंधक बना लिया।

2.-इससे पहले गत साल जेहादी संगठन पी.एफ.आई.ने विदेशी पैसे के बल पर दिल्ली और उत्तर प्रदेश में भीषण दंगे करवाए थे।

3.-आने वाले दिनों में जब सी.ए.ए.-एन.आर.सी.लागू करने की 

कोशिश केंद्र सरकार करेगी तो जेहादी तत्व एक बार फिर देश में आग लगाने की कोशिश करेंगे।

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प्रतिपक्ष में जो भी जिम्मेदार व देशभक्त तत्व हैं, जो पाक या चीन समर्थक नहीं हैं,उनसे मिलकर सत्ता दल इस बात पर विचार करे कि देश को कोई बंधक बनाना चाहे तो सरकार को क्या करना चाहिए ?

प्रतिपक्ष यदि साथ न दे तो भी सरकार को चाहिए कि वह बंधक बनाने वाले तत्वों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करे चाहे उसका जो भी नतीजा हो।

  जब देश बचेगा तभी तो लोकतंत्र, दल व लोग बचेंगे !

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--सुरेंद्र किशोर-26 जनवरी 21

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मंगलवार, 26 जनवरी 2021

      नाम को नहीं,काम को मिला सम्मान !

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 नरेंद्र मोदी के शासनकाल में पद्म सम्मानों की गरिमा 

स्थापित होने लगी है।

बिहार से सम्मानितों की सूची को देख कर लगा कि नाम को नहीं बल्कि काम को सम्मान मिला है।

5 सम्मानितों में से तीन का मैंने पहली बार नाम सुना है।

मैंने नहीं सुना तो इसका मतलब यह नहीं कि उनके काम -योगदान सराहनीय नहीं रहे।

हां, वे प्रचार से दूर रहकर अपने काम में लगे रहे।

  पर इस सम्मान की गरिमा तब पूरी तरह स्थापित होगी जब उन लोगों को यह सम्मान नहीं मिलेगा जिन्होंने राजनीति में घृणित अपराधियों व कू्रर माफियाओं को स्थापित किया है।

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कई दशक पहले की बात है।

एक नामी व्यक्ति को पहले पद्मश्री से सम्मानित करने का निर्णय हुआ था।

पर पता चला कि उस हस्ती ने 16 लाख रुपए खर्च करके पद्म भूषण हथिया लिया।

ऐसे ही मामलों को जान-सुनकर एक बार खुशवंत सिंह ने कहा था कि 

‘‘पद्म सम्मान देने के आधार क्या हैं,मैं आज तक जान नहीं पाया।’’

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--सुरेंद्र किशोर-26 जनवरी 21   

   


   दिल्ली में हुड़दंग,हिंसा और टकराव

यह सरकार द्रोह नहीं बल्कि देशद्रोह है।

  आंदोलनकारियों को न तो संसद पर भरोसा है

 और न सुप्रीम कोर्ट पर 

इन्हें अहिंसा में भी विश्वास नहीं हैं

फिर इनसे सरकार कैसे निपटे !

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--सुरेंद्र किशोर-

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भारत की संसद ने गत साल तीन कृषि कानून पास किए।

तीन-चार राज्यों के कुछ किसानों को ये कानून पसंद नहीं हैं।

वे आंदोलनरत-धरनारत हैं।

अब तो हिंसक हो उठे हैं।

   केंद्र सरकार उन कानूनों को रद करने की मांग नहीं मांन रही है।

क्योंकि इन कानूनों के जरिए देश के किसानों की आय दुगुनी होनी है।

किसानों के आंदोलन को आढतियों व बिचैलियों का आंदोलन बताया जा रहा है।

उनमें कुछ देशद्रोही तत्व घुस गए हैं।

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कृषि कानून विरोधी किसानों को कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए था।

कोर्ट से उन्हें मांग करनी चाहिए थी कि वह कानून को रद करे।

  पर उन्हें सुप्रीम कोर्ट पर विश्वास नहीं है।

 यदि कृषि कानून देश के किसानों के खिलाफ है तो किसानों व उनके नेताओं को चाहिए था कि वे 2024 के लोक सभा चुनाव का इंतजार करते

जो सरकार किसान विरोधी होगी, वह चुनाव नहीं जीत पाएगी।

  पर आंदोलनकारी यह जानते हैं कि तीन राज्यों को छोड़कर देश के अधिकतर किसान कानून के पक्ष में हैं।

इसलिए कृषि कानून विरोधी किसान व उनके नेता आज दिल्ली की सड़कों पर पुलिस से ‘युद्ध’ कर रहे हैं।

 युद्ध का मुकाबला केंद्र सरकार को युद्ध से दे 

ही देने को मजबूर होना पड़ेगा।

दरअसल किसानों के बीच कुछ ऐसे देशद्रोही तत्व घुस गए हैं जो इस आंदोलन के जरिए कोई अन्य लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं।

   उनके उद्देश्यों का पता परंपरागत किसान नेताओं को पहले से ही था।

इसलिए उन्हें आंदोलन फिलहाल स्थगित कर देना चाहिए था।

पर उन्होंने ऐसा न करके खुद को गैर जिम्मेदार नेता साबित किया है।

  पता नहीं आज का हिंसक आंदोलन कौन सा रूप ग्रहण करेगा।

 किंतु अंततःकेंद्र सरकार को तत्काल उपद्रवियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करके उन्हें ठंडा करना पड़ेगा।

बाद में उन पर देशद्रेाह का मुुकदमा कायम करना होगा।

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--सुरेंद्र किशोर-

26 जनवरी, 21  


शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

 बाबू जी की पुण्य तिथि पर

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पंडित ओम व्यास ओम ने ठीक ही लिखा है कि 

‘पिता भय से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है।’

मुझे याद नहीं कि बाबू जी ने कभी हमें बचपन में एक थपड़ भी मारा हो।

दरअसल उनकी उपस्थिति मात्र से हम सब भाई अनुशासित रहते थे।

वैसी कद-काठी का शायद ही कोई व्यक्ति जवार में हो !

मेरे परमानंद मामा (जमशेद पुर में बस गए हैं) उनके बारे में कहते थे कि मेरे बहनाई शेर हैं।

  स्वाभाविक ही है कि उनके जीवनकाल में तो हमें उनके महत्व का उतना पता नहीं चल सका।

पर, न रहने पर हम सोचते रहे कि शायद हम लोग उनसे परंपरागत विवेक को लेकर कुछ अधिक सीख सकते थे।

उनकी स्कूली शिक्षा तो नहीं थी,

किंतु वे रामायाण पढ़ते थे,

कैथी लिखते थे।

जमींदारी की रसीद काटते थे।

गांव- जवार में पंचायती करने जाते थे।

हां,वे मुकदमे के सिलसिले में अक्सर पटना-छपरा 

जाते रहते थे।

कहा करते थे कि पटना हाईकोर्ट भवन के आसपास पहले धान की खेती होती थी जिसेे उन्होंने देखा था।

विधायक काॅलोनी तो बाद में बनी।

  बाबूजी का 19 जनवरी 1986 को निधन हो गया।

मेरी बेटी अमृता ने फेसबुक पर आज उन्हें पहले याद किया।

बाद में मैं।

  ओम व्यास ओम की कविता के जरिए हमें पिता के पूरे महत्व का एहसास हुआ।

आपके साथ साझा कर रहा हूं।

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पिता

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पिता  जीवन है, संबल है, शक्ति है।

पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है।

पिता अंगुली पकड़े बच्चे का सहारा है।

पिता कभी खारा तो कभी मीठा है।

पिता पालन पोषण है,परिवार का अनुशासन है।

पिता भय से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है।

पिता रोटी है, कपड़ा है,मकान है।

पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है।

पिता अप्रदर्शित अनंत प्यार है।

पिता है तो बच्चों को इंतजार है।

पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं।

पिता है तो बाजार के सब खिलौने अपने हैं।

पिता से प्रतिपल राग है।

पिता से ही मां की बिंदी और सुहाग है।

पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है।

पिता गृहस्थाश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है।

पिता अपनी इच्छाओं का हनन परिवार की पूत्र्ति है।

पिता रक्त में दिए हुए संस्कारों की मूत्र्ति है।

पिता एक जीवन को जीवन का दान है।

पिता दुनिया दिखाने का अहसास है।

पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है।

पिता नहीं तो बचपन अनाथ है।

पिता  से बड़ा अपना नाम करो।

पिता  का अपमान नहीं, अभिमान करो।

क्योंकि मां-बाप की कमी कोई पूरी नहीं कर सकता।

ईश्वर भी इनके आशीषों को काट नहीं सकता।

दुनिया में किसी भी देवता का स्थान दूजा है।

मां-बाप की सबसे बड़ी पूजा है।

वो खुशनसीब होते हैं, मां-बाप जिनके साथ होते हैं।

       --  पंडित ओम व्यास ओम

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 डिजिटल प्लेटफार्म के लिए भी फिल्म सेंसर बोर्ड जैसी व्यवस्था अब जरूरी-सुरेंद्र किशोर

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इस देश के केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड ने 

प्रमाण पत्र देने के कुछ नियम बहुत पहले से तय कर रखे हैं।

ऐसा माना जाता रहा है कि जो फिल्म उन नियमों पर खरी उतरेगी,उसे ही पास किया जाएगा।

   कई दशक पहले तक तो इसका आम तौर से पालन होता था।

नतीजनत ,तब ऐसी फिल्में बनती थीं जिन्हें लोग सपरिवार देख सकते थे।यानी साफ-सुथरी और शालीन।शिक्षाप्रद व प्रेरक भी। 

 पर आज स्थिति बदल चुकी है।

आज उन नियमों का व्यवहार में इसका कितना पालन होता है,यह जांच का विषय है।

  डिजिटल प्लेटफार्म के लिए तो अभी ऐसा कोई नियम बना ही नहीं।

नतीजतन वाणी की स्वतंत्रता के नाम पर सोशल मीडिया में भारी अराजकता है। 

सेंसर बोर्ड का एक नियम यह है कि ‘‘जातिगत,धार्मिक या अन्य समूहों के लिए अवमाननापूर्ण दृश्य नहीं प्रदर्शित किए जाएंगे।

साथ ही अवमाननापूर्ण शब्द भी उच्चारित नहीं किए जाएंगे।’’

   चूंकि वेब सिरिज ‘‘तांडव’’ किसी सेंसरशिप प्रक्रिया से नहीं गुजरा,इसलिए तांडव जन भावना को गलत ढंग से उभारने वाला साबित हुआ है।यह चिंताजनक स्थिति है।

क्रिएटिव फ्रीडम के नाम पर तांडव के आपत्तिजनक दृश्यों-शब्दों का बचाव भी हो रहा है।

तांडव पर आपत्ति करने वालों का गुस्सा इसलिए बढ़ गया है क्योंकि तांडव का बचाव करने वाले लोग इसी तरीके से किसी अन्य समुदाय की भावना पर चोट पहुंचने पर विभिन्न मंचों से जोर -जोर से चिल्लाने लगते हैं।

  हां, यहां एक बात कहनी जरूरी है।

ओवर द टाॅप प्लेटफार्म यानी ओटीटी पर नकेल कसने के लिए

जो भी बोर्ड या समिति  बने उसे उस तरह न संचाालित किया जाए जिस तरह लुंजपुज तरीके से मौजूदा फिल्म सेंसर बोर्ड को चलाया जा रहा है। 

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फिल्म सेंसर बोर्ड की 

विवादास्पद कार्य प्रणाली 

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‘तांडव’ के बहाने फिल्म सेंसर बोर्ड पर एक बार फिर  सरसरी नजर डालने की जरूरत है।

इन दिनों की अधिकतर फिल्में सेंसर बोर्ड के अपने ही नियमों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती।

 मेरे सामने बोर्ड के करीब एक दर्जन नियमों की एक लिस्ट है।

 उसे जब मैं देखता हूं तो ऐसा लगता है कि बोर्ड अपना काम नहीं कर रहा है।

 या तो वहां अब भी भ्रष्टाचार है या फिर किन्हीं माफियाओं का उस पर भारी असर है।

  नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद लगा था कि बोर्ड की स्थिति में फर्क आएगा।

किंतु लगता है कि अन्य अधिक जरूरी कामों के दबाव में केंद्र सरकार को उस ओर ध्यान देने की फुर्सत नहीं है।

2014 के अगस्त में सेंसर बोर्ड के सी.इ.ओ.राकेश कुमार को घूस लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।

गिरफ्तारी के बाद राकेश कुमार ने यह रहस्योद्घाटन किया था कि बड़ी -बड़ी फिल्मों को भी बोर्ड में चढ़ावा देना पड़ा था।

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    सेंसर नियमों की बानगी

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 1.-मानवीय संवेदनाओं को चोट पहुंचाने वाली अशिष्टता,अश्लीलता और दुराचारिता वाले दृश्य न दिखाए जाएं।

2.-अपराध करने के लिए प्रेरित करने वाले दृश्य न दिखाए जाएं।

अपराधियों की कार्य प्रणाली न दिखाई जाए।

3.-महिलाओं को बदनाम करने वाला कोई भी दृश्य न दिखाया जाए।

 किसी भी प्रकार से महिलाओं का तिरस्कार करने वाला दृश्य न दिखाया जाए।

4.-उत्पीड़न या लैंगिक हिंसा के दृश्य न दिखाए जाएं।

यदि जरूरी हो तो अत्यंत संक्षेप में दिखाया जाए।

5.-हिंसा को उचित ठहराने वाले दृश्य फिल्म में न हों।

सेंसर बोर्ड के इस तरह के अन्य कई नियम व कसौटियां हैं।

फिर भी क्या उनका पालन आज की फिल्मों में हो रहा है ?

पचास-साठ के दशकों में पालन जरूर होता था।

तब लोग परिवार के साथ भी फिल्में देखा करते थे।

आज की कितनी फिल्मों को परिवार के साथ देखा जा सकता है ?

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  यू.पी.में फिल्म सिटी का निर्माण शुरू

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इस बीच यह अच्छी खबर आई है कि गौतम बुद्ध नगर में 

प्रस्तावित फिल्म सिटी का निर्माण कार्य शुरू हो गया है।

इस साल वहां फिल्मों की शूटिंग भी शुरू कर देने की योजना है।

यदि योजनानुसार काम चला तो वहां एक दिन देश की सबसे

 बड़ी फिल्म सिटी बनेगी। 

  ऐसे में सेंसर बोर्ड का मुख्यालय इसी प्रस्तावित फिल्म सिटी में रखा जाना चाहिए।

इससे मुम्बई के विवादास्पद लोगों के हाथों में सेंसर बोर्ड की  

नकेल नहीं रहेगी।

फिल्मी दुनिया पर से निहितस्वार्थी तत्वों का एकाधिकार समाप्त हो जाएगा।

  वैसे सेंसर बोर्ड में ऐसे लोगों को रखा जाना जरूरी है जो नियमों के अनुसार काम करने के अभ्यस्त हों।

देश में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है।

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  गन्ना किसानों की परेशानी 

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बिहार के सीतामढ़ी जिले की रीगा चीनी मिल गत मई 

से बंद है।

मजदूर और किसान परेशान हैं।

आसपास के गन्ना किसानों से कहा गया है कि वे गोपालगंज ,सिधवलिया और मझौलिया चीनी मिलों में अपना गन्ना पहुंचाएं।

गन्ना पहुंचाने में जिन्हें घाटा हो रहा है,वे किसान गन्ना जला रहे हैं।

संयुक्त किसान संघर्ष मोरचा ने मुख्य मंत्री नीतीश कुमार से अपील की है कि वे गन्ना मूल्य और के.सी.सी.के 140 करोड़ रुपए का भुगतान करवाने का प्रबंध करें।

   और अंत में 

  ’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

आर्यभट्ट की नगरी खगौल ज्ञान -विज्ञान के लिए मशहूर रही।

 बिहार के दानापुर के पास स्थित खगौल में दो काॅलेज चलते हैं।

पर, उनमें से किसी में भी स्नातकोत्तर की पढ़ाई तक नहीं होती।रिसर्च वगैरह की बात कौन कहे !

क्या इस पर कभी किसी ने सोचा ?

यदि नहीं, तो क्या नीति निर्धारक लोग अब तो सोचेंगे !

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साप्ताहिक काॅलम ‘कानोंकान,’

प्रभात खबर ,पटना ,

22 जनवरी 21


बुधवार, 20 जनवरी 2021

         हम होंगे कामयाब एक दिन !!

         --सुरेंद्र किशोर--

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याज्ञवल्क्य ने कहा था कि 

‘‘अपराधी कोई भी हो,सजा समान होनी चाहिए।’’

काश ! आजादी के बाद अपने देश में भी ऐसा ही हुआ होता।

पर, इसके बदले हो गया --

‘‘प्रथम ग्रासे , मक्षिका पात !’’

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यह घटना तब की है जब 

सरदार पटेल जीवित थे।

एक केंद्रीय मंत्री के पुत्र से उत्तर प्रदेश में एक 

हत्या ‘हो गई !’

 केंद्रीय मंत्री, त्राहिमाम करते प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास गए।

नेहरू ने कोई मदद करने से साफ मना कर दिया।

पर एक अन्य ताकतवर केंद्रीय मंत्री काम आ गए।

पुत्र को जेल से रिहा करवा कर विदेश भेज दिया गया।

भले विदेश जाकर उसने बहुत अच्छा काम किया-लौटकर अपने देश के लिए भी।

   पर, उस घटना से यह तो तय हो गया कि आजाद भारत में कानून सबके लिए बराबर नहीं होगा।

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आजादी के प्रारंभिक वर्षों में ही नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य सी.डी.देशमुख ने प्रधान मंत्री से कहा था कि मंत्रियों में बढ़ रहे भ्रष्टाचार की खबरें मिलने लगी हैं।

आप एक ऐसी उच्चस्तरीय एजेंसी बना दें जो भ्रष्टाचार की उन शिकायतों को देखे।

इस पर नेहरू ने कहा कि ऐसा करने से मंत्रियों में पस्तहिम्मती आएगी।

उसका विपरीत असर सामान्य सरकारी कामकाज पर पड़ेगा।

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जार्ज फर्नांडिस ने आरोप लगाया था कि 1971 के लोक सभा चुनाव में बंबई में मुझे हरवाने के लिए प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने वहां के माफियाओं की मदद ली।

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सन 1962 में जे.बी.कृपलानी को वी.के. कृष्ण मेनन से हरवाने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने सिर्फ फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार की मदद ली थी।

(दिलीप कुमार की जीवनी में यह बात दर्ज है।)

पर, उनकी पुत्री और आगे बढ़ गईं।

(नब्बे के दशक में ही वोहरा कमेटी की रपट ने

यह बता दिया था कि हमारे हुक्मरानों ने देश की हालत कैसी बना रखी है !)

इंदिरा जी ने कहा था कि 

‘‘मेरे पिता संत थे।

पर,मैं तो राजनेत्री हूं।’’

उनके पिता ने कोई निजी संपत्ति खड़ी नहीं की।

पर इंदिरा जी के वसीयतनामे में (इलेस्ट्रेटेड वीकली आॅफ इंडिया-19 मई, 1985)

मेहरौली के फार्म हाउस के अलावे भी बहुत सी बातें हैं।

अपवादों को छोड़कर आज के नेता तो विंस्टन चर्चिल के शब्दों में ‘‘पुआल के पुतले’’ मात्र हैं !

इस देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार के बारे में

इंदिरा जी ने कहा था कि यह तो वल्र्ड फेनोमेना है।

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अब आज के नेताओं के बारे में क्या कहना !!!

जब स्वतंत्रता सेनानियों का यह हाल था !

अपवाद पहले भी थे,अपवाद आज भी हैं।

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पर इस बीच देश की हालत क्या बन गई है ?

ऐसे -ऐसे लोग बहुत ताकतवर हो गए

हैं जो पैसे व वोट के लिए देश का सौदा कर रहे हैं।

देश के बचाने व बांटने पर अमादा लोगों के बीच

अघोषित ‘युद्ध’ चल रहा है।

पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद वह तेज होगा।

आजादी के बाद ही देश की ऐसी कमजोर अधारशीला  बना दी  गई कि लड़ाई अब कठिन हो गई है।

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यानी, याज्ञवल्क्य तो नहीं बचा सके ,अब शायद भगवान ही बचा लंे अपने देश को तो बहुत है ! 

देश को बचाने की कोशिश में लगी शक्तियां हांफ रही हैं।

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---सुरेंद्र किशोर --19 जनवरी 21 


सोमवार, 18 जनवरी 2021

      राजनीतिक त्रिदोष ग्रस्त दलों का अस्तित्व खतरे में 

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      --सुरेंद्र किशोर--

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लगता है कि राजनीतिक त्रिदोष ग्रस्त तृणमूल के सत्ता से बाहर जाने की अब बारी है।

   कफ,पित्त और वायु को आयुर्वेद में त्रिदोष कहा गया है।

दूसरी ओर राजनीति के त्रिदोष हैं-भ्रष्टाचार, परिवारवाद और 

तुष्टिकरण।

    राजनीतिक त्रिदोष से ग्रस्त कई तथाकथित सेक्युलर दल 

अब काफी दुबले हो चुके हैं।

उनमें से अधिकतर की सत्ता भी छिन गई।

इस बार वहां के विधान सभा चुनाव से ठीक पहले पश्चिम बंगाल से भी वैसे ही संकेत मिल रहे हैं।

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  पिछले कुछ महीनों में जितनी बड़ी संख्या में प्रमुख नेताओं ने  ममता बनर्जी का साथ छोड़ा है,वह एक रिकाॅर्ड है।

दरअसल पहले जनता किसी दल का साथ छोड़ती है और बाद में राजनीति के मौसमी पक्षी !

तृणमूल छोड़ने वाले नेताओं में अधिकतर मौसमी पक्षी ही हैं। 

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   त्रिदोषग्रस्त तृणमूल कांग्रेस की ‘‘पिता-पुकार’’ भी बेकार गई।

तृणमूल कांग्रेस के सौगत राय ने सी.पी.एम.और कांग्रेस से अपील की  कि वे तृणमूल कांग्रेस से मिलकर पश्चिम बंगाल के अगले विधान सभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला करें।

पर,कांग्रेस-सी.पी.एम.ने सौगत राय के इस आॅफर को ठुकरा दिया है।

लगता है कि तृणमूल का त्रिदोष एडवांस स्टेज में है।

कोई ‘वैद्य’ काम नहीं आ रहा है।

देश में अब भी सक्रिय ऐसे अन्य त्रिदोषग्रस्त राजनीतिक दल अब भी चेत जाएं।

चेत जाएंगे तो लोकतंत्र का भला होगा।

 अन्यथा, देश अघोषित रूप से एकदलीय शासन की ओर बढ़ जा सकता है

जो सही नहीं होगा।

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--15 जनवरी 21


       मुझे जानने वालों से दो बातेें

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कई बार मेरे कुछ लेखों पर व मेरे यहां किसी बड़ी हस्ती के आने पर कुछ लोग अटकलें लगाने लगते हैं।

मेरे फेसबुक वाॅल पर भी ऐसी बातें हुई हैं।

जागरूक मित्र व मेरे हितंिचंतक रामनंदन बाबू ने जो बात लिखी है,उसका जवाब देना मैंने जरूरी समझा।

यह जवाब अन्य लोगों को भी संबोधित है।

वह जवाब आप भी पढ लीजिए- 

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रामनंदन जी,

आपने तो शालीन ढंग से मेरे लिए सदिच्छा प्रकट की है।

आभारी हूं।

कई लोग तो मुझे अपमानित करने के लिए मेरे नाम के साथ -साथ राज्य सभा-विधान परिषद आदि -आदि शब्द जोड़ते रहते हैं।

  जो जैसा होता है,उसका दिमाग उसी ओर जाता है।

मैंने जीवन में अपने लिए कभी किसी से कुछ नहीं मांगा।

  एक अपवाद को छोड़कर जब मैंने 1977 में मशहूर पत्रकार जितेंद्र सिंह से कहा था कि आप दैनिक ‘आज’ के पारस बाबू से कहिए कि वे मुझे टेस्ट परीक्षा में बैठने दें।

‘आज’ के पटना ब्यूरो के लिए सीमित बहाली के लिए परीक्षा होनी थी।

मैं बैठा और सफल हुआ।

यदि यह कुछ मांगना हुआ तो आप मुझे दोषी मान सकते हैं।

बाकी राजनीति (1966 से 1977 तक )व पत्रकारिता में मुझे जो कुछ मिला है,वह लोगों ने बुला-बुला कर दिया ,मैंने मांगा नहीं।

बल्कि इस बीच समय-समय पर कई आॅफर मैंने ठुकराए भी।

जहां तक विधान परिषद व राज्य सभा का सवाल है ,उन जगहों के लिए मैं खुद को योग्य नहीं मानता।

क्योंकि उसके लिए मेरी कोई अर्हता (क्वाॅलिफिकेशन)नहीं है।

जो व्यक्ति जिस जगह के लिए योग्य नहीं है,उसे उसके बारे में सोचना भी नहीं चाहिए।

  वैसे जो काम मैं करता रहा हूं,कर रहा हूं ,उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं।

किसी को मेरी चिंता करने की जरूरत नहीं है।

हां, मुझसे जलने वाले या मुझसे अलग विचार रखने वाले लोग यदि मेरे मरने के बाद भी जीवित रहें तो तब मेरा आकलन वे करें,तो बेहतर होगा।

स्वाभाविक है कि जो कोई भी मतदान करता है,उसका कोई न कोई राजनीतिक विचार होगा ही।

  हां, जो यह समझते हैं कि चूंकि मैं उनकी विचारधारा को नहीं मानता तो मैं मनुष्य नहीं बल्कि राक्षस हूं तो मैं वैसे लोगों की कोई मदद नहीं कर सकता।

   वैसे लोग मुझे श्राप देते रहें,काल्पनिक बातों की चर्चा करते रहें !

मेरी शुभकामना है !

यह सब करके वे खुश रहें।

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--सुरेंद्र किशोर--17 जनवरी 21


 


केरल -तमिलनाडु से अपराध नियंत्रण का गुर सीखे बिहार-पश्चिम बंगाल-सुरेंद्र किशोर

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बिहार में अपराध पर काबू पाने के लिए जारी सरकारी कोशिश को और तेज करने की जरूरत है।

उससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम है अदालती सजा की दर को बढ़ाना।

इस बात का पता लगाना जरूरी है कि किन कारणों से केरल में सजा की दर 85 प्रतिशत है और बिहार में सिर्फ 

16 प्रतिशत ?

हत्या के मामलों में तो बिहार में यह दर बहुत ही कम है।

 यदि तमिलनाडु में सजा का प्रतिशत 63 है तो क्यों पश्चिम बंगाल में दर मात्र 13 प्रतिशत है ?

जबकि राष्ट्रीय औसत दर 46 है।

एक ही देश के विभिन्न प्रदेशों में इतना अंतर क्यों ?

जबकि, अखिल भारतीय सेवा के पुलिस अफसर ही हर राज्य में  तैनात हैं।

ऊपर दिया गया आंकड़ा आई.पी.सी.के तहत दायर मुकदमों का है।

यानी, बिहार में जिन सौ मुकदमों में पुलिस अदालतों में आरोप पत्र दायर करती है,उनमेंसे सिर्फ 16 मामलों में ही वह अदालतों से सजा दिलवा पाती है।

  सी.बी.आई.के मामलों में सजा की दर 69 है तो एन.आई.ए.के मामलोें में करीब नब्बे है।

  इतना अंतर क्यों ?

बिहार सरकार यदि चाहे तो वह केरल और तमिलनाडु अपनी विशेषज्ञ टीमें भेज कर अधिक सजाओं के कारणों का पता लगवा सकती है।

यदि संभव हो तो उन उपायों को बिहार में भी लागू कर सकती है।

एन.आई.ए. को विशेष सुविधाएं मिलती हैं।

जरूरी भी है।

देश की रक्षा का सवाल जो है ! 

किंतु राज्य पुलिस बेहतर सुविधाओं के लिए क्यों तरसे ?

गवाहों व पीड़ितों की सुरक्षा कैसे हो  ?

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 एन.आई.ए. की सफलता  

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आतंक से संबंधित मामलों को देखने के लिए नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी का गठन किया गया है।

जिन मामलों को एन.आई.ए.अपने हाथों में लेती है,उसकी बेहतर जांच के लिए एजेंसी को शासन से विशेष सुविधाएं मिली होती है।

यहां तक कि नार्को टेस्ट तथा ब्रेन मैपिंग की सुविधा भी उस एजेंसी को अक्सर अदालत से मिल जाती है।

  दूसरी ओर, आई.पी.सी.से संबंधित मुकदमों को देख रही राज्य पुलिस को ऐसी सुविधा अत्यंत विरल मामलों में ही अदालत देती है।

  इस बीच गत माह सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को यह निदेश दिया है कि हर पुलिस स्टेशन में सी.सी.टी.वी.कैमरे लगाएं जाएं।

यानी थाने में जोर जबर्दस्ती करके जुर्म कबूलवाने की गुंजाइश अब  कम ही रहेगी।नार्को टेस्ट की सुविधा है नहीं।

 इस पृष्ठभूमि में बिहार जैसे राज्यों की सरकारें इस बात पर विचार करे कि सजा की दरें बढ़ाने के लिए वह पुलिस का सशक्तीकरण कैसे करे ?

सजा का डर होगा तभी  अपराध पर काबू पाया जा सकेगा।........................................

 सरकारी योजनाओं के नाम

घोषित किए जाएं

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बिहार में भी राज्य और केंद्र सरकारें विकास और कल्याण की सैकड़ों योजनाएं चलाती हंै।

अनेक प्रमुख योजनाओं के नाम तो लोगों की जुबान पर रहते हैं।

पर, कई योजनाएं ऐसी भी हैं जिनके नाम तक लोगों को नहीं मालूम।

इसका लाभ वे सरकारी कर्मी व दलाल उठाते हैं जिनका धंधा ही है जाली बिलों के जरिए सरकारी पैसे उठा लेने का।

  यदि समाचार पत्रों में सरकारें अपनी योजनाओं के नाम प्रकाशित करती रहे तो जागरूक लोग संबंधित अफसरों व दफ्तरों से पूछ सकेंगे कि इसका लाभ किन्हें मिल रहा है।

  यदि अखबारों में छपवाना संभव नहीं हो तो जिला और अंचल स्तर पर कार्यालयों के नोटिस बोर्ड पर उन सारी योजनाओं के नाम लिख कर टांगे जा सकते हैं।

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छोटी नदियों पर बने चेक डैम

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यदि बिहार की छोटी-छोटी नदियों पर चेक डैम बन जाएं तो कैसा रहेगा ?

जानकार बताते हैं कि उससे सिंचाई होगी।

भूजल स्तर का क्षरण रुकेगा।

जल शोधन करके पेय जल का इंतजाम भी हो सकता है। 

किंतु पता चला है कि सिंचाई विभाग के कुछ इंजीनियर व अफसर छोटी नदियों पर चेक डैम के पक्ष में नहीं हैं।

इसलिए अब यह राज्य सरकार पर है कि छोटी नदियों पर चेक डैम के गुण-दोष की एक बार समीक्षा करे।

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   अपराध-भ्रष्टाचार के समर्थक कौन ?

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जो लोग सांसद-विधायक फंड की समाप्ति के समर्थक नहीं हैं,वे भ्रष्टाचार के जारी रखने दोषी हैं।

क्योंकि अपवादों को छोड़कर इस फंड ने प्रशासन व राजनीति मंे कमीशनखोरी को संस्थागत रूप दे दिया है। 

जो आपराधिक और माफिया पृष्ठभूमि के लोगों को चुनावी टिकट देने के पक्ष में हैं,वे नहीं चाहते कि अपराध रुके।

जो लोग चुनावी टिकट की बिक्री और नीलामी के विरोध में नहीं हैं वे ही प्रजातंत्र के खात्मे व तानाशाही की स्थापना के दोषी माने जाएंगे,यदि तानाशाही कभी आई तो। 

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  ममता बनर्जी के लिए अपशकुन

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तृणमूल कांग्रेस ने सी.पी.एम.और कांग्रेस से अपील की है कि वे तृणमूल कांग्रेस से मिलकर पश्चिम बंगाल के अगले विधान सभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला करें।

कांग्रेस-सी.पी.एम.ने तृणमूल सांसद सौगत राय के इस आॅफर को ठुकरा दिया है।

एक और सूचना !

पिछले कुछ महीनों में तृणमूल कांग्रेस से जितने अधिक नेता व कार्यकत्र्ता अलग हुए हैं,उतने आज तक किसी सत्ताधारी दल से अलग नहीं हुए थे।

  इतना ही नहीं,कांग्रेस की अपेक्षा सी.पी.एम. से निकल कर अधिक कायकत्र्ता भाजपा में शामिल हुए हैं।

  अब आप पश्चिम बंगाल विधान सभा के अगले रिजल्ट का अनुमान लगा लीजिए।

याद रहे कि पश्चिम बंगाल बिहार के बगल का प्रदेश है।आम लोगों का आपसी संबंध रहा है।

इसलिए उसका रिजल्ट बिहार को भी देर सवेर प्रभावित करेगा। 

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 और अंत में 

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कुछ लोग महान पैदा होते हैं।

कुछ अन्य लोग अपनी मेहनत,ईमानदारी और प्रतिभा से महान बनते हैं।

पर, कुछ अन्य लोगों पर महानता थोप दी जाती है।

  पर,ऐसा देखा गया है कि स्थायित्व उनमें ही अधिक है जिन्होंने अपनी मेहनत-ईमानदारी-प्रतिभा से सफलता हासिल की है। 

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‘कानांेकान’

प्रभात खबर

पटना

15 जनवरी 21


 


बिहार में आशंकित दल बदल

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जो चुनावी टिकट खरीदेगा,वह वहीं 

 रहेगा जहां अधिक मुनाफा हो !

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    --सुरेंद्र किशोर--

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नब्बे के दशक में केंद्रीय कृषि मंत्रालय से जुड़े संस्थान के   निदेशक पद पर तैनाती के लिए उम्मीदवार को दस लाख रुपए की रिश्वत देनी पड़ती थी।

(अब क्या स्थिति है,इसका पता नरेंद्र मोदी को लगाना चाहिए।)

  यह रहस्योद्घाटन तब के केंद्रीय कृषि मंत्री चतुरानन मिश्र ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘मंत्रित्व के अनुभव’ में किया है। 

मिश्र जी 1996 से 1998 तक केंद्र में मंत्री थे।

तब संयुक्त मोर्चा की सरकार थी।

बारी -बारी से एच.डी.देवगौड़ा और आई.के.गुजराल प्रधान मंत्री थे।

 देश में पहली बार कम्युनिस्ट नेता केंद्र सरकार में शामिल हुए थे।

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केंद्र व राज्य सरकारों में रिश्वखोरी की तो 

इससे अधिक बड़ी कहानियां हैं।

पर जिसका सबूत मेरे पास है,चर्चा मैं उसी की 

कर सकता हूं।

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गत बिहार विधान सभा चुनाव से पूर्व व बाद में यह आम चर्चा रही कि चुनावी टिकट का भाव इस बार 12 लाख रुपए से एक करोड़ रुपए तक रहा।

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एक पूर्व राज्य मंत्री ने मुझसे कहा था कि एक -दो लाख चंदे में काम चल जाता तो मैं दे देता,पर मांग एक करोड़ रुपए की थी तो मैं क्या करता ?

मैं चुनाव नहीं लड़ सका।

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अब बताइए कि जिस  व्यक्ति ने एक करोड़ रुपए सिर्फ टिकट पर खर्च किए हंै,उसने चुनाव पर कितना किया होगा ?

यानी, वह जन सेवक नहीं बल्कि व्यापारी है।

अब उस नेता के वेश में व्यापारी से यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वह विधायक बन कर सौ करोड़ रुपए कमाने लायक जगह नहीं चुनेगा।

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जिस तरह कृषि निदेशक से केंद्र सरकार उम्मीद नहीं कर रही थी

कि 10 लाख खर्च कर दो करोड़ रुपए नहीं कमाएगा।

यूं ही नहीं सन 1985 तक सौ पैसे घिसकर 15 पैसे हो जाते थे !

अब क्या स्थिति है ?

बेहतर जरूर है,किंतु छेद अब भी बहुत हैं।

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केंद्र व राज्य सरकारों को इस बात का खुफिया तौर पर पता लगाना चाहिए कि 30 प्रतिशत से कम कमीशन वाला कौन सा सरकारी काम इन दिनों इस देश में चल रहा है ?

सरकार के किन -किन अंचल कार्यालयों से ‘कट मनी’ जन प्रतिनिधियों को नहीं मिल रहे हैं ?

पिछले चुनाव में एक निवत्र्तमान विधायक को जब जदयू से  टिकट मिला तो वहां के मेरे एक परिचित ने फोन पर कहा कि ये जिले के एक मात्र विधायक हैं जो अंचल कार्यालय से ‘कट मनी’ नहीं लेते।अच्छा हुआ कि इन्हें टिकट मिला।

पर, दुर्भाग्यवश वे चुनाव हार गए।   

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--सुरेंद्र किशोर--12 जनवरी 21


रविवार, 17 जनवरी 2021

     कानून तोड़ने की प्रवृत्ति

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   ‘‘सर तेज बहादुर सप्रू (1875-1949)का कहना था कि कानून तोड़ना तथा बड़े -बड़े जुलूस निकाल कर सत्याग्रह करना ,जो जनता को सिखाया जा रहा है, यह देश को अत्यंत हानि पहुंचाएगा।

   विद्रोह का प्रचार करना बहुत सुगम है और विधान को तोड़ने के लिए जनता में प्रवृति पैदा करना भी कठिन काम नहीं है,परंतु वही जनता, जो आज अंगेजी सरकार के विधान को तोड़ना सीख रही है,जब हमको स्वतंत्रता मिल जाएगी तो हमारे अपने बनाए हुए विधान को भी तोड़ने को तैयार हो जाएगी और इस तरह देश को बहुत हानि पहुंचेगी।’’

  उनकी यह भविष्यवाणी आज किस हद तक सच सिद्ध हो रही है,हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं।

--कैप्टन एम.पी.शर्मा

धर्मयुग, 18 दिसंबर 1966 


 कुछ लोग महान पैदा होते हैं।

कुछ अन्य लोग अपनी मेहनत,ईमानदारी और 

प्रतिभा से महान बनते हैं।

पर, कुछ अन्य लोगों पर महानता थोप दी जाती है।

  ऐसा देखा गया है कि स्थायित्व उनमें ही अधिक है 

जिन्होंने अपनी मेहनत-ईमानदारी-प्रतिभा से सफलता 

हासिल की है। 

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सुरेंद्र किशोर

‘कानांेकान’ प्रभात खबर,

पटना, 15 जनवरी 21


शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

    किसान आंदोलन के हल 

  का एक व्यावहारिक उपाय

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केंद्र सरकार यह घोषणा कर दे कि जो राज्य सरकार 

चाहे, वे तो इन तीन कानूनों को लागू करंे।

और, जो राज्य न चाहे,वह नहीं लागू करे।

उनकी मर्जी !

फिर दिल्ली के धरनारत किसानों से यह अपील की जाए कि आपलोग वापस जाएं।

अपने- अपने मुख्य मंत्रियों के सामने अपनी मांगें रखें।

  फिर देखिए आंदोलनरत किसान नेतागण क्या करते हैं !

कैप्टन अमरेंदर सिंह क्या करते हैं !! 

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यदि वे वापस गए तो सबसे दिलचस्प मुकाबला टिकैत और योगी के बीच होगा।

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--सुरेंद्र किशोर--14 जनवरी 21


गुरुवार, 14 जनवरी 2021

 प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नाम खुला पत्र

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मान्यवर प्रधान मंत्री जी,

  सादर नमस्कार !

आप अच्छा काम कर रहे हैं।

मेरा आपको समर्थन है।

   इस देश की तीन सबसे बड़ी बीमारियों की आपने

पहचान कर ली है।

वे हैं -

राष्ट्रद्रोह,

भ्रष्टाचार 

और राजनीति में वंशवाद-परिवारवाद।

इनमें से राष्ट्रद्रोह व वंशवाद के खिलाफ आपकी मुहिम को सफलता मिलती नजर आ रही है।

पर,भ्रष्टाचार के मोर्चे पर आपको अभी बहुत कुछ करना बाकी है।

हां,पी.एम.ओ.व मंत्रिमंडल स्तर के कामकाज में सन 2014 के बाद भारी सकारात्मक फर्क आया है।

  देश को बचाना है तो भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कुछ और कड़ा बनकर कठोर कार्रवाई आपको करनी ही होगी।

संविधान में संशोधन करना पड़े तो वह भी करना चाहिए।

भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए मंत्री से नीचे यानी अफसर स्तर पर अधिक काम करने की जरूरत बनी हुई है।

  जिस देश में सरकारी -गैर सरकारी भ्रष्टाचार, देशद्रोहियों-जेहादियों को ताकत पहुंचाता रहा हो, वहां इस समस्या की ओर आपको और गंभीर

होना ही पड़ेगा।

(1993 में मुम्बई में विस्फोट करने के लिए दाउद के लोगों ने मुम्बई के कस्टम अफसरों को रिश्वत देकर विस्फोटकों से भरी डांेगियों को सफलतापूर्वक तटों तक पहुंचाया था।

विस्फोटकों को सही स्थानों तक टपाया भी था।

कई सौ लोगों को विस्फोटों से उड़ाया था।)

सांसद फंड ने अधिकतर बड़े अफसरों व सांसदों को कमीशनखोर बना दिया है।

अफसरों के भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने की नैतिक ताकत अधिकतर सांसदों ने खो दी है।

  नतीजतन अधिकतर अफसर बेखौैफ होकर व सत्ताधारी नेताओं से मिलकर लूट रहे हैं।

(कुछ अफसर व सांसद अपवाद हैं।)

अनेक राजनीतिक कार्यकत्र्ता सांसद-विधायक  फंड के ठेकेदार बन गए हैं।राजनीति का व्यवसायीकरण हो चुका है।

इसलिए प्रधान मंत्री जी,

सांसद फंड बंद करके भ्रष्टाचार से लड़ने की ठोस शुरूआत कीजिए।

  राज्यों से भी आग्रह करिए कि वे विधायक फंड बंद करें।

वंशवादी-परिवारवादी राजनीतिक दल तो अपने -आप कमजोर होते जा रहे हैं-अपनी ही गलतियों से।

   यदि ममता बनर्जी अगला चुनाव हारेंगी तो उसमें अपराध व घुसपैठियों के साथ-साथ उनके भतीजे का भी भारी योगदान होगा।

  लेकिन आप इस खबर को सही मत मानिए कि आपके डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर स्कीम के जरिए सारे पैसे लाभुकों को ही मिल जा रहे हैं।

  नमूने के तौर पर कुछ सुदूर स्थानों में स्थित बैंकों के परिसरों में सादी पोशाक में खुफिया एजेंसी के लोगों को लगाइए।

  यदि खबर मिले कि वहां कोई दलाल लाभुकों से कमीशन नहीं ले रहा है तभी संतुष्ट होइए।

ध्यान रहे कि हमें यह खबर मिलती रहती है कि अधिकतर जगहों में कमीशन के पैसे दलाल व बैंककर्मी आपस में अब भी बांट रहे हैं।

बाकी पैसे ही लाभुक अपने पास रख पाते हैं।

---बिहार का एक ग्रामीण।

   14 जनवरी 21 

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मुझे उस ग्रामीण ने अपने टूटे -फूटे शब्दों में लिखकर भेजा था।

मैंने उसे सुधार कर यहां आपके लिए प्रस्तुत कर दिया।

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--सुरेंद्र किशोर -

 


 20 साल की उम्र में इंसान अपनी 

मर्जी से चलता है।

30 में बुद्धि से, और 

40 में विवेक से।

--बेंजामिन फें्रकलिन


बुधवार, 13 जनवरी 2021

    किसी ने ठीक ही कहा है कि 

‘‘मनुष्य को अपना अहंभाव छोड़कर जीवन की छोटी -छोटी बाधाओं को यत्नपूर्वक पार कर लेना चाहिए।

क्योंकि इंसान पहाड़ से नहीं बल्कि छोटे- छोटे पत्थरों से ही ठोकर खाता है।’’

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मेरे बाबू जी भी कहा करते थे कि 

‘‘छोटी -छोटी बातों में न पड़कर ऐसी लंबी लकीर खींचने की कोशिश करो कि तुम्हारे प्रतिस्पर्धी की सफलता की लकीर तुम्हारी लकीर से अपने -आप छोटी लगने लगे।’’

  अपने कंटकाकीर्ण जीवन मार्ग में ऐसा मैंने किया भी और उसका बड़ा लाभ भी मुझे मिला।

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---सुरेंद्र किशोर- 12 जनवरी 20


शनिवार, 9 जनवरी 2021

 मेरे फेसबुक वाॅल से

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जहां मिट्टी का बांध, वहां अब फोर लेन की आहट ! 

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   कभी सोचा भी न था !

आज से करीब 20 साल पहले घर बनाने के लिए मैंने जमीन खरीदी तो पास में नहर व उस पर मिट्टी का बांध बना था।

   बरसात में उस जमीन पर पैदल ही जाना संभव था।

  आज के ‘हिन्दुस्तान’ अखबार की खबर यह है कि 

उस नहर पर चार लेन की सड़क बनेगी।

  दानापुर डी.आर.एम. आॅफिस से होते हुए यह प्रस्तावित फोर लेन सड़क सरारी गुमटी पार करेगी।

वहां से जमालुद्दीन चक और कोरजी गांव होते हुए नकटी भवानी के पास एन.एच.-98 से जुड़ जाएगी।

 जमालुद्दीन चक से नकटी भवानी की दूरी चार किलोमीटर है।

अभी इस सड़क की भारी मरम्मत सिंचाई विभाग कर रहा है।

इसी सड़क पर मेरा आवास अवस्थित है।

    यह चार किलोमीटर सड़क दो राष्ट्रीय राजमार्गों को आपस में जोड़ती है।

  मेैंने प्रभात खबर अखबार के अपने काॅलम में एकाधिक बार लिखा था कि सिर्फ चार किलोमीटर पर खर्च करके दो एन.एच. तक आसानी से पहुंचा जा सकता है ।

यह एम्स का फीडर रोड भी है।

साथ ही, इससे इलाके का विकास भी हो जाएगा।

  उसी तर्ज पर कभी यह कहा गया था कि

 ‘अमेरिका ने सड़कें बर्नाइं और सड़कों ने अमेरिका को बना दिया।’’

  पता नहीं, मेरे लिखने का शासन पर यह असर है या बिहार सरकार ने खुद ब खुद अपनी दूरदर्शिता दिखाई है।

जो भी हो,उसके लिए राज्य सरकार को धन्यवाद !

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अब कहिएगा कि यह तो किसी भी सरकार का कत्र्तव्य है।

 इसमें धन्यवाद देने जैसी कौन सी बात हो गई ?

बात हो गई है।

क्यांेकि आजादी के तत्काल बाद की अधिकतर राज्य सरकारों ने विकास व कल्याण के कार्यों में पहले अपने ‘‘वोट बैंक’’ को प्राथमिकता दी।

  सामान्य विकास को दूसरी वरीयता मिली।

  पर,बाद के वर्षों में तो दूसरी वरीयता भी गुम हो गई।

पहली व आखिरी प्राथमिकता में सिर्फ अपनी व ‘वोट बैंक’ की ‘सेवा’ थी। 

  अब जब ‘सबका साथ, सबका विकास’ व ‘न्याय के साथ विकास’ की कोशिश हो रही है तो यत्र -तत्र -सर्वत्र विकास नजर आ रहा है।

लगे हाथ बता दूं कि सारण जिला स्थित मेरे पुश्तैनी गांव में 2009 में ही आजादी के बाद पहली

बार बिजली पहुंच सकी।

गांव तक पहुंचने के लिए स्टेट हाईवे भी तीन साल पहले बना।  

गत विधान सभा चुनाव के बाद नीतीश सरकार विकास व कानून -व्यवस्था के क्षेत्रों में पहले से अब अधिक सक्रिय व गंभीर हो गई है।

तेवर भी कड़े लग रहे  हंै।

उम्मीद है कि इस प्रस्तावित जमालुद्दीन चक-चकमुसा सड़क का निर्माण इसी साल शुरू हो जाएगा।  

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मेरा पूरा परिवार अभी तो मसीजीवी ही है।

पर,कभी किसी सदस्य को अपना काम बदलने की इच्छा हुई तो उसके लिए भी मेरा यह घर वाणिज्यिक महत्व का साबित होगा। 

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--सुरेंद्र किशोर--6 जनवरी 21


गुरुवार, 7 जनवरी 2021

       मेरा जीवन संग्राम

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   इस साल से मैं अब किताबों पर काम शुरू कर रहा हूं।

सबसे पहले संस्मरण।

   इसके लिए कई प्रकाशक, मित्र व परिजन बहुत दिनों से सलाह देते आए हैं।

  सबसे पहले हिन्दुस्तान,पटना  के स्थानीय नवीन जोशी ने मेरे भीतर के ‘हनुमान’ को जगाते हुए कहा था कि आपके जीवन के संस्मरण पढ़ जाएंगे।

मेरे सामने समस्या यह थी कि नौकरी-फ्रीलांसिंग के कारण तो परिवार चलता है,किताब लिखने में लग जाऊंगा तो पैसे कहां से आएंगे ?

किंतु मेरे एक अभिभावक सदृश्य शुभचिंतक की सलाह से मैंने करीब 20 साल पहले नगर से दूर अत्यंत सस्ती जमीन खरीद ली थी,वह अब काम आ रही है।

उसे दुर्दिन में बेच देने के लिए ही खरीदा था। 

पहले तो नौकरी थी।

बाद में फ्रीलांसिंग से काम चला।

अब जमीन बेच कर अपना खर्च निकालूंगा।

सरकारी शिक्षिका पत्नी की पेंशन-राशि तो मुख्य आधार है। 

  इस बीच फेसबुक पर आया,यह देखने के लिए भी कि मेरे लेखन में लोगों की कितनी रूचि है।

पता चला कि स्थिति उत्साहबर्धक है।

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इस बीच संस्मरण यानी मेरे जीवन संग्राम की एक झलक कुछ चित्रों के जरिए दिखा देना चाहता हूं।

चित्र नंबर -एक ।यह तब का है जब (1977-83) मैं दैनिक आज,पटना में था।

चित्र नंबर -दो -उस समय (1983-2001) का है जब मैं जनसता का बिहार संवाददाता  था।

चित्र नंबर -3 हिन्दुस्तान,पटना  के समय का है।

वहां मैं 2001 से 2007 तक राजनीतिक संपादक था।

सन 2013 -16 की अवधि में मैं दैनिक भास्कर,पटना में संपादकीय सलाहकार था।

पर,उस समय का चित्र अभी मेरे पास अभी नहीं है।

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मैंने ऊपर जीवन संग्राम क्यों लिखा ?

वह तो मेरे संस्मरण यदि छप सके तो मालूम ही हो जाएगा।

उससे पहले यह बता दूं कि यदि मैंने सस्ती जमीन नहीं खरीद ली होती तो जीवन संग्राम के बदले कठिन जीवन संग्राम लिखना पड़ता।

 बिहार वाणिज्य मंडल के अध्यक्ष रहे  दिवंगत युगश्वर पांडेय ने मुझे सलाह दी  थी कि

पटना से दूर गांव में सस्ती जमीन खरीद लीजिए।

गाढ़े वक्त में वह काम आएगी।

ईश्वर परलोक में उन्हें शांति दें।

वैसे उन अन्य लोगों के लिए भी यह एक संदेश हो सकता है जिन्हें ‘हथलपकी’  की बुरी आदत वाली जिन्दगी मंजूर नहीं है।

जो स्वाभिमानी हैं।

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सुरेंद्र किशोर-3 जनवरी 2021

    


 सुरेंद्र किशोर के फेसबुक वाॅल से

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नशाबंदी का एक उपाय यह भी !

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हालांकि कोई मानेगा नहीं,

किंतु इसे कह देने में हर्ज ही क्या है ?!!

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जो नेता अतिशय दारू पीने के कारण मरे ,

उसका कोई स्मारक न बने।

उसे पारिवारिक पेंशन न मिले।

न ही उसकी संतान को अनुकम्पा के आधार पर 

कोई पद दिया जाए।

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पेंशन न मिलने की आशंका में उसकी पत्नी उसे दारू पीने से रोकेगी।

अनुकम्पा न मिलने के डर से संतान उसे दारू से दूर करने की कोशिश करेगी।

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यदि कोई नेता शराबी है तो देखा-देखी उसके समर्थक भी पीने लगते हैं।

क्योंकि वे शान व आधुनिकता की बात समझते हैं। 

इस तरह नशा का प्रचार होता है।

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अब जरा सिगरेट की बात करें।

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डा.राम मनोहर लोहिया पहले बहुत सिगरेट पीते थे।

अपने पिता के सामने भी पीते थे।

एक बार गांधी ने मना किया तो लोहिया ने पीना बंद कर दिया।पर गांधी के मरने के बाद फिर सिगरेट पीने लगे।

पर उनके निधन के बाद फिर वे सिगगरेट पीने लगे।

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जब उनके बहुत सारे प्रशंसक-समर्थक -अनुयायी उनकी देखा- देखी सिगरेट पीने लगे तो चिंता हुई।

मशहूर समाजवादी नेता मामा बालेश्वर दयाल ने लोहिया को पत्र लिखा।

कहा कि आपकी देखा-देखी अनेक समाजवादी कार्यकत्र्ता सिगरेट पीकर अपना स्वास्थ्य खराब कर रहे हैं।

आप सिगरेट छोड़ दीजिए।

लोहिया ने छोड़ दिया।

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आज का कोई नेता किसी के कहने पर दारू छोड़ने वाला है नहीं।

इसलिए ‘सजा’ जरूरी है।

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--सुरेंद्र किशोर -7 जनवरी 21


    नरेंद्र मोदी पर नाराजगी का कारण

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अब जाकर पता चल रहा है कि इस देश के अल्पसंख्यकों का जेहादी तबका सबसे अधिक खफा नरेंद्र मोदी पर ही क्यों है !

   (याद रहे कि अल्पसंख्यक समुदाय के सारे लोग जेहादी प्रवृति के नहीं हैं।

जो जेहादी नहीं हैं,वे मिलजुल कर शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं।)

   दरअसल इस देश के भीतर व बाहर के जेहादियों को लग रहा है कि उनके ‘गजवा ए हिन्द’ के अभियान में सबसे बड़ी बाधा नरेंद्र मोदी ही है।

   जेहादी तत्व इस देश में ‘निजाम ए मुस्तफा’ कायम करना चाहते हैं।

  (इस्लाम धर्म की परिभाषा में उन लड़ाइयों को गजवात कहा जाता है जिनमें पैगम्बर साहिब साथ थे।)

अक्सर मोदी पर नाराजगी का बहाना सन 2002 के गुजरात दंगे को बनाया जाता है।

तब मोदी वहां के मुख्य मंत्री थे।

   पर, इस एक सवाल का कोई जवाब नहीं देता।

सवाल यह है कि गुजरात में 2002 में सरकारी मदद से कौन सा अतिरिक्त अनर्थ हो गया था, जैसा अनर्थ उससे पहले के किसी सांप्रदायिक दंगे में नहीं हुआ था ?

कोई चाहे तो अब भी जवाब दे सकता है।

‘‘अंध मोदी विरोधी’’ लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि 1989 के भागलपुर दंगोें में अल्पसंख्यकों के साथ अपेक्षाकृत अधिक क्रूरता हुई थी।

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  गुजरात में तो 59 निर्दोष कारसेवकों को गोधरा में टे्रन में जिंदा जला देने की प्रतिकिया में दंगे हुए।

किंतु कांग्रेस शासित बिहार के भागलपुर में तो तब एस.पी.की जीप पर बम फेंक देने मात्र की घटना की प्रतिक्रिया में एक हजार से अधिक लोगों की जानें ले ली गईं।

  गुजरात में करीब साढ़े सात सौ अल्पसंख्यक मरे तो वहां पौने तीन सौ बहुसंख्यक समुदाय के लोग भी मरे।

दंगाइयों की भीड़ से लोगों को बचाने के लिए करीब 200 पुलिसकर्मियों को भी तब गुजरात में अपनी जानें गंवानी पड़ी थीं।

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कोई बताए कि भागलपुर दंगे में बहुसंख्यक समुदाय के कितने लोग मरे ?

कितने पुलिसकर्मी दंगाइयों से लोगों की जान बचाने के क्रम में भागलपुर में शहीद हुए ?

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अब आई न बात समझ में !! 

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इस देश में सक्रिय जेहादियों की योजना की खबर पर जिन्हें शक हो वे 30 सितंबर, 2001 का टाइम्स आॅफ इंडिया पढ़ लें।

अन्यत्र भी ऐसी बातें मिल जाएंगी।

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तथाकथित सेक्युलर दलों व बुद्धिजीवियों से 

--जिस दिन जेहादी तत्व मोदी के बराबर का अपना दुश्मन आपको भी मान लेंगे,उसी दिन से नरेंद्र मोदी का वोट कम होने लगेगा।

उससे पहले मोदी की ताकत जनता में बढ़ती जाएगी।

अभी तो इसी कारण आपकी ताकत घटती जा रही है।

क्योंकि आपलोग अक्सर जेहादियों के पक्ष में जा खड़े होते हैं।

आपका यह तर्क नहीं चलेगा कि मोदी हिन्दुत्व को उभार कर राज कर रहा है।

चीन में वहां की सरकार शिनजियांग प्रांत के जेहादी मुसलमानों का जो दमन कर रही है,उसको लेकर तो कोई नहीं कहता कि चीन सरकार ‘हान’ समुदाय  की जातीय भावना का शोषण कर रही है।

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  ---सुरेंद्र किशोर-

    5 जनवरी 21



 


 आम जन से अलग-थलग 

पड़ता भारतीय विपक्ष

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    दृश्य-1

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नोटबंदी के बाद राहुल गांधी ने कहा था कि 

‘‘इतिहास में पहली बार किसी प्रधान मंत्री ने नोटबंदी के जरिए गरीबों पर हमला किया है।

नोटबंदी मोदी निर्मित महा विपत्ति है।’’

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नोट बंदी के कुछ ही महीेने बाद उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव हुआ।

भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिल गयी।

क्योंकि गरीब नोटबंदी से खुश थे।

यानी, राहुल गांधी गरीबांे की भावना को नहीं समझ सके थे।

अंदाज लगाइए, प्रतिपक्ष आम जन से कितना कटा हुआ था।

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  दृश्य-2

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जी.एस.टी.लागू होने के बाद राहुल गांधी ने अक्तूबर, 2017 में कहा कि 

‘‘यह गब्बर सिंह टैक्स है।’’

किंतु व्यापारियों से भरे प्रदेश गुजरात में जब उसके तत्काल बाद विधान सभा चुनाव हुआ तो नतीजा भाजपा के पक्ष में रहा।

जनता से कितना कट गयी है कांग्रेस ? !!

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दृश्य-3

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पुलवामा व उसके बाद के  सर्जिकल स्ट्राइक का कांग्रेस ने मोदी सरकार से सबूत मांगा।

पर पक्का सबूत तो देश की आम जनता ने दे दिया।

नरेंद्र मोदी को पिछली बार की अपेक्षा 2019 के लोक सभा चुनाव में अधिक बहुमत मिल गया।

इस देश में आजादी के बाद जिस प्रधान मंत्री ने पहली बार सिर्फ अपनी लोकप्रियता के बल पर लगातार दूसरी बार लोस चुनाव जीता,उसका नाम है नरेंद्र मोदी।

कांग्रेस को पता ही नहीं चल सका कि सर्जिकल स्ट्राइक पर आम जनता की क्या राय है।

कितना कट गई है कांग्रेस आम लोगों से ?

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  दृश्य-4

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सितंबर, 2020 में संसद से किसान बिल पास हुआ।

तत्काल बाद में बिहार विधान सभा का चुनाव हुआ।

फिर राजग सत्ता में आ गई।

क्या बिहार में किसान नहीं बसते ?

बसते हैं। 

किंतु कांग्रेस के नेता तो सरजमीन से कट चुके हंै।

वे क्या जानंे किसानों का हाल ?

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अगला दृश्य

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  अधिकाधिक उपज व भारी मुनाफे के लिए पंजाब के खेतों में जितनी मात्रा में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाएं डाली जाती हंै उतनी किसी भी जन हितैषी नेताओं वाले देश में नहीं डाली जाती।

  बेशुमार रासायनिक खाद के कारण जो अनाज वहां पैदा हो रहा है,उससे बड़े पैमाने पर पंजाब मंे कैसर के रोगी बढ़ रहे हैं।

पंजाब का अनाज बाहर भी जाता है।

वहां के बारे में भी सर्वे होना चाहिए।

  केंद्र सरकार पर तथाकथित किसानों के जरिए दबाव डलवा

कर पराली जलाने की छूट ले ली गई है।

अब दिल्ली के पर्यावरण का भगवान ही मालिक है।

दिल्ली के लोगांे,खास कर बच्चों व गर्भवती महिलाओं  के फेफड़े भीषण वायु प्रदूषण व मोटे धुएं से भले खराब होते जाएं, पर बिचैलियों व बड़े किसानों को तो सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब है।


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पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव के बाद देश में सी.ए.ए.और एन.आर.सी.लागू करने की केंद्र सरकार के समक्ष मजबूरी होगी।

अन्यथा,देर सवेर यह देश नहीं बचेगा।

तब इस देश के जेहादी तत्व फिर सड़कों पर आ जाएंगे।

उन्हें तथाकथित सेक्युलर दल व बुद्धिजीवी कवच प्रदान करेंगे।

उसका क्या नतीजा निकलेगा ?

भाजपा को उसके आगे के चुनावों में और भी अधिक बहुमत मिलेगा।

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नोट-

इस संबंध में मैंने एक राजनीतिक प्रेक्षक से पूछा,

‘‘इस देश का प्रतिपक्ष इतना गैर जिम्मेदार क्यों है ?

क्या गैर जिम्मेवार व्यवहार के जरिए वह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार रहा है ?

उसने कहा कि कल्पना कीजिए कि आपने नाजायज तरीके से 

एक हजार करोड़ रुपए कमा लिए हैं।

उसे सरकार ने जब्त कर लिया।

फिर क्या होगा ?

क्या तब भी आप अपना मानसिक संतुलन बनाए रख सकेंगे ?

मैंने कहा, ‘‘ बिलकुल नहीं।’’

उन्होंने कहा कि उसी तरह प्रतिपक्ष के अनेक नेता अपने होश ओ हवाश में नहीं है।

  एक तो भाजपा ने उनसे सत्ता छीन ली।

सत्ता से बाहर रहने पर जो पैसे काम आते हैं,उसे भी जब्त कर लिया।

फिर वही होगा, जो हो रहा है।

आगे -आगे देखिए होता है क्या !!!

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--सुरेंद्र किशोर -4 जनवरी 21

  

 


 जान हथेली पर लेकर पत्रकारिता करने 

वाले प्रकाश सिंह की एक और कामयाबी

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    --सुरेंद्र किशोर--

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रिपब्लिक टी.वी.चैनल के प्रकाश सिंह ने पटना सिविल कोर्ट में सन 2017 में घूसखोरों के खिलाफ स्टिंग आपरेशन किया था।

   नतीजतन देर से ही सही, किंतु  घूसखोरी के आरोप में पटना हाईकोर्ट ने वहां के 16 कर्मियों को बर्खास्त कर दिया।

   यह प्रकाश के स्टिंग का कमाल रहा ।

कई साल पहले कचहरियों में भ्रष्टाचार के बारे में फरजंद अहमद ने भी इंडिया टूडे के लिए संभवतः पहली बार साहस के साथ विस्तृत रपट लिखी थी।

उस पर कोई कार्रवाई हुई या नहीं, लोगों को मालूम नहीं हो सका।

अब तो हुई।

यही है इलेक्ट्रानिक मीडिया की ताकत।

पर ताकत के साथ जिम्मेदारी भी बनती है।

उम्मीद की जाती है कि यह नई मीडिया उसका भी ध्यान रखे।

    इस देश के अनेक सांसद (सब नहीं) पैसे लेकर गलत काम करते रहते हैं,यह पूरा देश जानता है।साठ के दशक में ही मैंने सुना था कि 60 सांसद एक उद्योगपति के पे-रोल पर हैं।

  पर लोकसभा के 10 और राज्य सभा के एक सदस्य की सदस्यता 2005 में तभी समाप्त की गई जब वे एक स्टिंग आपरेशन में रंगे हाथ पकड़े गए।

  यदि स्टिंग आपरेशन नहीं होता तो भाजपा के अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण भी जेल नहीं जाते।

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यदि स्टिंग आपरेशन से ही भ्रष्टों के खिलाफ निर्णायक व सबक देने लायक कार्रवाई हो पा रही है तो क्यों नहीं कुछ अच्छी सरकारें व अच्छे संगठन व अन्य लोग इसी काम में लग जाते हैं ?!!

भ्रष्टाचार नहीं रुकेगा तो देश नहीं बचेगा।

क्योंकि रिश्वत लेकर यहां के जयचंदी मानसिकता वाले लोग देसी-विदेशी आतंकियों की भी मदद कर रहे हैं। 

आतंकियों-जेहादियों के खिलाफ निर्णायक युद्ध की आशंका को आप अब निराधार नहीं बता सकते।युद्ध की स्थिति में  सरकार व नेता को अधिक स्वच्छ होना होगा।

1993 में मुम्बई को दहलाने के लिए जो खतरनाक विस्फोटक दाऊद ने भिजवाया था,उसको मुुम्बई समुद्र किनारे  से महानगर तक टपाने के लिए कस्टम के लोगों ने भारी रिश्वत ली थी।

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  मुख्य मंत्री बनने के तत्काल बाद नीतीश कुमार ने सार्वजनिक रूप से लोगों से अपील की थी कि वे सरकारी दफ्तरों में चल रही घूसखोरी के खिलाफ स्टिंग आपरेशन करें।

पर, उसका ‘बासा’ ने प्रेस कांफं्रेस करके विरोध कर दिया।

  देश के प्रधान मंत्री और बिहार के मुख्य मंत्री की प्रवृत्ति नाजायज तरीके से  निजी संपत्ति बढ़ाने की कत्तई नहीं है।

वे चाहते भी है कि भ्रष्टाचार घटे।

फिर भी, इस देश में भ्रष्टाचार कम नहीं हो पा रहा है।

    अब तो एक ही उपाय नजर आ रहा है।

कोई मौजूदा या भावी संगठन इस बात के लिए कमर कसे कि वह खतरा उठाकर भी स्टिंग आपरेशन व्यापक रूप से चलाएगा।

अब तो तकनीकी भी बेहतर हो गई।

शायद तभी भ्रष्टाचार कम होगा।

  पटना सिविल कोर्ट के कर्मियों की बर्खास्तगी के बाद भी भ्रष्टाचार रुक जाएगा,ऐसा मान लेना नादानी होगी।

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यदि कोई राजनीतिक दल स्टिंग आपरेशन करे या करवाए तो उसे चुनाव में वोट की कमी नहीं रहेगी।

जातीय व सांप्रदायिक वोट पर उसे तब निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।

यदि किसी सरकार का भ्रष्टाचार निरोधक निकाय अपना स्टिंग शाखा खोले तब तो कमाल हो सकता है।

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  खैर, अब सिनियर एडीटर प्रकाश सिंह ,रिपब्लिक टी.वी.और उसके कत्र्ताधत्र्ता अदमनीय अर्नब गोस्वामी के बारे में कुछ बातें।

पहले पटना हाईकोर्ट को बहुत -बहुत धन्यवाद।उसने सख्त कार्रवाई की। 

 प्रकाश सिंह ने इससे पहले व बाद में भी जान हथेली पर लेकर इस तरह की कई स्टोरी की है।

पहले वे टाइम्स नाऊ में थे।अब रिपब्लिक टी.वी.में हैं।

  अर्नब गोस्वामी को भी बधाई जिनके यहां प्रकाश सिंह जैसे पत्रकार के लिए पूरी गुंजाइश है।

(लगे हाथ अर्नब गोस्वामी से अनेक लोगों की ओर से एक ही गुजारिश है-

डीबेट में उन बदतमीज अतिथियों  के माइक तत्काल डाउन कर देने का बंदोबस्त करिए जो बारी से पहले चिल्लाने लगते हैं। 

खुद आपकी आवाज भी थोड़ी नीची रहे तौभी काम चल जाएगा।

वैसे आपके स्टुडियो के शोरगुल को छोड़ दें तो देशहित में आपके अच्छे कामों की अनेक लोग सराहना करते हैं। )

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आज के प्रभात खबर के अनुसार,

पटना हाईकोर्ट प्रशासन ने भ्रष्टाचार में लिप्त पटना सिविल कोर्ट के 16 कर्मियों को सेवा से बर्खास्त कर दिया है।

सभी घूस लेने के आरोपित थे।

वहीं पटना पुलिस ने पीरबहोर थाने में इन सभी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है।

एसएसपी उपेंद्र शर्मा ने इसकी पुष्टि की।

15 नवंबर 2017 को टीवी चैनल ने कोर्ट में घूस के पैसे के लेनदेन को कैमरे में कैद कर प्रसारित किया था।

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बर्खास्त हुए कर्मियों के नाम हैं--

रोमेंद्र कुमार,

संतोष तिवारी,

कुमार नागेंद्र,

संजय शंकर,

आशीष दीक्षित,

 प्रदीप कुमार,

 सुनील कुमार यादव,

विश्वमोहन विजय

(सभी पेशकार)

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मुकेश कुमार

( क्लर्क)

सुबोध कुमार (टाइपिस्ट)

शहनाज रिजवी(नकलखाना क्लर्क)

सुबोध कुमार(सर्वर रूम का क्लर्क)

मनी देवी,

मधु राय,

राम एकबाल,

आलोक कुमार

(सभी आदेशपाल)

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--सुरेंद्र किशोर --6 जनवरी 20


    


बुधवार, 6 जनवरी 2021

 जय हो जग में जले जहां भी 

नमन पुनीत अनल को ......।

         --  दिनकर

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विधायक फंड में भ्रष्टाचार के खिलाफ 

माले की पहल सराहनीय

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फंड के आॅडिट में कारगर होगी 

‘टिस’ के विद्यार्थियों की मदद 

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    --सुरेंद्र किशोर--

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आज के ‘प्रभात खबर’ पटना में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण समाचार का शीर्षक है-

‘‘माले विधायकों के फंड का आॅडिट करेगी पार्टी।’’

मेरी समझ से राजनीति व प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने व विकास का अधिक लाभ लोगों तक पहुंचाने के लिए इससे बेहतर पहल नहीं हो सकती है।

नब्बे के दशक में माले के ही बगोदर से विधायक महेंद्र सिंह ने विधायकों के जाली टी.ए.-डी.ए. बिल के खिलाफ अभियान चलाया था।

पर, दुर्भाग्यवश जालसाजों के समक्ष वे बिलकुल अकेला पड़ गए थे।उस समय उनकी पार्टी से भी उन्हें मदद मिली,ऐसी कोई सूचना नहीं है।

नतीजतन वे भ्रष्टाचार की उस जकड़न को तोड़ नहीं पाए ।

अब शायद इस बार माले के सभी 12 विधायक, विधायक फंड के भ्रष्टाचार के खिलाफ पार्टी के अभियान में साथ देंगे,ऐसी उम्मीद है। 

  मेरा यह भी मानना है कि माले जैसा संगठित दल यह काम कर सकता है।वही कर सकता है।

 यदि वह मुम्बई के ‘टिस’ के विद्यार्थियों की मदद ले तो  आॅडिट ठीकठाक होगा।

मुजफ्फरपुर के शेल्टर होम घोटाले की आरंम्भिक जांच

बिहार सरकार ने टाटा समाज विज्ञान संस्थान यानी टिस  के विद्यार्थियों से ही करवाई थी।

  तभी भीषण गड़बड़ियों का पता चल सका था।

 किसी और से करवाई होती तो आसानी से लीपापोती हो गई होती ।

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सांसद विधायक फंड में भारी कमीशनखोरी कायम रखने में इस देश की राजनीति के अधिकतर लोगों  का भारी निहितस्वार्थ है।

विधायकों -सांसदों में अत्यंत अपवाद स्वरूप लोग ही बचे हैं जो कमीशनखोरी के भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं और खुद उससे दूर हैं।

  इन ताकतवर कमीशनखोरों को न तो प्रधान मंत्री के रूप अटल बिहारी वाजपेयी चाहते हुए भी पराजित कर सके और न मन मोहन सिंह।

नीतीश कुमार पर तो इतना दबाव पड़ा कि विधायक फंड को खत्म करने के बाद फिर से उसे उन्हें वापस लाना पड़ा।

नरेंद्र मोदी जैसे ईमानदार प्रधान मंत्री सांसद फंड के कमीशनखोरों को पराजित करने की इन दिनों बड़ी कोशिश कर रहे हैं।

देखना है कि उनकी कोशिश में कौन जीतता है -पी.एम.

या ताकतवर कमीशनखोर !

   विधायक-सांसद फंड इस गरीब देश में सरकार व राजनीति के भ्रष्टाचार के पीछे का ‘‘रावणी अमृत कुंड’’ 

है ।यह  देश में भ्रष्टाचार को कम करने ही नहीं दे रहा है।

जब अपने सेवा काल के प्रारंभिक वर्षों में ही सांसद-विधायक फंड की कमीशखोरी में जो आई.ए.एस.अफसर लिप्त हो जाएगा,वह ऊपर के पदों पर जाने के बाद ‘राम भजन’ तो नहीं ही करेगा !!

हालांकि न तो सारे अफसर कमीशनखोर हैं और न ही  सारे जन प्रतिनिधि।

किंतु यह भी सच है कि अधिकतर लिप्त हैं।

इस सांसद-विधायक फंड ने इस देश में राजनीति व प्रशासन को जनता की नजर में जितना गिरा दिया है,उतना किसी अन्य फंड ने नहीं गिराया।

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माले के 12 विधायक अपने -अपने चुनाव क्षेत्रों में विधायक फंड के खर्चे में ईमानदारी कायम करा सकें तो उससे एक साथ कई लाभ होंगे।

  जो इस धंधे में हैं,उनका जनता के बीच भंडाफोड़ हो जाएगा।

कुछ को सजा भी हो जाएगी।

खुद माले की ताकत जनता में बढ़ेगी।

क्योंकि अच्छे कामों की सुगंध बड़ी तेजी से दूर दूर तक फैलती है।

भ्रष्ट प्रशासनिक अफसर, ईमानदार जन प्रतिनिधियों से डरने लगेंगे।

नतीजतन सरकार के अन्य निर्माण ,विकास व कल्याण के कामों में जारी भीषण भ्रष्टाचार भी कम होगा।

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यदि माले ठीक से विधायक फंड का आॅडिट करा पाए तो उसका नाम भ्रष्टाचार उन्मूलन के क्षेत्र में इतिहास में दर्ज हो जाएगा।

आज आम जन सरकारी भ्रष्टाचार से बुरी तरह पीड़ित है।

भ्रष्टों के सामने जनता असहाय है।

किसी भी दल की अपेक्षा अभी माले में अधिक ईमानदार कार्यकत्र्ता उपलब्ध हैं।

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--सुरेंद्र किशोर--27 दिसंबर 20