‘आज’ के स्थापना दिवस पर
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पत्रकारिता की मेरी पहली पाठशाला
--सुरेंद्र किशोर--
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बात तब की है जब सक्रिय राजनीति से मन उचट जाने के बाद मैं पेशेवर पत्रकारिता में प्रवेश करना चाहता था।
किंतु राह नहीं मिल रही थी।
याद रहे कि सन 1966 में मैं लोहियावादी राजनीति में सक्रिय हुआ था।
पटना के एक दैनिक अखबार में बड़े पद पर कार्यरत एक व्यक्ति से मेरे छोटे भाई ने मेरी पैरवी की।
उस व्यक्ति ने कहा कि मेरी साली से शादी कर लेगा तो उसे यहां नौकरी मिल जाएगी।
पर, मैंने मना कर दिया।
उन दिनों एक कार्यकत्र्ता होने के साथ -साथ मैं बीच -बीच में समाजवादी पत्रिकाओं के लिए भी काम करता था।
कुछ पैसे भी मिल जाते थे।
इस बीच सन 1977 के प्रांरभ में जब दैनिक ‘आज’ का पटना ब्यूरो खुला तो मैंने एक बार फिर कोशिश की।
ब्यूरो प्रमुख पारसनाथ सिंह को मशहूर पत्रकार जितेंद्र सिंह से मैंने अपने लिए एक पत्र लिखवाया।
जितेंद्र बाबू पटना के सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रकारों में एक थे।
बिहार में टाइम्स आॅफ इंडिया के विशेष संवाददाता थे।
वे भी समाजवादी पृष्ठभूमि के थे।
तब साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ (नई दिल्ली) और ‘जनता’( पटना) में प्रकाशित हो रहे मेरे लेखों व रपटों के वे प्रशंसक थे।
मैंने उनसे यही कहा था कि पारस बाबू के गांव में मेरे बड़े भाई की शादी जरूर है।
पर, वे रिश्तेदारों की पैरवी सुनने वाले व्यक्ति नहीं हैं।
इसलिए आप उन्हें लिख दीजिए कि मुझे टेस्ट परीक्षा में बैठने की अनुमति दे दें।
दरअसल ऐसी छिटपुट बहालियों के लिए सीमित परीक्षा ली जाती थी।
क्योंकि अखबार में विज्ञापन देने पर बड़े -बड़े सत्ताधारियों से उम्मीदवार पैरवी करवा देते थे ।
वैसे में अखबार के मालिक द्विविधा में पड़ जाते थे ।
खैर, मुझे पारस बाबू ने टेस्ट परीक्षा में बैठने की अनुमति दे दी।
रिजल्ट हुआ।
मैं पास कर गया।
मुझे उन्होंने डेढ़ सौ रुपए महीना का आॅफर दिया।
मैंने मना कर दिया।
यह कह कर घर लौट आया कि ढाई सौ से कम नहीं।
बाद में उन्होंने खबर भिजवाई कि आपको ढाई सौ मिल जाएंगे।
दरअसल टेस्ट की काॅपी में उन्होंने पाया होगा कि इसकी लगभग अंग्रेजी-हिन्दी ठाक ठाक है।
मैंने ज्वाइन कर लिया।
1977 के चुनाव की घोषणा हो गई थी ।
पारस बाबू के साथ मैंने पटना के कदम कुआं मुहल्ले में चरखा समिति जाकर ‘आज’ के लिए जयप्रकाश नारायण लंबा इंटरव्यू किया।
आज में वह ‘पेज हेडिंग’ के साथ छपा।
इंटरव्यू की बड़ी चर्चा रही।
बी.बी.सी.ने भी उसे उधृत किया।
क्योंकि उसमें जेपी ने पहली बार यह कहा था कि यदि हम लोक सभा चुनाव जीत गए तो विधान सभाओं के भी चुनाव करवा देंगे।
बाद में जार्ज फर्नांडिस के चुनाव क्षेत्र मुजफ्फर पुर से मेरी रिपोर्ट भी पठनीय बन गई थी।
नई दिल्ली के एक बड़े अंग्रेजी अखबार के विशेष संवाददाता मुजफ्फरपुर जाने के रास्ते में पटना आए।
पारस बाबू से मिले।
पारसनाथ सिंह ‘आज’ के दिल्ली ब्यूरो में भी काम कर चुके थे।
उनके परिचित थे।
पारस बाबू ने उन्हें मेरी रिपोर्ट पढ़वाई।
उन्होंने कहा कि यह तो सम्यक रिपोर्ट है।
अब मुझे मुजफ्फर पुर नहीं जाना।
इसी का अनुवाद कर देेता हूं।
उन्होंने यही किया।
उनके अखबार में वह रपट पेज वन एंकर बाइलाइन छपी।
मैंने यह सब इसलिए लिखा क्योंकि मेरा काम देख कर मुझे आज के प्रबंधन ने कुछ ही महीने के भीतर स्टाफर बना दिया।
यानी पी.एफ.वाली नौकरी मेें मैं लग गया।
कहते हैं कि वह एक रिकाॅर्ड था।इतने कम समय में स्टाफर बनने का।
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पटना संस्करण-1979
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आज ही के दिन सन 1979 में ‘आज’ का पटना संस्करण शुरू हुआ।
आॅफसेट प्रिंटिंग वाला पटना का यह पहला अखबार था।
मुझे मुख्य संवाददाता की जिम्मेदारी दी गई।
वैसे तकनीकी रूप से मैं वरीय कार्यालय संवाददाता ही था।
उन दिनों छह पेज का ही अखबार निकलता था।
हम खूब मेहनत करते थे।
कहिए कि करना पड़ता था।
स्टाफ काफी कम थे।
विज्ञापन कम था।
पेज भरना होता था।
मैटर अधिक चाहिए।
रिपोर्टिंग भी करता था और काॅपी भी देखता था।
रात में पेज मेकअप करवा कर ही घर लौटता था।
यानी, आज ने मेहनत करने की आदत लगा दी जो जीवन में आज भी काम आ रही है।
हालांकि सबसे बड़ी बात दूसरी हुई।
पारस बाबू ,पड़ारकर स्कूल आॅफ जनर्लिज्म से आते थे।
नतीजतन उन्होंने हमें खूब सिखाया-लेखन कला और संस्कार भी।
वे अतिवाद के खिलाफ थे।
शालीन पत्रकारिता के पक्षधर थे।
रपट के लेखन में वे स्पष्टता व संक्षिप्तता चाहते थे।
वाक्य छोटे व उसमें कसावट।
ताकि पाठकों के दिमाग पर बोझ न पड़े।
किसी के खिलाफ नाहक निंदा या प्रशंसा अंिभयान नहीं।
और भी बहुत कुछ।
यानी मेरी खूब मंजाई हुई।
एक बार उनसे मैंने उनसे कहा कि ‘आज’ में सब जगह ब्राह्मण भरे हुए हैं।
उन्होंने कहा कि आप लोहियावादी पृष्ठभूमि से आए हैं।
इसीलिए अंटशंट बोल रहे हैं।
आप नहीं जानते ब्राह्मणों की योग्यता -क्षमता।
वे विद्याव्यसनी और विनयी होते हैं।
उनका स्वभाव इस पेशे के अनुकूल होता है।
आप भी वैसा बनिए।
आगे बढिएगा।
यहां आपका लोहियावाद नहीं चलेगा।
मैंने उनकी इस सीख का भरसक पालन किया।
मुझे हर तरह से उसका लाभ मिला।
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1983 में जब मैंने ‘जनसत्ता’ ज्वाइन कर लिया तो आज में
इस्तीफा देने सौम्य स्वभाव वाले प्रबंधक अमिताभ चक्रवर्ती के पास गया।
उससे पहले पारस बाबू रिटायर कर गए थे।
अमिताभ जी ने मुझसे कहा कि आपको जनसत्ता से अधिक पैसे दूंगा।
आप मत जाइए।
मुझे चूंकि बडे़े फलक पर काम करने की ललक थी,
इसलिए अमिताभ जी की बात नहीं मानी।
लेकिन एक बात साफ हुई कि आज के प्रबंधन ने मान रखा था कि आज के लिए एक उपयोगी
व्यक्ति हूं।
इससे संतोष हुआ।
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आज भी यह कह कर गर्व होता है कि ‘आज’ खासकर पारस बाबू ने मुझे जो सिखाया,वह मेरे लिए बहुमूल्य साबित हुआ।
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एक समय था जब देश में हिन्दी पत्रकारिता के दो ही स्कूल माने जाते थे--
आज स्कूल आॅफ जर्नलिज्म और नईदुनिया स्कूल आॅफ जर्नलिज्म।
नईदुनिया से निकल कर प्रभाष जोशी ने जनसत्ता जैसे
युगांतरकारी अखबार निकाला तो राजेंद्र माथुर ने नवभारत टाइम्स को संवार कर उसे एक गंभीर अखबार बना दिया।
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--सुरेंद्र किशोर-28 दिसंबर 20
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