बिहार में आशंकित दल बदल
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जो चुनावी टिकट खरीदेगा,वह वहीं
रहेगा जहां अधिक मुनाफा हो !
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--सुरेंद्र किशोर--
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नब्बे के दशक में केंद्रीय कृषि मंत्रालय से जुड़े संस्थान के निदेशक पद पर तैनाती के लिए उम्मीदवार को दस लाख रुपए की रिश्वत देनी पड़ती थी।
(अब क्या स्थिति है,इसका पता नरेंद्र मोदी को लगाना चाहिए।)
यह रहस्योद्घाटन तब के केंद्रीय कृषि मंत्री चतुरानन मिश्र ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘मंत्रित्व के अनुभव’ में किया है।
मिश्र जी 1996 से 1998 तक केंद्र में मंत्री थे।
तब संयुक्त मोर्चा की सरकार थी।
बारी -बारी से एच.डी.देवगौड़ा और आई.के.गुजराल प्रधान मंत्री थे।
देश में पहली बार कम्युनिस्ट नेता केंद्र सरकार में शामिल हुए थे।
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केंद्र व राज्य सरकारों में रिश्वखोरी की तो
इससे अधिक बड़ी कहानियां हैं।
पर जिसका सबूत मेरे पास है,चर्चा मैं उसी की
कर सकता हूं।
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गत बिहार विधान सभा चुनाव से पूर्व व बाद में यह आम चर्चा रही कि चुनावी टिकट का भाव इस बार 12 लाख रुपए से एक करोड़ रुपए तक रहा।
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एक पूर्व राज्य मंत्री ने मुझसे कहा था कि एक -दो लाख चंदे में काम चल जाता तो मैं दे देता,पर मांग एक करोड़ रुपए की थी तो मैं क्या करता ?
मैं चुनाव नहीं लड़ सका।
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अब बताइए कि जिस व्यक्ति ने एक करोड़ रुपए सिर्फ टिकट पर खर्च किए हंै,उसने चुनाव पर कितना किया होगा ?
यानी, वह जन सेवक नहीं बल्कि व्यापारी है।
अब उस नेता के वेश में व्यापारी से यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वह विधायक बन कर सौ करोड़ रुपए कमाने लायक जगह नहीं चुनेगा।
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जिस तरह कृषि निदेशक से केंद्र सरकार उम्मीद नहीं कर रही थी
कि 10 लाख खर्च कर दो करोड़ रुपए नहीं कमाएगा।
यूं ही नहीं सन 1985 तक सौ पैसे घिसकर 15 पैसे हो जाते थे !
अब क्या स्थिति है ?
बेहतर जरूर है,किंतु छेद अब भी बहुत हैं।
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केंद्र व राज्य सरकारों को इस बात का खुफिया तौर पर पता लगाना चाहिए कि 30 प्रतिशत से कम कमीशन वाला कौन सा सरकारी काम इन दिनों इस देश में चल रहा है ?
सरकार के किन -किन अंचल कार्यालयों से ‘कट मनी’ जन प्रतिनिधियों को नहीं मिल रहे हैं ?
पिछले चुनाव में एक निवत्र्तमान विधायक को जब जदयू से टिकट मिला तो वहां के मेरे एक परिचित ने फोन पर कहा कि ये जिले के एक मात्र विधायक हैं जो अंचल कार्यालय से ‘कट मनी’ नहीं लेते।अच्छा हुआ कि इन्हें टिकट मिला।
पर, दुर्भाग्यवश वे चुनाव हार गए।
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--सुरेंद्र किशोर--12 जनवरी 21
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