गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

       

  

एक वो भी जमाना था !

....................................... 

डा.लोहिया ने सन 1968 में अपनी पार्टी की बिहार सरकार को गिरने दिया,किंतु नियम विरूद्ध जाकर दल बदलुओं से समझौता नहीं किया

   ...................................

    सुरेंद्र किशोर

   .................................

डा.राम मनोहर लोहिया की पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता की जिद थी कि ‘‘मुझे विधान परिषद का सदस्य बना कर मंत्री पद पर बने रहने दिया जाए अन्यथा सरकार गिरा देंगे।’’

  डा.लोहिया ने कहा कि चाहे सरकार गिरा दो लेकिन हम अपने ही बनाए नियम को आपके लिए नहीं तोड़ेंगे।

  आज इस देश केे राजनीतिक दल सरकार बनाने व कहीं की सरकार को गिरा देने के लिए न जाने क्या -क्या करते रहते हैं।

  पर लोहिया को तो सिर्फ किसी को एम.एल.सी.बना देना था।

  बना देते तो सरकार बच जाती।

  पर,इस तरह बिहार की पहली मिली जुली गैर कांग्रेसी सरकार सिर्फ दस महीने में ही गिर गई।

उस मिलीजुली सरकार में संसोपा सबसे बड़ी पार्टी थी।मुख्य मंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा अपेक्षाकृत छोटे दल ‘जन क्रांति दल’ से थे।

 याद रहे कि महामाया प्रसाद सिंहा के नेतृत्व में गठित वह सरकार 5 मार्च 1967 को बनी और 28 जनवरी,1968 तक ही चली।

   गैर कांग्रेसवाद की रणनीति के रचयिता,समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी डा. लोहिया चाहते थे कि उनकी सरकार अपने काम के जरिए ‘‘बिजली की तरह कौंधे और सूरज की तरह स्थायी हो जाए।’’

 पर, उनकी ही पार्टी के पदलोलुप विधायकों ने उनकी इच्छा पूरी नहीं होने दी।

    यदि डा.राम मनोहर लोहिया ने बिंदेष्वरी प्रसाद मंडल को, जिनके नेतृत्व में बाद में मंडल आयोग बना, महामाया मंत्रिमंडल से बाहर करने की जिद नहीं की होती तो संयुक्त मोर्चा की वह सरकार कुछ दिन और चल गई होती। दरअसल उस सरकार को सबसे बड़ी परेषानी उसके अपने ही सत्तालोलुप विधायकों से हुई।

   कुछ लोगों की षिकायत थी कि उन्हें मंत्री पद नहीं मिला।कुछ गलतियां मंत्रिमंडल के गठन के समय ही हुई। महामाया प्रसाद सिंहा के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का गठन हो रहा था तो बी.पी.मंडल को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया।

  जबकि वे तब मधेपुरा से 1967 में लोक सभा के लिए चुने गए थे।

  संयुक्त सोषलिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता डा.लोहिया की नीति थी कि जो व्यक्ति जहां के लिए चुना जाए,वह वहीं की जिम्मेवारी संभाले।पर इस राय को दरकिनार करके बी.पी.मंडल को मंत्री बना दिया गया था।यह एक बड़ी गलती थी।

      डा.लोहिया से स्थानीय नेताओं ने इस संबंध में कोई दिषा निदेष नहीं लिया।दरअसल चुनाव के तत्काल बाद डा.लोहिया दक्षिण भारत के दौरे पर चले गए थे।उन दिनों संचार सुविधाओं का अभाव था।डा.लोहिया से संपर्क करना बिहार के संसोपा नेताओं के लिए संभव नहीं हो सका।

  हालांकि 1967 में देष भर में गैरकांग्रेसी सरकारों के डा.लोहिया ही षिल्पकार थे,पर कौन कहां मंत्री बनेगा या नहीं बनेगा,इसका फैसला करने की जिम्मेवारी उन्होंने पार्टी के दूसरे नेताओं पर ही डाल दी थी।

  हां उनके उसूलों की जानकारी उनकी पार्टी,संसोपा के हार्डकोर नेताओं और कार्यकर्ताओं को जरूर रहती थी।

   भूपेंद्र नारायण मंडल को, जिनके नाम पर मधे पुरा में अब विष्व विद्यालय है, डा.लोहिया के विचारों की जानकारी थी।पहले उन्हें ही कहा गया था 

कि वे महामाया मंत्रिमंडल के सदस्य बनें।पर उन्होंने यह कह कर मंत्री बनने से इनकार कर दिया था कि लोहिया जी इसे अच्छा नहीं मानेंगे।

      जब बाद में डा.लोहिया को पता चला कि बी.पी.मंडल बिहार में मंत्री बन गए हैं तो वे नाराज हो गए।

  वे चाहते थे कि वे मंत्रिमंडल छोड़कर लोक सभा के सदस्य के रूप में अपनी जिम्मेवारी निभाएं।

  पर मंडल जी कब मानने वाले थे ! मंत्री बने रहने के लिए उन्हें विधान मंडल के किसी सदन का छह महीने के भीतर सदस्य बनाया जाना जरूरी था।

  पर डा. लोहिया की राय को देखते हुए उनकी पार्टी ने उन्हें यह संकेत दे दिया था कि आप मंत्री सिर्फ छह महीने तक ही रह सकेंगे।

  बी.पी.मंडल ने इसके बाद महामाया मंत्रिमंडल गिराकर खुद मुख्यमंत्री बनने की जुगाड़ शुरू कर दी।

  इस काम में वे कम से कम कुछ महीनों के लिए सफल भी नहीं होते यदि तत्कालीन स्पीकर धनिक लाल मंडल ने सरकार को बचाने के लिए स्पीकर के पद की गरिमा को थोड़ा गिरा दिया होता।

  स्पीकर से कहा जा रहा था कि आप सदन की बैठक अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दीजिए ।

  इस बीच सत्ताधारी जमात, दल बदल के कारण हुई क्षति की पूत्र्ति के लिए अतिरिक्त विधायकांे का जुगाड़ कर लेगी।

  पर धनिक लाल मंडल ने उस सलाह को ठुकराते हुए अविश्वास प्रस्ताव पर सदन में मत विभाजन करा दिया और सरकार पराजित हो गई।

   इस काम के लिए अखिल भारतीय स्पीकर्स कांफ्रेंस ने बाद में धनिक लाल मंडल के इस काम की सराहना की थी।

  मंडल भी संसोपा के टिकट पर ही विधायक चुनकर आए थे।

  पर स्पीकर बन जाने के बाद उन्होंने निष्पक्ष भूमिका निभाई।           

    उधर  ऐसा नहीं था कि डा.लोहिया को यह खबर नहीं थी कि बी.पी.

मंडल क्या कर रहे थे।

  वे सत्ताधारी जमात से दल बदल करा रहे थे।पर लोहिया की जिद थी कि चाहे सरकार रहे या जाए ,पर नियम का पालन होना चाहिए ।यानी मंडल को अब मंत्री नहीं रहना है।

  सरकार मंडल जी ने गिरा दी।कल्पना कीजिए कि आज यदि कोई मंडल जी होते और  जिनकी इतनी ताकत होती कि वे सरकार भी गिरा सकते हैं तो क्या उन्हें दो चार और विभाग नहीं मिल गए होते ?

  यानी, सत्ता में आने के बाद भी सिद्धांत और नीतिपरक राजनीति चलाने की कोषिष करने वालों की पहली हार 1968 की जनवरी में बिहार में हुई।

      हालांकि डा.लोहिया ने जब मिली जुली सरकारों की कल्पना की थी तो उनका उद्देष्य सत्ता पर से कांग्रेस के एकाधिकार को तोड़ना था।वे कहते थे कि कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार हो गया है।वह मदमस्त हो गई।इसी से भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है ।चूंकि अकेले कोई दल कांग्रेस को हरा नहीं सकता,इसलिए सबको मिलकर उसे हराना चाहिए और मिलजुलकर ऐसी अच्छी सरकार चलानी चाहिए जिससे जनता कांग्रेस को भूल जाए।इस तर्क से जनसंघ और कम्युनिस्ट सहित कई दल  सहमत होकर तब मिली जुली सरकार में शामिल हुए थे।

.............................................


कोई टिप्पणी नहीं: