मंगलवार, 29 जून 2021

 


दलबदल पर कारगर रोक के लिए कानून को कठोर बनाना जरूरी

--सुरेंद्र किशोर

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सन 1985 में दल बदल विरोधी कानून बना था।

इसका श्रेय तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी को मिला।

उस कानून से यह उम्मीद बंधी थी कि अब दल बदल नहीं होंगे।

पर दल बदल नहीं रुका।

बाद में इस कानून में संशोधन हुआ।

फिर भी दल बदल जारी रहा।

2016 से 2020 तक कांग्रेस के 42 प्रतिशत और भाजपा के करीब 4 प्रतिशत विधायकों ने पार्टी छोड़ी।

छोड़ने का उद्देश्य क्या रहा, यह जग जाहिर है।

  जब नेता और कार्यकत्र्ता का अपनी पार्टी से संबंध सिर्फ टिकटों का ही रह जाए तो दल बदल स्वाभाविक ही है।

कुछ दलों से फिर भी उसके कार्यकत्र्ताओं का नीति-सिद्धांत का संबंध रहा है।

पर, वह भी कम होता जा रहा है।

अनेक राजनीतिक दल भारी रकम लेकर चुनावी टिकट दे रहे हैं।

ऐसे में दल बदल कैसे रुकेगा ?

हां, एक नया प्रयोग किया जा सकता है।

दल बदल विरोधी कानून में ऐसा संशोधन हो जिससे किसी जन प्रतिनिधि के दल छोड़ते ही उसकी सदन की सदस्यता तुरंत चली जाए।

दो - तिहाई की सुविधा अब खत्म हो जानी चाहिए।

साथ ही, दल बदलुओं को आगामी उप चुनाव सहित अगले दो चुनावों में उम्मीदवार बनने से कानूनन रोक दिया जाए।

  पहले यह सुविधा दी गई थी कि यदि किसी दल के एक तिहाई सदस्य दल छोड़ें तो उनकी सदस्यता बनी रहेगी।

जब ऐसे प्रावधान के बावजूद दल बदल नहीं रुका तो दो-तिहाई वाली छूट दी गई।

फिर भी स्थिति नहीं सुधर रही।

  इसलिए अब कठोर संवैधानिक कदम उठाना ही पड़ेगा।

दल बदल लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोढ़ है।

इसका उन्मूलन होना ही चाहिए।

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कैमरे बताएंगे कि बर्बरता किधर से हुई

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कैसा रहेगा यदि ड्यूटी पर तैनात बिहार के पुलिस अफसरों की 

वर्दी में कैमरे लगे होंगे ?

कुछ राज्यों में ऐसा पहले से है।

खबर है कि बिहार सरकार को इस पर विचार करके 

कोई निर्णय करना है।

बिहार पुलिस की सलाह है कि उसे ऐसी सुविधा मिलनी चाहिए।

यदि ऐसी सुविधा मिली तो इसके एकाधिक फायदे होंगे।

अक्सर यह आरोप लगता है कि पुलिस ने निहत्थे लोगों 

पर बर्बर कार्रवाई की।

हर बार तो नहीं, किंतु कई बार सच कुछ और ही होता है।

पहले हिंसक या उपद्रवी  भीड़ पुलिस पर हमला कर देती है।

पुलिस प्रतिक्रियास्वरूप भीड़ को भगाने के लिए बल प्रयोग करती है।

कभी-कभी बल प्रयोग कुछ अधिक ही हो जाता है।

फिर उसकी जांच होती है।

यदि पुलिस अफसरों की वर्दियों में कैमरे लगे होंगे तो जांच से यह पता चल जाएगा कि हमले की पहल किस पक्ष ने की।

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जेल जाते ही अस्पताल में दाखिल

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 यदि आप प्रभावशाली हैं तो आपको जेल जाने से डरने की जरूरत नहीं।

जेल होते ही आपको किसी अच्छे अस्पताल में दाखिल करा दिया जा सकता है।

जेल जाने से पहले तक आप नार्मल ढंग से अपना सारा काम कर रहे थे।

किंतु जेल जाते ही आप कुछ गंभीर बीमारियों का बहाना बनाएंगे और 

हैसियत के अनुसार अस्पताल में शिफ्ट कर दिए जाएंगे।

यदि स्थानीय सरकार आपकी मुट्ठी में रही तब तो वह किसी बड़े बंगले को 

जेल घोषित कर देगी।

 इसे रोकने के लिए एक सुझाव प्रस्तुत है।

जिस व्यक्ति को पिछले तीन साल में कभी भी किसी अस्पताल में भरती कराने की नौबत नहीं आई थी ,शासन को चाहिए कि वह उस कैदी से अलग ढंग से व्यवहार करे।

उनकी बीमारी की राज्य के बाहर के विशेषज्ञ चिकित्सकों से जांच कराई जानी चाहिए।

उसके बाद ही शासन उन्हें अस्पताल या जेल भेजने का फैसला करे या कोर्ट से तंत्संबंधी आग्रह करे।

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 भूली-बिसरी याद

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आज ही के दिन सन 1975 में देश में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 

आपातकाल लगाया था।

तब के प्रधान मंत्री सचिवालय 

के संयुक्त सचिव विशन टंडन ने तब लगभग रोज अपनी डायरी लिखी थी।

बाद में वह डायरी पुस्तक के रूप में दो खंड में छपी।

उसके बाद किसी ने टंडन साहब से डायरी लिखने का कारण पूछा गया था।उन्होंने बताया कि जब कभी सरकारी रिकाॅर्ड लोगों को उपलब्ध होंगे,उससे उस समय की घटनाओं और फैसलों की जानकारी होगी।

मेरा प्रयास इससे अलग है।

टंडन साहब ने कहा कि मैं उस वातावरण को चित्रित करना चाहता था,जिसमें लोक तंत्र और उसकी संस्थाओं को 

एक- एक कर ढहाया जा रहा था।

सरकारी फाइलों में यह जानकारी नहीं मिलती।’

 25 जून 1975 को  अपनी डायरी में उन्होंने लिखा,

‘‘शारदा (इंदिरा गांधी के मीडिया सलाहकार एच. वाई. शारदा प्रसाद) ने

बताया कि प्रधान मंत्री निवास पर पूरा कंट्रोल संजय (गांधी) ने ले लिया है।

28 जून को विशन टंडन ने लिखा कि कल रात मुझे बहुत देर तक नींद नहीं 

आई ।

मैं यही सोचता रहा कि इस देश में जन जीवन अब फिर स्वच्छंद  

व स्वाधीन हो सकेगा या नहीं।

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  और अंत में 

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पटना हाईकोर्ट ने 3 अगस्त, 2001 को बिहार सरकार से पूछा था कि राज्य के किन -किन गांवों में पांच मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं ?

तब की राज्य सरकार ने उसका क्या जवाब दिया,यह नहीं मालूम।

 किंतु जानने वाले जानते ही हैं कि बिहार के गांवों  की स्थिति कैसी रही थी। 

  ये मूलभूत सुविधाएं हैं-शुद्ध पेयजल, बिजली, प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य और स्वच्छता।

इस बीच बिजली की स्थिति सुधरी है।

जहां -तहां शुद्ध पेयजल

की व्यवस्था भी हुई है।

पर, लगता है कि बाकी तीन सुविधाएं अब भी भगवान भरोसे ही हंै।

वैसे मौजूदा राज्य सरकार को इन सुविधाओं का अद्यतन आंकड़ा तैयार करके लोगों को बताना चाहिए। 

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  कानोंकान,

प्रभात खबर,पटना

25 जून 21 


 


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