विपक्षी दलों की बेचैनी के निहितार्थ
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--सुरेंद्र किशोर--
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अपनी गोलबंदी के जरिए विपक्ष सत्ता में बदलाव का डर दिखाकर जांच एजेंसियों पर दबाव डालने में लगा है कि उसके नेताओं के खिलाफ मामलों में तेजी न दिखाई जाए
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लोक सभा के अगले चुनाव में अभी ढाई साल से अधिक का समय है।
फिर भी विपक्षी दल अभी से ही नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ गोलबंद होने की कोशिश करने लगे हैं।
वे आखिर इतनी जल्दीबाजी में क्यों हैं ?
सत्ता के प्रति उनमें कटुता की इतनी अधिक भावना क्यों है ?
इसके दो कारण नजर आ रहे हैं।
एक तो अगले साल उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में चुनाव होने वाले हैं।
उसके लिए प्रतिपक्ष को अपने पक्ष में माहौल बनाना है।
प्रतिपक्ष के कई दलों के सामने एक और बड़ी समस्या है।
वह यह कि उनके कई नेताओं और रिश्तेदारों के खिलाफ जारी भ्रष्टाचार के मुकदमों में उन्हें कोई राहत मिलती नजर नहीं आ रही है।
दरअसल भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी सरकार की शून्य सहनशीलता नीति ने यह स्थिति पैदा कर दी है।
हालांकि अतीत में भी भ्रष्टाचार के मुकदमे देश में दर्ज होते थे।
किंतु तब जल्दी -जल्दी सरकारें बदल जाने के कारण मुकदमों को आम तौर पर दबा या दबवा दिया जाता था।
एक गैर कांग्रेसी सरकार के प्रधान मंत्री कहा करते थे कि एक खास राजनीतिक परिवार को नहीं ‘छूना’ है।
मोदी सरकार में उस परिवार के साथ -साथ देश के अनेक नेताओं और घरानों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप में मुकदमे चल रहे हैं।
वे सुनवाई के विभिन्न स्तरों पर हैं।
अगले 34 महीनों में पता नहीं, कितने मुकदमों में क्या-क्या निर्णय हो जाए !
इनके आरोपितों को लगता है कि यदि वे भाजपा विरोधी प्रतिपक्ष को जल्द से जल्द एक करने में सफल हो गए तो
अभी से केंद्रीय जांच एजेंसियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव डाल सकेंगे कि हम सत्ता में आने ही वाले हैं।
इसलिए मामले में आप ज्यादा तेजी मत दिखाइए।
लेकिन लोक सभा से पहले उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव होंगे।
प्रतिपक्ष की कोशिश है कि उसके लिए भी मोदी विरोधी माहौल बनाना जरूरी है।
उनके अनुसार लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि मोदी सरकार संसद चलाने में भी विफल है।
हालांकि लोग देख रहे हैं कि संसद में व्यवधान कौन पैदा कर रहा है।
वैसे तो अगले ढाई साल में कौन सी राजनीतिक,गैर राजनीतिक घटना होगी,उसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसका राजनीति व चुनाव पर कैसा असर पड़ेगा।
किंतु आज की राजनीतिक स्थिति यह है कि नरेंद्र मोदी का पलड़ा भारी लगता है।
मोदी के 40 प्रतिशत वोटों के खिलाफ प्रतिपक्ष के 60 प्रतिशत
मतों की गोलबंदी विपक्षी कोशिशों के केंद्र में है।
हालांकि यह दिवास्वप्न की तरह ही लगता है।
पिछले चुनावों में कई राज्यों में राजग को 50 प्रतिशत वोट मिल चुके हैं।
कुछ अन्य राज्यों में राजग के खिलाफ प्रतिपक्ष की पूर्ण एकता असंभव जैसा लक्ष्य है।
उत्तर प्रदेश इसका एक उदाहण है।
बंगाल के हालिया विधान सभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 47 दशमलव 97 प्रतिशत और भाजपा को 38 दशमलव 09 प्रतिशत वोट मिले।
2019 के लोक सभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 43 प्रतिशत और भाजपा को 40 प्रतिशत वोट मिले थे।
बंगाल के गत विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को 2 दशमलव 94 प्रतिशत और माकपा को 4 दशमलव 72 प्रतिशत मत मिले।
एक कांग्रेसी नेता के अनुसार कांग्रेस समर्थक मुसलमानों ने
आखिरी वक्त में तृणमूल के उम्मीदवारों को वोट दे दिए।
माकपा के अधिकतर समर्थकों ने भी यही काम किया।
अब सवाल है कि जितने मत माकपा और कांग्रेस को मिले,उनमें से कितने वोट अगले चुनाव में भी इन विलुप्त होते दलों को मिल पाएंगे ?
हारते हुए उम्मीदवारों को कितने लोग वोट देते हैं ?
यानी कांग्रेस और माकपा के बचे- खुचे वोट दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दलों तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच बंट सकते हैं।
कुछ अन्य राज्यों में भी यही हाल रहने वाला हैं
हालांकि 2024 के लोक सभा चुनाव परिणाम के बारे में अभी कुछ कहना जल्दीबाजी होगी, किंतु इतना कहा जा सकता है कि राजग विरोधी दलों की आशावादिता का अभी ठोस आधार नजर नहीं आ रहा है।
अब जरा दो विपरीत स्थितियों की कल्पना कीजिए।
राजग यदि तीसरी बार जीत गया तो क्या होगा ?
दूसरी ओर, राजग विरोधी गठबंधन जीत गया तो क्या-क्या होगा ?
राजग की जीत के बाद बड़े -बड़े नेताओं,उनके परिजनों और व्यापारियों के खिलाफ जारी अधिकतर मुकदमों के फैसले नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल में संभवतः आ जाएंगे।
उनसे कई -बड़े नेताओं और घरानों की राजनीति का अवसान संभव है।
जाहिर है कि आरोपित नेता और व्यापारी गण आज अपने होशोहवास में नहीं होंगे।
अब आप इसके विपरीत स्थिति की कल्पना कीजिए।
यदि 2024 में मिलीजुली सरकार बन जाएगी तो क्या होगा ?
उस सरकार का पहला काम तो यही होगा कि नेताओं,उनके परिजनों और समर्थक व्यापारियों के खिलाफ जारी मुकदमों को या तो बंद किया जाए या फिर उन्हें कमजोर किया जाए।
जिनके खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं ,उनमें कश्मीर से कन्याकुमारी तक और हरियाणा से बंगाल तक के नेतागण शामिल हैं।
आप सहज अनुमान लगा सकते हैं कि उनके खिलाफ जारी मुकदमे जब कमजोर हो जाएंगे तो देश के शासन और राजनीति पर उसका कैसा असर पड़ेगा ?
भ्रष्टाचार, अपराध और आतंकवाद में तेजी आएगी या कमी ?
सरकार बदलने पर मुकदमे कैसे कमजोर किए जाते हैं,
इसके कुछ उदाहरण यहां पेश हैं।
कांग्रेस की मदद से केंद्र में सन 1979 में चैधरी चरण सिंह की सरकार बनी थी।
जब उन्होंने संजय गांधी पर जारी मुकदमों पर पर्दा डालने से मना कर दिया तो कांग्रेस ने उनकी सरकार गिरा दी।
सन 1080 में लोक सभा के चुनाव हुए।
कांग्रेस सत्ता में आई।
फिर सारे मुकदमे रफा -दफा कर दिए गए।
नवंबर, 1990 में केंद्र में कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर
की सरकार बनी थी।
जब प्रधान मंत्री चंद्रशेखर ने बोफोर्स केस को बंद करने से मना कर दिया तो उनकी भी सरकार गिरा दी गई।
फिर 1991 में कांग्रेस की सरकार बनी।
किंतु कांग्रेस के पास खुद का बहुमत नहीं था।
इसलिए तत्कालीन प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव पर आरोप लगा कि उन्होंने अपनी सरकार बचाने के लिए कुछ सांसदों से सौदा किया।
यानी, इस देश की राजनीति का कुछ और पतन हुआ।
साफ है कि यदि मोदी सरकार भ्रष्टाचार और आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति पर लगातार चल पा रही है तो इसका सबसे बड़ा कारण सन 2014 और सन 2019 के लोक सभा चुनावों में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलना था।
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8 अगस्त, 2021 के दैनिक जागरण और
नईदुनिया(मध्य प्रदेश) में एक साथ प्रकाशित