रविवार, 27 फ़रवरी 2022

  सन 1927 की गोधरा साम्प्रदायिक हिंसा में अंग्रेजों की बेईमानी ने मोरारजी देसाई को डिपुटी कलक्टर पद से इस्तीफा दे देने को मजबूर कर दिया 

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सुरेंद्र किशोर

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गोधरा में 1927 में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के बाद ही

मोरारजी देसाई ने सरकारी नैकरी छोडकर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़ने का निर्णय कर लिया था।

  उसे उन्होंने जल्द ही कार्य रूप भी दे दिया।

याद रहे कि तब के अंग्रेज कलक्टर ने

मोरारजी देसाई पर इस बात के लिए दबाव डाला था कि वे 

उस हिंसा ऐसी रिपोर्ट तैयार करें जिससे दंगाई मुसलमानों को दोष मुक्त किया जा सके।

 सन 2002 में भी गोधरा में कारसेवक टे्रन दहन कांड हुआ।

सन 1927 के गोधरा कांड से बीस साल पहले हुए कांड में एक खास तरह की समानता है।

2002 के गोधरा कांड के बाद रेलवे मंत्री लालू प्रसाद ने जस्टिस यू.सी.बनर्जी के नेतृत्व मंे जांच कमेटी बनाई थी ।

उस कमेटी ने यह रपट दी थी कि गोधरा स्टेशन पर ट्रेन की बोगी में किसी ने बाहर से आग नहीं लगाई थी।बल्कि आग भीतर से ही लगी थी।

पर, याद रहे कि सी.बी.आई.जांच से पता चला कि मुसलमानों की भीड़ ने बाहर से पेट्रोल छिड़कर डिब्बे के भीतर बैठे-सोये 59 कार सेवकों को जिंदा जला दिया था।कोर्ट ने उन आरोपितों को सजा भी दे दी।

  1927 के गोधरा कांड के बारे में मोरारजी देसाई ने अपनी जीवनी में लिखा है कि ‘‘ गणेश उत्सव के दौरान हिन्दुओं ने 

बाजा बजाते हुए मस्जिद के पास से जुलूस निकाला।

डी.एस.पी.जियाउद्दीन अहमद की सुरक्षा में जुलूस निकला।

  डी.एस.पी.के डर से मुसलमानों ने मंजीरे बजाने पर आपत्ति नहीं की।

जब जुलूस खत्म हुआ और लोग अपने -अपने घर जाने लगे तो मुसलमानों ने बदले की भावना से लोगांे पर हमला कर दिया।

  जुलूस के नेता वामनराव मुकादम थे।

उनके ऊपर तो बुरी तरह प्रहार हुआ।

चोट खाकर मुकादम जब गिर पड़े तो उनके मित्र पुरुषोत्तम शाह उन्हें बचाने के लिए बीच में पड़े।

 पर उन्हें  हमलावरों ने इतना मारा कि वे मर गए।

मुकादम का हाथ टूटा और अन्य कई को चोट आई।

 हमले के शिकार हिन्दू कांग्रेसी थे।

अंग्रेजों को कांगे्रसियों से नफरत थी।’’

जिले के कलक्टर ने मोरारजी देसाई को निदेश दिया कि वे पड़ताल के बाद अपनी ऐसी रपट तैयार करें ताकि उसमें हिन्दू दोषी पाए जाएं।

मोरारजी ने ऐसा करने से इनकार करते हुए कहा कि मैं तो सिर्फ सत्य ही लिखूंगा।

 मजिस्ट्रेट के रूप में भी मैं वैसा ही आचरण करूंगा।

मोरारजी लिखते हैं कि ‘‘दंगे के इस अनुभव से मेरी इस पूर्व धारणा की पुष्टि हुई कि अंग्रेज सिविलियनों और पुलिस अधिकारियों का रुख कौमी दंगों में निष्पक्ष नहीं होता।

  चूंकि मैंने उनके अन्यायी और पक्षपातपूर्ण रुख में उनका साथ नहीं दिया और तटस्थ रहा,इसीलिए उन्होंने मुझसे दुश्मनी की और प्रतिशोध लेने के लिए डी.एम.ने सरकार से मेरे खिलाफ जांच की विनती की।

  दर -सबेर नौकरी छोड़ देने का विचार भी मेरे मन में वहीं से शुरू हुआ।

  बाद में मोरारजी देसाई आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।कई बार जेल गए।

  आजादी के पहले 1937 में गठित खेर मंत्रिमंडल में बंबई प्रांत के राजस्व मंत्री बने।

  1946 में गठित सरकार में भी मंत्री बने। बाद में देसाई बंबई के मुख्य मंत्री बने।तब गुजरात भी बंबई प्रांत में शामिल था।

बाद में वे केंद्र में मंत्री, उप प्रधान मंत्री और बाद में 1977 में गैर कांग्रेसी सरकार के प्रधान मंत्री बने।

  उनका जन्म 29 फरवरी 1896 को हुआ।उनका निधन 10 अप्रैल 1995 को हुआ।

अंग्रेजी कलेंडर को ध्यान में रखें तो उनका जन्म दिन हर चार साल पर मनाया जाता है।

यह भी ध्यान रहे कि 2002 का गोधरा कांड 27 फरवरी को हुआ था। 

  प्रधान मंत्री बनने से पहले और बाद में भी मोरारजी देसाई एक सत्यनिष्ठ और कत्र्तव्यनिष्ठ नेता के रूप में जाने जाते रहे। 

 आम धारणा रही कि उन्होंने गद्दी के लिए कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया।  

    1979 की बात है।

 मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार गिर रही थी।उसे बचाने की कुछ नेता कोशिश भी कर रहे थे।इसके लिए कुछ कांग्रेसी सांसद मोरारजी से सौदेबाजी करना चाहते थे। मोरारजी देसाई ने सांसदों को खरीदने से तब किस तरह साफ मना कर दिया था,उसका आंखों देखा हाल पटना के एक बुजुर्ग नेता ने बाद में बताया था।

 उत्तर प्रदेश से विजयी एक कांग्रेसी सांसद, जो एक राज घराने से आते थे,तीस -चालीस कांग्रेसी तथा कुछ अन्य दलों के सांसदों को सदन में शक्ति परीक्षा से पहले मोरारजी देसाई से मिलवाना चाहते थे।

   उस सांसद से बिहार के कुछ जनता सांसद मोरार जी के पक्ष में पहले ही बातचीत कर चुके थे।

  इस संबंध में बातचीत करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण जनता सांसद उनके प्रधान मंत्री पद से इस्तीफे के एक दिन पहले मोरारजी के सरकारी आवास पर ंगए।

  पर, तब तक रात के नौ बज चुके थे।

 मोरारजी देसाई सोने चले गए थे।

वे रात में नौ बजे जरूर सो जाते थे।वे सुबह जल्दी जगते थे।इस रूटीन में कोई व्यवधान उन्हें कत्तई मंजूर ही नहीं था,चाहे कुछ भी हो जाए।

  सांसदों ने उन्हें विशेष परिस्थिति में जगा देने के लिए उनके पुत्र कांति देसाई से कहा।

कांति ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया।फिर उनके सचिव को इस काम में लगाया गया।सचिव ने हिम्मत करके दरवाजे पर हल्की दस्तक दी।पर भीतर से कोई आवाज नहीं आई तो उन्होंने भी अपनी कोशिश छोड़ दी।इस बीच वरिष्ठ जनता सांसदों ने कांति देसाई से कहा कि जो सांसद सरकार बचाने के लिए सामने आना चाहते हैं,वे उसकी कुछ कीमत भी मांग रहे हैं।

  कांति ने कहा कि कीमत दी जा सकती है ,पर इसके लिए पिता जी की अनुमति चाहिए।

  दूसरे दिन जब सुबह मोरारजी को बताया गया तो उन्होंने ऐसी सौदेबाजी करके सरकार बचाने से साफ मना कर दिया।इस तरह मोरारजी ने मर्यादा बचा ली भले उनकी सरकार चली गई। 

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   चुनावी भविष्यवाणियों के ‘उस्ताद’ राजदीप 

 की नजर में यू.पी.में भाजपा की साफ बढ़त

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सुरेंद्र किशोर 

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 राजदीप सरदेसाई के चुनावी आकलन की प्रतीक्षा थी।

वह गत 25 फरवरी को आ गई।

  हिन्दुस्तान टाइम्स में उन्होंने लिखा है कि यू.पी.चुनाव में भाजपा की साफ बढ़त नजर आ रही है।

  सन 2017 के यू.पी.विधान सभा चुनाव नतीजेे को लेकर आकलनकत्र्ताओं ने काफी धुंध फैला रखी थी।

  पर,रिजल्ट से पहले ही राजदीप ने हिन्दुस्तान टाइम्स में ही यह साफ -साफ लिख दिया था कि भाजपा की सरकार बन रही है। बन भी गई।

  मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ था कि जो पार्टी 325 सीटें जीतने वाली थी,उसके बारे में भी धुंध की गुंजाइश क्यों थी !

दरअसल आम तौर पर जाति, पैसा व विचारधारा (व्यक्तियों के द्वारा किए गए)चुनावी आकलन को प्रभावित करती हैं।अपवादों की बात और है।

पर, राजदीप ने पिछले गुजरात विधान सभा चुनाव रिजल्ट की भी सही भविष्यवाणी की थी।

  उससे पहले संभवतः कर्नाटका विधान सभा चुनाव को लेकर भी राजदीप सही थे।

याद रहे कि राजदीप भाजपा या नरेंद्र मोदी के प्रशंसक नहीं हैं।बल्कि कुछ ज्यादा ही आलोचक है।

2017 के यू.पी.विधान सभा चुनाव रिजल्ट को लेकर शम्भूनाथ शुक्ल भी सही थे।

  इस बार शायद उनका आकलन अभी नहीं आया है।

या आया भी होगा तो मैं अपनी अति व्यस्तता के कारण देख नहीं पाया। 

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27 फरवरी 22

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शराबखोरी से होने वाली सड़क दुर्घटना 

और घरेलू हिंसा की घटनाएं देशव्यापी

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सुरेंद्र किशोर

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कुछ ही साल पहले की बात है। सोशल वर्क में पी.जी. की पढ़ाई कर रहे एक छात्र ने इंटर्नशिप के दौरान मुम्बई के पुलिस थानों में फिल्ड शोध किया था।

शोध का विषय था शराबखोरी का लोगों पर प्रभाव।

अध्ययन में यह पाया गया कि शराबखोरी का घरेलू हिंसा से सीधा संबंध है।

अपने अनुभवों के जरिए बिहार सरकार भी इसी नतीजे पर पहुंची है।

इसके अलावा शराबखोरी से सड़क दुर्घटनाओं का भी संबंध है।

सरकारी आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं।

 ये चिंताजनक आंकड़े शराबंदी को पूरे देश में लागू करने की जरूरत बताते हैं।

 बिहार में शराबबंदी लागू है।

 किंतु आसपास के राज्यों में शराबबंदी नहीं है। 

 नतीजतन बिहार सरकार को अपने राज्य में उसे पूर्णतः लागू करने में दिक्कत हो रही है। 

  इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए सन 1977 में मोरारजी देसाई सरकार ने देश भर में एक साथ शराबबंदी लागू करनी शुरू की थी।

उसे चार चरणों में पूरा करना था। हर साल शराब की एक चैथाई दुकानें बंद करनी थीं। पर 1979 में देसाई सरकार के अपदस्थ हो जाने के बाद शराबबंदी योजना बंद कर दी गई।

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मंत्रियोें को समुचित वेतन 

देने के पक्ष में थे डा.आम्बेडकर 

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सन 1937 में बम्बई विधान सभा में बोलते हुए डा. बी.आर.अम्बेडकर ने कहा था कि मैं चाहता हूं कि इस देश के मंत्रियों को पर्याप्त वेतन मिले तभी प्रतिभाएं इस पद के लिए सामने  आएंगी। 

डा.आम्बेडकर ने तब यह भी कहा था कि किसी मंत्री के लिए मात्र पांच सौ रुपये का वेतन समुचित नहीं है।

  हाल में कर्नाटका की विधायिका ने जब विधायकों,मंत्रियों व मुख्य मंत्री के वेतन में 40 से 60 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी कर दी तो एक बार फिर यह विवाद शुरू हो गया।

    इस मुद्दे पर एक पक्ष यह कहता है कि भारत के आम लोगों की औसत आय के अनुपात में ही जन प्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते भी तय होने चाहिए।

दूसरा पक्ष यह कहता है कि काम और पद की जरूरतों के अनुसार वेतन तय होने चाहिए।

    डा.आम्बेडकर ने इस बात पर जोर दिया था कि यदि प्रशासन में लोगों का विश्वास हम जगाना चाहते हैं तो मेरे अनुसार यह उचित नहीं है कि मंत्री गलियों में अधूरे कपड़े पहन कर जाएं।

अपना शरीर प्रदर्शन करें।

सिगरेट के स्थान पर बीड़ी पिएं।

अथवा, तीसरे दर्जे या बैलगाड़ी से यात्रा करें।

   आम्बेडकर की बात अपनी जगह सही है।

पर आज स्थिति बदली हुई है।

आम्बेडकर के जमाने में अधिकतर नेता अपनी जायज आय

पर ही जीवन यापन करते थे।

आज अपवादों को छोड़कर नेताओं को कई स्त्रोतों से ‘चंदा’ मिलते रहते हैं।

कई नेताओं के लिए वेतन का महत्व कम ही रह गया है।

ऐसे में इस देश के औसत दर्जे के लोगों की आय को ध्यान में रखते हुए ही जन प्रतिनिधियों के वेतन आदि तय किए जाएंगे तो लोगों में नेताओं के बारे में गलत संदेश नहीं जाएगा।  

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दिल्ली लोकायुक्त का पद खाली  

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जन लोकपाल की मांग के समर्थन में अन्ना हजारे के नेतृत्व में अरविंद केजरीवाल तथा अन्य लोगों ने सन 2011 में जन आंदोलन शुरू किया था।

उस आंदोलन से मिली लोकप्रियता के कारण अरविंद को जनता ने  दिल्ली के मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बैठाया।

अच्छा किया।अरविंद केजरीवाल इस देश के अधिकतर मुख्यमंत्रियों की अपेक्षा बेहतर साबित हुए हैं।

किंतु समय बीतने के साथ आम आदमी पार्टी व उसकी सरकार में भी वही ‘बीमारी’ घर करने लगी।

  हालांकि अब भी आम आदमी पार्टी सरकार बेहतर काम कर रही है।

  पर शक की सूई उनकी ओर घूमने लगी है।

ताजा मामला लोकायुक्त पद को लेकर है।

दिल्ली में लोकायुक्त का पद पिछले एक साल से खाली है।

सवाल है कि वह पद क्यों नहीं भरा जा रहा है ?

     क्या इसलिए कि आम आदमी पार्टी के 36 विधायकों के खिलाफ करीब एक सौ शिकायतें लोकायुक्त

 के यहां लंबित हैं ?

उधर केरल की माकपा सरकार चाहती है कि वहां के लोकायुक्त को मिले कुछ ‘‘कड़े अधिकारों’’ को उनसे छीन लिया जाए।

 याद रहे कि केरल की सरकार के खिलाफ भी भ्रष्टाचार के आरोपों की संख्या बढ़ रही है।  

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और अंत में

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 सन 1977 से 2001 तक बिहार विधान सभा की प्रेस दीर्घा में बैठकर सदन की कार्यवाही देखने और रिर्पोटिंग करने का मेरा अनुभव रहा।

 पहले के प्रतिपक्षी विधायकगण प्रश्न काल का जनहित में बेहतर इस्तेमाल करते थे।

हाल के वर्षों में तो अक्सर सदन का लगभग हर काल हंगामा व शोरगुल में ही बीत जाता है।

 जब प्रश्न काल शांतिपूर्वक चलते थे तो सरकार हमेशा दबाव में रहती थी।

सदन के कठघरे में होती  थी।

कई बार तो उसे अपनी विफलताओं के लिए शर्मींदगी भी झेलनी पड़ती थी।

पर ,जब से प्रश्न काल भी शोरगुल व हंगामे में डूबने लगा,मंत्रियों और अफसरों को राहत महसूस होने लगी।

याद रहे कि कुछ दशक पहले के प्रतिपक्षी सदस्यों को जब हंगामा भी करना होता था तो वे उसकी शुरूआत जीरो आवर से करते थे। 

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प्रभात खबर,पटना

25 फरवरी 22


  सन 1927 की गोधरा साम्प्रदायिक हिंसा में अंग्रेजों की बेईमानी ने मोरारजी देसाई को डिपुटी कलक्टर पद से इस्तीफा दे देने को मजबूर कर दिया 

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सुरेंद्र किशोर

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गोधरा में 1927 में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के बाद ही

मोरारजी देसाई ने सरकारी नैकरी छोडकर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़ने का निर्णय कर लिया था।

  उसे उन्होंने जल्द ही कार्य रूप भी दे दिया।

याद रहे कि तब के अंग्रेज कलक्टर ने

मोरारजी देसाई पर इस बात के लिए दबाव डाला था कि वे 

उस हिंसा ऐसी रिपोर्ट तैयार करें जिससे दंगाई मुसलमानों को दोष मुक्त किया जा सके।

 सन 2002 में भी गोधरा में कारसेवक टे्रन दहन कांड हुआ।

सन 1927 के गोधरा कांड से बीस साल पहले हुए कांड में एक खास तरह की समानता है।

2002 के गोधरा कांड के बाद रेलवे मंत्री लालू प्रसाद ने जस्टिस यू.सी.बनर्जी के नेतृत्व मंे जांच कमेटी बनाई थी ।

उस कमेटी ने यह रपट दी थी कि गोधरा स्टेशन पर ट्रेन की बोगी में किसी ने बाहर से आग नहीं लगाई थी।बल्कि आग भीतर से ही लगी थी।

पर, याद रहे कि सी.बी.आई.जांच से पता चला कि मुसलमानों की भीड़ ने बाहर से पेट्रोल छिड़कर डिब्बे के भीतर बैठे-सोये 59 कार सेवकों को जिंदा जला दिया था।कोर्ट ने उन आरोपितों को सजा भी दे दी।

  1927 के गोधरा कांड के बारे में मोरारजी देसाई ने अपनी जीवनी में लिखा है कि ‘‘ गणेश उत्सव के दौरान हिन्दुओं ने 

बाजा बजाते हुए मस्जिद के पास से जुलूस निकाला।

डी.एस.पी.जियाउद्दीन अहमद की सुरक्षा में जुलूस निकला।

  डी.एस.पी.के डर से मुसलमानों ने मंजीरे बजाने पर आपत्ति नहीं की।

जब जुलूस खत्म हुआ और लोग अपने -अपने घर जाने लगे तो मुसलमानों ने बदले की भावना से लोगांे पर हमला कर दिया।

  जुलूस के नेता वामनराव मुकादम थे।

उनके ऊपर तो बुरी तरह प्रहार हुआ।

चोट खाकर मुकादम जब गिर पड़े तो उनके मित्र पुरुषोत्तम शाह उन्हें बचाने के लिए बीच में पड़े।

 पर उन्हें  हमलावरों ने इतना मारा कि वे मर गए।

मुकादम का हाथ टूटा और अन्य कई को चोट आई।

 हमले के शिकार हिन्दू कांग्रेसी थे।

अंग्रेजों को कांगे्रसियों से नफरत थी।’’

जिले के कलक्टर ने मोरारजी देसाई को निदेश दिया कि वे पड़ताल के बाद अपनी ऐसी रपट तैयार करें ताकि उसमें हिन्दू दोषी पाए जाएं।

मोरारजी ने ऐसा करने से इनकार करते हुए कहा कि मैं तो सिर्फ सत्य ही लिखूंगा।

 मजिस्ट्रेट के रूप में भी मैं वैसा ही आचरण करूंगा।

मोरारजी लिखते हैं कि ‘‘दंगे के इस अनुभव से मेरी इस पूर्व धारणा की पुष्टि हुई कि अंग्रेज सिविलियनों और पुलिस अधिकारियों का रुख कौमी दंगों में निष्पक्ष नहीं होता।

  चूंकि मैंने उनके अन्यायी और पक्षपातपूर्ण रुख में उनका साथ नहीं दिया और तटस्थ रहा,इसीलिए उन्होंने मुझसे दुश्मनी की और प्रतिशोध लेने के लिए डी.एम.ने सरकार से मेरे खिलाफ जांच की विनती की।

  दर -सबेर नौकरी छोड़ देने का विचार भी मेरे मन में वहीं से शुरू हुआ।

  बाद में मोरारजी देसाई आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।कई बार जेल गए।

  आजादी के पहले 1937 में गठित खेर मंत्रिमंडल में बंबई प्रांत के राजस्व मंत्री बने।

  1946 में गठित सरकार में भी मंत्री बने। बाद में देसाई बंबई के मुख्य मंत्री बने।तब गुजरात भी बंबई प्रांत में शामिल था।

बाद में वे केंद्र में मंत्री, उप प्रधान मंत्री और बाद में 1977 में गैर कांग्रेसी सरकार के प्रधान मंत्री बने।

  उनका जन्म 29 फरवरी 1896 को हुआ।उनका निधन 10 अप्रैल 1995 को हुआ।

अंग्रेजी कलेंडर को ध्यान में रखें तो उनका जन्म दिन हर चार साल पर मनाया जाता है।

यह भी ध्यान रहे कि 2002 का गोधरा कांड 27 फरवरी को हुआ था। 

  प्रधान मंत्री बनने से पहले और बाद में भी मोरारजी देसाई एक सत्यनिष्ठ और कत्र्तव्यनिष्ठ नेता के रूप में जाने जाते रहे। 

 आम धारणा रही कि उन्होंने गद्दी के लिए कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया।  

    1979 की बात है।

 मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार गिर रही थी।उसे बचाने की कुछ नेता कोशिश भी कर रहे थे।इसके लिए कुछ कांग्रेसी सांसद मोरारजी से सौदेबाजी करना चाहते थे। मोरारजी देसाई ने सांसदों को खरीदने से तब किस तरह साफ मना कर दिया था,उसका आंखों देखा हाल पटना के एक बुजुर्ग नेता ने बाद में बताया था।

 उत्तर प्रदेश से विजयी एक कांग्रेसी सांसद, जो एक राज घराने से आते थे,तीस -चालीस कांग्रेसी तथा कुछ अन्य दलों के सांसदों को सदन में शक्ति परीक्षा से पहले मोरारजी देसाई से मिलवाना चाहते थे।

   उस सांसद से बिहार के कुछ जनता सांसद मोरार जी के पक्ष में पहले ही बातचीत कर चुके थे।

  इस संबंध में बातचीत करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण जनता सांसद उनके प्रधान मंत्री पद से इस्तीफे के एक दिन पहले मोरारजी के सरकारी आवास पर ंगए।

  पर, तब तक रात के नौ बज चुके थे।

 मोरारजी देसाई सोने चले गए थे।

वे रात में नौ बजे जरूर सो जाते थे।वे सुबह जल्दी जगते थे।इस रूटीन में कोई व्यवधान उन्हें कत्तई मंजूर ही नहीं था,चाहे कुछ भी हो जाए।

  सांसदों ने उन्हें विशेष परिस्थिति में जगा देने के लिए उनके पुत्र कांति देसाई से कहा।

कांति ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया।फिर उनके सचिव को इस काम में लगाया गया।सचिव ने हिम्मत करके दरवाजे पर हल्की दस्तक दी।पर भीतर से कोई आवाज नहीं आई तो उन्होंने भी अपनी कोशिश छोड़ दी।इस बीच वरिष्ठ जनता सांसदों ने कांति देसाई से कहा कि जो सांसद सरकार बचाने के लिए सामने आना चाहते हैं,वे उसकी कुछ कीमत भी मांग रहे हैं।

  कांति ने कहा कि कीमत दी जा सकती है ,पर इसके लिए पिता जी की अनुमति चाहिए।

  दूसरे दिन जब सुबह मोरारजी को बताया गया तो उन्होंने ऐसी सौदेबाजी करके सरकार बचाने से साफ मना कर दिया।इस तरह मोरारजी ने मर्यादा बचा ली भले उनकी सरकार चली गई। 

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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

 जब किसी भ्रष्ट के खिलाफ किसी भी नागरिक को 

कोर्ट जाने का अधिकार है ही तो यह रोना क्यों रो रहे हो  कि केंद्र की भाजपा सरकार जांच एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है ?

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जिस किसी भ्रष्ट को, आपके अनुसार, भाजपा सरकार बचा रही है ,रोना रोने के बदले उसके खिलाफ आप कोर्ट क्यों नहीं चले जाते ?

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सुरेंद्र किशोर

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डा.सुब्रह्मण्यन स्वामी ने 1 जून 1996 को चेन्नई की एक अदालत में जय ललिता के खिलाफ केस दायर किया जिसमें आय से अधिक धन नाजायज तरीके से एकत्र करने का

उन पर आरोप लगाया गया।

  सीआर.पी.सी. की धारा-200 के तहत यह याचिका दायर की गई।

उस पर अदालत ने 21 जून 1996 को इसकी जांच का आदेश दिया।

 जांच रपट के आधार पर दायर आरोप पत्र पर सुनवाई के बाद कोर्ट ने जयललिता व अन्य को दोषी पाया।

सजा हुई।

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चारा घोटाले को लेकर भी जनहित याचिकाएं पटना हाई कोर्ट में दायर की गई थी।

अदालत ने सी.बी.आई.जांच का आदेश दिया।

इस घोटाले में कई लोगांे को अदालत सजा दे चुकी है।

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यानी, इन दोनों मामलों में दोषियों को सजा दिलाने के लिए लोगों ने व्यक्तिगत हैसियत से पहल की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने हर नागरिक को ऐसी छूट भी दे रखी है।

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इस उपलब्ध सुविधा के बावजूद आज कोई सरकारी एजेंसी किसी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई शुरू करती है तो पीड़ित व्यक्ति या उसके समर्थक यह रोना रोते लगते हैं कि इसी के खिलाफ कार्रवाई क्यों हुई ? फलां भ्रष्ट व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है ?

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डा.स्वामी या चारा घोटाले में पी. आई. एल. करने वाले तो ऐसा रोना नहीं रो रहे थे।

उन लोगों ने अपने पौरूष का प्रदर्शन किया और दोषियों  को 

सजा दिलवा दी।

यदि जांच एजेंसियां आज के किन्हीं भ्रष्ट सत्ताधारियों को  बख्श रही है तो आप भी डा.स्वामी या चारा घाोटाले के याचिकाकर्ताओं की राह पर क्यों चल रहे हैं ?

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यदि आप उस राह पर नहीं चलिएगा तो यह माना जाएगा कि आपके पास अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के कोई ठोस सबूत नहीं हंै।

आप सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी कर रहे हैं।

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मंत्री पद से हटा दिए गए तो असंतुष्ट हो गए।

सदन में पहंुचने का दूसरा मौका नहीं मिला तो पार्टी छोड़ दी।

यह सब अब स्वार्थी राजनीति का आम चलन हो गया है।

इस स्थिति में विभिन्न दलों के ऐसे नेताओं की सूची बननी चाहिए जो टिकट कटने के बावजूद पार्टी में बने रहते हैं।

साथ ही, उन लोगों की भी सूची बने जो मंत्री पद से हटाए जाने के बावजूद दल या सुप्रीमो से नाराज नहीं होते।

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   इस स्थिति के दो अपवाद मुझे फिलहाल नजर आते हैं।

अपवाद और भी होंगे किंतु मुझे उनके बारे में पता नहीं।

पता चलेगा तो उन पर भी लिख दूंगा।

राजद के जगदानंद सिंह और जदयू के नीरज कुमार अपवाद स्वरूप लगते हैं।

नीरज कुमार पहले बिहार में मंत्री थे।

अब नहीं हैं।

 फिर भी मैं देखता हूं कि जदयू व उसके नेता नीतीश कुमार के प्रति नीरज कुमार का समर्थन व प्रशंसा के भाव पहले जैसे ही हैं।

  जगदानंद सिंह लगातार लालू प्रसाद व राजद के प्रति प्रतिबद्ध बने हुए हैं।

जबकि चुनाव हारने के बाद भी न तो वे राज्य सभा में हैं और न ही विधान परिषद में।

मैं यहां यह नहीं कह रहा हूं कि वे उच्च सदन की सदस्यता चाहते हैं।

 कुछ तथाकथित लाॅयल नेता भी पीछे में अपने सुप्रीमो की आलोचना यदाकदा कर देते हैं।

पर, जगदा जी को पीठ पीछे भी कभी आलोचना करते नहीं सुना।

यह लिखने का मेरा आशय सिर्फ यही है कि आप चाहे जिस दल रहें,जन सेवा भाव से रहें।

सिर्फ मेवा प्राप्ति के लिए नहीं।

उससे राजनीति बेहतर होगी और लोगों की राय राजनीति के प्रति बदलेगी।

सफल लोकतंत्र के लिए यह जरूरी तत्व है।

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सुरेंद्र किशोर

25 फरवरी 22     


गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

 अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो(नौजवानो) !

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क्योंकि जेहादियों के खिलाफ निर्णायक संघर्ष 

को लेकर इस देश की ‘राजनीति’ दुविधा में है

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किंतु जेहादियों के बीच किसी तरह की दुविधा नहीं। 

इस देश के कई राजनीतिक दल व नेता वोट के लिए 

इस देश को बर्बाद करने पर तुले हुए हैं।

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केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी के अनुसार इस देश 

के 80 प्रतिशत मुसलमान जेहादियों के साथ नहीं हैं।

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सुरेंद्र किशोर

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सिमी के संस्थापक सदस्य सफदर नागौरी को अहमदाबाद बम धमाकों के मामले में, जिनमें 56 निर्दोष लोग मारे गए थे,जब फांसी की सजा हुई तो उसने कहा कि ‘‘हमारे लिए कुरान के फैसले सर्वोच्च हैं, न कि भारत के संविधान या कानून के फैसले।’’

सन 2008 में हुए उन बम धमाकों का नागोरी मुख्य साजिशकर्ता था।

याद रहे कि नागोरी सहित 38 दोषियों को कल मृत्यु दंड दिया गया है।

दरसल ‘सिमी’ के लोग,जिसका ताजा स्वरूप पी.एफ.आई.है,भारत में हथियारों के बल पर इस्लामिक शासन कायम करने के लिए वर्षों से प्रयत्नशील हैं।

शाहीनबाग, हिजाब वगैरह विवाद के पीछे पी एफ आई ही है।

इस जेहादी संगठन को इस देश के अनेक राजनीतिक दलों व तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवियों का समर्थन हासिल है।

हालांकि केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का दावा है कि ‘‘इस देश के 80 प्रतिशत मुसलमान जेहादियों के साथ नहीं हैं।’’

खुदा करे,यह दावा सच साबित हो।

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अब जरा उनकी सुनिए--

वैसे इस अंडर ग्राउंड संगठन के ओवर ग्राउंड समर्थक रोज रोज इस देश के टी.वी चैनलों पर आकर इन जेहादियों का बचाव करते रहते हैं।ऐसे टी.वी कार्यक्रमों से जेहादियों की ताकत बढ़ती जा रही है।

 9 अप्रैल, 2008 के ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के अनुसार नागौरी ने

कहा था कि ‘‘हमारा लक्ष्य जेहाद के जरिए भारत में इस्लामिक शासल कायम करने का है।’’

7 अगस्त 2008 के ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ के अनुसार लालू प्रसाद ने कहा था कि यदि सिमी पर प्रतिबंध लग गया तो आर.एस.एस.पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए।

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मुलायम सिंह यादव ने भी 2008 में सिमी का बचाव किया।

12 अगस्त, 2008 को राम विलास पासवान ने भी सिमी पर से प्रतिबंध हटाने की मांग की।

  जबकि 2008 में यू.पी.ए.सरकार ने सिमी पर रोक जारी रखने की सुप्रीम कोर्ट से गुहार की।

पर कांग्रेस के ही सलमान खुर्शीद सुप्रीम कोर्ट में सिमी के वकील थे।

प्रतिबंध के खिलाफ सिमी ने याचिका दायर की थी।

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 टाइम्स आॅफ इंडिया के अनुसार सिमी के अहमदाबाद के जोनल सेके्रट्री साजिद मंसूरी ने कहा था कि ‘‘जब भी हम सत्ता में आएंगे तो हम इस देश के सभी मंदिरों को तोड़ देंगे और वहां मस्जिद बनवाएंगे।(टाइम्स आॅफ इंडिया..30 सितंबर 2001)  

  सिमी,आई. एम. और पी. एफ. आई. के लोगों के दिमाग उनके अपने इस 

लक्ष्य के प्रति बिलकुल साफ हैं।

हां,इस देश के कई तथाकथित ‘सेक्युलर’ राजनीतिक दल मुस्लिम वोट के लिए ऐसे जेहादी संगठनों का साथ देते रहे हैं।

इन राजनीतिक व बौद्धिक तत्वों की मदद से ये जेहादी तत्व अपनी ताकत बढ़ाते जा रहे हैं।

अब इस देश की नई पीढ़ी के लोगों को ही सोचना है कि देश को उनकी गिरफ्त में जाने से कैसे रोकना है। 

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सन 2001

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सिमी की राष्ट्रविरोधी व हिंसक गतिविधियों को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2001 में सिमी पर प्रतिबंध लगा दिया।

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3 सितंबर 2001

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सरकार ने सिमी पर जो प्रतिबंध लगाया है,वह मेरी दृष्टि में जायज नहीं है।

     ---शाही इमाम ,फतेहपुरी मस्जिद

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‘‘गुजरात दंगों के बाद दंगों की प्रतिक्रिया में इंडियन मुजाहिद्दीन का गठन हुआ।’’

         ---डा.शकील अहमद,

     कांग्रेस महा सचिव--21 जुलाई 2013

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सिमी पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए था।

--मुलायम सिंह यादव

7 अगस्त 2008

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मन मोहन सिंह सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि सिमी के लोग जेहाद का प्रचार कर रहे हैं और कश्मीर में आतंकवादियों की पूरी मदद

कर रहे हैं।

....टाइम्स आॅफ इंडिया .....21 अगस्त 2008 -- 

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राम विलास पासवान ने सिमी पर लगे प्रतिबंध को हटाने की मांग की।

        ---12 अगस्त 2008 

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कश्मीर के  अलगाववादी नेता 

सैयद अली शाह जिलानी ने कहा कि 

सिमी पर प्रतिबंध नागरिक अधिकार पर हमला है।

--29 सितंबर 2001

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सिमी से प्रतिबंध हटाए जाने के ट्रिब्यूनल के निर्णय पर भाजपा ने केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए इसका ठीकरा गृह मंत्री शिवराज पाटिल पर फोड़ा है।

     ---6 अगस्त 2008

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हालांकि मनमोहन सरकार को सिमी पर फिर प्रतिबंध लगाना पड़ा

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रेल मंत्री लालू प्रसाद ने कहा कि मैंने हमेशा कहा है कि  सिमी पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए।

यदि लगता है तो शिव सेना और दुर्गा वाहिनी पर प्रतिबंध लगना चाहिए।

-----टाइम्स आॅफ इंडिया--7 अगस्त 2008

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यशवंत सिन्हा के नेतृत्व में भाजपा के प्रतिनिधि मंडल ने चुनाव आयोग से मिलकर यह मांग की कि सिमी समर्थक दलों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।

   ----19 अगस्त 2008

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सिमी के अहमदाबाद के जोनल सेके्रट्री साजिद मंसूरी ने 2001 में  मीडिया से  बातचीत  में कहा था कि ‘जब हम सत्ता में आएंगे तो सभी मंदिरों को नष्ट कर देंगे और वहां मस्जिद बना देंगे।’ 

मंसूरी का बयान 30 सितंबर 2001 के  अखबार में छपा था। 

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2012 में पश्चिम बंगाल के डी.जी.पी.एन.मुखर्जी ने कहा था कि सिमी के जरिए आई.एस.आई.ने माओवादियों से तालमेल बना रखा है।

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2001 में जब सिमी पर  केंद्र सरकार ने प्रतिबंध लगाया तो उस प्रतिबंध के खिलाफ

सिमी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।सिमी के वकील कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद थे।

तब वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे।

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 स्थापना के समय  सिमी, जमात ए इस्लामी हिंद से जुड़ा छात्र संगठन था।

पर जब 1986 में सिमी ने ‘इस्लाम के जरिए भारत की मुक्ति’ का नारा दिया तो जमात ए इस्लामी हिंद ने उससे अपना संबंध तोड़ लिया।

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केंद्र सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध लगाने के लिए जो मापदंड अपनाए,वे अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं।

      ---- इम्तियाज अहमद,

             प्रोफेसर जे.एन.यू

              30 सितंबर 2001

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मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह ने राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के लिए सिमी पर प्रतिबंध लगाने का स्वागत किया,पर बजरंग दल पर प्रतिबंध नहीं लगाने के लिए केंद्र सरकार को फटकार लगाई।

   ---पायनियर--29 सितंबर 2001

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भाजपा के पूर्व महा सचिव गोविंदाचार्य ने सिमी की तरफदारी पर रेल मंत्री लालू प्रसाद की आज कड़ी निंदा की और आर.एस.एस.पर प्रतिबंध की मांग को अल्पसंख्यक की राजनीति का हिस्सा करार देते हुए नकार दिया।

------इंदौर--19 अगस्त 2008

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सिमी के संविधान में भारत को मजहबी आधार पर बांटने की बात स्पष्ट रूप से दर्ज है।

-----सी.बी.आई.के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह

   --22 सितंबर 2008 ,राष्ट्रीय सहारा  

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लोकतांत्रिक तरीके से इस्लामिक शासन संभव नहीं है।उसके लिए एकमात्र रास्ता जेहाद है।

-------सिमी सदस्य अबुल बशर--

28 सितंबर 2008--राष्ट्रीय सहारा 

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‘‘जेहाद के नाम पर बिहार में भड़काया जाने लगा है एक वर्ग को।’’

    ----बिहार पुलिस की  खुफिया शाखा की रपट

             22 सितंबर 2001

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पुनश्चः

सन 2001 की एक रपट के अनुसार सिमी के समर्थकों की संख्या एक लाख हो चुकी है।

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 पुनरावलोकन

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चारा घोटाले की कहानी 

  नई पीढ़ी के अवलोकनार्थ

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बिहार का एक चारा घोटालेबाज अफसर (अब दिवंगत)अपने इलाज के लिए आस्टे्रलिया गया था।

  अनुमान लगाइए, उसके साथ कितने लोग उसकी देख-रेख के लिए विदेश गए होंगे ?

दो ,तीन,चार या पांच लोग ?

आपकी कल्पना उतने तक ही जा सकती है।

  पर, दरअसल उसके साथ करीब तीन दर्जन लोग आस्ट्रेलिया गए थे।

कलकता हवाई अड्डे पर उसे विदा करने के लिए बिहार के एक बड़े नेता जी भी गए थे।

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रांची के डोरंडा कोषागार से पांच साल में पशुपालन विभाग के मद से 139 करोड़ 35 लाख रुपए घोटालेबाजों ने जाली विपत्रों के आधार पर निकाले थे।

एक बार जब कोषागार पदाधिकारी ने निकासी पर एतराज किया,तो ताकतवर घोटालेबाजों ने राज्य सरकार के वित्त विभाग के संयुक्त सचिव एस.एन.माथुर से कोषागार पदाधिकारी को यह कड़ी चिट्ठी (15 दिसंबर, 1993) लिखवा दी कि  ‘‘विपत्रों यानी बिल को पारित करने में किस आधार पर आपत्ति की जा रही है ?’’

  इस पत्र के बाद कोषागार पदाधिकारी सहम गया।

धुआंधार निकासी फिर शुरू हो गई।

   अब आधार समझिए।

अविभाजित बिहार के पशुपालन विभाग का सालाना बजट करीब 75 करोड़ रुपए का था।

  यानी, पांच साल में कुल 375 करोड़ रुपए।

  पर सिर्फ डोरंडा (रांची) कोषागार से पांच साल में 139 करोड़ 35 लाख रुपए निकाल लिए गए।

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याद रहे कि घोटालेबाजों का अघोषित मुख्यालय रांची ही था।

ऐसे में उस प्रमुख घोटालेबाज के साथ देखरेख के लिए 35 से कम लोग कैसे जाते !  

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एक वो भी जमाना था !

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डा.लोहिया ने सन 1968 में अपनी पार्टी की बिहार सरकार को गिरने दिया,किंतु नियम विरूद्ध जाकर दल बदलुओं से समझौता नहीं किया

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    सुरेंद्र किशोर

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डा.राम मनोहर लोहिया की पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता की जिद थी कि ‘‘मुझे विधान परिषद का सदस्य बना कर मंत्री पद पर बने रहने दिया जाए अन्यथा सरकार गिरा देंगे।’’

  डा.लोहिया ने कहा कि चाहे सरकार गिरा दो लेकिन हम अपने ही बनाए नियम को आपके लिए नहीं तोड़ेंगे।

  आज इस देश केे राजनीतिक दल सरकार बनाने व कहीं की सरकार को गिरा देने के लिए न जाने क्या -क्या करते रहते हैं।

  पर लोहिया को तो सिर्फ किसी को एम.एल.सी.बना देना था।

  बना देते तो सरकार बच जाती।

  पर,इस तरह बिहार की पहली मिली जुली गैर कांग्रेसी सरकार सिर्फ दस महीने में ही गिर गई।

उस मिलीजुली सरकार में संसोपा सबसे बड़ी पार्टी थी।मुख्य मंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा अपेक्षाकृत छोटे दल ‘जन क्रांति दल’ से थे।

 याद रहे कि महामाया प्रसाद सिंहा के नेतृत्व में गठित वह सरकार 5 मार्च 1967 को बनी और 28 जनवरी,1968 तक ही चली।

   गैर कांग्रेसवाद की रणनीति के रचयिता,समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी डा. लोहिया चाहते थे कि उनकी सरकार अपने काम के जरिए ‘‘बिजली की तरह कौंधे और सूरज की तरह स्थायी हो जाए।’’

 पर, उनकी ही पार्टी के पदलोलुप विधायकों ने उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी।

    यदि डा.राम मनोहर लोहिया ने बिंदेष्वरी प्रसाद मंडल को, जिनके नेतृत्व में बाद में मंडल आयोग बना, महामाया मंत्रिमंडल से बाहर करने की जिद नहीं की होती तो संयुक्त मोर्चा की वह सरकार कुछ दिन और चल गई होती। दरअसल उस सरकार को सबसे बड़ी परेषानी उसके अपने ही सत्तालोलुप विधायकों से हुई।

   कुछ लोगों की षिकायत थी कि उन्हें मंत्री पद नहीं मिला।कुछ गलतियां मंत्रिमंडल के गठन के समय ही हुई। महामाया प्रसाद सिंहा के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का गठन हो रहा था तो बी.पी.मंडल को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया।

  जबकि वे तब मधेपुरा से 1967 में लोक सभा के लिए चुने गए थे।

  संयुक्त सोषलिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता डा.लोहिया की नीति थी कि जो व्यक्ति जहां के लिए चुना जाए,वह वहीं की जिम्मेवारी संभाले।पर इस राय को दरकिनार करके बी.पी.मंडल को मंत्री बना दिया गया था।यह एक बड़ी गलती थी।

      डा.लोहिया से स्थानीय नेताओं ने इस संबंध में कोई दिषा निदेष नहीं लिया।दरअसल चुनाव के तत्काल बाद डा.लोहिया दक्षिण भारत के दौरे पर चले गए थे।उन दिनों संचार सुविधाओं का अभाव था।डा.लोहिया से संपर्क करना बिहार के संसोपा नेताओं के लिए संभव नहीं हो सका।

  हालांकि 1967 में देष भर में गैरकांग्रेसी सरकारों के डा.लोहिया ही षिल्पकार थे,पर कौन कहां मंत्री बनेगा या नहीं बनेगा,इसका फैसला करने की जिम्मेवारी उन्होंने पार्टी के दूसरे नेताओं पर ही डाल दी थी।

  हां उनके उसूलों की जानकारी उनकी पार्टी,संसोपा के हार्डकोर नेताओं और कार्यकर्ताओं को जरूर रहती थी।

   भूपेंद्र नारायण मंडल को, जिनके नाम पर मधे पुरा में अब विष्व विद्यालय है, डा.लोहिया के विचारों की जानकारी थी।पहले उन्हें ही कहा गया था 

कि वे महामाया मंत्रिमंडल के सदस्य बनें।पर उन्होंने यह कह कर मंत्री बनने से इनकार कर दिया था कि लोहिया जी इसे अच्छा नहीं मानेंगे।

      जब बाद में डा.लोहिया को पता चला कि बी.पी.मंडल बिहार में मंत्री बन गए हैं तो वे नाराज हो गए।

  वे चाहते थे कि वे मंत्रिमंडल छोड़कर लोक सभा के सदस्य के रूप में अपनी जिम्मेवारी निभाएं।

  पर मंडल जी कब मानने वाले थे ! मंत्री बने रहने के लिए उन्हें विधान मंडल के किसी सदन का छह महीने के भीतर सदस्य बनाया जाना जरूरी था।

  पर डा. लोहिया की राय को देखते हुए उनकी पार्टी ने उन्हें यह संकेत दे दिया था कि आप मंत्री सिर्फ छह महीने तक ही रह सकेंगे।

  बी.पी.मंडल ने इसके बाद महामाया मंत्रिमंडल गिराकर खुद मुख्यमंत्री बनने की जुगाड़ शुरू कर दी।

  इस काम में वे कम से कम कुछ महीनों के लिए सफल भी नहीं होते यदि तत्कालीन स्पीकर धनिक लाल मंडल ने सरकार को बचाने के लिए स्पीकर के पद की गरिमा को थोड़ा गिरा दिया होता।

  स्पीकर से कहा जा रहा था कि आप सदन की बैठक अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दीजिए ।

  इस बीच सत्ताधारी जमात, दल बदल के कारण हुई क्षति की पूत्र्ति के लिए अतिरिक्त विधायकांे का जुगाड़ कर लेगी।

  पर धनिक लाल मंडल ने उस सलाह को ठुकराते हुए अविश्वास प्रस्ताव पर सदन में मत विभाजन करा दिया और सरकार पराजित हो गई।

   इस काम के लिए अखिल भारतीय स्पीकर्स कांफ्रेंस ने बाद में धनिक लाल मंडल के इस काम की सराहना की थी।

  मंडल भी संसोपा के टिकट पर ही विधायक चुनकर आए थे।

  पर स्पीकर बन जाने के बाद उन्होंने निष्पक्ष भूमिका निभाई।           

    उधर  ऐसा नहीं था कि डा.लोहिया को यह खबर नहीं थी कि बी.पी.

मंडल क्या कर रहे थे।

  वे सत्ताधारी जमात से दल बदल करा रहे थे।पर लोहिया की जिद थी कि चाहे सरकार रहे या जाए ,पर नियम का पालन होना चाहिए ।यानी मंडल को अब मंत्री नहीं रहना है।

  सरकार मंडल जी ने गिरा दी।कल्पना कीजिए कि आज यदि कोई मंडल जी होते और  जिनकी इतनी ताकत होती कि वे सरकार भी गिरा सकते हैं तो क्या उन्हें दो चार और विभाग नहीं मिल गए होते ?

  यानी, सत्ता में आने के बाद भी सिद्धांत और नीतिपरक राजनीति चलाने की कोषिष करने वालों की पहली हार 1968 की जनवरी में बिहार में हुई।

      हालांकि डा.लोहिया ने जब मिली जुली सरकारों की कल्पना की थी तो उनका उद्देष्य सत्ता पर से कांग्रेस के एकाधिकार को तोड़ना था।वे कहते थे कि कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार हो गया है।वह मदमस्त हो गई।इसी से भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है ।चूंकि अकेले कोई दल कांग्रेस को हरा नहीं सकता,इसलिए सबको मिलकर उसे हराना चाहिए और मिलजुलकर ऐसी अच्छी सरकार चलानी चाहिए जिससे जनता कांग्रेस को भूल जाए।इस तर्क से जनसंघ और कम्युनिस्ट सहित कई दल  सहमत होकर तब मिली जुली सरकार में शामिल हुए थे।

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    दोहरा मापदंड

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  हवाला कांड के अपराधी बचा लिए गए थे

  चारा घोटाले के अपराधी सजा पा गए

  हवाला के अपराधी इस देश के बड़े लोग थे

‘चारा’ के अपराधी बड़े तो थे किंतु उतने बड़े नहीं 

न तो हवाला के अपराधी निर्दोष थे और न ही ‘चारा’ के

 ’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

 सुरेंद्र किशोर

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 जैन हवाला रिश्वत कांड के लाभुकों में भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति ,दो पूर्व प्रधान मंत्री, कई पूर्व मुख्य मंत्री व पूर्व-वत्र्तमान केंद्रीय मंत्री स्तर के अनेक नेता शामिल थे।

वह बहुदलीय घोटाला था।

  पैसे पाने वालों में खुफिया अफसर सहित  15 बड़े -बड़े अफसर भी  थे ।

 आरोप लगा था कि पैसे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई.ने भिजवाए थे।

हवाला कांड में कम्युनिस्टों को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख दलों के बड़े नेता शामिल थे।

उनकी संख्या 55 थी।

उनमें से शरद यादव व राजेश पायलट सहित कुछ लाभुकों ने स्वीकार भी किया था कि किसी जैन ने आकर पैसे दिए थे।

सवाल है कि कोई भी व्यक्ति आकर आपको पैसे दे देगा  और आप ले लेंगे ?

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चारा घोटाले के घोटालेबाजों ने भी खुल कर पैसे बांटे।

यहां तक कि छोटे -बडे 55 पत्रकारों को भी ‘चारा’ खिलाए गए थे।

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इन दो घोटालों में हुए भारी धन वितरण की खबर से एक खास बात का पता चला।

पैसों के ‘कुल- गोत्र’ जाने बिना ही बड़े -बड़े नेताओं ने पैसे स्वीकार कर लिए।

इन कांडों से यह साफ हुआ कि  इस देश में लाख में शायद कोई एक ही व्यक्ति ऐसा होगा जिसके यहां कोई घोटालेबाज पैसे लेकर जाए और उसे देने लगे तो वह स्वीकार नहीं करेगा।

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सावधान हो जाइए।

देसी-विदेशी राष्ट्रतोड़क तत्व काफी बड़ी

राशि खर्च कर रहे हैं इन दिनों, इस देश को तोड़ने के लिए।

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22 फरवरी 22


मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

   चारा घोटाले की जांच के दौरान 

जांच एजेंसी व पत्रकार दहशत में थे

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सुरेंद्र किशोर

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 जिन दिनों पटना हाईकोर्ट की सतत निगरानी में सी.बी.आई.चारा घोटाले से संबंधित मामलों का अनुसंधान कर रही थी,उन दिनों जांच एजेंसी के लोगों व कुछ पत्रकारों को कठिन समय से गुजरना पड़ा था।

  उनके परिजन भी दहशत में थे।

  आज रांची की अदालत ने जिन लोगों को सजा दी है,उनमें से एक आरोपित ने दो पत्रकारों पर अपना खास निशाना साधा था।

तब वह बेऊर जेल में था।

उसके एक जेल सहयात्री के अनुसार उसने जेल में गपशप के दौरान कहा था कि जेल से निकलने के बाद फलां (अंग्रेजी अखबार के संवाददाता) की मुड़ी काट दूंगा।

  दूसरे पत्रकार (हिन्दी अखबार के संवाददाता) के बारे में कहा था कि उसकी बांह काट दूंगा।

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सी.बी.आई.के संयुक्त निदेशक डा.यू.एन.विश्वास ने पटना में संवाददाताओं को तब बताया था कि 

‘‘मैं जब भी कोलकाता से पटना के लिए रवाना होता हूं तो अपनी पत्नी को यह कहकर आता हूं कि शायद मैं नहीं लौटूं।’’

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चारा घोटाले के खिलाफ जनहित याचिका दाखिल करने वालों व चारा घोटालेबाजों के खिलाफ अभियान चलाने वाले नेताओं को तो बाद में तरह-तरह के पद मिले।

 मिलने भी चाहिए थे।

  किंतु पत्रकारों और जांचकत्र्ताओं को क्या मिला ?

 सिर्फ अपमान,धमकी और गाली -गलौज।

 हालांकि पत्रकार किसी पुरस्कार के लिए तब खतरा नहीं उठा रहे थे।

वे अपनी ड्यूटी कर रहे थे।

 वह भी एक तरह की जन सेवा ही थी।

रांची अदालत ने अंततः यह साबित कर दिया कि उनकी ड्यूटी सच पर आधारित थी। 

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21 फरवरी 22


शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

  कभी बैल गाड़ी पर नाव तो कभी नाव पर गाड़ी।

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        सुरेंद्र किशोर

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बात तब की है जब मंडल आयोग की रपट लागू करने की मांग हो रही थी और केंद्र की कांग्रेस सरकार उस मांग को लगातार ठुकरा रही थी।

  तब पिछड़ा वर्ग के एक मुखर नेता राम अवधेश सिंह ने मुझसे कहा था कि ‘‘अभी तो कांग्रेस हमें हिस्सेदारी नहीं दे रही है।किंतु एक समय आएगा कि उसे हमसे हिस्सेदारी मांगनी पड़ेगी।तब यह हम पर होगा कि हम उसे कितनी हिस्सेदारी दें।’’

  विधान परिषद चुनाव के लिए उम्मीदवार को लेकर राजद के समक्ष बिहार कांग्रेस की दयनीय स्थिति को देखकर मुझे राम अवधेश की वह पुरानी बात याद आ गई।

राजद कांग्रेस को 24 में से एक भी सीट देने को तैयार नहीं है।महागठबंधन में शामिल कांग्रेस को गत विधान सभा उप चुनावों में भी राजद ने एक भी सीट नहीं दी थी।

याद रहे कि राम अवधेश सिंह 1969 में आरा से संसोपा विधायक थे।

1977 में बिक्रमगंज से लोक सभा सदस्य थे।

बाद में राज्य सभा के सदस्य भी बने थे।

अब वे इस दुनिया में नहीं हैं।

  मंडल आयोग की रपट 1980 में ही केंद्र सरकार को मिल गई थी।

1980 और 1990 के बीच उस रपट पर संसद में तीन बार लंबी चर्चा हुई।

   कांग्रेस सरकार ने संसद में लगातार यह कहा कि रिपोर्ट को लागू करने का कोई प्रस्ताव सरकार के पास नहीं है।

  1990 में वी.पी.सिंह की सरकार ने जब इसे लागू किया तो तब के प्रतिपक्ष के नेता राजीव गांधी ने लोक सभा में ऐसा ‘गोलमोल’ भाषण दिया जिससे अधिकतर पिछड़ों को यह लगा कि कांग्रेस आरक्षण के पक्ष में नहीं है।

तब राजीव गांधी, आरक्षण विरोधी और  नेहरूवादी मणिशंकर अय्यर के प्रभाव में थे।

प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पचास के दशक में ही कह दिया था कि हम किसी तरह के आरक्षण के खिलाफ हैं।

उसका खामियाजा कांग्रेस को अब भी मिल रहा है।  

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फरवरी 22

 


गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

 काश ! नरेंद्र मोदी नहीं,तो नेहरू के बारे में 

राजीव गांधी के ‘सर्टिफिकेट’ को ही समझने 

की ही जरूरत समझ पाते राहुल गांधी

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सुरेंद्र किशोर

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कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि ‘‘मेरे परनाना जवाहरलाल नेहरू को किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है।’’

- दैनिक भास्कर, 9 फरवरी, 22

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राहुल गांधी जी, 

किसी और के सर्टिफिकेट की भले जरूरत आपको न हो,किंतु आपके पिता जी यानी राजीव गाधी ने 1985 में परोक्ष रूप से  अपने पूर्ववर्तियों को जो ‘सर्टिफिकेट’ दिया

 था, काश ! उसी के निहितार्थ को समझने की जरूरत आप समझ पाते।

यदि जरूरत समझकर सन 2004 -2014 के अपने दल के शासन काल में सरकारी-गैर सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकारी अभियान चलवाते तो जो ‘पतली’ हालत आज कांग्रेस की हुई है,वह नहीं होती।

याद करिए।

तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि सरकार दिल्ली से जो 100 पैसे भेजती है,उसमें से 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पातेे हंै।

बाकी, बिचैलिए खा जाते हैं।

उन्होंने सत्ता के दलालों के खिलाफ अभियान चलाने की जरूरत भी बताई थी।

यह और बात है कि बोफोर्स दलाल क्वात्रोचि को बचाने के क्रम में राजीव गांधी अपनी ही गद्दी गंवा बैठे।

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जब जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में सरकारी भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ने लगा तो केंद्रीय मंत्री सी.डी.देशमुख ने निगरानी तंत्र बनाने का नेहरू से अनुरोध किया।

नेहरू ने कहा कि उससे प्रशासन में पस्तहिम्मती आएगी।

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जब प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से कहा गया कि सरकार में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है तो उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार तो विश्व व्यापी है।

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अब आप ही बताइए कि 1947 और 1985 के बीच 100 पैसे में से 85 प्रतिशत लुटवा देने में बीच के किस प्रधान मंत्री का कितना प्रतिशत योगदान था ?

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  वैसे सन 1963 में ही तत्कालीन कांग्रेस  अध्यक्ष डी.संजीवैया को  इन्दौर के अपने भाषण में यह कहना पड़ा  कि ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे।

  गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने यह भी कहा था कि ‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है।’ 

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महाराष्ट्र की सत्ता में कांग्रेस की सहयोगी पार्टी एन.सी.पी.के नेता शरद पवार ने, जो रक्षा मंत्री भी रहे चुके हैं,कहा है कि ‘‘चीन ने सन 1962 में हमारी 45 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया।’’

याद कीजिए, उससे पहले नेहरू से कहा जा रहा था कि चीन आगे बढ़ रहा है।

इस पर प्रधान मंत्री नेहरू ने लोक सभा में कहा था कि वह ऐसी जमीन है जहां ंघास का तिनका भी नहीं उपजता।

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इसके अलावा भी बहुत सारी बातें हैं।

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रजनीकांत पुराणिक की चर्चित किताब (प्रकाशक -पुस्तक महल,नई दिल्ली) में जवाहरलाल नेहरू की 97 बड़ी गलतियांे का विवरण है।

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.राहुल गांधी को चाहिए कि वे किसी नेहरू के अंधभक्त लेखक से ही सही,उस पुस्तक का जवाब लिखवा दें।

मुझे वह जवाबी किताब पढ़कर खुशी होगी।

यदि उस जवाबी किताब के तर्कों में दम होगा

तो मैं इस पोस्ट के लिए माफी मांगते हुए रजनीकांत पुराणिक के खिलाफ एक लंबा लेख लिख दूंगा। 

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.9 फरवरी 22


    चीन चर्म रोग तो पाक हृदय रोग

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भारत के लिए चीन चर्म रोग है तो पाकिस्तान हृदय रोग।

अब आप ही अनुमान लगा लीजिए कि कौन हमारे लिए अपेक्षाकृत अधिक खतरनाक है।

  चर्म रोग यानी वह हमारी सीमाओं को खरांेचना चाहता है।

उधर पाक हम पर भीतर से वार करता रहता है।कभी -कभी बाहर से भी।

माओ त्से तुंग के जीवनकाल में चीन हमारे लिए यदि हृदय रोग था तो चर्मरोग भी।

 अब जब कि भारत में माओवादियों व चीनपंथी कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत लगातार घट रही है,खुद चीन माओवाद को दुनिया भर में फैलाने के बदले अब आर्थिक उद्देश्य पर काम कर रहा है।

  पर पाकिस्तान अपने उसी पुराने लक्ष्य व उद्देश्य पर कायम है जिसकी पूर्ति के लिए पाकिस्तान बना था। 

आधी रोटी खाकर भी अपने ‘विचार’ के प्रचार कार्य में पाक लगा हुआ है।

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 स्मारकों को लेकर कांग्रेस और राजग सरकारों में फर्क

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सुरेंद्र किशोर

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गंगा नदी पर मुंगेर के पास नव निर्मित पुल का नाम श्रीकृष्ण सेतु रखा गया है।

बिहार के प्रथम मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिन्हा के नाम पर इस बड़े सेतु के नामकरण से कांग्रेस को सीख लेनी चाहिए।

  सन 1980 की कांग्रेस सरकार ने पटना के पास निर्मित गंगा सेतु के नाम से जयप्रकाश का नाम हटा दिया था।

  उससे पहले कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार ने तय किया था कि पटना के पास निर्माणाधीन सेतु का नाम जयप्रकाश सेतु होगा।

1980 में बिहार में कांग्रेस की सरकार बन गई।

डा.जगन्नाथ मिश्र मुख्य मंत्री बने।

कांग्रेस की ओर से यह अभियान चला कि ललित नारायण मिश्र के नाम पर पटना के गंगा पुल का नाम रखा जाए।

पर, उस पर विवाद हो गया।

फिर कांग्रेस सरकार ने गांधी जी का नाम चला दिया।

गांधी के नाम पर भला कौन विरोध करता !

इस तरह जेपी का नाम कट गया।

  पर, नीतीश कुमार के मुख्य मंत्रित्व काल में ही पटना के आई.जी.एम.एस.परिसर में इंदिरा गांधी की बड़ी मूत्र्ति लगाई गई।अब मुंगेर पुल का नाम श्रीबाबू के नाम पर पड़ा।

  जहां तक मेरी जानकारी है, कांगेे्रस की किसी सरकार ने जेपी या लोहिया के नाम पर कहीं भी कोई स्मारक नहीं बनाया जबकि नेहरू-इंदिरा परिवार के नाम पर देश में करीब 400 स्मारक बनाए गए हैं।

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सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

 परिवार में पूरी ‘पार्टी’ समाहित है ?

या, पार्टी में छिटपुट परिजन सक्रिय हैं ?

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कुत्ता अपनी दुम को हिला रहा है ?

या, दुम ही कुत्ते को हिला रही है ?

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दाल में नमक है ?

या, नमक में ही दाल है ?

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क्या ये दोनों बातें एक ही हैं ?

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जनरल नाॅलेज के इस सवाल का जवाब कोई स्कूली

छात्र भी सही-सही दे देगा।

लेकिन कुछ राजनीतिक नेता व बुद्धिजीवी या तो इस सवाल में अटक जाएंगे या भटक जाएंगे।

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सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

 राहुल गांधी का सराहनीय कदम

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दबाव के बावजूद राहुल गांधी ने पंजाब में नवजोत

सिंह सिद्धू को सी.एम.चेहरा नहीं बनाया।

यह दलहित -देशहित में राहुल का सराहनीय कदम है।

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मनमोहन सिंह के प्रधान मंत्रित्वकाल में भी राहुल ने 

एक अच्छा काम किया था।उन्होंने उस अध्यादेश की काॅपी को सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया था जो सजायाफ्ता नेताओं की सांसदी-विधायिकी बचाने के लिए जारी किया गया था।

हालांकि बाद में उन्होंने यह भी कह दिया कि 

‘‘अध्यादेश को बकवास कहना मेरी गलती थी।’’(3 अक्तूबर, 2013)  

वैसे राहुल का विरोध उस समय काम कर गया।अध्यादेश कानून नहीं बन सका।

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सुरेंद्र किशोर

7 फरवरी 22


 उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर शम्भूनाथ शुक्ल और राजदीप सरदेसाई की भविष्यवाणी का मुझे इंतजार है।

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  सुरेंद्र किशोर

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उत्तर प्रदेश चुनाव का नतीजा क्या होगा ?

किसकी सरकार बनेगी ?

मुझे याद है,पिछले चुनाव में दो शीर्ष पत्रकारों की भविष्यवाणियां सही साबित हुई थीं।

और की भी हुई हांेगी,किंतु मुझे यू.पी.को लेकर शम्भूनाथ शुक्ल और राजदीप सरदेसाई की चुनावी भविष्यवाणी याद हंै।

इन दोनों ने भाजपा की जीत की उम्मीद जताई थी।

वही हुआ भी।

इन दोनों में कोई भी भाजपा का समर्थक नहीं है।

 मोदी विरोधी छवि के विपरीत राजदीप की चुनावी भविष्यवाणियां आम तौर से सही साबित होती रही हैं।

शम्भूनाथ शुक्ल को तो मैं मुक्त चिंतक मानता हूं।

  अन्य अनेक पत्रकारों की भविष्यवाणियां भी मैं वर्षों से देखता -पढ़ता रहा हूं।

उनमें से अधिकतर पत्रकार अपनी परंपरागत राजनीतिक लाइन के अनुसार ही भविष्यवाणी करते रहते हैं। 

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5 फरवरी 22


रविवार, 6 फ़रवरी 2022

    भ्रष्टाचार का दीमक देश को खोखला कर रहा

        --नरेंद्र मोदी,

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मनी लाउंडरिंग का अपराध हत्या से भी अधिक जघन्य

      --भारत का सुप्रीम कोर्ट

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जब लोकतंत्र के दोनों स्तम्भ भ्रष्टाचार से इतना दुखी तो भ्रष्टों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान करने में देरी क्यों हो रही-----भारत की जनता

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सुरेंद्र किशोर

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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि भ्रष्टाचार का दीमक देश को खोखला कर रहा है।

इससे अधिक सही बात और कुछ भी नहीं हो सकती।

किंतु लगता है कि न तो सारे दीमकों की पहचान हो पा रही है और न ही उन पर पर्याप्त कीटनाशक दवाएं ही छिड़की जा रही हंै।

  दरअसल सबसे बड़ा ‘दीमक’ तो सांसद-विधायक फंड की कमीशनखोरी है।

 मात्रा के अनुपात में इसका कुप्रभाव बहुत अधिक है।

अनेक अफसरों व जन प्रतिनिधियों को इसी स्तर से गलत करने की प्रेरणा मिल जाती है।

यह बात सही है कि कुछ जन प्रतिनिधि नजराना-शुकराना स्वीकार नहीं करते।

किंतु यह भी सही है कि अधिकतर जन प्रतिनिधि स्वीकार करते हैं।

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 5 फरवरी 22


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शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

आज कौन याद करता है 

डा.गोरखनाथ सिंह को !

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सुरेंद्र किशोर

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गोरख कहां है ?

यही सवाल प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू से किया था ब्रिटिश अर्थशास्त्री हिक्स ने।

  प्रधान मंत्री को गोरख यानी डा.गोरखनाथ सिंह के बारे में कुछ पता नहीं था।

 नेहरू जी को यह भी कैसे  पता होता  कि कैब्रिज के सेकेंड टाॅपर का यह सवाल अपने बैच के टाॅपर के बारे में था।

खैर, डा.गोरखनाथ सिंह के बारे में छात्र जीवन में ही अपने गांव और छपरा में मैंने सुन रखा था।

 वे बिहार के सारण जिले के मढ़ौरा के पास के एक गांव के मूल निवासी थे।

  जब मैं छात्र था तो एक दूसरे संदर्भ में गोरख बाबू का नाम सुनता रहता था।

जब किसी छात्र को यह कहा जाता था कि खैनी यानी तम्बाकू मत खाओ।

इससे दांत जल्दी टूट जाएंगे तो जानते हैं वह क्या जवाब देता था ?

वह कहता था कि यह बुद्धिवर्धिनी चूर्ण है।

इसे गोरख बाबू भी खाते थे।

  यह बात सही है कि गोरख बाबू तम्बाकू चूर्ण यानी खैनी खाते थे।

किंतु वे साथ- साथ एक विलक्षण प्रतिभा वाले अर्थशास्त्री भी थे।

  उन्हें जानने वाले बताते हैं कि उनकी छपने वाली एक किताब की पांडुलिपि को ही उनकी अशिक्षित पत्नी ने चूल्हे में झोंक दिया था।

उसमें नई थ्योरी लिखी गई थी।

  खैर,गोरख बाबू पटना काॅलेज के प्रिंसिपल थे।

मौजूदा ए.एन.सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के निदेशक थे और बिहार सरकार के डी.पी.आई.भी रहे थे।

 उनका साठ के दशक में निधन हो गया।

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पुनश्चः,गोरख बाबू के बारे में मुझे तो इतना ही मालूम है।

किन्हीं व्यक्ति कुछ और पता हो तो जरूर लिखें।

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फेसबुक वाॅल से

29 जनवरी 22

   


बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

      राहुल बनाम वरुण 

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यदि जवाहरलाल नेहरू आज जीवित होते तो राहुल गांधी 

और वरुण गांधी के बीच नेतृत्व के लिए किसे चुनते ?

यानी, इनमें से किसे कांग्रेस का नेतृत्व सौंपते ?

1929 में न मोतीलाल नेहरू के समक्ष कोई दुविधा थी और न ही 1959 में जवाहरलाल नेहरू के समक्ष।

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4 मई, 1981 को इंदिरा गांधी ने अपनी वसीयत में लिखा कि

 ‘‘मैं यह देखकर खुश हूं कि राजीव और सोनिया ,वरुण को उतना ही प्यार करते हैं जितना अपने बच्चों को।

  मुझे पक्का भरोसा है कि जहां तक संभव होगा,वो हर तरह से वरुण के हितों की रक्षा करेंगे।’’

 पर,अब यह देखा जा रहा है कि सोनिया ने न तो इंदिरा की भावना का ध्यान रखा और न ही कांग्रेस के भविष्य की चिंता की।

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सुरेंद्र किशोर

2 फरवरी 22


   क्या नरेंद्र मोदी के इस वायदे को 

  भी पूरा करने की मांग प्रतिपक्ष कभी करेगा ?!!

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 प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने गोवा में जो भाषण दिया है,उसे किसी ने मुझे व्हाट्सैप पर भेजा है।

वह भाषण आपसे भी शेयर कर रहा हूं।कब का यह भाषण है,यह स्पष्ट नहीं है।

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मैंने सन 1962 में छपरा में जवाहरलाल नेहरू का भी 

भाषण सुना था।

यानी,इस बीच मैंने बारी -बारी से सभी प्रधान मंत्रियों के भाषण  सुने हैं।

पर, मोदी ने जैसा बोलने की हिम्मत किसी ने नहीं दिखाई थी।

मोदी का निम्न लिखित भाषण सिर्फ चुनावी भाषण नहीं हैं।

मुझे लगता है कि यदि भाजपा उत्तर प्रदेश जीत गई तो देश में भारी परिवत्र्तन हो सकता है।

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सुरेंद्र किशोर

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दृश्य-1

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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि 

‘‘भ्रष्ट और बेईमान लोग मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे।

मुझे बर्बाद करके छोड़ेंगे।

उन्हें जो करना है,वह करें,पर मैं आजादी के बाद के सारे लुटेरों का कच्चा चिट्ठा खोल कर रहूंगा।’’

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   मोदी ने यह भी कहा कि ‘‘ देश में जारी भ्रष्टाचार और बेईमानी खत्म करने के लिए मेरे दिमाग में और कई प्रोजेक्ट चल रहे हैं।

वे प्रोजेक्ट आने वाले हैं।

जिनके पास बेईमानी के पैसे हैं,वे यह मानकर चलें कि वह कागज का टुकड़ा है।

उसे बचाने के लिए अधिक कोशिश नहीं करें।

देश आजाद हुआ,तब से अब तक का उनका कच्चा चिट्ठा मैं खोल दूंगा।

जरूरत पड़ेगी तो एक लाख नौजवानों को नौकरी दूंगा।

 उन्हें इसी काम में लगाऊंगा।’’

प्रधान मंत्री ने यह भी कहा है कि

 ‘‘इस देश में ईमानदार लोगों की कमी नहीं है।

मेरी अपील है कि ईमानदार लोग इस काम में मेरा साथ दीजिए।

देश में जारी भ्रष्टाचार-बेईमानी के कारोबार को रोकना है।

 मैं जानता हूं कि मैंने कैसी -कैसी ताकतों से लड़ाई मोल ली है।

वे मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे।

मुझे बर्बाद करके छोड़ेंगे।

 उन्हें जो करना है,करें।

सत्तर साल का उनका (लुटा हुआ)मैं लूट रहा हूं।

वे मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे।

मैंने घर -परिवार देश के लिए छोड़ा है।

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दृश्य-2

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अब कांग्रेस को ‘न्याय योजना’ वाली सलाह देने वाले नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी की इस देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में क्या राय है,उसे भी लगे हाथ पढ़ लीजिए--

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यह भ्रष्ट राजनीति का गुरू मंत्र है।

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‘‘चाहे यह भ्रष्टाचार का विरोध हो या भ्रष्ट के रूप में देखे जाने का भय, शायद भ्रष्टाचार अर्थ -व्यवस्था के पहियों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण था, इसे काट दिया गया है।

मेरे कई व्यापारिक मित्र मुझे बताते हैं इससे निर्णय लेेने की गति धीमी हो गई है।.............’’

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--नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी,

हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाइम्स

23 अक्तूबर 2019

                   

  

 


     मशहूर पत्रकार अरुण सिन्हा ‘नवहिंद 

   टाइम्स’ के संपादक पर से सेवानिवृत

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      सुरेंद्र किशोर

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देश के योग्यत्तम पत्रकारों और लेखकों में से एक अरुण सिन्हा ‘नवहिंद टाइम्स’(गोवा) के संपादक पद से हाल में सेवानिवृत हो गए।

वे अब फ्रीलांसर हैं।

बिहार के मूल निवासी अरुण फरीदाबाद में बसेंगे।

 मैं अरुण सिन्हा के लेखन व रिपोर्टिंग का बहुत दिनों से प्रशंसक रहा हूं।

 अरुण उन पत्रकारों में नहीं रहे जो तथ्यों से भी यदाकदा खिलवाड़ कर देते हैं।

कुछ समय तक हमलोग एक्सप्रेस ग्रूप में साथ-साथ रहे।

पटना आॅफिस में वे इंडियन एक्सप्रेस में थे और मैं जनसत्ता में।

  भागलपुर अंधाकरण कांड का भंडाफोड़ अरुण सिन्हा ने ही किया था।

उसके अतिरिक्त भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण रिपोर्टिंग कीं।

इंदिरा गांधी की चर्चित बेलछी यात्रा की सही रिपोर्टिंग अरुण ने ही की थी।

वे इंदिरा जी के साथ वहां गए थे।

मैंने देखा है कि अरुण जब भी किसी खास खबर पर काम करते थे,उसमें वे तथ्य जुटाने में काफी मेहनत करते थे। 

  फ्रीलांसर होने के कारण अब देश के अनेक प्रकाशनों में  उन्हें पढ़ने का मौका हमें मिलेगा।

  अरुण को जानने व पसंद करने वाले लोग देश भर में हैं।

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1 फरवरी, 22  


मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

      इस देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित किए 

    बिना ही समस्या का समाधान खोजिए

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        -- सुरेंद्र किशोर --

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प्रयागराज में हाल में आयोजित संतों की धर्म संसद में यह मांग की गई है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिए।

  जिस खतरे के मुकाबले के लिए संतों ने यह मांग की है, उस खतरे से कई देश, खासकर चीन मुकाबला कर ही रहे हैं,वह भी अपने देश को किसी धर्म का देश बनाए बिना ही।

  इसलिए इस देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की कोई जरूरत नहीं है।

हां,खतरों के प्रति सावधान रहने के लिए देशभक्त देशवासियों को और अधिक जागृत करते रहने की जरूरत है।

 इस देश को धर्म निरपेक्ष ही बने रहने दिया जाना चाहिए।

जो हिन्दू नहीं हैं,उनमें भी कई तरह के विचार के लोग हैं।

अनेक गैर हिन्दू लोग भी शांति से रहना चाहते हैं।

रह भी रहे हैं।

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दूसरी ओर, मुस्लिम देशांे में भी अधिक नहीं, किंतु कुछ परिवर्तन तो होने ही लगे हैं।बदलते समय की जरूरत वे समझ रहे हैं।

  पाकिस्तान के टीवी चैनलों पर वहां के कुछ लोग कट्टर पंथियों के विरोध में सख्त तरीके से अब बोलते देखे जाते हंै।

गत दिसंबर में सऊदी अरब सरकार ने तबलीगी जमात को आतंकवादी करार देते हुए उस पर प्रतिबंध लगा दिया ।

  हाल में सूडान सरकार ने, जो देश 30 साल से इस्लामिक देश था,खुद को धर्म निरपेक्ष घोषित कर दिया।

इस तरह के अन्य उदाहरण भी हैं।

    यहां इस देश में मेरे कुछ ऐसे मुस्लिम मित्र हैं जिन्हें जेहादी सक्रियता वगैरह से कोई मतलब नहीं है।

वे शांतिपूर्वक मिलजुल कर रहना चाहते हैं।रह भी रहे हैं।

पर, इसके लिए यह भी जरूरी है कि बहुसंख्यक समाज के लोग भी किसी अन्य समुदाय पर अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश न करें।

अल्पसंख्यकों के साथ भी बराबरी का व्यवहार करें।

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चाहे किसी भी समुदाय का कट्टरपंथी व्यक्ति कहीं भी हिंसा करे,उसकी समान रूप से सभी समुदायों के नेता -बुद्धिजीवी लोग आलोचना करें।

  ऐसा न हो कि गोधरा में तो 59 लोगों को ट्रेन में जलाकर मार देने की तो कोई निंदा नहीं हो,किंतु प्रतिक्रिया में हुई हिंसक घटनाओं के खिलाफ सिर पर आसमान उठा लिया जाए। 

 हाल ही में गुजरात के अहमदाबाद में अल्पसंख्यक  कट्टरपंथियों ने एक गैर मुस्लिम की हत्या कर दी।

 उस पर सोशल मीडिया पर धार्मिक भावना से खिलवाड़ करने का आरोप था।

  इस हत्याकांड के खिलाफ किसी सेक्युलर नेता या बुद्धिजीवी ने बयान तक नहीं दिया है।

कम से कम मैंने तो कोई बयान नहीं देखा।

हां,यदि किसी और की हत्या हुई होती तो बयानों की झरी लग जाती।

इस रवैए को भी बदलने की जरूरत है।

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31 जनवरी 22