शराबखोरी से होने वाली सड़क दुर्घटना
और घरेलू हिंसा की घटनाएं देशव्यापी
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सुरेंद्र किशोर
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कुछ ही साल पहले की बात है। सोशल वर्क में पी.जी. की पढ़ाई कर रहे एक छात्र ने इंटर्नशिप के दौरान मुम्बई के पुलिस थानों में फिल्ड शोध किया था।
शोध का विषय था शराबखोरी का लोगों पर प्रभाव।
अध्ययन में यह पाया गया कि शराबखोरी का घरेलू हिंसा से सीधा संबंध है।
अपने अनुभवों के जरिए बिहार सरकार भी इसी नतीजे पर पहुंची है।
इसके अलावा शराबखोरी से सड़क दुर्घटनाओं का भी संबंध है।
सरकारी आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं।
ये चिंताजनक आंकड़े शराबंदी को पूरे देश में लागू करने की जरूरत बताते हैं।
बिहार में शराबबंदी लागू है।
किंतु आसपास के राज्यों में शराबबंदी नहीं है।
नतीजतन बिहार सरकार को अपने राज्य में उसे पूर्णतः लागू करने में दिक्कत हो रही है।
इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए सन 1977 में मोरारजी देसाई सरकार ने देश भर में एक साथ शराबबंदी लागू करनी शुरू की थी।
उसे चार चरणों में पूरा करना था। हर साल शराब की एक चैथाई दुकानें बंद करनी थीं। पर 1979 में देसाई सरकार के अपदस्थ हो जाने के बाद शराबबंदी योजना बंद कर दी गई।
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मंत्रियोें को समुचित वेतन
देने के पक्ष में थे डा.आम्बेडकर
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सन 1937 में बम्बई विधान सभा में बोलते हुए डा. बी.आर.अम्बेडकर ने कहा था कि मैं चाहता हूं कि इस देश के मंत्रियों को पर्याप्त वेतन मिले तभी प्रतिभाएं इस पद के लिए सामने आएंगी।
डा.आम्बेडकर ने तब यह भी कहा था कि किसी मंत्री के लिए मात्र पांच सौ रुपये का वेतन समुचित नहीं है।
हाल में कर्नाटका की विधायिका ने जब विधायकों,मंत्रियों व मुख्य मंत्री के वेतन में 40 से 60 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी कर दी तो एक बार फिर यह विवाद शुरू हो गया।
इस मुद्दे पर एक पक्ष यह कहता है कि भारत के आम लोगों की औसत आय के अनुपात में ही जन प्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते भी तय होने चाहिए।
दूसरा पक्ष यह कहता है कि काम और पद की जरूरतों के अनुसार वेतन तय होने चाहिए।
डा.आम्बेडकर ने इस बात पर जोर दिया था कि यदि प्रशासन में लोगों का विश्वास हम जगाना चाहते हैं तो मेरे अनुसार यह उचित नहीं है कि मंत्री गलियों में अधूरे कपड़े पहन कर जाएं।
अपना शरीर प्रदर्शन करें।
सिगरेट के स्थान पर बीड़ी पिएं।
अथवा, तीसरे दर्जे या बैलगाड़ी से यात्रा करें।
आम्बेडकर की बात अपनी जगह सही है।
पर आज स्थिति बदली हुई है।
आम्बेडकर के जमाने में अधिकतर नेता अपनी जायज आय
पर ही जीवन यापन करते थे।
आज अपवादों को छोड़कर नेताओं को कई स्त्रोतों से ‘चंदा’ मिलते रहते हैं।
कई नेताओं के लिए वेतन का महत्व कम ही रह गया है।
ऐसे में इस देश के औसत दर्जे के लोगों की आय को ध्यान में रखते हुए ही जन प्रतिनिधियों के वेतन आदि तय किए जाएंगे तो लोगों में नेताओं के बारे में गलत संदेश नहीं जाएगा।
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दिल्ली लोकायुक्त का पद खाली
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जन लोकपाल की मांग के समर्थन में अन्ना हजारे के नेतृत्व में अरविंद केजरीवाल तथा अन्य लोगों ने सन 2011 में जन आंदोलन शुरू किया था।
उस आंदोलन से मिली लोकप्रियता के कारण अरविंद को जनता ने दिल्ली के मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बैठाया।
अच्छा किया।अरविंद केजरीवाल इस देश के अधिकतर मुख्यमंत्रियों की अपेक्षा बेहतर साबित हुए हैं।
किंतु समय बीतने के साथ आम आदमी पार्टी व उसकी सरकार में भी वही ‘बीमारी’ घर करने लगी।
हालांकि अब भी आम आदमी पार्टी सरकार बेहतर काम कर रही है।
पर शक की सूई उनकी ओर घूमने लगी है।
ताजा मामला लोकायुक्त पद को लेकर है।
दिल्ली में लोकायुक्त का पद पिछले एक साल से खाली है।
सवाल है कि वह पद क्यों नहीं भरा जा रहा है ?
क्या इसलिए कि आम आदमी पार्टी के 36 विधायकों के खिलाफ करीब एक सौ शिकायतें लोकायुक्त
के यहां लंबित हैं ?
उधर केरल की माकपा सरकार चाहती है कि वहां के लोकायुक्त को मिले कुछ ‘‘कड़े अधिकारों’’ को उनसे छीन लिया जाए।
याद रहे कि केरल की सरकार के खिलाफ भी भ्रष्टाचार के आरोपों की संख्या बढ़ रही है।
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और अंत में
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सन 1977 से 2001 तक बिहार विधान सभा की प्रेस दीर्घा में बैठकर सदन की कार्यवाही देखने और रिर्पोटिंग करने का मेरा अनुभव रहा।
पहले के प्रतिपक्षी विधायकगण प्रश्न काल का जनहित में बेहतर इस्तेमाल करते थे।
हाल के वर्षों में तो अक्सर सदन का लगभग हर काल हंगामा व शोरगुल में ही बीत जाता है।
जब प्रश्न काल शांतिपूर्वक चलते थे तो सरकार हमेशा दबाव में रहती थी।
सदन के कठघरे में होती थी।
कई बार तो उसे अपनी विफलताओं के लिए शर्मींदगी भी झेलनी पड़ती थी।
पर ,जब से प्रश्न काल भी शोरगुल व हंगामे में डूबने लगा,मंत्रियों और अफसरों को राहत महसूस होने लगी।
याद रहे कि कुछ दशक पहले के प्रतिपक्षी सदस्यों को जब हंगामा भी करना होता था तो वे उसकी शुरूआत जीरो आवर से करते थे।
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प्रभात खबर,पटना
25 फरवरी 22
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