जो दल देश,काल,पात्र की वास्तविक समस्याओं और जरूरतों
को समझ कर उनके हल के लिए गंभीर प्रयास नहीं
करेगा,वह इस देश में टिकाऊ नहीं होगा
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सुरेंद्र किशोर
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जयप्रकाश नारायण,डा.राम मनोहर लोहिया,सोवियत संघ और चीन !
फिलहाल आज इन्हीं की चर्चा करूंगा।
चारों ने देश,काल, पात्र की जरूरतों के अनुसार अपनी नीतियां-रणनीतियां बदली हैं।
चारों अपने -अपने उद्देश्यों में काफी हद तक सफल रहे।
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पर,सवाल है कि जेपी,लोहिया,सोवियत संघ और चीन के भारतीय प्रशंसकों ने उनसे कितना कुछ सीखा ?
मुझे लगता है कि नहीं सीखा।
इसीलिए आज वे पूरे देश के स्तर पर निर्णायक नहीं है।
बल्कि इस देश की राजनीति में अभी तो भाजपा निर्णायक है।
कल क्या होगा,मैं उसकी भविष्यवाणी कैसे कर दूं ?
भविष्य जानता भी हूं,फिर भी नहीं करूंगा।
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जेपी से बात शुरू करता हूं।
जेपी पहले माक्र्सवादी थे।
समझते थे कि उसी से मानवता खास कर भारतीयों का कल्याण होगा।
पर,उन्होंने जब महसूस किया कि भारत की मिट्टी के लिए वह अनुकूल नहीं है तो वे पहले कांग्रेस और बाद में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े।
प्रथम चुनाव के बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास लेकर सर्वाेदय-भूदान ज्वाइन किया।
पर,जब सत्तर के दशक में उन्होंने महसूस किया कि इंदिरा गांधी की एकाधिकारवादी सरकार देश के लिए ठीक नहीं है तो छात्रों-युवकों के आंदोलन को सफल नेतृत्व दिया।
ऐसी आंधी चलाई कि पहली बार केंद्र की सत्ता से कांग्रेस का एकाधिकार टूट गया।
जो कुछ तब की जनता चाहती थी,जेपी उस चाह के स्वर बने।
क्या जेपी के आज के प्रशंसक-समर्थकगण आम जनता की वास्तविक चाह और जरूरतों की पहचान कर पा रहे हैं ?
लगता तो नहीं है।
वैसे इस सवाल का पक्का जवाब सन 2024 का लोस चुनाव रिजल्ट दे देगा।
कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति कहेगा कि सन 1977 की केंद्र की मोरारजी देसाई सरकार, पिछली कांग्रेस सरकार से बेहतर थी।
1977 में बिहार में बनी कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली जनता सरकार पिछली कांग्रेसी सरकार से बेहतर थी।
यदि जेपी अपनी पुरानी ही विचार धारा व कार्य प्रक्रिया से जुड़े रह जाते तो वह परिवर्तन नहीं करा पाते जैसा उन्होंने सन 1977 के ऐतिहासिक क्षणों में करा दिया।
कल्पना कीजिए कि तब के एक तानाशाह के सामने जेपी जैसे संत नहीं उठ खड़े होते तो इस देश का क्या होता ?
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अब डा.राम मनोहर लोहिया पर आते हैं।
डा.लोहिया पहले खुद अपनी सोशलिस्ट पार्टी वर्षों तक अकेले चलाते रहे।
सोपा और बाद की संसोपा तब सिद्धांत के पक्के लोगों की जमात थी जब तक लोहिया जीवित थे।
पर,अपने जीवनकाल में ही जब लोहिया ने यह महसूस किया कि अकेले हमारी पार्टी कुछ खास नहीं कर सकती,तो उन्होंने गैर कांग्रेसी दलों से तालमेल और गठबंधन की कोशिश शुरू की।
लोहिया के सहयोगी जार्ज फर्नांडिस कम्युनिस्टों से तालमेल के सख्त खिलाफ थे।
उन्होंने लोहिया से कहा कि यदि उनसे तालमेल करोगे तो अपना मुंह काला करा कर लौटोगे।
लोहिया ने जवाब दिया--यदि नहीं करोगे तो मुंह डबल काला होगा।
एक हद तक तालमेल हुआ और सन 1967 के चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी।
कांग्रेस जो खुद को अजेय समझती थी और अहंकारी हो चुकी थी,उसका मद लोहिया ने तोड़ दिया।
लोहिया का ही करिश्मा था कि 1967 के बिहार व उत्तर प्रदेश सरकारों में
जनसंघ और सी.पी.आई.के मंत्री एक साथ मिलकर काम कर रहे थे।
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सोवियत क्रांति में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी की युगांतरकारी उपलब्धि थीं।
उसने समानतावादी समाज बनाने की कोशिश की।
एक हद तक वे सफल भी हो गये।
पर,कई बार होता यह है कि पिछली दवाएं अनंत काल तक कारगर नहीं रहतीं।
वैसे में होश्शियार लोग दवाएं बदल लेते हैं।
रूस ही नहीं, चीन में भी यही हुआ।दवाएं बदली गयीं।
चीन में जब पूंजीवाद आया तो वहां की सरकार से सवाल पूछा गया।
उसने जवाब दिया कि हम समाजवाद की रक्षा के लिए पूंजीवाद अपना रहे हैं।
चीन ने एक काम और किया।उइगर के जेहादी मुसलमानों का उसने ऐसा दमन किया जैसा भारत के कम्युनिस्ट सोच भी नहीं सकते।
भारत के कम्युनिस्ट दल तो पश्चिम बंगाल व केरल में जेहादियों का विरोध करने का नाम तक नहीं लेते।बल्कि उन्हें वोट के लिए बढ़ावा देते हैं।
नतीजतन उन राज्यों में भी भाजपा जड़ें जमाने लगी है।
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काश ! भारत के सोवियत पक्षी कम्युनिस्ट, पहले के सोवियत संघ व बाद के रूस से तथा चीन पंथी कम्युनिस्ट चीन में आए परिवर्तनों से शिक्षा लेते तो उन दलों का यह हाल नहीं होता जो आज है।
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उसी तरह जेपी-लोहिया के आज के शिष्य समाजवादी के बदले व्यवहारवादी हो चुके हैं।
इस देश के कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों से पूछिए कि इस देश की तीन सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्याएं कौन सी है ?
वे वही बताएंगे जो बताते रहे हैं,उनमें असली तीन समस्याएं शामिल नहीं होंगी ं।
नतीजतन उनके भविष्य की कल्पना कर लीजिए।
भारत जैसे एक गरीब देश के लिए सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट एक समय जरूरी माने गये थे।
आज भी जरूरी होनी चाहिए थी।
पर,समस्याओं की पहचान व उसके उपाय में वे विफल रहे।जबकि इन दो संगठनों में एक से एक ईमानदार और निःस्वार्थी नेता व कार्यकर्ता रहे हैं।
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एक रोचक उदाहरण के साथ अपनी बात समाप्त करूंगा।
सन 1977 के चुनाव अभियान के दौरान जनता पार्टी के नेता -कार्यकर्ता गण इमरजेंसी के अत्याचारों और इंदिरा गांधी की तानाशाही की बातें अपनी चुनाव सभाओं में करते थे।
पर,दूसरी ओर ,सी.पी.आई.अक्सर अपनी चुनाव सभाओं में यह भी कहती थी कि दियो गार्सिया द्वीप में अमेरिका सैनिक अड्डा बना रहा है, उससे भारत को खतरा है।
1977 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस के साथ सी.पी.आई.की भी भारी पराजय हुई।
उसके बाद बिहार सी.पी आई की बैठक में एक जूनियर कामरेड ने अपने बड़े नेता पूछा--‘‘कामरेड,आजकल दियागो गार्सिया का क्या हाल है ?’’
बेचारे चुप रहे गये।
यह प्रकरण मुझे दैनिक ‘जनशक्ति’पटना के तेज-तर्रार संवाददाता शिवनारायण सिंह ने बताई थी।
बाद में वे दैनिक आर्यावर्त से जुड़े और हम पत्रकारों के नेता भी थे।
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कहानी का मोरल
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जब तक राजनीतिक दल व उनके नेता देश, काल, पात्र की वास्तविक जरूरतों-समस्याओं को समझ कर उनके समाधान का रास्ता नहीं ढूंढेंगे ,तब तक
.........थोड़ा कहना,बहुत समझना !!!
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7 सितंबर 23
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