शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

 


 डिजिटल प्लेटफार्म के लिए भी फिल्म सेंसर बोर्ड जैसी व्यवस्था अब जरूरी-सुरेंद्र किशोर

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इस देश के केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड ने 

प्रमाण पत्र देने के कुछ नियम बहुत पहले से तय कर रखे हैं।

ऐसा माना जाता रहा है कि जो फिल्म उन नियमों पर खरी उतरेगी,उसे ही पास किया जाएगा।

   कई दशक पहले तक तो इसका आम तौर से पालन होता था।

नतीजनत ,तब ऐसी फिल्में बनती थीं जिन्हें लोग सपरिवार देख सकते थे।यानी साफ-सुथरी और शालीन।शिक्षाप्रद व प्रेरक भी। 

 पर आज स्थिति बदल चुकी है।

आज उन नियमों का व्यवहार में इसका कितना पालन होता है,यह जांच का विषय है।

  डिजिटल प्लेटफार्म के लिए तो अभी ऐसा कोई नियम बना ही नहीं।

नतीजतन वाणी की स्वतंत्रता के नाम पर सोशल मीडिया में भारी अराजकता है। 

सेंसर बोर्ड का एक नियम यह है कि ‘‘जातिगत,धार्मिक या अन्य समूहों के लिए अवमाननापूर्ण दृश्य नहीं प्रदर्शित किए जाएंगे।

साथ ही अवमाननापूर्ण शब्द भी उच्चारित नहीं किए जाएंगे।’’

   चूंकि वेब सिरिज ‘‘तांडव’’ किसी सेंसरशिप प्रक्रिया से नहीं गुजरा,इसलिए तांडव जन भावना को गलत ढंग से उभारने वाला साबित हुआ है।यह चिंताजनक स्थिति है।

क्रिएटिव फ्रीडम के नाम पर तांडव के आपत्तिजनक दृश्यों-शब्दों का बचाव भी हो रहा है।

तांडव पर आपत्ति करने वालों का गुस्सा इसलिए बढ़ गया है क्योंकि तांडव का बचाव करने वाले लोग इसी तरीके से किसी अन्य समुदाय की भावना पर चोट पहुंचने पर विभिन्न मंचों से जोर -जोर से चिल्लाने लगते हैं।

  हां, यहां एक बात कहनी जरूरी है।

ओवर द टाॅप प्लेटफार्म यानी ओटीटी पर नकेल कसने के लिए

जो भी बोर्ड या समिति  बने उसे उस तरह न संचाालित किया जाए जिस तरह लुंजपुज तरीके से मौजूदा फिल्म सेंसर बोर्ड को चलाया जा रहा है। 

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फिल्म सेंसर बोर्ड की 

विवादास्पद कार्य प्रणाली 

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‘तांडव’ के बहाने फिल्म सेंसर बोर्ड पर एक बार फिर  सरसरी नजर डालने की जरूरत है।

इन दिनों की अधिकतर फिल्में सेंसर बोर्ड के अपने ही नियमों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती।

 मेरे सामने बोर्ड के करीब एक दर्जन नियमों की एक लिस्ट है।

 उसे जब मैं देखता हूं तो ऐसा लगता है कि बोर्ड अपना काम नहीं कर रहा है।

 या तो वहां अब भी भ्रष्टाचार है या फिर किन्हीं माफियाओं का उस पर भारी असर है।

  नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद लगा था कि बोर्ड की स्थिति में फर्क आएगा।

किंतु लगता है कि अन्य अधिक जरूरी कामों के दबाव में केंद्र सरकार को उस ओर ध्यान देने की फुर्सत नहीं है।

2014 के अगस्त में सेंसर बोर्ड के सी.इ.ओ.राकेश कुमार को घूस लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।

गिरफ्तारी के बाद राकेश कुमार ने यह रहस्योद्घाटन किया था कि बड़ी -बड़ी फिल्मों को भी बोर्ड में चढ़ावा देना पड़ा था।

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    सेंसर नियमों की बानगी

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 1.-मानवीय संवेदनाओं को चोट पहुंचाने वाली अशिष्टता,अश्लीलता और दुराचारिता वाले दृश्य न दिखाए जाएं।

2.-अपराध करने के लिए प्रेरित करने वाले दृश्य न दिखाए जाएं।

अपराधियों की कार्य प्रणाली न दिखाई जाए।

3.-महिलाओं को बदनाम करने वाला कोई भी दृश्य न दिखाया जाए।

 किसी भी प्रकार से महिलाओं का तिरस्कार करने वाला दृश्य न दिखाया जाए।

4.-उत्पीड़न या लैंगिक हिंसा के दृश्य न दिखाए जाएं।

यदि जरूरी हो तो अत्यंत संक्षेप में दिखाया जाए।

5.-हिंसा को उचित ठहराने वाले दृश्य फिल्म में न हों।

सेंसर बोर्ड के इस तरह के अन्य कई नियम व कसौटियां हैं।

फिर भी क्या उनका पालन आज की फिल्मों में हो रहा है ?

पचास-साठ के दशकों में पालन जरूर होता था।

तब लोग परिवार के साथ भी फिल्में देखा करते थे।

आज की कितनी फिल्मों को परिवार के साथ देखा जा सकता है ?

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  यू.पी.में फिल्म सिटी का निर्माण शुरू

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इस बीच यह अच्छी खबर आई है कि गौतम बुद्ध नगर में 

प्रस्तावित फिल्म सिटी का निर्माण कार्य शुरू हो गया है।

इस साल वहां फिल्मों की शूटिंग भी शुरू कर देने की योजना है।

यदि योजनानुसार काम चला तो वहां एक दिन देश की सबसे

 बड़ी फिल्म सिटी बनेगी। 

  ऐसे में सेंसर बोर्ड का मुख्यालय इसी प्रस्तावित फिल्म सिटी में रखा जाना चाहिए।

इससे मुम्बई के विवादास्पद लोगों के हाथों में सेंसर बोर्ड की  

नकेल नहीं रहेगी।

फिल्मी दुनिया पर से निहितस्वार्थी तत्वों का एकाधिकार समाप्त हो जाएगा।

  वैसे सेंसर बोर्ड में ऐसे लोगों को रखा जाना जरूरी है जो नियमों के अनुसार काम करने के अभ्यस्त हों।

देश में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है।

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  गन्ना किसानों की परेशानी 

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बिहार के सीतामढ़ी जिले की रीगा चीनी मिल गत मई 

से बंद है।

मजदूर और किसान परेशान हैं।

आसपास के गन्ना किसानों से कहा गया है कि वे गोपालगंज ,सिधवलिया और मझौलिया चीनी मिलों में अपना गन्ना पहुंचाएं।

गन्ना पहुंचाने में जिन्हें घाटा हो रहा है,वे किसान गन्ना जला रहे हैं।

संयुक्त किसान संघर्ष मोरचा ने मुख्य मंत्री नीतीश कुमार से अपील की है कि वे गन्ना मूल्य और के.सी.सी.के 140 करोड़ रुपए का भुगतान करवाने का प्रबंध करें।

   और अंत में 

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आर्यभट्ट की नगरी खगौल ज्ञान -विज्ञान के लिए मशहूर रही।

 बिहार के दानापुर के पास स्थित खगौल में दो काॅलेज चलते हैं।

पर, उनमें से किसी में भी स्नातकोत्तर की पढ़ाई तक नहीं होती।रिसर्च वगैरह की बात कौन कहे !

क्या इस पर कभी किसी ने सोचा ?

यदि नहीं, तो क्या नीति निर्धारक लोग अब तो सोचेंगे !

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साप्ताहिक काॅलम ‘कानोंकान,’

प्रभात खबर ,पटना ,

22 जनवरी 21


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